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दिवेर का युद्ध

दिवेर का युद्ध कब लड़ा गया था – दिवेर का युद्ध कहां हुआ था

दिवेर का युद्धभारतीय इतिहास का एक प्रमुख युद्ध है। दिवेर की लड़ाई मुग़ल साम्राज्य और मेवाड़ सम्राज्य के मध्य में सन् 1680 में हुई थी। यह युद्ध मुग़ल बादशाह औरंगजेब और मेवाड़ के राणा राजसिंह की बीच लड़ा गया था। अपने इस लेख में हम दिवेर के इस भीषण संग्राम के बारे में जानेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर जानेंगे:—-

दिवेर का युद्ध कब हुआ था? दिवेर का युद्ध किस किस के मध्य हुआ था? दिवेर की लड़ाई किस किस के बीच लड़ी गई? दिवेर का युद्ध क्यों हुआ था? दिवेर का युद्ध कब और किसके मध्य हुआ? दिवेर का युद्ध कहां हुआ था? दिवेर के युद्ध में किसकी जीत हुई? रानी प्रभावती का विवाह कैसे हुआ? सरदार चूड़ावत और औरंगजेब की लड़ाई?

मेवाड़-राज्य की स्थापना

महाराणा प्रताप के सत्रह पुत्र थे। उसकी मृत्यु के पश्चात्‌ सन्‌ 1597 ईसवी में उसका बड़ा लड़का अमरसिह गद्दी पर बैठा। मेवाड़-राज्य ने अभी तक पराधीनता स्वीकार न की थी। वह लड़ कर पराजित हुआ था और पराधीनता में कुछ वर्ष व्यतीत कर चुका था। लेकिन महाराणा प्रताप ने उसको फिर स्वतन्त्र करने में सफलता प्राप्त की थी। मृत्यु के समय अपने राज्य की स्वाधीनता की रक्षा के लिए वह चिन्तित हुआ था। अपने पुत्र अमरसिह पर इसके लिए उसे अधिक विश्वास न था। अमरसिह ने चौबीस वर्ष तक मेवाड़ का शासन किया। वह अपने पिता महाराणा प्रताप की तरह शूरवीर न था। उसमें स्वाभिमान और राजनीतिक चातुर्य का अभाव था। सन्‌ 1621 ईसवी में अमरसिह कीमृत्यु हो गयी और उसके बाद, मेवाड़ के सिंहासन पर उसका जेष्ठ पुत्र कर्ण बैठा। उसका चरित्र ऊंचा था। वह साहसी और बहादुर था। लेकिन उसकी शक्तियां निर्बल थीं। लगातार युद्धों के कारण मेवाड राज्य की आर्थिक परिस्थिति छिन्न-भिन्न हो गयी थी। कर्ण ने अपने राज्य की इस अवस्था को बदलने का प्रयत्न किया और उसे बहुत कुछ सफलता भी मिली। उसके शासन-काल में दिल्‍ली के मुगल बादशाह के साथ कोई संघर्ष नहीं पैदा हुआ। साधारण मन मोटाव की अवस्थायें सामने आयी उनको राणा कर्ण ने संघर्ष का रूप नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मुगल बादशाह के साथ उसका उसका साधारण सम्मान पूर्ण व्यवहार चलता रहा। दोनों तरफ से इसकी रक्षा की गयी। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है…..

बादशाह अकबर की मृत्यु

मुगल आधिपत्य के विरुद्ध, राजपूताना के राजाओं में मेवाड़ राज्य
के संघर्ष ही अन्तिम संघर्ष रहे थे। परन्तु उनका अन्त महाराणा प्रताप और अकबर के जीवन काल में ही हो चुका था। महाराणा प्रताप की मृत्यु सन्‌ 1597 ईसवी में और अकबर की मृत्य सन्‌ 1605 ईसवी में हुई थीं। इसके पहले ही मुगल-साम्राज्य का पूर्ण विस्तार भारत में हो चुका था और मेवाड़ को छोड़कर मुगल बादशाह अकबर का विरोधी कोई राजा और बादशाह बाकी न रहा था। देश में जो शासक थे, वे अकबर की अधीनता में अपने अपने राज्यों का शासन कर रहे थे। अकबर ने अपनी बहुत बड़ी योग्यता और राजनीतिक चतुरता से अपने राज्य के विस्तार में इतनी बड़ी सफलता प्राप्त की थी। लेकिन जिस समय वह बीमार पड़ा और उसके जीवन का अन्तिम समय झा गया, उस समय साम्राज्य के प्रसिद्ध और ऊँचे अधिकारियों के साथ परिवार के सभी लोग आकर उसको घेर कर बैठ गये। जिस समय अकबर अपने जीवन की अन्तिम साँसे ले रहा था, उसके जीवन की महानता और श्रेष्ठता की ओर किसी का ध्यान न था। उसकी शैय्या के निकट उसके पुत्रों में राज्याधिकार का संघर्ष पैदा हुआ। एक ओर अकबर के प्राण निकल रहे थे और दूसरी ओर उसके पुत्रों में राज्याधिकार का झगड़ा हो रहा था। जीवन के इस घृणित दृश्य को अकबर ने अपने नेत्रों से देखा और एक असह्य वेदना के साथ उसके प्राणों का अन्त हुआ। सलीम उसका बड़ा बेटा था। मृत्यु के पहले अकबर ने स्वयं सलीम को राज्याधिकार दिये जाने का निर्णय कर दिया था। इसलिए उसके मर जाने पर सलीम जहाँगीर के नाम से 1605 ईसवी में दिल्‍ली के सिंहासन पर बैठा। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है…..

जहांगीर के साथ विद्रोह

मेवाड़ के राणा कर के समय चित्तौड़, मुगल साम्राज्य के आधिपत्य में आ गया था, लेकिन दोनों ओर से मित्रता का ही व्यवहार चलता रहा। आवश्यकता पड़ने पर बादशाह की सहायता के लिए चित्तौड़ की ओर से सेनायें जाती थीं और उनका अधिकारी कर्ण का छोटा भाई भीम होता था। वह स्वभाव से ही साहसी, स्वाभिमानी और तेजस्वी था। जहाँगीर के पुत्र खुर्रम का जो आगे चलकर शाहजहाँ के नाम से मुगल साम्राज्य का बादशाह हुआ, भीम के साथ विशेष स्नेह था। दोनों एक दूसरे के साथ बन्धुत्व का व्यवहार करते थे। शाहजादा खुर्रम के साथ भीम का गहरा स्नेह देखकर बादशाह जहाँगीर कभी-कभी सशंकित होता था। उसने भीम और खुर्रम के स्नेह में बाधा डालने की चेष्टा की, परन्तु वह सफल न हुआ। जहाँगीर के इस प्रकार के सन्देह का कारण था। उसके चार लड़के थे, खुसरो, परवेज़, खुर्रम और शहरयार। विद्रोह करने के कारण जहाँगीर ने खुसरो को मरवा डाला था। परवेज़ उसका दूसरा बेटा था। जहाँगीर के बाद, मुगल साम्राज्य के सिंहासन पर बैठने का वही अधिकारी था।खुर्रम की मनोवृत्ति कुछ और थी। जहाँगीर का अनुमान था कि परवेज और खुर्रम में राज्याधिकार के लिए संधर्ष होने पर भीम खुर्रम की
सहायता करेगा। भीम के प्रति जहाँगीर का सन्देह कुछ दिनों के बाद सही साबित हुआ। खुर्रम ने अपने कुछ आादमियों को लेकर परवेज़ पर आक्रमण किया और उसे जान से मार डाला उसके बाद उसने अपने पिता जहाँगीर के साथ विद्रोह कर दिया। जहाँगीर ने खुर्रम को अधिकार में लाने के लिए अपनी एक सेना भेजी। उसके साथ खुर्रम ने युद्ध किया और भीम ने उसकी सहायता की। उस युद्ध में भीम मारा गया और खुर्रम युद्ध से भागकर उदयपुर चला गया। राणा कर्ण ने उसके साथ अत्यन्त उदारता के साथ व्यवहार किया। लेकिन उन दोनों के इस बन्धुभाव से राणा कर्ण और बादशाह जहाँगीर के बीच कोई वैमनस्य नहीं पैदा हुआ। सन्‌ 1628 ईसवी में राणा कर्ण की मृत्यु हो गयी और उसके स्थान पर उसका पुत्र जगतसिह चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा।उसके कुछ ही दिनों के बाद, सन्‌ 1628 ईसवी में बादशाह जहाँगीर की भी मृत्यु हुई ओर शाहज़ादा खुर्रम शाहजहाँ के नाम से मुगल सिंहासन पर बैठा। दिवेर का संग्राम वर्णन जारी है….

औरंगजेब और राजसिंह

राणा जगतसिह ने छब्बीस वर्ष शासन किया, उसने मारवाड़ की
राज-कन्या के साथ विवाह किया था, उससे दो पुत्र उत्पन्न हुए। बड़े लड़के का नाम राजसिंह था। जगतसिंह के मरने के बाद वही मेवाड़ का राणा हुआ। इधर बहुत दिनों से मेवाड़ और दिल्ली के बीच में किसी प्रकार की अशान्ति न थी। लेकिन राजसिंह के सिंहासन पर बैठते ही वह शान्ति एक साथ विलीन होती हुई दिखायी पड़ी। यद्यपि उस अशान्त वातावरण के उत्पन्न होने के विभिन्न कारण थे। फिर भी, उनकी जड़ में और अशान्त वातावरण को प्रोत्साहन देने में राजसिंह का हाथ था, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। उन दिनों में शाहजहाँ बादशाह मुंगल साम्राज्य के सिंहासन पर था, उसने अपने जीवन में राजपूतों के प्रति पुराने शत्रुभाव को कभी स्थान नहीं दिया था। शाहजहाँ के चार पुत्र थे। दाराशिकोह, शुजा, औरंगजेब और मुरादबख्श। शाहजहाँ ने अपने इन चारों पुत्रों को साम्राज्य में अलग-अलग अधिकारी बना दिया था। दाराशिकोह पंजाब तथा उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश का, शुजा बंगाल तथा उड़ीसा का, औरंगजेब साम्राज्य के दक्षिण प्रदेशों का और मुरादबख्श गुजरात का सूबेदार था। दारा शिकोह का स्वभाव, शाहजहाँ के स्वभाव के साथ अधिक मिलता था, इसलिए वह सम्राट के साथ रहा करता था। वही अपने सब भाइयों में बड़ा था और साम्राज्य का अधिकारी था। मेवाड़ के राणा राजसिंह और दारा में अधिक मेल रहता था। इसलिए सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों में जब राज्य के लिए संघर्ष उत्पन्न हुआ और युद्ध हुआ तो राजसिंह ने दारा शिकोह का साथ दिया। उस युद्ध में दारा की पराजय हुई। उसकी सहायता के लिए राजसिह के साथ राजपूताना के अनेक राजा अपनी सेनाओं के साथ आये थे।इसलिए उन सब के साथ औरंगजेब की शत्रुता उत्पन्न हो गयी। अपने भाइयों को परास्त और सर्वनाश करके औरंगजेब सन्‌ 1658 ईसवी में सिंहासन पर बैठा। शाहजहाँ के सामने जब बुढ़ापे का संकट था। औरंगजेब के कारण अनेक असह्य विपदाओं में उसे रहना पड़ा। इसके पहले उसका सम्पूर्ण जीवन सुखमय रहा था। वह एक विलासी सम्राट था। उसके शासनकाल में मुग़ल-साम्राज्य का खजाना बड़ी उन्नति पर था। हीरा, लाल और जवाहरातों की अपार सम्पत्ति उसके अधिकार में थी। वर्षगाँठ के दिन वह प्रति वर्ष जवाहरातों से तौला जाता था और वे जवाहरात दीन दुखियों को बाँट दिये जाते थे। उसका राज सिंहासन चौदह लाख से भी अधिक समझा जाता था। मुगल बादशाहों मैं सबसे अधिक और प्रसिद्ध इमारतें उसी ने बनवाई
थीं। ताजमहल उसी का बनाया हुआ है, जो संसार की प्रसिद्ध
इमारतों में माना जाता है। दिवेर की लड़ाई का वर्णन जारी है….

औरंगजेब और हिन्दू नरेश

मुग़ल-साम्राज्य के सिहासन पर बैठने के पहले औरंगजेब का धार्मिक पक्षपात बहुत-कुछ छिपा रहा था। शाहजहाँ और दारा शिकोह के साथ वह पहले से ही मतभेद रखता था। दारा शिकोह के साथ संघर्ष पैदा होने पर हिन्दू राजाओं ने उसके विरुद्ध दारा शिकोह का साथ दिया था। हिन्दुओं के साथ उसके विरोध का आरम्भ यहीं से हुआ औरर उसकी विरोधी भावना ने धार्मिक और जातीय पक्षपात का रूप धारण किया। शुरू में उसने कुछ ऐसे कार्य किये थे, जिनसे हिन्दू और मुसलमानों दोनों का लाभ था। लेकिन उसकी यह प्रवृत्ति कुछ ही समय के बाद बदल गयी और धीरे-धीरे वह हिन्दुओं का शत्रु बन गया। धार्मिक पक्षपात न होने के कारण ही अकबर ने मुग़ल-साम्राज्य की प्रतिष्ठा में अदभुत सफलता पाई थी और समस्त राजा तथा नवाब उसकी अधीनता में आ गये थे। निष्पक्ष भावना ने अकबर की शक्तियों को महान बना दिया था और यह भावना ही उसकी सफलता का कारण बन गयी थी। जहाँगीर और शाहजहाँ तक, अकबर की भावना जीवित रही। औरंगजेब का शासन आरम्भ होते ही वह भावना निर्बल होने लगी और थोड़े समय के भीतर ही उसका शासन हिन्दुओं का शत्रु हो गया। हिन्दुओं के प्रति औरंगजेब के अत्याचारों के कारण ही दक्षिणी भारत में मराठों का विद्रोह उत्पन्न हो गया और उत्तरी भारत में भी हिन्दू उसके विरोधी हो गये। विद्रोह की यह आग साम्राज्य में चारों ओर फैलने लगी। औरंगजेब ने उसको बुझाने की चेष्ठा न की। बल्कि उसके कार्यों से विद्रोह की वह साधारण आग धीरे-धीरे प्रज्वलित होने लगी। जातीय और धार्मिक पक्षपात में आंखें बन्द करके औरंगजेब ने काम किया। उसके वे सारे कार्य अत्याचार के रूप में साम्राज्य के हिन्दुओं के सामने आये। सन्‌ 1668 ईस्वी में उसने आज्ञा दी की हिन्दुओं के समस्त मन्दिर, शिवालय झौर उनकी पाठशालायें तोड़ कर उनके स्थानों पर मस्जिदें ओर सरायें बनवाई जाये। इस आज्ञा के परिणाम-स्वरूप मथुरा, वृन्दावन, आगरा, बनारस और गुजरात आदि नगरों के मन्दिर गिरवा दिये गये और उनके स्थानों पर मस्जिदें बन गयीं सन्‌ 1679 ईंसवी में हिन्दुओं से जज़िया कर फिर वसूल किया जाने लगा और उन पर बहुत से नये कर लगाये गये। उनके अदा करने में किसी हिन्दू के आगा-पीछा करने पर अथवा न दे सकने पर उसको भयानक दंड दिया जाता। हिन्दुओं पर जो पुराने कर चले आ रहे थे, उनमें वृद्धि कर दी गई ओर उनकी वसूलयाबी में बहुत सख्तियाँ की गई। जबरदस्ती हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। इन अत्याचारों के फल-स्वरूप, वही हिन्दू नरेश जिनकी सहायता से अकबर ने विशाल मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की थी, उसके वंशज औरंगजेब के शत्रु हो गये ओर उसके मिटाने की चेष्टा करने लगे। दिवेर के युद्ध का वर्णन जारी है…..

विद्रोह की आंधियां

हिन्दुओं पर औरंगजेब के अत्याचार बढ़ते गये। उसने पीड़ित हिन्दुओं की ओर कभी आंख उठा कर न देखा। समस्त साम्राज्य में हाहाकार मचा रहा। उसकी कहीं सुनवाई न थी। राज्य के अत्याचारी मुस्लिम अधिकारियों ने हिन्दुओं के साथ अमानुषिक अन्यायों में कुछ बाकी न रखा। अन्याय और अत्याचार से शत्रुओं की उत्पत्ति होती है। सन्‌ 1669 ईसवी में मथुरा और दूसरे कई जिलों के जाटों ने संगठित होकर औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और सन्‌ 1672 ईसवी में सतनामी नामक एक सम्प्रदाय के लोगों ने मुगल बादशाह के साथ विप्लव किया। इन्हीं दिनों में पंजाब के सिख उठ खड़े हुए और उन्होंने मुगल-शासन का विद्रोह किया। देश की यह विरोधी शक्तियां बहुत साधारण थीं। यद्यपि उनके विद्रोहों को दबाने के लिए औरंगजेब को बहुत हानि उठानी पड़ी और बहुत से उसके मुगल सैनिकों का संहार हुआ। लेकिन औरंगजेब ने इसकी कुछ परवाह ने की और सन्‌ 1676 ईसवी में उसने राजपूतों के साथ भी संघर्ष पैदा कर दिया। जोधपुर के राजा जसवंतसिह की मृत्यु के बाद, जिसने उसकी अधीनता स्वीकार की थी और उसकी सहायता में जिसने मराठों के साथ युद्ध करते-करते अपने प्राणों का अन्त किया था, उसने उसकी दोनों विधवा रानियों को बन्दी कर लिया और उनका मेवाड का राज्य दूसरों को सौंप दिया। जसवन्तसिह के एक पुत्र को भी उसने मरवा डाला।लेकिन उसका दूसरा लड़का अजीतसिंह अपने मन्त्री दुर्गादास राठौर की सहायता से जीवन-भर मुगलों के साथ युद्ध करता रहा। इस प्रकार के अनेक कारणों से राजपूताना के राजपूत भी उसके शत्रुहो गये। दिवेर के युद्ध का वर्णन जारी है…

राणा राजसिंह का गौरव

राजपूताना में मेवाड़-राज्य का गौरव बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा था। उस राज्य की शक्तियाँ अनेक अवसरों पर लोप हो चुकी थी लेकिन कुछ समय के बाद, मेवाड़ फिर शक्तिशाली हो जाता था। महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ का गौरव फिर छिन्न भिन्न हो गया था। लेकिन राणा राजसिंह के सिंहासन पर बैठते ही उनका फिर उत्थान हुआ। किसी भी राज्य का गौरव उसके राजा की योग्यता पर निर्भर होता है। राजसिह बप्पा रावल का योग्य वंशधर था। उसकी वीरता और तेजस्विता शत्रुओं पर भी अपना प्रभाव डालती थी। वह अत्यन्त साहसी और निर्भीक था। राजपूताना के समस्त शासक और सरदार राजसिंह का सम्मान करते थे। सन्‌ 1614 ईसवी में बादशाह जहाँगीर ने मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए शाहजादा खुर्रम के नेतृत्व में एक मुगल सेना भेजी थी। उन दिनों में वहाँ का शासन राणा अमरसिह के हाथ में था। उसने राजपूत सेना को लेकर मुग़ल-सेना का सामना किया था और अंत में पराजित हुआ था। उसके बाद अमरसिह ने मुगलों के साथ सन्धि कर ली थी। राणा अमरसिह के समय से ही मुग़ल-साम्राज्य का आधिपत्य मेवाड़ पर आ चुका था। लेकिन जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन-काल तक दोनों राज्यों के बीच एक मित्रता का सम्बन्ध चलता रहा। यह सम्बन्ध बादशाह औरंगजेब के समय में बिगड़ने लगा था लेकिन संघर्ष की कोई
परिस्थिति उत्पन्न न हुई थी, राणा राजसिह औरंगजेब की मनोवृत्ति को खूब समझता था। वह शक्तिशाली मुग़ल-सम्राट से अपरिचित न था। परन्तु अपनी निर्भीकता के कारण वह कुछ परवाह न करता था। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है….

राजकुमारी प्रभावती

मारवाड़ के राठौर राजपूत, मारवाड छोड़कर रूपनगर चले गये
थे और वे वहीं पर रहने लगे थे। रूपनगर मुग़ल-साम्राज्य में सम्मलित था। इसलिए जो राजपूत वहाँ पर रहते थे, वे मुग़ल राज्य के सामन्त माने जाते थे। औरंगजेब के पहले उनको अनेक सुविधायें प्राप्त थीं। परंतु औरंगजेब के शासन काल में उनकी स्वतन्त्रता का अपहरण हो चुका था और वे सभी प्रकार के बन्धनों में जीवन व्यतीत कर रहे थे। जिन दिनों में औरंगजेब का शासन बड़ी कठोरता के साथ चल रहा था, रूपनगर के राठौर वंश की राजकुमारी प्रभावती ने यौवनावस्था में प्रवेश किया था। वह अपने सुन्दर शरीर और आकर्षक स्वास्थ्य के लिए प्रसिद्ध हो रही थी।प्रभावती के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर औरंगजेब ने उसके साथ विवाह करने का निश्चय किया। रूपनगर में एक शोररानी प्रभावती अपने अपूर्व यौवन, अद्भुत स्वास्थ्य और आकर्षक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध हो रही थी, दूसरी ओर उसके साथ विवाह करने का औरंगजेब का निश्चय रूपनगर और उसके आस-पास बड़ी तेजी के साथ फैल रहा था। औरंगजेब की यह अभिलाषा चारों ओर फैल कर प्रभावती के कानों में भी पहुँची। मुसलमान बादशाह के उस निर्णय को सुन कर वह अस्त-व्यस्त हो उठी। रानी प्रभावती ने किसी से उस सम्बन्ध में बातचीत न की। लेकिन उसे साफ-साफ यह मालूम हो गया था कि औरंगजेब मेरे साथ विवाह करना
चाहता है। इसलिए वह प्रत्येक समय भयानक मानसिक चिन्ताओं में रहने लगी। जिस प्रकृति ने प्रभावती को अदभुत स्वास्थ्य और सौन्दर्य दिया था, उसने उसकी उसकी रक्षा के लिए शक्तियां न दी थी। यौवन का जो वैभव प्रभावती के सुख और सौभाग्य का साधन था, वही उसके दुख, दुर्भाग्य और विपदाओं का कारण बन गया। वह सोचने लगी सम्पूर्ण मुग़ल-साम्राज्य के शासक बादशाह औरंगजेब का कौन विरोध करेगा ? किसके पास इतनी बड़ी शक्तियाँ हैं, जो उसका सामना कर सके ? भगवान की क्‍या यही अभिलाषा है कि मेरे जीवन का सर्वस्व, उस मुसलमान बादशाह के लिए उत्सर्ग हो, जिसके नाम और स्मरण से मैं घृणा करती हूँ।ऐसा नहीं हो सकता। अपनी रक्षा के लिए मेरे पास वह शक्ति हैं, जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। अपनी उस शक्ति से, मुझे कोई वंचित नहीं कर सकता। बादशाह को अपने साम्राज्य का अहंकार है। उस अहंकार में उसने मनुष्यत्व को भुला दिया है। बादशाह के अभिमान ने उसे प्रकृति के इस सत्य को समझने का अवसर नहीं दिया कि सम्पूर्ण प्रकृति की रचना में स्त्री-जीवन का निर्माण अद्भुत और अजेय है। सम्पत्ति और राज्य के वैभव उसके परिष्कृत हृदय पर विजयी नहीं होते जब दूसरे तरीकों से मेरी रक्षा न हो सकेगी तो मैं अपने उस अस्त्र का प्रयोग करूगी, जिससे मुझे कोई वंन्चित नहीं कर सकता। मैं आत्मघात करके इस संसार से बिदा हो जाऊंगी। वह अस्त्र कभी असफल नहीं होता। संसार के दुराचारी अभिमानियों से अपनी रक्षा करने के लिए परम पिता भगवान ने यह अस्त्र स्वयं उन बालिकाओं और युवती स्त्रियों को दिया है, जिनके हृदय स्वच्छ होते हैं और संसार के विकारों से जिनका अन्तरंग और वहिरंग बहुत दूर रहा करता है। अपने इस अस्त्र का लड़कियों को जन्म से ही ज्ञान होता है।इस प्रकार की कितनी ही बातों को सोचने और समझने के बाद प्रभावती को कुछ संतोष मिलता, लगातार दिन बीत रहे थे। रूपनगर के सभी स्त्रियों और पुरुषों ने समझ लिया था कि प्रभावती को औरंगजेब की बेगम बनना पड़ेगा। इसे कोई रोक नहीं सकता। दिवेर के युद्ध का वर्णन जारी है…..

दिवेर का युद्ध
दिवेर का युद्ध

प्रभावती का निर्णय

लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ अधिक सजीव और भावुक होती हैं। वे स्व॒यं अपने जीवन का निर्णय करती हैं। यौवन की सुमधुर और शीतल वायु की तरंगों ने प्रभावती के अन्तःकरण को मेवाड़ के राणा राजसिह की ओर पहले से ही प्रवाहित कर रखा था राजसिंह के शौर्य और प्रताप ने उसको अपनी ओर आकर्षित किया था। वह प्रायः उसी के गुणों का चिन्तन किया करती थी। उन्हीं दिनों में मुग़ल-साम्राज्य की और से भयानक आँधी उठी और रूपनगर पहुँच कर सब के सामने उसने एक स्वच्छ वातावरण को घूलिसात बना दिया | उस भीषण धुन्ध में नवयोवना प्रभावती बार-बार मेवाड़ की ओर देखती और राजसिंह का ही स्मरण करती। औरंगजेब को विश्वास था कि प्रभावती मेरे प्रस्ताव को सुनकर प्रसन्नता के साथ बेगम होना स्वीकार करेगी। लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि वह मेरे प्रस्ताव को स्वीकार न करेगी तो अपनी अभिलाषा को पुरा करने के लिए उसने अपनी एक पैदल सेना के साथ चुने हुए दो हजार सवार रूपनगर भेज दिये।रूपनगर में मुगल-सेना के पहुँचते ही सन्नाटा छा गया। प्रभावती के पिता में क्या साहस था कि वह अपनी लड़की का विवाह बादशाह के साथ करने से इनकार करता। यह परिस्थिति प्रभावती के सामने बड़ी भयानक हो गयी। इतनी जल्दी यह संकट उसके सामने आ जायगा, इसको उसने कभी सोचा न था। सामने आने वाली भीषण परिस्थिति से प्रभावती काँप उठी। वह अपने पिता की निर्बलता को पहले से जानती थी। उसने सावधानी और तत्परता से काम लिया। किसी अवान्छनीय दुर्घटना का आश्रय लेने ने पूर्व उसने मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास पत्र भेजने का निश्चय किया और अपने एक विश्वस्त दूत को बुलाकर अपना लिखा हुआ पत्र उसने उसको दिया। उसे समझा-बुझा कर मेवाड़ के राणा राजसिह के पास भेज दिया। मेवाड़ में पहुँच कर उस दूत ने राणा को प्रभावती का पत्र दिया। राणा ने उसे खोल कर पढ़ा। उसमें लिखा था। “महाराज मैं नहीं जानती कि आप मुझे जानते हैं या नहीं । लेकिन मैं आपको जानती हूँ। मैं नहीं जानती कि मेरे किन पूर्व संस्कारों के कारण, आपकी प्रतिभा और योग्यता ने मेरे हृदय पर कुछ दिन पहले से अधिकार कर रखा है। सुना है, औरंगजेब बादशाह ने मुझे अपनी बेगम बनाने का निश्चय किया है ओर उसी उद्देश्य से उसने अपनी एक बड़ी सेना रूपनगर में भेज दी है। इस यन्त्रता से छुटकारा पाने के लिए संसार में कोई दूसरा नहीं है, जिससे कह सकने का मुझे अधिकार हो। इसीलिए यह पत्र आपके पास भेज रही हूं यदि अपनी इस चेष्टा में मैं असफल रही तो आत्मघात के अतिरिक्त अपनी रक्षा के लिए मेरे पास दूसरा और कोई उपाय नहीं है। आपकी–प्रभावती”। पत्र पढ़ते ही राजसिंह गम्भीर हो उठा। उसके शरीर में मानों बिजली का स्पर्श हुआ हो। उसने औरंजेब की शक्तियों का एक बार स्मरण किया और फिर अपने विश्वासी और शक्तिशाली सरदार चुडावत, शखावत, राणावत, दूदावत, भाला, परमार, हाडा और राठौर को बुलाकर उसने परामर्श किया। सभी ने एकमत होकर किसी भी अवस्था में प्रभावती के उद्धार का निश्चय किया। दिवेर के युद्ध का वर्णन जारी है…..

मुगल सवारों का संहार

राणा राजसिंह ने राजपुतों की एक सेना तैयार की और वह स्वयं
रूपनगर जाने के लिए तैयार हुआ। राजपूतों की तलवारों की झनकारों से चित्तौड़ का स्वाभिमान फिर जागरित हुआ। अपनी सेना लेकर राजसिंह रूपनगर की ओर रवाना हुआ वह नगर अरावली पर्वत माला की तलहटी में बसा हुआ था। बीच के लम्बे रास्ते को पाकर राजसिह रूपनगर पहुँचा और आकस्मात वहाँ जाकर उसने मुगल सेना पर आक्रमण किया। दोनों ओर की सेनाओं में बहुत समय तक युद्ध हुआ। अन्त में मुगल सेना को पराजय हुई। बहुत से मुग़ल सैनिक और संवार जान से मारे गये। और जो बचे, वे रूपनगर से भाग गये। औरंगजेब की भेजी हुईं सेना का संहार करके राजसिंह रूपनगर से अपनी सेना के साथ उदयपुर लौट गया। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है….

विवाह का निर्णय

रूपनगर में मुग़ल-सेना का विध्वंस हुआ। बचे हुए मुगलों ने भागकर औरंगजैब को अपने सर्वनाश का समाचार सुनाया।औरंगजेब ने इसका बदला लेने और प्रभावती के साथ विवाह करने की प्रतिज्ञा की। उसके इस संकल्प से रूपनगर की अवस्था और भी भयानक हो उठी एक छोटी-सी सेना के परास्त होनें से ही औरंगजेब प्रभावती के साथ होने वाले विवाह का विचार समाप्त कर देगा, यह सर्वथा असम्भव था। रूपनगर के सभी लोग इस बात को खूब समझते थे और यह भी जानते थे कि प्रभावती के विवाह को लेकर रूपनगर में अब प्रलय के दृश्य उपस्थित होंगे।औरंगजेब किसी प्रकार मान नहीं सकता। इस परिस्थिति को समझने में प्रभावती को देर न लगी। अपने चाचा को बुलाकर उसने बातें कीं। उसके बाद सगे, सम्बन्धियों से परामर्श करके मेवाड़ के राणा राजसिंह के साथ प्रभावती के विवाह का निर्णाय किया गया और पुरोहित को बुलाकर एक पत्र के साथ राणा राजसिंह के पास प्रभावती के विवाह का नियमानुसार प्रस्ताव भेजा गया। सॉँड़िती पर बैठकर पुरोहित दिन-भर की पूरी यात्रा करके राजसिह के दरबार में पहुँच गया और उसने प्रभावती के विवाह का पत्र राणा के हाथ में दिया। राणा ने उस पत्र को पढ़ा और उसके बाद, उसने उस पत्र को अपने सरदार चूड़ावत के हाथ में दे दिया। उसने दरबार के सभी सरदारों के सामने उस पत्र को पढ़ा और कुछ समय तक परामर्श होता रहा। अन्त में विवाह के उस प्रस्ताव को स्वीकार किया गया और पुरोहित स्वीकृति ले कर रूपनगर चला गया। दिवेर युद्ध का वर्णन जारी है….

विवाह की तैयारी

यह सब को मालूम था कि अपनी सेना के परास्त होने का समाचार पाकर औरंगजेब चुप होकर न बैठेगा। यह भी सब को मालुम था कि प्रभावती के विवाह के संघर्ष में मुगल बादशाह अपनी विशाल सेना लेकर रूपनगर पर आक्रमण करेगा और उस भयंकर युद्ध में दोनों ओर का सर्वसंहार होगा। इसलिए राणा राजसिह और उसके सरदारों में निश्चय हुआ कि राणा एक छोटीं सी सेना लेकर रूपनगर के लिए प्रस्थान करे और सरदार चूड़ावत मेवाड़ की शक्तिशाली सेना लेकर रूपनगर और गागरा के बीच में मुकाम करे, जिस समय औरंगजेब अपनी सेना के साथ रूपनगर के रास्ते पर मिले, उस समय राजपूत सेना उसके साथ एक निश्चित समय तक युद्ध करे। इसी बीच में राजसिह प्रभावती को ब्याह करके लोट आवेगा। चूड़ावत राणा राजसिंह की सेना का शूरबीर सरदार था। प्रभावती के साथ राजसिंह के विवाह की समस्त योजना का निश्चय हो गया। सरदार चूड़ावत के साथ मुग़ल बादशाह से युद्ध करने के लिए पचास हजार की संख्या में सेना तैयार हुई, चुने हुए सैनिकों और सरदारों की संख्या में सेना तैयार हुईं। चुने हुए सैनिकों और सरदारों की सेना को साथ में लेकर चूड़ावत वहाँ से रवाना हुआ और पूर्व निर्णय के अनुसार, राणा राजसिह ने एक छोटी-सी सेना के साथ रूपनगर के लिए प्रस्थान
किया। रूपनगर और आगरा के मार्ग पर जाकर एक विस्तृत मैदान में चूड़ावत ने अपनी सेना को रोका और दो दिनों का विश्राम देकर उसने मुगल बादशाह की आने वाली सेना का पता लगाने के लिए अपने कुछ आदमियों को भेजा। उन आदमियों ने लौटकर बताया कि औरंगजेब बादशाह अपने हाथी पर आ रहा है और उसके साथ बहुत बड़ी सेना है। चुड़ावत बादशाह की सेना पर आक्रमण करने के उपायों को सोचने लगा। वह इस बात को सुन चुका था कि बादशाह के साथ जो सेना आ रही है, वह राजपूत सेना से बहुत बड़ी है। फिर भी चूड़ावत के साहस और उत्साह में किसी प्रकार की कमी नहीं आयी। बादशाह के भारी लश्कर के आने के पहले तक राजपूत सरदार बराबर यही सोचता रहा कि वह विशाल मुगल सेना को रोक कर किस प्रकार युद्ध करेगा दिवेर के युद्ध का वर्णन जारी है….

मुगलों के साथ युद्ध

राजपूत सेना पहले से ही तैयार थी। बादशाह का लश्कर जब
निकट आ गया तो उसने अपने आदमियों को भेजकर पता लगाया कि आगे कौन-सी सेना पड़ी है और उसके यहाँ रुकने का कारण क्‍या है ? आदमियों ने लौटकर बताया कि मेवाड़ के राणा राजसिंह की यह सेना है और उदयपुर से आयी है। उसने मुग़ल सेना का रास्ता रोक रखा है और ऐसा मालूम होता कि बिना युद्ध के राजपूत सेना निकलने न देगी। दोनों ओर के प्रतिनिधियों ने बातचीत की लेकिन कोई सन्तोंषजनक निष्कर्ष नहीं निकला। आगरा की तरफ बादशाह की सेना थी और रूपनगर को ओर उदयपुर को बातचीत में पूरा एक दिन बीत गया। दोनों सेनाओं के अधिकारियों को मालूम हो गया कि प्रत्येक अवस्था में युद्ध अनिवार्य है। इसलिए संग्राम के लिए दोनों ओर की सेनायें तैयार होने लगीं। कुछ समय के बाद मुग़ल सेना एक मैदान की ओर बढ़ती हुई दिखाई पड़ी। उसी समय राजपुत सेना ने आगे बढ़कर उस पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं में युद्ध आरम्भ हो गया। प्रात:काल से लेकर युद्ध करते-करते सायंकाल हो गया। अंघेरा हो जाने के कारण दोनों सेनायें हटकर अपने-अपने शिविर में पहुँच गयीं। दूसरे दिन प्रात:काल होते ही एक बार फ़िर बादशाह ने अपने आदमियों को भेजकर बातचीत करने की कोशिश की और अपनी फौज के निकल जाने के लिए रास्ता माँगा। परन्तु चूड़ावत ने रास्ता देने से साफ-साफ इनकार कर दिया, इसका परिणाम यह हुआ कि दूसरे दिन सवेरा होते-ही फिर युद्ध शुरू हो गया। सम्पूर्ण दिन भयानक युद्ध में बीत गया। लेकिन दो में एक भी सेना पीछे की ओर न हटी। दोनों ओर के हजारों आदमी जान से मारे गये। बादशाह औरंगजेब किसी प्रकार रूपनगर पहुँचना चाहता था। उसका उद्देश्य रास्ते में युद्ध करता न था और सरदार चूड़ावत किसी भी अवस्था में एक निर्धारित समय तक बादशाही फौज को रास्ते में रोक कर युद्ध करना चाहता था। दोनों के सामने अपने अपने उद्देश्य थे। युद्ध में दूसरा दिन भी समाप्त हो गया और रात हो जाने के कारण दोनों सेनाओं को युद्ध बन्द कर देना पड़ा। तीसरे दिन प्रात:काल होते ही फिर युद्ध छिड़ गया। तीसरे दिन के भयानक युद्ध में दोनों ओर के बहुत आदमी मारे गये उनमें राजपूतों की संख्या अधिक थी। सरदार चूड़ावत ने बड़ी सावधानी से काम लिया और उसने मुग़ल सेना को रूपनगर की तरफ बढ़ने न दिया। दिवेर के युद्ध का वर्णन जारी है….

दिवेर युद्ध से पहले चूड़ावत के साथ सन्धि

दोनों सेनाओं में तीन दिन तक बराबर युद्ध होता रहा। राजपूत सैनिकों की संख्या कम होती जाती थी। लेकिन जय-पराजय के लक्षण किसी तरफ दिखायी न देते थे। औरंगजेब जिस उदेश्य से इतने बड़े लश्कर को अपने साथ में लेकर चला था, वह उद्देश्य रास्ते में ही नष्ट हो रहा था। उसने तीन दिनों के युद्ध में राजपूत सेना को पराजित करके निकल जाने की चेष्टा की परन्तु उसे सफलता न मिल सकी। समय निकल जाने पर रूपनगर पहुँचना व्यर्थ हो जायगा, यह सोचकर बादशाह ने चौथे दिन युद्ध आरम्भ करने के पहले ही सन्धि का प्रस्ताव किया। चूड़ावत की सेना बहुत मारी जा चुकी थी और उसके शरीर में में भी सैकड़ों घाव थे। उसने बादशाह के प्रस्ताव पर विचार किया। उसने भली भाँति समझ लिया कि राणा राजसिंह के साथ जो समय निर्धारित हुआ था, वह समाप्त हो चुका है। राजसिह और प्रभावती के रुपनगर में मिलने की अब॒ सम्भावना नहीं है। रूपनगर का रास्ता यहाँ से किसी प्रकार तीन दिनों से कम का नहीं है। इस दशा में सन्धि
से अपनानी कोई हानि नहीं है। प्रभावती के विवाह के लिए जो समय पहले से निश्चित हुआ था, उसके समझने में बादशाह भूल करता है। चूड़ावत सरदार ने सन्धि के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। युद्ध बन्द हो गया। राजपूत सेना उदयपुर की शोर और मुग़ल सेना रूपनगर की ओर रवाना हुई, चौथे रोज दोपहर को जब मुग़ल-सेना रूपनगर पहुँची तो उसे मालुम हुआ कि प्रभावती के विवाह को कई दिन बीत चुके हैं और मेवाड़ का राणा राजसिंह उसे ब्याह कर अपने साथ उदयपुर ले गया है। निराश होकर बादशाह औरंगजेब रूपनगर से वापस चला गया। मुग़ल-सेना के साथ युद्ध करके सरदार चूड़ावत भयानक रूप से घायल हो चुका था। उदयपुर पहुँचने के पहले ही उसके प्राणों का अन्त हो गया। बचे हुए राजपूत सैनिकों और सरदारों ने युद्ध के सम्बन्ध में राजसिह को पुरा समाचार सुनाया, सरदार चूड़ावत की मृत्यु का समाचार सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ। दिवेर युद्ध का वर्णन जारी है….

दिवेर युद्ध से पहले राजसिंह के साथ शत्रुता

प्रभावती के विवाह के कारण राजसिंह के साथ औरंगजेब की
शत्रुता पैदा हो चुकी थी। लेकिन मेवाड़ के विरुद्ध आक्रमण करना
औरंगजेब के लिए बहुत सरल न था, इसके कई एक कारण थे।
राजसिंह स्वयं एक शक्तिशाली शासक था और राजपूताना के दूसरे शासक और सरदार उसके बहुत कुछ अनुयायी थे। साम्राज्य के अनेक स्थानों पर विद्रोहियों के उत्पात हो रहे थे। इसलिए औरंगजेब ने राजसिंह के प्रति तरह देना ही उस समय आवश्यक समझा। राजपूताना के अन्य राजपूत राजाओं के साथ औरंगजेब के संघर्ष चल रहे थे। उसने मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह का नाश किया था ओर उसके लड़कों का भी विनाश करता चाहता था राजा जसवन्त सिंह के बड़े लड़के अजित सिंह ने मेवाड के राणा राजसिंह से सहायता की प्रार्थना की राणा ने उसकी रक्षा का भार स्वीकार किया, और उस बालक अजीत सिंह को मेवाड़ में आकर रहने का उसने परामर्श दिया। अजित सिह अपने दो हजार सवारों के साथ मेवाड़-राज्य के लिए रवाना हुआ। जिस समय वह अरावली पर्वतमाला के दुर्गम पहाड़ों को लांघते हुए जा रहा था,कूटगिरि के एक संकीर्ण पथ में मुग़ल-सेना ने आकर आक्रमण किया और अजित सिंह को कैद करने की उसने चेष्टा की। अजीत सिंह के सवार सैनिकों ने मुगल-सेना के साथ कुछ समय तक भयानक युद्ध किया और उसे मार-काट कर वे मेवाड़ की तरफ बढ़े मुग़ल-सेना ने कुछ दूर तक उनका पीछा किया, उसके बाद वह लौटकर चली गयी। राजसिंह ने आदर पूर्वक अजित सीह का स्वागत किया और उसके रहने के लिए, उसने अपने राज्य का कैलवाड़ा नामक स्थान दे दिया। दिवेर की लड़ाई का वर्णन जारी है…

दिवेर के युद्ध की तैयारियां

मेवाड़-राज्य की शक्तियां उन दिनों में बहुत साधारण थीं। मुगल सेनाओं के बार-बार आक्रमण से वह राज्य क्षत-विक्षत हो चुका था। फिर भी राणा राजसिह की निर्भीकता के कारण वह राज्य अपना मस्तक ऊँचा किये था। औरंगजेब मेवाड़ के राणा राजसिंह के अनेक कार्यों को अशिष्टता के रूप में देख चुका था। मेवाड़ की शक्तियों को कुछ न समझने पर भी बादशाह ने कई अवसरों पर तरह दी थी। लेकिन राजा जसवन्त सिंह के बड़े पुत्र अजित सिह को अपने यहाँ शरण दे कर राजसिह ने जो अपराध किया था, औरंगजेब उसे क्षमा नहीं करना चाहता था। उसने समझ लिया था कि राजपूताना के राजाओं की ओर से जो उत्पात चल रहे हैं, उनकी जड़ में राजसिंह की सहायता है। यह समझ कर औरंगजेब ने मेवाड़ पर आक्रमण करने को तैयारी शुरू कर दी और उसने राजसिंह को गिरफ्तार करने की प्रतिज्ञा की। औरंगजेब ने अपने प्रधान सेनापति को बुलाकर कहा कि हमारी समस्त सेना को युद्ध के लिए तैयार करो, जो मेवाड़-राज्य में जाकर उसका संहार और विनाश करेगी। उदयपुर की सेना को परास्त कर राजसिंह को बंदी करेंगी। मेवाड़ के इस आक्रमण में हमारी कोई शक्ति बाकी न रहेगी। सेनापति ने सेनाओं के तैयार होने का आदेश दिया। समस्त सेनापति अपनी-अपनी सेनायें तैयार करने लगे। इस युद्ध के लिए औरंगजेब का पुत्र बंगाल से और अजीम काबुल से बुलाया गया। सुलतान मुअज्ज़म दक्षिण में शिवा जी के साथ युद्ध कर रहा था, बादशाह का आदेश मिलने से उस युद्ध को छोड़ कर वह चला आया और इस युद्ध में वह शामिल हुआ। सम्पूर्ण तैयारी हो चुकने पर बादशाह औरंगजेब अपनी विशाल और प्रचंड सेना को लेकर मेवाड़-राज्य की ओर रवाना हुआ। राणा राजसिंह को मालुम हुआ। मेवाड़ राज्य का विध्वंस और विनाश करने के लिए औरंगजेब अपनी प्रचंड सेना के साथ आ रहा है। उसने तुरन्त अपने सरदारों, सामन्तों और सेनापतियों को संग्राम के लिए तैयार होने की आज्ञा दी। औरंगजेब ने अभी तक जितने युद्ध किये थे, यह युद्ध उनमें सब से भयानक था। मुगल बादशाह का सामना करने के लिए राजपूताना के अनेक राजा, सरदार और सामनन्त अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर उदयपुर में आये और राजसिह के झंडे के नीचे खड़े होने लगे। राणा संग्रामसिह के बाद, राजपुताना के राजपूतों के संगठित होने का यह पहला अवसर था । मेवाड़ के पश्चिम और विस्तृत पंत के अर्णयवासी अपनी संगठित शक्तियों के साथ, कई हजार की संख्या में धनुष-वाण ले लेकर, मुगलों के साथ युद्ध करने के लिए उदयपुर पहुँच गये। इस प्रकार सैनिकों, सरदारों, सेनापतियों और सामन्तों के विशाल लड़ाकू जन समूह ने उदयपुर में एकत्रित होकर जब जय जयकार की गगन भेदी आवाजें की तो उन सब का एक साथ सिंहनाद मिल कर पर्वत माला की तलहटी में प्रवेश करके पहाड़ी चट्टानों में टकराता हुआ बड़ी दूर तक पहुँचा ओर उसे सुन कर औरंगजेब की विशाल सेना ने अल्ला हो अकबर”’ की आवाज लगा कर उसका उत्तर दिया। दोनों सेनायें एक दूसरे की ओर बढ़ने लगीं। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है….

दिवेर युद्ध का मैदान में दोनों सेनायें

संग्राम-भूमि में पहुँच कर राणा राजसिंह ने अपनी विशाल सेना को तीन भागों में विभाजित किया। अपने बड़े पुत्र जय सिंह के अधिकार में एक सेना देकर अरावली के शिखर पर उसे उसने खड़ा किया। धनुषधारी गुजरों और भीलों की प्रचंड सेना राजकुमार भीम सिह के अधिकार में देकर पर्वत के पश्चिम ओर खड़ा किया और शेष सेना लेकर राणा राजसिंह स्वयं शत्रुओं का सामना करने के लिए जयसिंह और भीमसिंह के बीच में खड़ा हुआ। बादशाह औरंगजेब राजसिंह की यह ब्यूह-रचना देख कर आगे बढ़ा और अपनी सेना के साथ बहुत दूरी पर खड़ा रहा इसी समय सेनापति तह॒व्बर खाँ की सलाह से उसने अपनी पचास हजार सेना पुत्र अकबर के नेतृत्व में देकर उसे उदयपुर की ओर भेज दिया‌। दोनों सेनाओं के बीच का मैदान चौदह मील लम्बा और ग्यारह मील चौड़ा था भर दिवेर नामक स्थान के नाम से वह प्रसिद्ध था। यहीं पर सन्‌ 1680 ईसवी में एकत्रित हो कर दोनों ओर की सेनायें एक दूसरे के सर्वनाश का उपाय सोचने लगीं। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है….

दिवेर का युद्ध व भयानक संग्राम

औरंगजेब की आज्ञा से शाहजादा अकबर अपने साथ पचास हजार मुगल-सेना लेकर उदयपुर की तरफ चला गया था। उसको परास्त करने के लिए राजसिंह ने अपने पुत्र जय सिह को उसकी सेना के साथ रवाना किया। उसने अचानक अकबर की सेना पर आक्रमण “किया और बहुत-से मुगल सैनिक तलवारों से काट काट कर फेक दिये गये। इधर दिवेर के मैदान मैं औरंगजेब की फौज के साथ राजसिह ने युद्ध आरम्भ कर दिया था। जयसिंह के मुकाबले में अकबर को सेना परास्त होकर भागी और स्वयं अकबर ने भाग कर दिवेर के मैदान में औरंगजेब के पास आकर साँस ली। अकबर ने दिवेर के मिरि-मार्ग से आगे बढ़ने की कोशिश की। लेकिन राजसिह की सेना ने भीषण रूप से उस पर आक्रमण किया और उसके हजारों आदमी मार डाले गये। अकबर घबरा गया। उसने अपनी रक्षा का कोई उपाय न देखकर गोगुंदा के भीतर से मारवाड़ की तरफ भागने की चेष्टा की। उधर बढ़ते ही राजसिंह के भयानक भील सैनिकों ने अपने वाणों की मार आरम्भ कर दी। इसी अवसर पर जयसिंह अपनी ,सेना के साथ वहां पर पहुँच गया था। उसने पीछे से अकबर की सेना पर आक्रमण किया। अकबर इस समय भीषण संकटों में फैंस गया। अपनी रक्षा का कोई उपाय न दिखाई पड़ने पर उसने जय सिह से प्रार्थना की उसने अकबर पर दयालु होकर अपंआ आक्रमण रोक दिया। अकबर वहां से भाग कर चित्तौड़ के प्रकोटे की तरफ चला गया। दिवेर का युद्ध वर्णन जारी है….

दिवेर की लड़ाई में औरंगजेब की पराजय

दिवेर के युद्ध में अकबर के साथ ही दिलेर खाँ भी पराजित हुआ। इसके पश्चात्‌ राजसिंह ने औरंगजेब पर आक्रमण किया। इस समय दोनों ओर से संग्राम भयानक हो उठा। बड़ी तेजी के साथ,
राजपूत और मुग़ल सैनिक मारे जाने लगे। राजा जसवन्त सिह के पुत्र अजित सिंह के साथ वीर दुर्गादास उदयपुर आया था। उसने इस युद्ध में मुगलों का भयानक रूप में संहार किया। इस अवसर पर मुग़ल सेना की ओर से भीषण गोलों की वर्षा की गई। तोपों की उस मार से थोड़े समय में ही बहुत से राजपूतों का नाश हुआ। फिर भी उन्होंने मुग़लों को आगे नहीं बढ़ने दिया तोपों की भयंकरता देख कर कुछ देर के लिए राजसिंह सशंकित हुआ। उसने अपने राजपूतों को एक साथ मुग़ल-सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उन्मत्त राजपूत तुरन्त आगे बढ़े और सब के सब तोपों पर टूट पड़े। औरंजेब के तोपची मारे गये ओर जिन जंजीरों से बाँध कर तोपों को खड़ा किया गया था, उनके टुकड़े टुकड़े हो गये। मुगल सेना का व्यूह टूट गया। राजपूत सैनिकों और सरदारों ने मुग़ल सेना के भीतर प्रवेश करके शत्रुओं का भयंकर रूप से संहार करना आरम्भ कर दिया। यह देखकर औरंगजेब घबरा गया और अपनी बची हुईं सेना को लेकर वह युद्ध-भूमि से बड़ी तेजी के साथ भागा। उसकी तोपों, भव्य-शस्त्रों और पताका को राजपूत सेना ने अपने अधिकार में कर लिया। औरंगजेब के बहुत से हाथी राजपूतों के अधिकार में आ गये। दिवेर के इस भयकर युद्ध में राणा राजसिंह की विजय हुई, परन्तु इस युद्ध में उसके बहुत से राजपुतों का संहार हुआ।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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