नवाब सफदरजंग अवध के द्वितीय नवाब थे।लखनऊ के नवाब के रूप में उन्होंने सन् 1739 से सन् 1756 तक शासन किया। इनका पूरा नाम नवाब अलमंसूर खां सफदरजंग था। इनके वालिद जाफरबेग खां थे। इनका जन्म 1708 ई में हुआ था। इनके शासन काल में लखनऊ ने नई बुलंदियों को छूआ।
नवाब अलमंसूर खां सफदरजंग का आदिनाम मिर्जा मुहम्मद मुकीम था। वह जाफरबेग खां और अवध के प्रथम नवाब सआददत खां बुर्हानुलमुल्क की सबसे बड़ी बहन का दूसरा पुत्र था। नवाब सफदरजंग के वालिद जाफरबेग खां कुरायूसुफ का वंशज था, जो कुराकोनीलो जाति का तुर्क और ईरान के अज़रबैजान में तबरीज़ का शासक था। कुरायूसुफ मातृपक्ष से अपनी वंशावली ताऊस से मिलता था जो दूसरे इमाम हसन का वंशज था। उसको अपने देश से भारत के बाबर और अकबर के प्रख्यात पूर्वज अमीर तैमूर ने ( 1369-1405 ई° ) निर्वासित कर दिया था। तैमूर के द्वितीय पुत्र शाहरुख मिर्जा के शामन काल में कुरायूसुफ के पुत्र जहानशाह ने तबरीज़ पर पुन: अधिकार कर लिया जिसके वंशज अपनी पैतृक राज्य पर शासन करते रहे जब तक कि शाह अब्बास प्रथम (1582-1627 ई० ) के समकालीन मंसूर मिर्जा से उसके राज्य का अपहरण उस ईरानी राजा ने न कर लिया। अब्बास महान मिर्जा को अपनी राजधानी में लाया, उसको निशापुर के कस्बा में वास करने का आदेश दिया ओर उसके गुजारा के लिये जागीर दी। कहा जाता है कि नवाब सफदरजंग का वालिद जाफरबेग खां, मंसूर मिर्ज़ा की छठी पीढ़ी में था।
नवाब सफदरजंग की किशोर अवस्था वा शिक्षा दीक्षा
जाफरबेग खां को अपनी कई बीबीयों में से सआदत खां बुर्हानुलमुल्क की बहिन पर अधिक प्रेम था। उससे उसके दो पुत्र हुये, मिर्जा मुहसिन और मिर्जा मुहम्मद मुकीम (नवाब सफदरजंग )। जब नवाब सफदरजंग 6 मास का था और उसका बढ़ा भाई केवल 4 वर्ष का तो उनकी वालिदा उन्हें अपने शौहर की देखरेख में छोड़ कर इस दुनिया से चल बसी। अतः दोनों बालकों का पालन पोषण सआदत खां की दूसरी बहन ने किया, जो नवाब सआदत खां के चाचा मीर मुहम्मद यूसुफ के पुत्र मीर मुहम्मद शाह को ब्याही थी। उसके घर में पलकर अलमंसूर खां सफदरजंग वीर और होनहार बालक हो गया।
अलमंसूर खां सफदरजंग उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तित्व था। सआदत खां बुर्हानुलमुल्क के जीवन काल में और उनके पीछे सरल और प्रवाहात्मक शैली में लिखे हुए उसके पत्र फारसी भाषा पर सफदरजंग की अच्छी पकड़ का संकेत देते है। मुर्तजा हुसैन खां जो उसको बहुत अच्छी तरह जानता था। ऐसे समकालीन 1731 ई° के पहले ही उसके प्रसन्न और गंभीर स्वभाव, संस्कृति, प्रकृति और उत्कृष्ट रूची को साक्षी देते है, जिससे उनके बचपन के उत्तम लालन पालन का पता चलता है। यह लगभग निश्चित ही मालूम होता है कि यद्यपि वह सिद्ध विद्वान न हो तब भी अपने जन्म के देश में अध्ययन समाप्त करने के बाद ही अलमंसूर खां सफदरजंग भारत आया था।
हमारे पास ऐसी कोई सामग्री नहीं है जिससे पता लग सके कि नवाब सफदरजंग ने अपनी किशोर अवस्था में ईरान में कौन से सैनिक गुण अर्जित किये थे। परन्तु मध्य युग की और सब शताब्दियों के समान 18वीं सदी भी ऐसा काल था, जब सैनिक योग्यता उन लोगों के लिये भी आवश्यक समझी जाती थी जो नागरिक सेवा या जीवन के नागरिक धंधों में लगे हुए थे। मिर्जा मुकीम इस नियम का अपवाद नहीं हो सकता था क्योंकि उसकी किशोर अवस्था ईरानी इतिहास के एक संकट काल में व्यतीत हुई थी।
नवाब अलमंसूर खां सफदरजंग का भारत आगमन
जब सफदरजंग करीब 15 वर्ष का था। उसके मामा अवध के नवाब सआदत खां बुर्हानुलमुल्क ने उसको निशापुर से बुला लिया। नवयुवक अप्रैल 1723 में सूरत उतरा। और 700 मील की लंबी यात्रा करकेफैजाबाद पहुंचा। चूंकि वह बुद्धि और हृदय के उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न था, सआदत खां ने अपने भाई के पुत्र निसार मुहम्मद खां शेरजंग की अपेक्षा अपनी ज्येष्ठ कन्या सदरूनिशां उर्फ नवाब बेगम उससे ब्याह दी। तब नवाब ने उसको अपना नायब नियुक्त कर दिया। और बादशाह मुहम्मद शाह से उसके लिए अलमंसूर खां की उपाधि प्राप्त की।
नवाब सफदरजंग
अवध के उपराज्यपाल की हैसियत से (1724-1739 ई•) अलमंसूर खां के लिए आवश्यक था कि वह नागरिक व सैनिक धंधों से परिचित हो जाये। जिससे वह पर्याप्त प्रशासनीय अनुभव प्राप्त करने के योग्य हो गया। इससे उसको बहुत लाभ हुआ, तब वह अपने मामा और ससुर का राज्यपाल के पद पर उतराधिकारी हुआ। नवाब सआदत खां बुर्हानुलमुल्क उसको अपना पुत्र समझता था। उसने उसको अपना उत्तराधिकारी नामजद कर दिया और प्रांत के प्रशासन में उसको अपने संग ले लिया। उसकी परिपालक देखरेख में और सुयोग्य धनाधिकारी आत्माराम की देखरेख में अलमंसूर खां ने शासन की जटिलताओं को सिख लिया। नागरिक और सैनिक प्रशासन का इतना व्यावाहरिक ज्ञान प्राप्त कर लिया कि अपने शासन के अंतिम वर्षों में नवाब सआदत खां बुर्हानुलमुल्क ने शासन का पूरा भार उसके उपर छोड़ दिया। और अपने समय का अधिकांश भाग दिल्ली की राजनीति में व्यतीत किया।
अवध का नवाब
19 मार्च 1739 को नवाब सआदत खां बुर्हानुलमुल्क की मृत्यु के पश्चात अवध के राज्यपाल के लिए थोड़ा सा विवाद हुआ। दो उम्मीदवारों में पद के लिए झगड़ा हुआ शेरजंग और अलमंसूर खां सफदरजंग। क्योंकि दोनों ही मृतक के निकट के रिश्तेदार थे। नवाब सआदत खां के बड़े भाई के पुत्र मुहम्मद खां शेरजंग ने नादिरशाह को याचना पत्र दिया जिसमें उसने प्रार्थना की कि शाह कृपा करके मुहम्मद शाह से सिफारिश कर दे, और विनम्रता से प्रतिपादन किया कि जब तक मृतक नवाब के भाई का पुत्र और उसके गौरव पद का वारिस उपस्थित हैं रिक्त स्थान अलमंसूर खां सफदरजंग को न दिया जाए। जोकि केवल बुर्हानुल्मुल्क की बहन का पुत्र है।
उधर अलमंसूर खां सफदरजंग ने भी अपनी और से दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह को एक पत्र भेजा। इसके अलावा द्विगंत सआदत खां बुर्हानुलमुल्क स्वामी भक्त और वंशगत शाही दरबार में वकील लक्ष्मीनारायण ने और ईरानी वजीर अब्दुल बाकी खां ने भी अलमंसूर खां सफदरजंग के पक्ष में पत्र लिखा। उनका तर्क यह था कि ससआदत खां के पद और सम्पत्ति का वारिस न अलमंसूर खां था और न शेरजंग। परंतु यदि दोनों उम्मीदवारों में से किसी एक का चुनाव करना हो तो यह न भूलना चाहिए कि सआदत खां बुर्हानुलमुल्क शेरजंग से ज्यादा खुश न थे। और उन्होंने अपनी सबसे प्रिय कन्या का विवाह शेरजंग से न कर अलमंसूर खां से किया था। यद्यपि शेरजंग उसका अधिक निकट का नातेदार था। परंतु उसकी अपेक्षा अलमंसूर खां अधिक योग्य था। इसके अतिरिक्त अलमंसूर खां सफदरजंग ने मुहम्मद शाह को अपनी नियुक्ति के लिए दो करोड़ रूपये भी दिए। सभी पक्ष देखते हुए दिल्ली के बादशाह ने अलमंसूर खां को ही अवध का नवाब नियुक्त कर दिया। और सफदरजंग की उपाधि दी। और मामा की सभी जागीरें उसे सौंप दी।
सल्तनत के वजीर की उपाधि
अब्दाली आक्रांत के विरुद्ध अपने पुत्र के प्रस्थान के कुछ दिन बाद बादशाह मुहम्मद शाह की बिमारी ने उग्र रूप धारण कर लिया। दिल्ली किले के मोती महल में 25 अप्रैल 1748 को उसकी मृत्यु हो गई। मलिका ने पत्र द्वारा बादशाह की मृत्यु का समाचार अपने पुत्र के पास भेजा और अति शिघ्र दिल्ली लौटने को बोला। अहमद शाह बहादुर को पानीपत के ऐतिहासिक नगर के पास अपने शिविर में 28अप्रैल को यह खत मिला। सफदरजंग की राय से उसने अपना राज तिलक उसी दिन करवा लिया। और मुजाहिदीन अहमद शाह बहादुर गाजी की उपाधि की। नये बादशाह ने अलमंसूर खां सफदरजंग को वजीर पद सौंप दिया। और इस तरह सफदरजंग मुग़ल साम्राज्य के वजीर बन गये। वजीर रहते हुए सफदरजंग ने मुग़ल साम्राज्य की और से अनेक युद्ध लड़े, और बादशाह अहमद शाह बहादुर के कंधे से कंधा मिलाकर चला। युद्ध में अहमद शाह बहादुर की हार और उसके गद्दी से उतर जाने पर सफदरजंग अवध वापस आ गया।
नवाब सफदरजंग की मृत्यु
नवाब सफदरजंग की मृत्यु टांग में फोड़ा निकल आने के कारण हुई। यह फोड़ा धीरे धीरे नासूर बन गया। अनुभवी और निपुण चिकित्सक उसको अच्छा करने के यत्नों में हार गए। और गोमती के किनारे पापड़ घाट पर 5अक्टूबर 1754 उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के पश्चात उसका शव दिल्ली लाया गया और शाहेमर्दा की कब्र के पास दफनाया गया। उसके पुत्र शुजाउद्दौला ने जो उसके बाद अवध का नवाब बना उसकी कब्र पर एक मकबरा बनवाया। इस मकबरे में तीन लाख रूपये लागत आई थी और यह मकबरा भारत में अपनी तरह के अति सुन्दर भवनों में से एक है। जो आज भी भारत की राजधानी दिल्ली में उसी शान से खड़ा है। और सफदरजंग का मकबरा के नाम से प्रसिद्ध है। बड़ी संख्या पर्यटक इसे देखने आते हैं।