नवाब वाजिद अली शाह कौन थे – वाजिद अली शाह का जीवन परिचय
Naeem Ahmad
नवाब वाजिद अली शाहलखनऊ के आखिरी नवाब थे। और नवाब अमजद अली शाह के उत्तराधिकारी थे। नवाब अमजद अली शाह की मृत्यु के पश्चात 12 फरवरी सन् 1847 को अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने हुकूमत की लगाम अपने हाथों में थाम ली। नवाब वाजिद अली शाह का जन्म जून 1821 ई० अर्थात 10 जीकादहिजरी 1237 तदानुसार श्रावण शुक्ल की 12 सम्वत 1878 इंन्द्रयोग 57 घड़ी 39 पल दिन मंगलवार को हुआ था।
नवाब वाजिद अली शाह का जिस दिन राज्याभिषेक होना था उसी दिन ही अपशकुन हो गया। तख्त तक पहुँचने के लिए जो जीना बना था वही टूट गया अमीरुद्दौला, मीर मेंहदी अली खाँ और नवाब अली नकी खाँ तसवीह फेरते हुए कमरे में आये। नवाब ने कमरे में प्रवेश करने के बाद नमाज पढ़ी। फिर ताज लाया गया उसके बाद रेजिडेन्ट ने घोषणा की कि नवाब वली अहद बादशाह मुकर्र हुए। बादशाह वाजिद अली शाह हुस्न के पुजारी थे। स्लीमन साहब लिखते हैं, उनकी माता मलिका किश्वर की एक निहायत खूबसूरत बाँदी थी। एक दिन बादशाह की निगाह उसके चेहरे पर पड़ी और वह उसके दीवाने हो गये। मल्का किश्वर इस बाँदी को बहुत चाहती थी और उसे हमेशा अपने साथ रखती, यहाँ तक कि बाँदी मलिका किश्वर के साथ ही सोती थी। किश्वर उसे अपने से अलग नहीं करना चाहती थीं।
उन्होंने एक उपाय सोचा– एक दिन नवाब से कहा कि यह औरत सांपू है। ऐसी औरत के साथ यदि तुम रहे तो खानदान नष्ट हो जाएगा। सांप से तात्पर्य है गले में पीछे की तरफ साँप के सदृश घुमे हुए केश। इस तरह के केश प्रायः सभी स्त्रियों के होते हैं मगर मलका किश्वर ने कुछ इस ढंग से कहा कि नवाब के होश फाख्ता हो गये। उनको सनक सवार हुई कि शायद उनका स्वास्थ्य साँप औरतों के साथ रहने के कारण ही खराब हुआ है। बस उन्होंने हर बेगम की जाँच शुरू कर दी, बेगम खास महल को छोड़ कर। अब तो बड़ी आफत हो गयी ऐसे सर्पाकार केश सुलेमान महल, दारा बेगम, हजरत बेगम, निशात महल, हजरत महल, खुर्शीद महल, छोटी बेगम, बड़ी बेगम सभी में मिले फिर क्या था बादशाह ने इन सबको तलाक देने की इच्छा जाहिर की और आदेश दिया कि वे सब महल छोड़ कर चली जायें।
इसी बीच कुछ लोगों ने बादशाह से कहा क्यों न एक बार हिन्द पडितों से पूछा जाए ? खेर वह भी हुआ। पण्डितों ने कह दिया कि उस सर्पाकार जगह को गर्म दहकते लोहे से दाग दिया जाए तो इससे यह दोष खत्म हो जाएगा। बाकी छः बेगमों ने तो यह करवाने से साफ इनकार कर दिया मगर बड़ी और छोटी बेगम राजी हो गयी। जिन लोगों को दागना था उन्हें पैसे देकर बेगमों ने अपनी ओर मिला लिया। अब सारी बेगमों ने साजिश बना कर शर्ते मंजूर कर ली। इस कहानी को खत्म कर दिया गया। मलका किश्वर की इस युक्ति से ऐसी विकट समस्या उत्पन्न हो गयी थी। फिर भी उनकी प्रिय बाँदी तो बच गयी यही सोचकर उन्होंने चेन की साँस ली।
नवाब वाजिद अली शाह
नवाब नाच-गाने के बड़े शौकीन थे। वह इन्द्रसभा के रचयिता थे और खुद इन्द्र बनते थे। रासलीला के वक्त माहरुफ परी कन्हैया बनती थी ओर सुल्तान परी राधा। नवाब कलाकारी को बड़ी अहमियत देते थे। नवाब वाजिद अली शाह ने जिस तरह तमाम समस्याओं से घिरे रहने के बाद भी अवध का शासन सम्भाला वह एक मिसाल है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों के प्रति ही समान दृष्टि रखना, हिन्दुओं के त्योहारों में भी बाकायदा खुद ही हिस्सा लेना उनकी समान दृष्टि का उदाहरण है।
सर जेम्स वेयर हाँग को 28 अक्टूबर, 1825 को सस्लीमन ने एक खत लिखा कि नवाब अपने को सबसे अच्छा बादशाह और सबसे अच्छा शायर समझता है। इसी प्रकार सर जेम्स को दूसरा खत 2 जनवरी, 1856 को लिखा था कि– होली के त्योहार पर (मैंने उसे) कई बार अपने गले में ढोल बाँध कर घूमते फिरते देखा। वह लखनऊ का सबसे बड़ा ढोलकिया बनना चाहता है। स्लीमन महोदय के नवाब के सम्बन्ध में जो ख्यालात रहे वह एकदम गलत थे। उसे क्या मालूम कि नवाब के इन कार्यों में भी एक इन्सानियत छपी हुई है। उनमें हिन्दू धर्म के प्रति भी वही आदरभाव निहित था जो मुस्लिम धर्म के प्रति। स्लीमन तो नवाब के हर काम में ऐब ढूँढ़ रहे थे तो अच्छाई कहाँ से नज़र आए।
कम्पनी सरकार की आँखों में नवाब वाजिद अली शाह खटक रहे थे। वह उन्हें किसी भी तरह से हटाना चाहती थी। कम्पनी सरकार 1837 की सन्धि को ठुकरा कर पुनः 1801 की सन्धि पर आ गयी, जिसके अन्तर्गत बादशाह से दीवानी तथा सैनिक शासन पूरी तरह से ले लिया गया और रियासत की आमदनी में से जो रकम बचती वही ही बादशाह को गुजारे के लिये मिलती।
बाद में बेरहम कम्पनी सरकार ने उन्हें गद्दी ही छोड़ने का आदेश दे दिया। आउट्रम साहब बड़ी ही कृपा दृष्टि नवाब पर रखते हुए उन्हें समझाने गए कि हम दिल्ली के बादशाह को सिर्फ एक लाख रुपया सालाना पेंशन दे रहे हैं, लेकिन आपको 2 लाख रुपये सालाना पेंशन और 3 लाख रुपया नौकरों पर होने वाला खर्च भी देंगे यानी कि 5 लाख। आप दिलकुशा कोठी में रहें साथ ही 7 (सात) मकान और ले लें- रमना कोठी, दिलकुशा, सिकन्दर बाग, शाह मंजिल बादशाह बाग, खुर्शीद मंजिल, मुबारक मंजिल। आपके खानदान की तनख्वाह भी कम्पनी देगी। जब तक आप जिन्दा रहेंगे आपका बादशाह का खिताब भी चलेगा। आपके बाद उत्तराधिकारी को केवल 2 लाख रुपया ही पेंशन मिलेगी।
4 फरवरी, 1856 को कम्पनी के रेजिडेन्ट जनरल आउट्रम सुबह आठ बजे जर्द महल गए और अब्दुल मुजफ्फर नसिरुद्दीन सिकन्दर शाह बादशाहे आलिद, कैसरे-जमाँ, सुल्ताने आलम नवाब वाजिद अली शाह को सूचना दी कि “अवध की आवाम पर एक अच्छे शासन के विचार से प्रेरित होकर कम्पनी सरकार ने शासन अपने अधिकार में ले लिया है।
नवाब को अपने अन्तिम दिनों में बड़ा कष्ट उठाना पड़ा। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर कलकत्ता भेज दिया था। जहाँ तमाम यातनाएँ दी गयीं। नवाब ने 32 घण्टे तक खाना न खाया। मजबूर होकर बड़े लाट ने घर से नवाब को खाना मंगाने की इजाजत दे दी। एक अंग्रेज सिपाही ने खाने तक की तलाशी ली। नवाब ने उस खाने को भी ठुकरा दिया। 48 घण्टे तक उनके पेट में अनाज का एक दाना तक न गया।
नवाब वाजिद अली शाह को जेल में ऐसी जगह रखा गया था कि जहाँ सड़न, बदबू और मच्छरों का साम्राज्य था। गोरे सिपाही तरह-तरह के अपशब्द कहते थे–रात में पहरा देते समय कहते तुम सोता है या मर गया।’ दस दिनों तक नवाब पर बड़ी सख्ती रही। नवाब के चाहने वालों ने बड़ी कोशिशें की कि उन्हें किसी अच्छी जगह रखा जाए इतनी यातना न दी जाए। इसके लिए मौलवी मसीहुद्दीन लन्दन तक गए। तब कहीं उनको किले के भी तह ही बनी एक कोठी में रहने की इजाज़त मिली। 9 जुलाई, शनिवार 1859 को बादशाह जेल से रिहा होकर घर तशरीफ़ लाये।
नवाब वाजिद अली शाह के पास अब बचा ही क्या था? उनके खानदान के तमाम लोग लखनऊ में दहकी जंगे आज़ादी की लड़ाई में शहीद हो गए थे। जब वह जेल से छुटकर आए उनका शरीर खोखला हो चुका था। 17 जुलाई, 1859 को उन्होंने एक ख़त मुमताज महल के नाम भेज– “अल्लहमदुल्लिलाह’ कि तुम्हारी कल्बी कबूल हुई। मुसर्रत जावेद हुसूल हुई। यानी जुलाई की सातवीं तारीख हफ्ते के दिन बलाए नागहानी आफत आसमानी से नजात पाके अपने परोदगाह कदीम में आयें। उस दिन को शबे मेराज ऐशोनिशात कहना बजा है और ईद इशरत हमाबिसात समझना रवा है। और नवाब वाजिद अली शाह का 75 साल की उम्र में इन्तकाल हो गया।