नवाब आसफुद्दौला– यह जानना दिलचस्प है कि अवध (वर्तमान लखनऊ) के नवाब इस तरह से बेजोड़ थे कि इन नवाबों को उनके युद्धों और जीत के लिए उतना नहीं जाना जाता था, जितना कि उन्होंने अद्वितीय अवधी संस्कृति को अपनाया था। अवध के नवाबों के युग को उस विशिष्ट व्यंजन के लिए जाना जाता है जिसे उन्होंने जन्म दिया और वास्तुकला को पीछे छोड़ दिया। और जिस नवाब ने इस शहर को उत्तरभारत के नक्शे पर मोती के रूप में उभारा, वह अवध का चौथा नवाब है नवाब आसफुद्दौला।
नवाब आसफुदौला का जीवन परिचय
नवाब आसफुद्दौला का जन्म 23 सितंबर सन् 1748 कोफैजाबाद में हुआ था। नवाब आसफुद्दौला अवध के चौथे नवाब थे, उन्होंने सन् 1776 से सन् 1797 तक नवाब के रूप में शासन किया। नवाब आसफुद्दौला अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला के सबसे बड़े बेटे और अपनी मां ‘बहू बेगम’ की इकलौती संतान थे।
नवाब का बचपन भव्य और शानदार नवाबी वातावरण में बीता, जिसने उन्हें काफी बिगड़ैल बच्चा बना दिया। नवाब के शिक्षक सराफुद्दौला ने उसे नवाब के योग्य बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन उस समय नवाब इस हद तक खुद को नहीं सुधार सके। हालाकि जब वह छोटा था तो अपनी माँ से बहुत लाड़-प्यार करता था, उसके बाद के वर्षों में नवाब के अपनी माँ और दादी के साथ अच्छे संबंध नहीं थे। अक्सर, वह अपनी माँ से अपने पिता द्वारा छोड़े गए खजाने का पूरा स्वामित्व माँगता था, लेकिन उसकी माँ ने हर बार मना कर दिया। इससे असहमत होकर वह लखनऊ में रहने लगा और इस प्रकार 1775 में उसने अवध प्रांत की राजधानी को फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित कर दिया। जब वह लखनऊ चले गए तो उन्होंने शहर और उसके आसपास प्रसिद्ध बड़ा इमामबाड़ा सहित विभिन्न स्मारकों का निर्माण किया।
नवाब शुजाउद्दौला के बाद आसफुद्दौला गद्दी पर बैठे। हुकमत संभालते ही अनेक मुसीबतें उनके चारों ओर खड़ी हुईं। वारेन हेस्टिग्स ने नवाब साहब को सूचना भेजी कि शुजाउद्दौला के साथ की गयी सन्धि अब टूट गयी है, अतः उन्हें पुनः एक नई सन्धि करनी होगी। नवाब आसफुद्दौला को अंग्रेजों की यह शर्त माननी ही पड़ी और 21 मई सन् 1775 को एक नई सन्धि हो गयी।इसके मुताबिक नबाव साहब को 50 लाख रुपये नकद कम्पनी को देना था। इस मुद्दे पर नवाब साहब ने अपने वजीर मुख्तियारुद्दौला से मश्विरा किया और 50 लाख रुपये नकद देने के बदले में बनारस का इलाका कम्पनी सरकार को दे दिया। यह एक तरह से अंग्रेजों की सबसे बड़ी सफलता थी। उनको 25 लाख रुपये अतिरिक्त का मुनाफा हुआ क्योंकि बनारस से नवाब साहब को 75 लाख रुपये सालाना की आमदनी होती थी।
उधर अवध में मौजूद कम्पनी की सेना का बोझ नवाब का सिरदर्द बना ही था ऊपर से उन पर सेना की देखरेख के लिए 50,000 रुपए माहवार का खर्च और थोप दिया गया। 5 दिसम्बर 1775 की सन्धि से नवाब साहब बड़े त्रस्त थे और अक्सर कम्पनी सरकार इनसे कुछ न कुछ माँगा करती थी। झल्लाकर उन्होंने वारेन को एक खत लिखा कि “अब तो दम घुट रहा है आपकी माँग रोज बढ़ती ही जा रही है।
अन्त में 11 सितम्बर सन् 1781 में चुनार किले में नवाब साहब और वारेन हेस्टिंग्स की मुलाकात हुई। 19 सितम्बर 1781 में एक और नई सन्धि हुई जिसके मुताबिक कम्पनी को सेना घटानी थी। मगर कम्बख्त हरामखोर कम्पनी सरकार नवाब पर से अपनी सेना का भार कम करने की बजाय और बढाने के मौके की तलाश में थी।
फरवरी सन् 1747 से सितम्बर 1783 तक कम्पनी ने 2 करोड़ 30 लाख रुपया नकद छीना। सन् 1786 में जब लार्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आए तब जाकर अल्प समय के लिए नवाब आसफुद्दौला ने थोड़ी राहत की साँस ली। कार्नवालिस के बाद सर जान शोर अस्थायी गवर्नर जनरल हुआ। जान शोर बड़ा ही बेरहम इंसान था आते ही उसने नवाब साहब को एक यूरोपियन पल्टन और एक देशी पल्टन रखने को कहा।
नवाब साहब के तत्कालीन वजीर महाराजा झाऊलाल थे उन्होंने इतना बड़ा बोझ उठाने से इनकार कर दिया क्योंकि नवाब आसफुद्दौला के पास अब इतना पैसा नहीं बचा था कि यह अतिरिक्त खर्च वहन कर सके। काफी पैसा नेक दिल नवाब ने सन् 1783 में पड़े भयंकर अकाल के वक्त इमामबाड़ा व रूमी दरवाजा बनवाने पर खर्चे किया था।
नवाब आसफुद्दौलाझाऊलाल के इनकार करने पर उन्हें कैद कर लिया गया। नवाब साहब को जान शोर ने कानपुर बुला भेजा एवं जबरन उनको यह अतिरिक्त भार वहन करने पर मजबूर किया। इस अपमान के कारण नवाब साहब को बड़ी ठेस पहुँची वह इसे बर्दाश्त न कर सके और उनका 1797 में इंतकाल हो गया।
इमामबाड़े का निर्माण नवाब आसफुद्दौला
1784 में अवध की धरती पर भयंकर सूखा पड़ा था। आपदा के कारण लोगों का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। नागरिक के पास जीवित रहने के लिए कमाने का कोई साधन नहीं था। उन दिनों अवध के लोग बहुत गर्व से रहते थे और सभी लोग भिक्षा स्वीकार नहीं करते थे। इस प्रकार, उन्हें रोजगार का एक स्रोत प्रदान करने के लिए, नवाब ने लखनऊ में इमामबाड़े के निर्माण का आदेश दिया – जिसे बड़ा इमामबाड़ा या आसफ़ी इमामबाड़ा के नाम से जाना जाता है। यह अधिनियम नवाब आसफुद्दौला की उदारता का एक आदर्श उदाहरण था।
नवाब आसफुद्दौला को इच्छा थी की एक ऐसी इमारत बनाई जाएं जो संरचना और डिजाइन में अद्वितीय हो, इसके लिए नवाब ने पूरे भारत के वास्तुकारों को बुलाया। तथा तथा भवन निर्माण योजनाओं की प्रतिस्पर्धा रखी गई। जिसमें बड़ी दूर दूर के वास्तुकार और शिल्पियों ने भाग लिया तथा अपनी अपनी योजनाएं नवाब को सामने रखी। यहां एक प्रसिद्ध वास्तुकार किफ़ायत उल्लाह थे, जिनके डिजाइनों को स्वीकार किया गया था और जिसके परिणाम स्वरूप एक ऐसी इमारत बन गई, जो भव्यता और गूढ़ वास्तुकला के हर स्तर पर उत्कृष्ट थी। पुराने लखनऊ में हुसैनाबाद की व्यस्त सड़क पर शांति से खड़े इमामबाड़े में पूरे साल घरेलू और विदेशी पर्यटकों की बड़ी भीड़ देखी जाती है, हालांकि सर्दियों के मौसम में अधिक।
इमारत की दूसरी मंजिल में प्रसिद्ध ‘भूल भुलैय्या’ नामक एक भूलभुलैया है। भूलभुलैया में 1000 से अधिक मार्ग शामिल हैं, कुछ आखिर छोर तक ले जाते हैं, कुछ अचानक गहरे जाते हैं और कुछ प्रवेश और निकास बिंदुओं तक जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इमामबाड़े में प्रवेश करने पर दुश्मनों को भ्रमित करने के लिए इसे ढाला गया था। भूल भुलैया से निकलने का रास्ता नवाब और वास्तुकार किफायत उल्लाह को ही पता था।
यहां एक पांच मंजिला बावड़ी भी है, जिसे शाही बावली या शाही हम्माम (शाही स्नानागार) के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में, केवल दो कहानियां दिखाई दे रही हैं क्योंकि शेष तीन पानी के नीचे डूबी हुई हैं। एक कहावत है कि ‘दीवारें भी सुन सकती हैं’ और यह शानदार वास्तुकला इसे सच साबित करती है। हॉल की दीवारों को इस तरह से बनाया गया है कि अगर आप एक हॉल में माचिस या फुसफुसाते हैं तो भी आवाज दूसरे हॉल में गूँजती है।स्मारक के भीतर नवाब आसफ-उद-दौला की दरगाह भी स्थित है। इमामबाड़ा परिसर को बनाने में 6 साल 22000 लोगों का समय लगा था।
जिसको ना दे मौला उसे दे आसफुद्दौला
नवाब आसफुद्दौला एक चीज के लिए प्रमुख रूप से जाने जाते हैं, वह है उनका बेहद दयालु और परोपकारी स्वभाव। हर दिन सुबह वह नियमित रूप से निराश्रित और उजाड़ लोगों को भिक्षा देते थे। एक दिन की बात है उसने एक फकीर को गाते हुए सुना “जिसको ना दे मौला उसको दे आसफुउद्दौला ” नवाब खुश हुआ, उसने फकीर को बुलाकर एक बड़ा खरबूजा दिया फकीर ने खरबूजा ले लिया मगर वह दुखी था। उसने सोचा खरबूजा तो कहीं भी मिल जाएगा। नवाब को कुछ मूल्यवान चीज देनी चाहिए थी।
थोड़ी देर बाद एक और फकीर गाता हुआ नवाब आसफुद्दौला के पास से गुजरा उसके बोल थे- ” मौला दिलवाए तो मिल जाए मौला दिलवाए तो मिल जाए ” उसने उस फकीर को दो आने दे दिया फकीर ने दो आना लिए और झूमता हुआ चल गया। दोनों फकीरों की रास्ते में भेंट हुई उन्होंने एक-दूसरे से पूछा की नवाब साहब ने क्या दिया है। पहले ने निराशा स्वर में कहा ” सिर्फ एक खरबूजा मिला है “ दूसरे ने खुश होकर बोला ” मुझे दो आने मिले हैं “।
तुम ही फायदे में रहे भाई, पहले फकीर ने कहा, दूसरा फकीर ने कहा ” जो मौला ने दिया ठीक है। पहले फकीर ने खरबूजा दो आने में दूसरे फकीर को बेच खरबूजा ले कर बड़ा हो खुश हुआ।वह खुशी-खुशी अपने ठिकाने पहुंचा। उसने खरबूजा काटा तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गई। उसमें हीरे जवाहरत भरे थे।
कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर से आसफ़उद्दौला से खैरात मांगने गया। बादशाह ने फकीर को पहचान लिया वह बोला- ” तुम अब भी मांगते हो ? उस दिन खरबूजा दिया था कैसा निकला ? फकीर ने कहा- मैंने उसे दो आने में बेच दिया था। नवाब ने कहा- भले आदमी उसमें मैंने तुम्हारे लिए हीरे-जवाहरात भरे थे और तुमने उसे बेच दिया। तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि तुम्हारे पास संतोष नहीं है। अगर तुमने संतोष करना सीख लिया होता तो तुम्हें वह सब कुछ मिल जाता जो तुमने सोचा भी नहीं था। लेकिन तुम्हें तरबूज से संतोष नहीं हुआ तुम और ज्यादा की उम्मीद रखने लगी। जबकि तुम्हारे बाद आने वाले फकीर को संतोष का पुरुष्कार मिला। तभी से उनकी उदारता की यह पंक्ति बहुत प्रसिद्ध हुई
‘जिसको ना दे मौला, उसे दे आसफ उद दौला'” अर्थात(जिसे ईश्वर द्वारा त्याग दिया जाता है, उसे आसफुदौला द्वारा प्रदान किया जाता है)
नवाब आसफुद्दौला को पतंगबाजी की जोड़ी देखने का भी बहुत शौक था। यह चौक के बारादरी में था जहां वह बैठकर पतंगबाजी देखता था। अपनी माँ के साथ ठीक न होने के बावजूद, नवाब ने उन्हें अक्सर लखनऊ में रहने के लिए आमंत्रित किया। उसके लिए, उसने ‘सुनहारा बुर्ज’ नाम का एक अलग महल बनवाया जिसका अर्थ है स्वर्ण मीनार। हालाँकि, वह यहाँ स्थायी रूप से यहां कभी नहीं रही।
चौथे नवाब आसफुद्दौला के शासनकाल में लखनऊ उत्तर भारत के मानचित्र पर एक मोती के रूप में उभरा यहां महत्वपूर्ण विकास हुआ। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है, उन्होंने लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया, जिसने शहर में व्यापक परिवर्तन लाया और इस भूमि के लोगों को उनके प्रशासनिक निर्णयों से लगातार पीढ़ियों तक आशीर्वाद मिला।
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सतखंडा पैलेस और हुसैनाबाद घंटाघर के बीच एक बारादरी मौजूद है। जब नवाब मुहम्मद अली शाह का इंतकाल हुआ तब इसका
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1857 में भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध के बाद लखनऊ का दौरा करने वाले द न्यूयॉर्क टाइम्स के एक रिपोर्टर श्री
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