दमयंती विदर्भ देश की भीष्मक नाम राजा की पुत्री थी। राजा भीष्मक ने संतान प्राप्ति हेतु दमन ऋषि की सेवा की और उन्ही के आशीर्वाद से भीष्मक के चार संतानें हुई — दम, दान्त, और दमन नामक तीन पुत्र और दमयन्ती नामक कन्या। दमयन्ती अत्यंत रूपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश पर नल नामक राजा राज्य करता था। वीरसेन का पुत्र नल गुणवान और परम सुंदर था। विदर्भ की राजकुमारी दमयन्ती राजा नल के गुणों की प्रशंसा सुन उसके प्रति आकर्षित हो गई, और उधर राजा नल भी दमयन्ती के रूप सौंदर्य और गुणों पर मुग्ध हो मन ही मन उसे चाहने लगा था। नल और दमयंती की यही पौराणिक प्रेम कहानी जगत प्रसिद्ध है। जिसे हम और आप नल और दमयंती की कथा या नल और दमयंती की कहानी के रूप में जानते है। अपने इस लेख में हम अपने पाठकों को इसी जगत प्रसिद्ध पौराणिक प्रेम कथा के बारे में विस्तार से बताएंगे।
नल और दमयंती का विवाह व स्वयंवर
नल और दमयंती की शादी कैसे हुई अब हम इसी पर चर्चा करेगें। जब दमयन्ती सयानी हुई तो राजा भीष्मक ने अपनी पुत्री को विवाह योग्य समझ राजा भीष्मक ने दमयन्ती के स्वयंवर का आयोजन किया। दमयंती के स्वयंवर का निमंत्रण पाकर दूर दूर के देशों के राजा महाराजा वहां पहुचने लगे। राजा भीष्मक ने उनके स्वागत सत्कार की पूरी व्यवस्था कर रखी थी। राजा महाराजा तो क्या इंद्र और लोकपाल आदि देवता भी बिना निमंत्रण के ही उस आनिद्य सुंदरी के स्वयंवर में भाग लेने पहुंचे।
राजा नल की कीर्ति सुनकर दमयन्ती उसके प्रति पूर्णतः आनुस्क्त हो गई थी। यह बात देवता इंद्र, अग्नि, वरूण और यम जो इस स्वयंवर में भाग लेने आये थे, उन्हें पहले ही ज्ञात हो गई। ये चारों देवता दमयन्ती से विवाह को उत्सुक थे। उन्होंने पहले तो स्वयं नल का भेष बदलकर अपना प्रतिनिधि (दूत) बनाकर बरगलाने के उद्देश्य से दमयन्ती के पास भेजा किन्तु उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ। दमयन्ती ने अपना निश्चय दोहराया कि मैने तो अपने आप को राजा नल के चरणों में समर्पित कर दिया है। चारों देवता यह बात सुनकर क्रुद्ध हुए और सबने मिलकर एक उपाय खोजा। उन चारों देवताओं ने नल का रूप धारण कर लिया और स्वयंवर सभा में जहां राजा नल बैठे हुए थे, उनके पास आकर बैठ गये।
नल और दमयंती की कहानी
स्वयंवर का सभा मंडप भिन्न भिन्न देशों के राजाओं से खचाखच भरा हुआ था। देवता, यक्ष, नाग, गंधर्व, किन्नर, मनुष्य सभी समुदायों के प्रभावशाली व्यक्ति इसमें उपस्थित थे। दमयन्ती ने रंग मंडप प्रवेश किया। सभी प्रतियोगी सभंलकर बैठे। दमयन्ती एक एक नरेश को देखकर आगे बढ़ती गई। उसकी आंखें तो नल की छवि देखने को उत्सुक थी। और केवल नल को ही ढूंढ रही थी, आगे जहां नल बैठे थे, उस स्थान पर दमयन्ती पहुंची तो एक ही जगह पांच नल बैठे दिखाई दिये। सब का एक ही रंग, एक ही रूप, एक ही वेषभूषा। दमयन्ती अपने प्रियतम को नहीं पहचान सकी, वह बड़ी उलझन में पड़ गई। मन ही मन उसने परमेश्वर को याद किया और इस समस्या से उसे उबारने की प्रार्थना की। उसके ह्रदय की सच्ची पुकार और राजा नल के प्रति अटूट अनुराग को देखकर, ईश्वर ने उसे देवता और मनुष्य का भेद करने की बुद्धि प्रदान की। कुछ ही क्षण बीते थे कि वह असंमजस की स्थिति से निकल गई। उसने नल वेषधारी पांचों लोगों को गौर से देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि जो देवता नल का रूप धारण करके बैठे है। उनके शरीर पर पसीना नहीं है। उनकी पलकें नहीं झपकती, उनकी माला कुम्हलायी हुई नहीं है, और उनकी छाया भी नहीं पड़ रही थी। राजा नल में ये सभी बाते भिन्न दृष्टिगोचर हुई और इस रीति से उसने अपने प्रियतम को पहचान लिया और राजा नल के गले में वरमाला डाल दी।
दमयन्ती को पाकर राजा नल अत्यंत हर्षित हुआ। देव दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर उसके हर्ष की सीमा नहीं रही। दमयन्ती जिसने देवलोक का अदभुत वैभव और ऐश्वर्य ठुकराकर राजा नल को स्वीकार किया। इतने बड़े त्याग को देखकर राजा नल दमयन्ती के हाथों बिना मोल बिक गया था। राजा नल उस परम रूपवती दमयन्ती का कृतज्ञ और आभारी था। दमयन्ती निषध नरेश नल की महारानी बनी। प्रेम और सुख से उनका समय बीतने लगा।
नल और दमयंती का किस्सा का दूसरा भाग उनके विवाह के उपरांत उनकी प्रेम परिक्षा से शुरू होता है।
सुख दुख का चक्र निरंतर चलता ही रहता है। समय सदा एक सा नहीं रहता है। राजा नल गुणवान, धर्मात्मा और पराक्रमी थे। परंतु जुआं खेलने का एक दुर्गगुण भी उनमें था, और यह दुर्गगुण उनके दुख का कारण बन जाता है। जुएँ में राजा नल अपना सारा राजपाट हार गए। जब भाग्य प्रतिकूल होता है, तो विपरीत परिणाम ही प्राप्त होते है। रानी दमयंती की सलाह का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। परिणामस्वरूप राज्य त्याग कर, शरीर से वस्त्राभूषण को उतार वे केवल एक वस्त्र पहने हुए दमयन्ती के साथ नगर से बाहर निकले। राज्य से च्युत होने के बाद राजा नल अपनी पत्नी के साथ तीन दिन तक नगर के बाहर बैठे रहे, पर किसी ने उनकी मदद न की। जल पीकर तीन दिन बिताये। नगर के कुछ लोगों की सहानुभूति उनके प्रति भी परंतु नये राजा के राज्यादेश एवं मृत्युदंड के भय से कोई मदद करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। नल और दमयंती निराश होकर जंगल की ओर चल दिये। ऐसी विकट परिस्थिति में भी दमयन्ती ने अपने पति का अनुसरण कर पतिव्रता धर्म का पालन किया। जंगल जंगल भटकने और अनेक कष्टों कों भी वह प्रसन्नता से झेल रही थी।
राजा नल अकिंचन व असहाय था। उससे अपनी प्राण प्यारी दमयन्ती का दुख नहीं देखा जा रहा था। दमयंती अपने पिता के यहां उन्हें छोडकर जाने को राजी न थी। उसको मनाने के सारे प्रयत्न करने के बाद जब उन्हें कुछ न सुझी तो वह एक दिन जब दमयन्ती सोयी हुई थी, उसे अकेला छोड़ वे चल दिए। जब दमयन्ती की नींद टूटी और जब उसने नल को अपने पास नहीं देखा तो भय और आशंका से वह कांप उठी। नल के वियोग में दमयन्ती अत्यंत दुखी अवस्था में इधरउधर भटकने लगी।
नल और दमयंती की कहानी
दमयन्ती ने यह कभी नहीं सोचा था कि देवलोक के ऐश्वर्य को ठुकरा कर मैने जिस व्यक्ति से प्रेम किया है। वह राजा नल मुझे जंगल में अकेली और असहाय अवस्था में छोड़ जायेगा। क्या यह पुरूष प्रकृति है या कठोर नियति? । उसने अपने आप को सभांला और जो कष्ट उसे झेलना है। उसे क्यों न वह संयत भाव से झेले यह सोचा। सम्मुख आई विपत्ति का दृढता से मुकाबला करना क्षत्रिय नारियों की अदभुत परम्परा रही है। विकट परिस्थिति में भी उसका धैर्य नहीं डगमगाता पतिव्रता का सतीत्व भंग नहीं होता। वह जब प्रतिकूल से प्रतिकूल स्थिति का मुकाबला करने को उद्यत हो उठती है तो उसे अनुकूलता में परिवर्तित कर देती है।
दमयन्ती ने नल से बिछुड़कर अनेक कष्ट भोगे, संकट सहें पर हार नहीं मानी और अपने प्रिय की खोज में लगी रही। अन्ततः उसे अपने निर्दिष्ट उद्देश्य में सफलता हासिल होती है, और वह अपने पति राजा नल को खोज लेती है। संकट का समय व प्रतिकूल परिस्थितियों का अंत होता है, और नल और दमयंती का पुनः मिलन होता है। नल फिर अपना पैतृक राज्य प्राप्त कर लेते है।
राजा नल और दमयंती की स्टोरी के इस पूरे घटनाक्रम में दमयन्ती का विभिन्न परिस्थितियों में धैर्य, प्रेम, पतिव्रता और साहस प्रकट होता है। जो समाज के लिए अनुकरणीय है। आज भी भारतीय समाज और संस्कृति में दमयंती का नाम काफी सम्मान के साथ लिया जाता है। जगह जगह नल और दमयंती रागनी, नाटक आदि का आयोजन कर उन्हें याद किया जाता है।