दौलताबाद यह स्थानमहाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद के निकट है। पहले इसे देवगिरि के नाम से जाना जाता था। दौलताबाद एक ऐतिहासिक नगर है। यह नगर यहां स्थित दौलताबाद किले के लिए भी जाना जाता है। यह किला 190 मीटर ऊंची एक पहाड़ी पर स्थित है। दौलताबाद किले का निर्माण शुरू में 1187 के आसपास पहले यादव राजा भिल्लामा पंचम द्वारा किया गया था।
दौलताबाद का इतिहास – दौलताबाद का किला
मध्य काल में यहां यादवों का राज्य था। इस वंश का प्रथम
विख्यात राजा भिल्लामा था। उसने कलचूरी और पश्चिमी चालुक्य राजाओं को हराकर चालुक्यों के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया। उसने श्रीवर्धन के राजा अंसल, चोल राजा कुलोतुंग, मालवा के विंध्यवर्मा और गुजरात के भीम द्वितीय को हराया। उसने होयसल राजा बल्लाल द्वितीय को भी हराया, परंतु चार वर्ष बाद बल्लाल ने उसे 1188 में हराकर उसके कृष्णा नदी के दक्षिणी प्रदेश को छीन लिया। नड्डुल के चौहानों ने भी भिल्लम को हराया। उसने 1185 से 1193 तक राज्य किया। उसके उत्तराधिकारी जैतुगी (1193-1200) ने काकतीय, गंग, चोलों, परमारों और चालुक्यों को हराया।
सिंघण (1200-47) इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। उसने पश्चिमी चालुक्यों के पूरे राज्य और लाट पर अधिकार किया। उसने कोल्हापुर के शिलाहार भोज पर अपना दबदबा कायम किया और मालवा के मुस्लिम शासक और छत्तीसगढ़ तथा जबलपुर के चेंदि शासक को हराया। उसने होयसल राजा को हराकर कृष्णा नदी के दक्षिण के प्रदेश वापस ले लिए, जो बल्लाल ने भिल्लम को हराकर जीत लिए थे। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने कावेरी नदी के तट पर एक विजय स्तंभ बनवाया। उसके बाद कृष्ण (1247-60) महादेव (1260-71) और रामचंद्र (1271-1307) ने राज्य किया।
दौलताबाद का किलामहादेव ने होयसलो से कुछ क्षेत्र और ले लिए, तथा कोंकण को अपने प्रदेश में मिला लिया। रामचन्द्र के काल में (1294) में अलाउद्दीन ने दौलताबाद पर आक्रमण करके उसे कर देने को विवश किया। 1304 में उसने कर देना बंद कर दिया, और अलाउद्दीन के शत्रु अन्हिलवाड़ा के राय कर्णदेव तथा उसकी पुत्री देवल देवी को शरण दे दी। अतः 1307 में अलाउद्दीन के सेनानायक मलिक काफूर ने उस पर आक्रमण कर दिया।
यूं तो दौलताबाद का किला, दक्षिण के किलों में सबसे मजबूत किला था। परंतु अलाउद्दीन ने इसे किसी प्रकार जीत लिया। यह किसी मुस्लिम द्वारा दौलताबाद किले पर पहली जीत थी। फरिश्ता के अनुसार उसने यहां से 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन लाल, नीलमणि, हीरे, एक हजार मन चांदी, और हजारों हाथी घोड़े प्राप्त किए। बॉसी ने लिखा है कि दक्षिण से लाई गई लूट की साम्रगी इतनी ज्यादा थी कि यह सन् 1351 ईस्वी तक फिरोजशाह तुगलक के लिए भी बची रही। तत्कालीन लेखक अमीर खुसरो ने भी इस लूट का वर्णन किया है। इनके अतिरिक्त राजा रामचंद्र को सुल्तान को नियमित रूप से कर देने के लिए भी विवश होना पड़ा। परंतु कुछ समय बाद उसने कर देना फिर बंद कर दिया। 1308 ई० में मलिक काफूर ने दौलताबाद (देवगिरी) पर पुन: आक्रमण करके यादव नरेश को संधि करने के लिए विवश कर दिया।
इस विजय से अलाउद्दीन का दक्षिण के अन्य हिंदू राजाओं पर विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। 1312 ई० में राजा रामचंद्र देव के पुत्र शंकर देव अथवा सिंहल देव ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। मलिक काफूर ने दौलताबाद पर पुनः आक्रमण करके उसे परास्त करने के बाद उसे मार दिया और 1314 ई० में दिल्ली वापस बुलाए जाने तक इसे अपनी राजधानी बनाए रखा। उसके जाने के बाद रामचंद्र देव के दामाद हरपाल देव ने शासन की बागडौर संभाली। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद हरपाल देव ने भी कर देना बंद कर दिया। तब सुल्तान मुबारक शाह ने दौलताबाद किले पर आक्रमण करके हरपाल देव का वध कर दिया। इस प्रकार दौलताबाद पर प्रभुत्व को लेकर दौलताबाद और दिल्ली के मध्य काफी लंबे समय तक संघर्ष चलता रहा।
मुहम्मद तुगलक ने 1327 से 1330 ईस्वी के बीच अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद और पुनः दौलताबाद से दिल्ली बदल ली। उसने देवगिरि का नाम दौलताबाद रखा। मुहम्मद तुगलक ने अपने चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप (जो सागर का सूबेदार था और विद्रोह करके यहां आया था) को पकड़ने के लिए गुजरात के सूबेदार ख्वाजा-ए-जहां अहमद अयाज को भेजा। उसने दौलताबाद पर कब्जा कर लिया, परंतु गुर्शप ने भागकर कंपिली के हिन्दू राजा के यहां शरण ले ली। तुगलक के काल में दक्षिण के अन्य स्थानों की तरह देवगिरि में भी विद्रोह हो गया। वहां का हाकिम कुतलुग खां एक सहिष्णु और उदार व्यक्ति था। उसकी इस प्रवृत्ति का लाभ उठाकर सत्ताधारियों ने सरकारी खजाने में कर जमा करना बंद कर दिया था। परिणाम स्वरूप राजकोष रिक्त हो गया।
बाद में कुतलुग खां का भाई आलम-उल-मुल्क हाकिम बना। इन दिनों तुग़लक़ गुजरात के विद्रोह के दमन में व्यस्त था। उसने दक्षिण के सत्ताधारियों को सहायता के लिए गुजरात आने का आदेश दिया। परंतु इन सत्ताधारियों ने समझा कि वह उन्हें गुजरात में बुलाकर मालवा के विद्रोहियों की भांति मृत्यु दंड देना चाहता है। इसलिए उन्होंने अपने विद्रोह को प्रखर रूप दे दिया और दौलताबाद के उस समय के हाकिम निजामुद्दीन को बंदी बनाकर राजकोष लूट लिया और दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उन्होंने इस क्षेत्र को अनेक स्वतंत्र राज्यों में बाँट लिया।
सुल्तान यह समाचार सुनकर दौलताबाद गया और उसने तीन माह के घेरे के बाद दुर्ग तथा देवगिरि पर अधिकार कर लिया। परंतु अभी यह विद्रोह पूरी तरह कुचला भी नहीं गया था कि वह देवगिरि छोड़कर गुजरात में तगी के विद्रोह को दबाने के लिए चला गया। उसकी अनुपस्थिति में सत्ताधिकारी नेता हसन गंगू ने 1346 में दौलताबाद पर अधिकार कर लिया और वह अलाउद्दीन हसन बहमनशाह के नाम से देवगिरि (दौलताबाद) की गद्दी पर बैठ गया। उसने यहाँ बहमनी साम्राज्य की नींव डाली। तुगलक को तगी के विद्रोह से फूर्सत नहीं मिली और वह देवगिरि पर पुनः अधिकार करने का मौका न पा सका। बहमनशाह ने अपनी राजधानी आधुनिक कर्नाटक में गुलबर्ग बदल ली। मराठा पेशवा बालाजी बाजीराव के चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ ने दौलताबाद हैदराबाद के निजाम-उल-मुल्क से 1759 ई० में छीनी थी।
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