धनोप भारत के राजस्थान राज्य के भीलवाड़ा जिले की शाहपुरा तहसील मे स्थित एक ऐतिहासिक, सास्कृतिक गांव है। जो शाहपुरा तहसील से लगभग 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऐतिहासिक महत्व से यह गांव बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। किन्तु यह धनोप माता के प्रसिद्ध मंदिर के लिए जाना जाता है। जो एक प्रमुख सिद्धपीठ है। यह राजस्थान के प्रमुख लोकतीर्थो में से भी एक है। बडी संख्या में भक्त श्रृद्धालु यहां आते है।
धनोप का इतिहास – हिस्ट्री. ऑफ धनोप भीलवाड़ा राजस्थान
वैसे तो धनोप गांव मे खुदाई के दौरान अनेक प्राचीन और ऐतिहासिक वस्तुएं प्राप्त हुई है। लेकिन धनोप के विषय प्राप्त ऐतिहासिक साम्रगी का अभी तक विशेष अध्ययन नहीं किया गया है। फिर भी अतीत की कुछ टूटी कडियों को यहां से प्राप्त सिक्को, शिलालेखों तथा स्मारकों और अवशेषों के अध्ययन करने के उपरांत जोडा गया है। जिससे बडे रूचिकर तथ्य सामने आये है। बागौर की भांति धनोप के पास पंचदेवरा नामक रेतीले टीलों पर उत्तर पाषाण कालीन मानव का निवास था।
धनोप माता मंदिर के सुंदर दृश्य
जनश्रुति के अनुसार धनोप राजा धुन्धु की राजधानी थी। यह राजा धुन्धु कौन था?। इसकी पड़ताल करने से पता चलता है कि मार्कण्डेयपुराण में एक धुन्धु नामक असुर का उल्लेख मिलता हैं। जो गालव ऋषि के आश्रम ( गलताजी जयपुर के निकट) के आसपास उत्पात मचाया करता था। इस धुन्धु नामक असुर राजा को नागराज कुमार द्वारा मारे जाने का उल्लेख भी उक्त पुराण मे मिलता है। यह धुन्धु कोई हूण राजा या सामंत तो नही है?। इस संबंध में यह भी ज्ञातव्य है कि अभी हाल ही में धनोप ग्राम के एक मकान के आंगन में लगभग 4 फीट नीचे खुदाई में तीस चांदी के सिक्के मिले है। इन सिक्कों पर राजा का उर्ध्व चित्र तथा दूसरी ओर तथाकथित आग्निवेदी या सिंहासन बिन्दुओं रेखाओं के माध्यम से बनाये गये है। ये सिक्के ससेनीमन सिक्कों जैसे है। जिन्हें पश्चिमोत्तर तथा मध्य भारत में चलाने का श्रेय हूणों को दिया जाता है।
धनोप पर 11वी शताब्दी में राठौडों का आधिपत्य था। 8-12वी शताब्दी तक शिव शक्ति तथा वैष्णव मत का यहां प्रधान्य रहा। इसके अतिरिक्त यहां खारी तट पर एक मार्तण्ड भैरव का 10वी शताब्दी का लघु देवालय भी दर्शनीय है। इस मंदिर को गांव वाले देवनारायण मंदिर कहते है। मंदिर ऊंचे चबूतरे पर पूर्वाभिमुख है। जिसके प्रवेशद्वार की चौखट पर द्वारपालिकाओ के स्थान पर गंगा यमुना ऊपर लताशाखा और पधमपाणि पुरेषाकृतियां तथा चतुर्मुखी कमल परशुधारी- सम्भवतः मार्तण्ड भैरव की प्रतिमा ललाट बिम्ब में अंकित है। सूर्य और शिव के मिले जुले रूप का अंकन उस समय के विभिन्न मतो के समन्वित रूप का परिचय कराता है। चौखट के ऊपर ललाट बिम्ब के दोनों और मिथुनाकृतियां और बीच बीच में कीर्तिमुखों का अंकन है। जिनके ऊपर नवग्रहों को उत्कीर्ण किया गया है।
धनोप माता मंदिर के सुंदर दृश्य
धनोप अपने मध्यकालीन धनोप माता मंदिर के लिए विशेष रूप से सर्वाधिक विख्यात है। जनश्रुति के अनुसार इस धनोप माता मंदिर का निर्माण कन्नौज नरेश जयचंद ने करवाया था। धनोप मंदिर की देवी की चमत्कारी प्रतिमा में आस्था रखने के कारण भक्तजनों ने इसके चारों ओर अनेक निर्माण कार्य करवाये है जिसके कारण इसका मूल रूप कला और स्थापत्य की दृष्टि से ओझल होता जा रहा है। धनोप माता के इस मंदिर पर वैसे तो साल भर भक्तजन मनौतियां मनाने आते रहते है। परंतु नवरात्रों के अवसर पर यहाँ भक्तजनों की संख्या काफी बढ़ जाती है। काफी दूर दूर सै भक्त यहां आते है। जिसके फलस्वरूप एक पखवाड़े तक यह स्थान मेले का रूप धारण कर लेता है। और भक्तगण यहां झूमकर धनोप माता के भजन गाते है।
धनोप गांव में एक किला भी है जो अपनी विशेषता लिए हुए है। वह विषेशता यह है कि मध्यकालीन राजस्थानी परम्परा के प्रतिकूल यहां किले की दीवारें पत्थर के स्थान पर पक्की ईंटों से बनी है। पूर्व मे धनोप केवल वैष्णव, शैव और शक्ति पूजा का ही केंद्र नहीं था। वरन यह श्वेताम्बर जैन संम्प्रदाय की आस्था का भी केंद्र रहा है। यहां के उत्तर मध्ययुगीन श्वेताम्बर जैन मंदिर के गर्भगृह में 10 वी शताब्दी से लेकर 14वी शताब्दी की प्रतिमाएं है। जिनमें काले पत्थर की चार पार्श्वनाथ प्रतिमाएं और गौमुख पक्ष की प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यह प्रतिमा भूरे बलुआ पत्थर मे बनी चतुर्भुजी और सुखासनस्थ है। इस प्रकार धनोप प्रारंभ से ही एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र और तीर्थ रहा है।
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