येरूशलम (वर्तमान मे इसरायल की राजधानी) तीन धर्मों की पवित्र भूमि हैं। ये धर्म हैं- यहूदी, ईसाई और मुस्लिम। समय-समय पर तीनों धर्मों के लोग इस पर अधिकार पाने के लिए आपस में लड़ते रहे हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में ईसाई धर्मगुरुओं अर्थात् पोपों (Popes) के कहने पर पश्चिमी यूरोप के ईसाई देशों ने मुसलमानों से येरूशलम को छीन लेने के लिए उन पर आक्रमण शुरू कर दिये। यही आक्रमण ‘धर्मयुद्ध” के नाम से प्रसिद हैं जो तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक चलते रहे। अपने इस लेख में हम इसी धर्मयुद्ध का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:—
धर्मयुद्ध कब हुआ था? धर्मयुद्ध किस किस के बीच हुआ था? धर्मयुद्ध के क्या कारण थे? धर्मयुद्ध की कुल कितनी संख्या थी? धर्मयुद्ध का क्या अर्थ है और इसके क्या कारण थे? प्रथम धर्मयुद्ध कब हुआ था? धर्म युद्ध कौनसी शताब्दी में लड़े गए? द्वितीय धर्मयुद्ध कब हुआ? तृतीय धर्मयुद्ध कब हुआ? धर्म युद्ध के कारण एवं प्रभाव?
धर्मयुद्ध का कारण
ग्यारहवीं शताब्दी में सेल्जुक (Seljuk) तुर्को का प्रभाव-क्षेत्र काफी बड़ा हो गया। 1071 में मेंजिक्रेट की लड़ाई (The Battle of Mazikert) में जीत हासिल करके वे बाइज़ेंटइन (Byzantine) पूर्ववर्ती रोमन साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले पूर्वी यूरोप के भागो) से लेकर एशिया माइनर (Asia Minor) तक फैल गये और येरूशलम पर अधिकार कर लिया। कहते हैं कि धर्मयुद्धों के शुरू होने का एक कारण यह भी था कि इन क्षेत्रों के ईसाई धर्मावलंबियों पर तुर्क भयानक अत्याचार कर रहे थे। इसके अलावा, ईसाई येरूशलम पर अधिकार पाना चाहते थे, जबकि तुर्क उसे अपने अधिकार मे रखना चाहते थे।
ईसाई बड़े आहत और अपमानित महसूस कर रहे थे। 1095 में पोप अरबन (Pope Arban) द्वितीय ने पश्चिमी यूरोप के संपूर्ण ईसाई समुदाय को संगठित कर तुर्को के खिलाफ पवित्र पेलेस्टाइन और येरूशलम को मुक्त कराने के लिए एक पवित्र युद्ध (Holy war) छेड़ने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि इस युद्ध में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के अपराधों को माफ कर दिया जायेगा क्योंकि यह धर्म की रक्षा के लिए लड़ा गया युद्ध है।
इसके अलावा व्यापारिक प्रतिस्पर्धा भी युद्ध का एक कारण बनी। जेनेवा, वेनिस, आदि इटली के प्रमुख नगरों के व्यापारी भूमध्य सागर के प्रदेशों में व्यापार करते थे। स्पेन और सिसली में मुस्लिम शासन के अन्त हो जाने से उन्होंने पूर्व मे भी व्यापार करने की सोची, इसलिए पूर्वी भूमध्य सागर के प्रदेशों में भी मुस्लिम प्रभुसत्ता को समाप्त करने के लिए फ्रांस के ईसाइयो की एक विशाल सभा हुई। उत्तेजक भाषणों द्वारा येरूशलम से तुर्को को भगाने के लिए ईसाइयों को बलिदान देने के लिए उकसाया गया। इस आंदोलन ने भी यूरोप के समस्त ईसाइयो को एकसूत्र होकर पवित्र धर्मयुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया।
धर्मयुद्ध
धर्मयुद्ध का प्रारम्भ
ईसाइयो औरतुर्को के बीच कुल आठ धर्मयुद्ध लड़े गये किन्तु उनमें से चार धर्मयुद्ध और एक बच्चों का धर्मयुद्ध ही मुख्य है। जिनके बारे में हम नीचे बता रहे हैं।
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प्रथम धर्मयुद्ध
यह 1096 से 1099 तक लड़ा गया। इसमें ईसाइयो को
प्रारम्भिक सफलता मिली। 1097 में येरूशलम पर अधिकार कर लिया गया और उसके अधीन तीन ईसाई राज्य स्थापित किये गये। हजारों यहूदियों व मुसलमानों को मार दिया गया। ईसाइयों की अनुभवहीनता और पारस्परिक द्वेष का लाभ उठाकर तुर्को ने ईसाइयों के प्रमुख गढ़ ऐडेसा पर पुनः अधिकार कर लिया।
द्वितीय धर्मयुद्ध
यह 1147-1148 के दौरान लड़ा गया। 1144 मे तुर्को द्वारा ऐडेसा पर अधिकार होने से ईसाइयो ने द्वितीय धर्मयुद्ध लड़ा। यह युद्ध भी पहले की भांति पोप के आहवान पर शुरू हुआ। फ्रांस के लुई अष्टम (Louis Vlll) व जर्मन सम्राट कोनरड तृतीय (Conrad lll) ने ईसाइयों का समर्थन किया किन्तु इस बार पुन:
ईसाइयों को नितांत असफलता प्राप्त हुई। तुर्को के नेता सलादीन (Saladin) ने 1171 में मिस्र पर अधिकार कर लिया व तमाम इस्लाम जगत को धर्मयुद्ध के लिए इकट्ठा किया। 1187 में सलादीन ने येरूशलम पर पुनः अधिकार कर लिया।
तीसरा धर्मयुद्ध
1187 मे मुस्लिम नेता सलादीन द्वारा येरूशलम पर पुनः
आधिपत्य जमा लेने के प्रत्युत्तर मे ईसाइयों ने तृतीय धर्मयुद्ध छेड़ा। यह धर्मयुद्ध 1189 से 1192 तक लड़ा गया। जर्मन सम्राट फ्रेड़िक, फ्रांस के फिलिप द्वितीय तथा इंग्लैड के रिचर्ड प्रथम ने इसमें भाग लेने का निश्चय किया किन्तु सम्राट फ्रेड़िक पहले ही परलोक सिधार गया। फिलिप बीमार पड गया और वापस फ्रांस आ गया। इसलिए केवल रिचर्ड ही सेना लेकर येरूशलम पहुचा। आर्निफ (Arnif) मे सलादीन को हराने से उसे ‘लॉयन हार्ट (Loin heart) यानी ‘शेर दिल’ कहने लगे। उसने आकरा (Acre) और जाफ़ा (jaffa) को प्राप्त कर लिया किन्तु येरूशलम को मुक्त न करवा सका।
चौथा धर्मयुद्ध
यह धर्मयुद्ध 1201 से 1204 तक लड़ा गया। इस धर्मयुद्ध मे
ईसाई सेना कांस्टेटिनोपल (Constantinople) तक पहुंच सकी। उन्होंने येरूशलम जाने के बदले नगर को तीन दिन तक लूटा और वहां की कलाकृतियां नष्ट कर दीं। इसके पश्चात् भी कई धर्मयुद्ध हुए परन्तु सब असफल रहे। उनमें से केवल बच्चों का धर्मयुद्ध ही उल्लेखनीय है।
बच्चों का धर्मयुद्ध
विगत चार धर्मयुद्धों की असफलता के पश्चात् 1212 में कुछ ईसाइयों ने यह विचार किया कि बच्चों की एक सेना येरूशलम भेजनी चाहिए। उनके इस विचार का आधार ‘वाइबिल’ का एक कथन था, जिसमें यह कहा गया है कि एक छोटा बच्चा उनका नेतृत्व करेगा। फ्रांस के एक गडरिये ने तीस हजार बच्चो तथा निकोलस ने बीस हजार जर्मन बच्चो की सेना एकत्रित करके प्रस्थान किया किन्तु इन दोनों प्रयत्नों में भी उन्हें पूर्ण असफलता मिली। फ्रांसीसी बच्चो मे केवल एक व जर्मन बच्चों में लगभग 200 बच्चे ही जीवित बचे। कुछ रास्ते मे मर गये व कुछ को मुसलमानों ने गुलाम बना कर बेच दिया।
धर्मयुद्ध का परिणाम
जिस उद्देश्य से ये धर्मयुद्ध लडे गये थे, हालाकि वे पूरे नहीं हुए किन्तु उनके परिणाम महत्त्वपूर्ण साबित हुए। इसके अलावा चार अन्य धर्मयुद्धों के दौरान कोई भी निर्णायक घटना नहीं हुई। 1291 मे तुर्को ने आकरा (Acre) पर अधिकार कर लिया और उसी वर्ष येरूशलम पर बिना अधिकार के ही धर्मयुद्ध समाप्त हो गये। तुर्को के संपर्क मे आने से ईसाइयो ने कला तथा विज्ञान संबंधी अनेक नयी बातें सीखी। ईसाइयों की पृथकता का अन्त हुआ और उनकी वेशभूषा, रीति रिवाजों मे परिवर्तन आया। विलास की सामग्रियां, फर्नीचर, आदि का प्रयोग अधिक मात्रा मे किया जाने लगा। इसके अतिरिक्त उनके भौगोलिक ज्ञान और व्यापार में भी वृद्धि हुई।
पश्चिमी यूरोप को भूमध्य सागर तथा पश्चिमी एशिया के देशों के विषय मे पर्याप्त जानकारी मिली। कुछ साहसी यात्रियों ने व्यापार एवं अनुसंधान के लिए लम्बी यात्राएं की, जिनमे सबसे प्रसिद्ध मार्कपोलो था। धर्मयुद्धों ने सामंतवाद का अन्त करने मे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लोगों मे आपसी सहिष्णुता तथा समझदारी बढ़ी। चर्च का प्रभाव कम हो गया। पोप के प्रति लोगो मे अविश्वास पैदा होने लगा। वौद्धिकता का भी विकास हुआ। यूरोपीय जन प्राचीन यूनानी ज्ञान से परिचित हुए। फलतः दिशासूचक यंत्र (Compass), बारूद और मुद्रण-यंत्र (Printing machine) का प्रचार हुआ।
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