नाका गुरुद्वारा, यह ऐतिहासिक गुरुद्वारा नाका हिण्डोला लखनऊ में स्थित है। नाका गुरुद्वारा साहिब के बारे में कहा जाता है कि राय बहादुर सरदार सालिगराम सिंह जी ने सन् 1898 में नाका गुरुद्वारा साहिब की स्थापना की, आप ही उसके मुख्य सेवादार बने और लगातार उम्र के आखरी समय तक सेवा करते रहे।
नाका गुरुद्वारा हिस्ट्री इन हिन्दी
एक सवाल उठा कि सरदार सालिगराम जी ने इस जगह पर ही गुरुद्वारा क्यो बनाया? तब कुछ पुरानी किताबों में खोज की गई, क्योंकि इस साल 2018 ई. में इस गुरुदारा में सालाना समागम मनाया जा रहा था। कुछ इतिहास ढूंढना चाहा। बहुत सी पुरानी किताबों में छोटी सी पुस्तक ” गुरुद्वारा गवारी घाट का संक्षिप्त इतिहास” (जबलपुर) लेखक भाई जसबीर सिंह जी ( साबका सिंह साहिब) श्री दरबार साहिब, श्री अमृतसर जी, प्रकाशक गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, ग्वारीघाट जबलपुर मिली। जिसमें उन्होंने गुरुनानक देव जी की पहली यात्रा का जिक्र किया और उन्होंने गुरु जी के लखनऊ आने का जिक्र किया है। खोज करने पर प्रो. साहिब सिंह जी, डी. लिट. अपनी पुस्तक ‘ जीवन वृत्तांत श्री गुरुनानक देव जी” में लिखते है कि श्री गुरुनानक देव जी सन् 1508 में हरिद्वार में थे और कार्तिक सन् 1508 में अयोध्या में थे, बीच के छः महीनों का वर्णन करते हुए उन्होंने नानकमत्ता, अल्मोड़ा, रीठा साहिब, रुहेलखंड में रहने का उल्लेख किया है। भाई जसबीर सिंह जी ने पीलीभीत और सीतापुर का जिक्र किया है।
गुरुद्वारा नाका हिण्डोला लखनऊयूनिवर्सिटी ऑफ दिल्ली की पुस्तक ‘ गुरु नानक निरंकारी’ प्रकाशक पंजाबी बुक स्टोर, पहाड़गंज, नई दिल्ली के अनुसार पृष्ठ संख्या 37 पर लखनऊ और कानपुर का भी जिक्र किया है। इसी तरह एक पुस्तक “इतिहास गुरु खालसा” लेखक गोविंद सिंह निर्मल उदासी, जिसका अनुवाद और संपादन सरदार प्रिथीपाल सिंह कपूर ने किया है और सिंह ब्रदर्स बाजार माई सेवा, श्री अमृतसर ने 1991ई. में छापी है। उसमें भी लखनऊ और कानपुर का जिक्र आया है।
गुरु नानक देव जी काकोरी से चलकर इधर से निकलते हुए कुछ समय रूके तभी तो बाबा हजारा जी ने उस स्थान को छोड़कर इसी खास स्थान पर अपना डेरा जमाया।
सरदार सालिकराम सिंह जी ने लखनऊ गगनी शुक्ल का तालाब (मॉडल हाउस) लखनऊ में जब निवास किया तब उन्होंने गुरु नानक देव जी के इस स्थान को प्राप्त करके यहां नाका गुरुद्वारा साहिब स्थापित किया और स्वयं प्रधान बनकर इस स्थान की सेवा प्रारंभ की।
राय बहादुर सरदार सालिगराम जी ने अपने स्वभाव अनुसार संगत प्राप्त करनी चाही क्योंकि वो सत्संगी और गुरुनानक देव जी के बेहद श्रृद्धावान थे। उस समय लखनऊ में कही और कोई सिख संगत नहीं थी। लिहाजा उन्होंने चौपटिया में संदोहन देवी उदासी संगत भेजना शुरू किया। उस समय संदोहन देवी के मुखिया उदासी संगत के मुखिया स्वामी त्रिवेणी दास जी थे। उन्होंने रायबहादुर जी को गुरु नानक देव जी के इस स्थान के बारे में बताया। तब सरदार सालिगराम जी ने फौरन यह स्थान नजूल से अपने नाम पर प्राप्त किया और इस स्थान पर गुरुद्वारा स्थापित किया। जिसकी नीवं भी स्वामी त्रिवेणी दास के हाथों रखवाई गई और वे ही इसके मुख्य सेवादार बन गए। सरदार सालिगराम सिंह जी आखरी समय तक यहां के प्रधान की हैसीयत से काम करते रहे। उनकी मृत्यु के बाद संगत ने सिंह सभा के नाम से इस संस्था को चलाना शुरु किया।
इस सब से यह ज्ञात होता है कि नाका गुरुद्वारा बहुत ही पवित्र स्थान है। क्योंकि यह स्थान गुरुनानक देव जी से संबंधित है। यह सारी खोज इस बात को साबित करती है कि यह गुरुद्वारा जिसको श्री गुरु सिंह सभा लखनऊ के नाम से भी जाना जाता हैं। इस स्थान पर श्री गुरुनानक देव जी महाराज के पवित्र चरण पड़े थे और यह ऐतिहासिक गुरुदारा है।
नाका गुरुद्वारा साहिब में गुरुनानक देव जी की वाणी का प्रवाह निरंतर चलता रहता है। तथा लंगर चलता रहता हैं, एवं बाहर से आये यात्रियों के लिए ठहरने की भी उत्तम व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक महीने की संगरांद (प्रारंभ) में शाम को विशेष समागम होता है। तथा लंगर वितरण होता है। नाका गुरुद्वारे में सभी दसों गुरुओं के प्रकाशोत्सव, वैसाखी पर्व, गुरु अर्जुन देव जी का शहीदी पर्व, श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाशोत्सव, इसके अलावा भक्त कबीर की जयंती तथा भक्त रविदास जी की जयंती आदि बडी धूमधाम से मनाई जाती है तथा लंगर वितरण का आयोजन होता है।
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