दार्जिलिंग हिमालय पर्वत की पूर्वोत्तर श्रृंखलाओं में बसा
शांतमना दार्जिलिंग शहर पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। लगभग 7000 फुट तक की ऊँची श्रृंखलाओं को काट-काटकर बसा यह ढलवां शहर पर्यटकों के लिए नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करता है। अत्यंत साफ-सुथरा दार्जिलिंग अपने निश्छल-हृदय निवासियों का प्रतिबिंब है। यह ऐसा शहर है, जिसकी यात्रा के आरंभ-स्थल से ही मन रोमांचित होना शुरू हो जाता है।
दार्जिलिंग टॉय ट्रेन का सुहाना सफर
दार्जिलिंग यात्रा का वह आरंभ-स्थल है न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन, जिसे संक्षेप में ऐनजेपी भी कहते हैं। दार्जिलिंग के लिए ऐनजेपी स्टेशन से रेलगाड़ी पकड़नी होती है। यह गाड़ी खिलौना गाड़ी के नाम से ज्यादा जानी जाती है। इसे 1881 में फ्रैंकलिन प्रेस्टेज द्वारा चलाया गया था। ज्यों-ज्यों हम ऐनजेपी से दार्जिलिंग की ओर बढ़ते हैं, इसका चुंबकीय आकर्षण हमें बरबस अपनी ओर खींचता महसूस होता है। इसी आकर्षण वश हम प्रकृति की गोद में समाते चले जाते हैं। दार्जिलिंग वस्तुत: प्रकृति की गोद है। इस गोद में जो आकर्षण है, जो स्नेह है जो मधुरता है और जो विशालता है, वह यहां की घाटियां स्वयंमेव अनुभव करा देती हैं। दार्जिलिंग की यात्रा का प्रत्येक घटक तथा प्रत्येक पहलू अपने आप में विशिष्ट है।
यह रेल भारत की सबसे छोटी पटरी पर चलती है। इसमें बस जितने केवल दो-चार डिब्बे होते हैं। तीन या चार डिब्बे होने पर एक डिब्बा प्रथम श्रेणी का होता है। डीलक्स बस की तरह इसके शीशे बड़े-बड़े होते हैं तथा सीटों के मध्य ऊपर छत तक कोई पार्टीशन नहीं होता, यानि खुला डिब्बा होता है। इन डिब्बों का रंग हल्का नीला होता है। इस रेलगाड़ी का इंजन आकार में दरियाई घोड़े जितना होता है। हाथी इसके इंजन से दुगुना लंबा-चौड़ा और ऊंचा लगता है। यदि चलने से पहले हाथी इसके आगे अड़़कर टक्कर ले ले, तो शायद यह चल न पाए। इसकी पानी की टंकी से ज्यादा पानी ऊंट अपने पेट में समा सकता है, इसीलिए इसे रास्ते में हर घंटे बाद पानी लेना पड़ता है। फिर जैसा इसका इंजन है, वैसी ही इसकी गति है। आधुनिक जमाने में जहां 350 किमी प्रति घंटा की गति से गाड़ियां दौड़ती हैं, उसे देखते हुए इसकी गति को गति नहीं कहा जा सकता। ऐनजेपी से दार्जिलिंग के बीच 88 किमी लंबा सफर यह गाड़ी औसतन 44 किमी प्रति घंटा की दर से आठ घंटे में तय करती है। शताब्दी और राजधानी एक्सप्रेस आपको इतनी दूर 45 मिनट में ही पहुंचा देंगी। फिर भी इस गाड़ी से यात्रा करने के अपने अलग आकर्षण और लाभ हैं।
दार्जिलिंग हनीमून डेस्टिनेशन के सुंदर दृश्यहजारों फुट ऊंचे पहाड़ों के किनारों पर बनी सड़क पर यदि आप बस से सफर करेंगे, तो बस के बार-बार मुड़ने, ब्रेक लगने, संकरे किनारे से गुजरने और नीचे घाटी की गहराई और ऊपर पर्वत की ऊंचाई देखकर आपका दिल दहलने लगता है। हर समय यही भय बना रहता है कि बस अब गिरी, अब गिरी। हालांकि ऐसी कोई विशेष बात आमतौर पर नहीं होती। फिर भी ऐसे दुर्गम रास्तों से अनअभ्यस्त अनेक यायावर अपना साहस खो बैठते हैं और उनको बार-बार उल्टियां, पेशाब तथा चक्कर आता है और उनका जी मचलने लगता है। इस प्रकार वे अपना साहस खोकर सफर का सारा आनंद ही खो बैठते हैं। रेल से सफर करने पर हमारी सुरक्षा सुनिश्चित है, उपर्युक्त शिकायतें नहीं होती और हम निश्चित होकर यात्रा का आनंद उठा सकते हैं।
पर्यटन मानचित्र पर दार्जिलिंग का एक विशेष स्थान होने के कारण इस छोटी सी रेलगाड़ी में ही आपको भारत के विभिन्न भागों के लोगों और विदेशी पर्यटकों से भी मुलाकात हो जाएगी और आप यात्रा का अधिक लुत्फ उठा सकेंगे। इसके अतिरिक्त रेलगाड़ी में स्थानीय लोग भी होने के कारण आपकी किंचित जिज्ञासाओं, उदाहरणार्थ ठहरने के लिए होटल, दार्जिलिंग में दर्शनीय स्थल, उपलब्ध वाहन आदि का भी समाधान होता जाएगा और आप एक आश्वस्त पर्यटक के रूप में दार्जिलिंग में प्रवेश करेंगे।
हालांकि पर्वतीय बच्चों को व्यायाम की कोई कमी नहीं होती, फिर भी यह रेलगाड़ी उनके व्यायाम और मनोरंजन दोनों का अच्छा साधन है। रेलगाड़ी से होड़ में आगे निकलकर वे ड्राइवर और यात्रियों को चिढ़ाते रहते हैं, बार-बार चढ़ते हैं, उतरते हैं, पानी पीते हैं और फिर दौड़कर चढ़ जाते हैं। जो भी हो, ये बाल-सुलभ चंचलताएं वहां देखने में आती रहती हैं। आपने सड़कें तो मुख्य बाजारों के बीच से गुजरती देखी होंगी, परंतु रेल-पटरी या रेलगाड़ी नहीं। परंतु खिलौना गाड़ी के मामले में ऐसा नहीं है। यह बाजारों और घरों के बीच से निस्संकोच आती-जाती है। कई जगह दुकानों के शो-केस और गाड़ी के बीच इतना अंतर रह जाता है कि उनके बीच आदमी का बचना मुश्किल हो जाता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कोई बच्चा चलती गाड़ी से बिना हाथ बढ़ाए किसी की दुकान से केला तोड़ ले या अपने घर की देहली में खड़े किसी व्यक्ति से हाथ मिलाता चले। परंतु ऐसी शरारतें प्रायः नहीं होती, अन्यथा दुकानदार भी रेलगाड़ी में चढ़कर उनकी मरम्मत कर सकता है। और तो और, पहाड़ों से छलाँग लगाकर बंदर भी रेल की छत पर सवारी का आनंद उठाते रहते हैं।
ऐनजेपी से गाड़ी में बैठते ही मन प्रश्न करने लगता है कि कैसा होगा दार्जिलिंग का रास्ता। जी हां, प्रश्न सही उठता है। परंतु आप एक बात जान लीजिए कि जब पहाड़ हैं, तो रास्ता पहाड़ी यानि जंगली, मोड़-तोड़ वाला, चढ़वाँ- ढलवाँ, घुमावदार तो होगा ही। इसके लिए आप तैयार होकर चलें। ऐनजेपी से सिलीगुड़ी जं. और उससे कुछ आगे तक एक घंटे का मैदानी इलाका है। इसके बाद ताड़, देवदार, बाँस के पेड़ों से ढका पहाड़ी सफर आरंभ हो जाता है और इसके साथ ही आरंभ हो जाता है वह रोमांच, जिसकी आप आशा करके आए थे। सिलिगुडी जं. के बाद सड़क रेलवे लाइन की साथिन हो जाती है और दार्जिलिंग तक साथ निभाती है। आपने सड़क को रेलवे लाइन क्रॉस करते देखा होगा, परंतु
यहां रेलवे लाइन सड़क को बार-बार क्रॉस करती है। कभी इसके बीचों-बीच चलती है, कभी दाएं किनारे, कभी बाएं किनारे। कहीं रेलवे लाइन के ऊपर सड़क का पुल है और कहीं सड़क के ऊपर रेलवे लाइन का पुल। इस प्रकार कहीं रेल बस के ऊपर और कहीं बस रेल के ऊपर चलती दिखाई देती है।
इस पहाड़ी दुर्गम रास्ते में रेलवे यातायात सुगम बनाने के लिए कई तकनीकों का प्रयोग किया गया है। रेलगाड़ी का चलना कई तरह नियत किया गया है क्षितिज ऊर्ध्वज, गोलाकार और स्तरित रूप में क्षेतिज रूप में गाड़ी मैदानी इलाकों की तरह सीधी चलती जाती है। ऊर्ध्वज रूप में गाड़ी सीधी दूरी तय करने की बजाय ऊंचाई प्राप्त करती है। इसके लिए आवश्यकतानुसार किसी जगह विशेष पर रेलवे लाइन बंद कर दी गई है और वहां से दूसरी लाइन, जो पहली लाइन की दिशा में ही उल्टी जाती हुई ऊंचाई प्राप्त करती जाती है, कुछ दूरी तक जाती है। चूंकि दूसरी लाइन पर रेलगाड़ी को वापस पहली लाइन की दिशा में जाना होता है, अत: दूसरी लाइन पर इंजन पीछे से ही रेलगाड़ी को धकेलता है। थोड़ी दूर जाने पर दूसरी लाइन भी बंद हो जाती है और वहाँ से एक तीसरी लाइन फिर दूसरी लाइन से ऊंचाई प्राप्त करती जाती है। तीसरी लाइन पर इंजन फिर रेलगाड़ी के आगे होता है।
गोलाकार लाइन, जिसे लूप कहते हैं, गोल छल्ले की भांति ऊंचाई ग्रहण करती जाती है। स्तरित रूप में लाइन किसी पहाड़ी के एक ही ओर कुछ-कुछ ऊंचाई, निचाई पर कई-कई जगह दिखाई देती है। इस विधि से रेलगाड़ी पहाड़ पर चढ़ती है या उससे नीचे उतरती है। कई बार एक किमी की दूरी तय करने के लिए छह-छह किमी की दूरी तय करनी होती है। भूस्खलन रोकने के लिए कई जगह रेलवे लाइन के पचासों फुट नीचे से पत्थरों की रोक लगाई गई है। इन पत्थरों की चिनाई नहीं की गई, बल्कि इन्हें अच्छी तरह जंचा कर तार-जालियों से बाँध दिया गया है। कई जगह घाटियों में ऊंचाई पर पुल बनाए गए हैं। सड़क और रेलवे लाइन साथ-साथ होने के कारण वाहन तथा रेलगाड़ी कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। वाहन, बच्चे तथा साइकिल मैन रेलगाड़ी से आगे बढ़ कर रेलवे लाइन क्रॉस करते रहते हैं। पहाड़ियों पर जो त्रिस्तरीय लाइन की बात कही गई है, उसमें रेलगाड़ी को निचली लाइन से ऊपर तीसरी लाइन पर पहुंचने में या ऊपरी लाइन से निचली लाइन पर पहुंचने में घंटे भर का समय लग जाता है। इन लाइनों के बीच जिसका घर होता है, वह रेलगाड़ी से उतरकर पहाड़ पर पैदल ही सीधी उतराई,“चढ़ाई के बाव खाना-पीना करके घंटे भर बाद पुनः रेलगाड़ी पकड़ लेता है।


दार्जिलिंग हनीमून डेस्टिनेशन के सुंदर दृश्यइस रेलगाड़ी को ढलानों में अपनी गति बढ़ने और चढ़ाइयों पर वापस फिसलने का भी डर बना रहता है अर्थात् ढलान पर अधिक गति और चढ़ाई पर कम गति दोनों ही इसके लिए खतरनाक साबित होती हैं। गति को नियंत्रित करने के लिए इसके ब्रेक ही काफी नहीं होते, बल्कि इंजन के आगे दोनों ओर बैठे दो आदमी रेलवे लाइन पर रेत डालते रहते हैं। जहां भी गाड़ी रुकती है, वहीं इसके इंजन की सरसरी जांच अवश्य कर ली जाती है और कुछ ठोक-पीट भी होती रहती है। इसके इंजन में ड्राइवरों के खड़े होने के लिए दो फूट की ही जगह होती है। लाइन बदलने के लिए जगह-जगह छोटी-छोटी चौकियां बनी हैं।
दार्जिलिंग का सुहाना मौसम
अब प्रकृति की देन, वातावरण की बात करते हैं। दार्जिलिंग पहुँचते पहुंचते यहां के पर्यावरण के दर्शन से ऐसी अनुभूति होने लगती है, मानों वस्तुत स्वर्ग लोक पहुँच गए हों। फिल्मों में स्वर्ग के जो दृश्य दिखाई देते हैं, वे यहां साकार रूप लिए होते हैं, जिस कारण यहां का पर्यावरण महसूस ही नहीं होता बल्कि उसका दर्शन, साक्षात दर्शन होता है। जी हां, आप चाहें तो बादलों को अपने आलिंगन में ले लें, हिम-कण युक्त शीतल पवन को मुट्ठी में भर लें या बादलों में लुप्त हो जाएं। आप बादलों में विचरण करते हैं, उससे भी ऊपर मैदानी इलाकों में हमें ऐसा महसूस होता है मानो बादल न जाने कितनी ऊपर हों। परंतु यहां बादल आपके ऊपर नहीं, आपके नीचे होते हैं। देखने में आता है कि नीचे घाटियां बादलों से ढकी पड़ी हैं और आप बादलों की पालकी पर बैठे हैं। ऊपर साफ वातावरण है, धूप निकली हुई है, जबकि नीचे मैदानों में बादल छाए होने के कारण सूरज दिखाई नहीं देता, अंधेरा-सा लगता है।
दार्जिलिंग (आकाशीय बिजली का घर) में बादल साक्षात रूप धारण करते हुए दिखाई देते है। आप देखेंगे कि बादल आपके हजारों फुट नीचे से बनकर ऊपर की ओर चले आ रहे हैं। ठंडे दिनों में विशेषकर वसंत ऋतु में यह मेघ-दर्शन ज्यादा, मनोरम
एवं सुखद होता है। यहां पता लगता है कि बादल क्या होते हैं, कैसे बनते हैं और वर्षा कैसे होती है। यहां पुस्तकों में दिए गए पाठ नहीं, बल्कि इनका व्यावहारिक रूप सामने आता है। जैसे हम धुएं के बीच से गुजर सकते हैं, वैसे ही यहां पहाड़ों पर गहराए बादलों के बीच से गुजर सकते हैं। मैदानों में छाए कुहासे या धुंध को जलकण युक्त बादलों का ही एक रूप कह सकते हैं, जो देव-कृपा से कभी-कभी अपनी अनुभूति कराने नीचे चले आते हैं। ठंडे मौसम में यहां ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से जब नीचे पहाड़ियों पर देखते हैं, तो पहाड़ियों की बजाय बादलों का ही समुद्र दिखाई देता है।बादल उठते-गिरते, लहराते, चमकते, दमकते और अठखेलियां करते नजर आते हैं। ऐसा महसूस होता है, जैसे इनके नीचे कोई दुनिया नहीं है और सब शून्य ही शून्य होगा। हम स्वर्ग में उड़ान भरते महसूस करते हैं और दिल करता है कि अपने नीचे फैले बादलों पर जा बेठें। आंखें होने का फायदा यहीं नजर आता है।
यह वह प्रदेश है, जहां शाम होती नहीं, बल्कि उतरती नजर आती है। धीरे-धीरे पहाड़ियों से ओझल होता सूरज और उसके साथ गिरता हुआ अंधेरा हमें एक प्राकृतिक परिवर्तन का मूक दर्शक बना देते हैं। अंधकार के साथ यहां सब कुछ विलुप्त नहीं होता। नीचे घरों और गलियों की बस्तियां तारों-सी टिमटिमाती हैं और अपने नीचे कोई आसमान होने का आभास कराती हैं। ऊपर भी तारे चमकते दिखाई देते हैं और नीचे भी तारे-से चमकते दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है मानो हम कहीं अंतरिक्ष में खो गए हों। रात होने पर यहां वाहनों की दौड़ धूप और कोलाहल बंद हो जाता है। तब यह समूचा प्रदेश प्रकृति की शरण में चला गया हुआ लगता है। जब भोर छंटती है, तो छिटकती और चटकती हुई सी महसूस होती है। प्राकृतिक फूल-पंत्तियां सूर्य की रोशनी की चमक में खिलती हुई और हंसती हुई सी दिखाई देती हैं। कभी कोई पहाड़ी नवारूण (प्रातःकाल का सूर्य), की आभा से लोहित होती हुई दिखाई देती है तो कभी कोई छिटकता हुआ यह प्रकाश-पुंज फिर इस उपत्यका में एक नया जीवन प्रदान कर अलसाये मानुष में स्फूर्ति भर देता है।
जब दिन निकलता है और हम नीचे अति दूर फैले मैदानी इलाके को देखते हैं, तो वह पाताल-सा नजर आता है। ऊपर पहाड़ पर बैठे हम यह नहीं मान सकते कि यह मैदानी विस्तार पाताल नहीं है तथा यह कि तथाकथित पाताल लोक इसके भी नीचे है। यहां विभिन्न कारणों से हुए प्रकाशकीय परावर्तन से धरती माँ का मुख-मंडल दैदीप्यमान होता लगता है।
दार्जिलिंग के पर्यटन स्थल
अभी तक आपने दार्जिलिंग तक पहुंचने के रास्ते का दिग्दर्शन
किया है। आइए, अब दार्जिलिंग का दर्शन भी करें। दार्जिलिंग से पहले घुम नाम का एक कस्बा आता है, जिसकी ऊंचाई 7407 फूट है। कहा जाता है कि घुम विश्व में दूसरा सबसे ऊंचा रेलवे स्टेशन है। पूर्वोत्तर भारत में दार्जिलिंग से बेहतर कोई पर्यटन स्थल नहीं है। आकाश-भेदी हिमाच्छादित चोटियां इसकी भव्यता एवं सुंदरता में चार चांद लगा देती हैं। इस शहर की अनेक जगहों से आपको के-2, जानू, काब्रू आदि उन हिमशिखरों के दर्शन हो जाते हैं, जिनका संसार में कोई ही सानी है। के-2 विश्व की तीसरी सर्वोच्च चोटी है। इसकी ऊंचाई 28156 फुट है। महान हिमालय की गोदी में समाए दार्जिलिंग से सर्वत्र मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं।
दार्जिलिंग में टाइगर हिल, बतासिया लूप, बौद्ध मठ (घुम) और धीर धाम मंदिर, तेनजिंग रॉक, गोंबू रॉक, हिमालय पर्वतारोहण संस्थान, चिड़ियाघर, फुलवाडी, नेच्युरल हिस्ट्री म्यूजियम, शिव को समर्पित महाकाल गुफा में वेधशाला, राजभवन, विश्व का सबसे छोटा रेस कोर्स लेबांग, लाल कोठी, रणजीत वैल्ली रोपवे, भूटिया तिब्बती मठ, आलूबाड़ी मठ, हैप्पी वैल्ली टी इस्टेट आदि अनेक दर्शनीय स्थल हैं। इनमें से टाइगर हिल, बौद्ध मठ (घुम), हिमालय पर्वतारोहण संस्थान तथा रज्जु मार्ग अधिक आकर्षक हैं। टाइगर हिल शहर से लगभग तेरह किमी दूर और लगभग 8482 फुट ऊंची है। यहां से स्वर्णिम सूर्योदय का रोमांचक दर्शन होता है। के-2 भी यहां से साफ दिखाई देती है। रज्जु-मार्ग की सवारी रोमांचक है, परंतु बहुत महंगी है। फुलवाड़ी के लिए विलियम लायड ने 1878 में जमीन दान में दी थी।
ट्रैकरों के लिए भी दार्जिलिंग एक अनुकूल जगह है। यहां से फलूत (160 किमी), बिजनबाड़ी (153 किमी) और मानीभजांग (180 किमी) तक के तीन ट्रैक पथ हैं। सिंगालिला श्रेणी में स्थित संदाक्फू दार्जिलिंग जिले की सर्वोच्च चोटी (11929 फुट) है और ट्रैकरों का स्वर्ग है। दार्जिलिंग से बाहर 19 किमी दूर मिरिक झील 5800 फूट की ऊंचाई पर एक अच्छा पर्यटन स्थल है। यहां से लगभग एक घंटे की दूरी पर है। यह झील लगभग 1.25 किमी लंबी है। यहां नौकायन, सस्ते होटल, काटेज उपलब्ध है। टाईगर हिल के पास की सैंचाल झील, सिंगला बाजार, बिजनवाडी आदि भी पिकनिक मनाने की अच्छी जगह है। यहां से गंगटोक, कलिंपोंग आदि जगह भी जा सकता है। कलिमपोंग पेडोंग, थोस्सा, थारपा आदि मठों के लिए प्रसिद्ध है। दार्जिलिंग जाते समय रास्ते में कुर्सियांग और सिलिगुड़ी भी देखे जा सकते हैं। अब इनमें से कुछ दार्जिलिंग के प्रमुख दर्शनीय स्थलों के बारे में विस्तार से जान लेते है।
अपनी दार्जिलिंग यात्रा के बारे में
चाय के बागान
होटल मैनेजर ने हमारे लिए जीप से स्थानीय टूर बुक करा दिया था । जीप में हमारे साथ दो युगल ओर भी थे । कुछ देर में जीप मुख्य मार्ग पर आ गई जहाँ तक नजर जाती हमें चाय बागान ही बागान नज़र आते इस बागान को निकट से देखने का अवसर तब मिला जब ड्राइवर ने जीप हैप्पी वैली टी स्टेट पर रोकी । यहाँ हमनें देखा की चाय की पत्तियाँ कैसे चुनी जाती है तीन फुट उँचे झाडिनुमा पौधों के बीच काम करते स्त्री- पुरूष किस तेजी से सही पत्ती चुनकर पीठ पर लटकी टोकरी मे डालते है । चाय के ये बागान जहाँ दार्जिलिंग की पहाड़ी सोन्दर्य में गहरा हरा रंग भरते है वहीं यहाँ की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण योगदान करते है । इन पहाड़ों से जंगलों को हटाकर 1840 में यहाँ चाय की खेती शुरू की गयी थी। आज यहाँ की उपज दार्जिलिंग चाय दुनिया भर में इतनी प्रसिद्ध है कि इसे पूरब की शेम्पेन की उपमा दी जाती हैं । इस क्षेत्र में छोटे बड़े 78 चाय बागान है । इनमे चाय की कई किस्में पैदा की जाती है । कुर्सियांग के निकट कैसल्टन टी स्टेट की चाय तो इतनी उच्च गुणवत्ता की होतीं है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी कीमत दस हज़ार रूपये प्रति किलोग्राम भी छू चुकी है।
हिमालय दर्शन (छोटा हिमालय)
हैप्पी वैली टी स्टेट से निकलकर हम हिमालय पर्वतरोहण संस्थान पहुचे । हिमालय के शिखरों को छू लेने की चाह रखने वालों को यहाँ पर्वत रोहण का प्रशिक्षण दिया जाता है । इसकी स्थापना एवरेस्ट पर पहली बार फतह के बाद की गई थी । शेरपा लेन सिंह लम्बे अरसे तक इस संस्थान के निदेशक रहे । संस्थान में एक महत्वपूर्ण संग्रहालय भी है जिसमें हिमालय के दर्शन आपको यही हो जाते है । इसमें पर्वत रोहण के दोरान उपयोग में आने वाले कई नये पुराने उपकरण पोशाकें कई पर्वतरोहियों की यादगार वस्तुएं और रोमांचित चित्र प्रदर्शित किए गए है । एवरेस्ट विजय से पूर्व के प्रयासों का इतिहास तथा वृहत्तर हिमालय का सुंदर माडल भी यहाँ देखने को मिलता है । इसके साथ ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है । इस अनूठे संग्रहालय में हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले करीब 4300 प्राणियों का इतिहास क्रम दर्ज है । हिमालय क्षेत्र के पशु पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियों के नमूनो के अलावा खास अथस्क और चट्टानों के नमूने भी यहाँ पर्यटकों को आकर्षित करते है । इसके निकट ही स्थित है पझजा नायडू हिमालयन चिड़िया घर जो बच्चों को ही नहीं बडों को भी बहुत पसंद आता है । पर्वतों पर रहने वाले कई दुर्लभ प्राणी यहाँ देखने को मिलते है । इनमें खास है – लाल पाडा , साइबेरियन टाइगर, स्नो ल्योपार्ड, हिमालयन काला भालू , इनके साथ ही पहाड़ी उल्लू याक हिरण तथा कई तरह् के पहाड़ी पक्षी भी यहाँ देखें जा सकते है।
जॉय राइड का आनंद
हमारा अगला दर्शनीय स्थल था उत्तर भारत का पहला रच्चु मार्ग – रंगीत वैली रोपवे । जिस समय हम यहाँ पहुचे काफ़ी भीड़ थी । यहाँ मोटे तारो पर झूलती ट्राली में बैठकर पर्यटक नीचे सिंगला बाज़ार तक जाकर उपर आते है । रंगीत घाटी के ढलानों के निकट मंडराते आवारा बादलो को छूते हुए नीचे जाने और आने का अलग ही रोमांचक अनुभव होता है । रंगीत वैली रोपवे की जॉय राइड का आनंद लेने के बाद तिब्बत शरणार्थी सहायता केंद्र पहुचे । तिब्बत पूनर्वास के लिए 1959 में स्थापित किए गये इस केंद्र पर हमनें देखा कि किस तरह इन शरणार्थियों ने मेहनत और लगन के बल पर स्वंय को स्वावलंबी बनाया उनके द्वारा बनाएं गए ऊनी कपड़े गलीचे हाथ की कारागरी वाली लकड़ी की चीजें ओर ज्वेलरी आदि यहाँ आने वाले पर्यटक जरूर खरीदना चाहते है । दूनिया का सबसे उँचा ओर सबसे छोटा लेबांग रेसकोर्स भी दार्जिलिंग में ही है । यहाँ शरद व बसंत ऋतु में घुड़दौड़ का आयोजन भी किया जाता है । लॉयड वनस्पति उधान पर्वतीय वनस्पतियों का भंडार है । लगभग 40 एकड में फैले इस उधान में पहाड़ी पेड पौधों फूल संग्रह पर्यट को को मुग्ध कर देता है यहाँ की ग्रीन हाउस भी देखने योग्य है । आस – पास की जगहो की घुमक्कड़ी के बाद हम लोग वापस होटल आ गये।
ताजमहल का इतिहास
सूर्य नमस्कार
अगले दिन बहुत जल्दी उठकर हमें तैयार होना पड़ा क्योंकि मुंह अंधेरे ही हमें दार्जिलिंग से 13 किमी दूर टाइगर हिल्स पहुचना था । समुद्र तल से 8482 फु ट की उचाई पर स्थित टाइगर हिल्स सूर्योदय के अदभुत नजारे के लिए प्रसिद्ध है । सुबह चार बजे ही जीप हमारे होटल के सामने आ पहुची । ठंड से ठिठुरते हुए हम टाइगर हिल्स के लिए निकल पड़े । वहाँ दूर तक टैक्सियों जीप की कतार लगी थी । वहाँ पहुचे पर्यटकों का हुजूम देखकर लगा जैसे पूरा देश ही सूर्य के स्वागत में टाइगर हिल्स आ गया है । ड्राइवर ने हमें बताया की यहाँ रोज ही ऐसी भीड़ रहती हैं । हांलाकि कभी कभी मौसम खराब होने पर सैलानियों को निराश लौटना पड़ता है । यह हमारा सौभाग्य था कि उस दिन मौसम साफ था । कुछ देर बाद ही आकाश से कालिमा छटने लगी और उजाला बढने लगा । सभी बैचेनी से उस पल की प्रतिक्षा करने लगे जब बाल अरूण के दर्शन होगे कुछ क्षण बाद ही नारंगी गोले का किनारा नज़र आने लगा ओर देखते ही देखते उदय होता सूर्य अपनी नारंगी छटा बिखेरने लगा । इसका प्रभाव सामने खड़ी पर्वत श्रंखला पर साफ दिख रहा था । कंचनजंघा और अन्य हिम शिखरों पर सूर्य की पहली किरण ने अपना नारंगी रंग फैला दिया जो कुछ क्षण बाद ही सुनहरे रंग में परिवर्तित हो गया सूर्य की किरणे कुछ तेज हुई तो ऐ सा लगने लगा कि पर्वतों पर चांदी की वर्षा हो गयी हो । पहाड़ों की ऐसी ही खूबसूरती को निहारने के लिए हम काफ़ी देर तक रूके वही हमें पता चला की यदि मौसम साफ होता है तो यहाँ से एवरेस्ट की चोटी के भी दर्शन हो जाते है । हम तो बस कंचनजंघा के दर्शन ही कर सके जिसे स्थानीय लोग देवी के समान मानते है टाइगर हिल्स के निकट ही एक टूरिस्ट लॉज है।
संग्रह पांडुलिपियाँ , बौद्ध मठ
टईगर हिल्स से वापस आते हुए हमनें आकर्षक सेचल झील भी देखी यह एक पिकनिक स्पॉट है । वहां से हम मॉनेस्ट्री देखने पहुचे । यह दार्जिलिंग का एक प्रसिद्ध और सुंदर बौद्ध मठ है । यहाँ स्थापित मैत्रयी बुद्ध की उंची सुनहरी प्रतिमा अत्यंत मनभावन है । इस प्राचीन मठ में कई पांडुलिपियों और बौद्ध ग्रंथों का संग्रह है । दुनिया भर से तमाम श्रद्धालु और शौधार्थी खास तौर से इसे ही देखने के लिये दार्जिलिंग आते है । मठ से कुछ ही दूरी पर बतासिया लूप में युद्ध स्मारक है । यह स्मारक शहीद सैनिकों की याद में बनवाया गया था । मार्ग में हमनें प्रसिद्ध आर्ट गैलरी देखी और धीरधाम मंदिर के दर्शन भी किए ।
मालरोड़ ( खानपान और शोपिंग )
दोपहर बाद हम मालरोड़ चौरास्ता की रौनक का लुफ्त उठाने चल दिये । रास्ते में लाडेन सा रोड और नेहरू मार्ग पर कई होटल रेस्टोरेंट और बार है यहाँ इंडियन चाइनीज और कांटिनेंटल भोजन के अलावा सैलानी तिब्बती भोजन का स्वाद ले सकते है । रास्ते में अच्छा खासा बाज़ार है । चौरास्ता पर भी कुछ अच्छे शोरूम रेस्टोरेंट और फास्ट फूड़ पार्लर है । यही एक मार्ग मालरोड़ कहलाता है । दार्जिलिंग का चौरास्ता
शिमला के स्केंडल प्वाइंट के समान है । देश – विदेश से आने वाले पर्यटको के कारण वहां हर समय चहल पहल बनी रहती है । यहाँ एक छोटा सा उधान भी है । मालरोड़ पर पर्यटक घुड़सवारी का भी आनंद ले सकते है । अगर आपको पैदल चलने का शौक है तो यहाँ से कुछ ही दूरी पर स्थित भोटिया बस्ती मॉनेस्ट्री ,सैट एसाइड प्वाइंट , अॉब्जर्वटरी हिल्स और काली मंदिर भी देख सकते है यही पिस के बाजारों में अच्छे शोरूम या दुकानों पर शोपिंग का शौक भी पूरा किया जा सकता है । पश्चिम बंगाल की मंजूषा एम्पोरियम भी नेहरू मार्ग पर है । हाथ से बनायी गई यहाँ की अनुपम कलात्मक वस्तुओं और उनके बहुरंगी परंपरिक डिज़ाइन से मिली जुली पर्वतीय संस्कृति की झलक साफ नज़र आती है जिन्हें आप खरीदें बिना नहीं रह सकते । इनमें खास है – आभूषण, दीवालगीर, फायर स्क्रीन, भूटानी चित्र, तिब्बती मुखोटे, थैले, बांस की सुंदर कारागरी की वस्तुएं लकड़ी के आकर्षण पार्टिशन आदि । इनके अलावा बुने हुए ऊनी कपड़े और कालीन आदि यहाँ मिलते है । महात्मा बुद्ध के जीवन को चित्रत करती थंका चित्रकारी भी सैलानियों को बहुत पसंद आती है ।
मिरिक ( धुंध को चीरते हुए)
मिरिक और कलिम्पोंग देखें बगैर दार्जिलिंग का सफर अधुरा सा लगता है । अगली सुबह जब हम होटल से बाहर निकले तो हर तरफ कुहासा छाया हुआ था । साढ़े छ बजे जब कुहासा छंटने लगा तब हमारी बस मिरिक के लिए चली । रास्ते भर सडक के दोनों ओर कभी चाय बागान नजर आते कभी हरे भरे जंगल करीब ढाई घंटे में हमारी बस मिरिक पहुँच गई । ठहरने की व्यवस्था हमनें पहले ही टूरिस्ट लॉज में कर रखी थी । घुमावदार रास्तों की थकान मिटाने के बाद हम अपनी स्मृतियों और कैमरे में मिरिक का सौंदर्य कैद करने के लिए निकल पड़े । समुद्र तल से 5800 फुट की उचाई पर बसा यह छोटा सा पर्यटन स्थल करीब साढे तीन सौ फुट के दायरे में फैला है । हर तरफ पहाड़ों से घीरी छोटी सी मनोरम घाटी में स्थित मिरिक भीड़भाड़ से अलग एक शांतिपूर्ण सैरगाह है । घूमने के लिए यहाँ किसी वाहन की भी जरूरत नहीं होती जहाँ चाहे पैदल ही निकल जायें प्राकति आपके स्वागत में बांहें पसारे नजर आयेगी । यहाँ का मुख्य आकषर्ण है । झिलमिल सौंदर्य वाली मिरिक झील इसकी सुंदरता का आलम यह है कि जिस ओर से भी देखें यह अलग रूप में ही नज़र आयेगी । इसलिए पर्यटक झील के किनारे बनें तीन किमी से भी लम्बे पैदल रास्ते पर चहलकदमी करते हुए इसे हर दिशा से निहारते है । झील पर बनें पुल से झील में पर्वतो और पेडों का प्रतिबिंब नजर आता है । यह प्रतिबिंब यहाँ आने वाले पर्यटकों का मन मोह लेता है । बारहों महीने झर-झर करते झरनों और बरसाती पानी से लबालब भरी झील में सैलानी बोटिंग का भी भरपुर आंनद लेतें है । दूसरा दिन भी हमनें मिरिक में ही बिताया । कुहासा और ठंड के कारण हम काफी देर से लॉज के बाहर निकले यहाँ आसपास की पहाडियों पर चाय के बागान के अलावा संतरों के बाग भी है । इन बागों में संतरों से लदे पेड़ देखने के लिए दो किमी दूर पैदल या घोड़ों से जाया जा सकता है । यह एक संतरा उत्पादक क्षेत्र भी है । यहाँ से बंगाल और आसपास के राज्यों में संतरा भेजा जाता है । आसपास के कुछ इलाकों में यहाँ इलायची की खेती भी की जाती है । यहाँ भी कुछ व्यू प्वाइंट है जहाँ से पर्वतीय और मैदानी इलाकों के खूबसूरत नजारे देखने को मिलते है । देवी स्थान पर देवी मंदिर के साथ भगवान शिव और हनुमान जी के मंदिर भी दर्शनीय है । वास्तव में शहर की गहमागहमी से परे कुछ दिन गुजारने हो तो मिरिक जैसी शांत और रमणीक सैरगाह शायद ही कोई और हो।
कलिम्पोंग( फूलों की घाटी)
मिरिक से कलिम्पोंग तक का मनोहारी सफर हमनें टैक्सी से किया । रास्ते में तिस्ता नदी की खुबसूरती ने हमें बहुत प्रभावित किया । ड्राइवर ने बताया की तिस्ता के तट पर जनवरी में बैनी मेले के अवसर पर बहुत पर्यटक आते है । उस समय लेपचा और भोटिया नववर्ष मनाया जाता है । इसके बाद फरवरी में तिब्बती नववर्ष पर भी इस क्षेत्र में उत्सवी माहौल रहता है । इनके अलावा बुद्ध पूणिमा, दुर्गा पूजा और दिवाली भी यहाँ धूमधाम से मनायी जाती है । तिस्ता ब्रिज पार करके टैक्सी फिर उपर की ओर बढने लगी। रास्ते में एक जगह टैक्सी रोककर ड्राइवर ने हमें एक कुदरती नजारा देखने को कहा । उस व्यू प्वाइंट से हमें तिस्ता और रंगीत नदियों के संगम का अनुभव दृश्य देखने को मिला । विभिन्न दिशाओं से पहाड़ों से उतरती ये नदियाँ एक दूसरे में आ समाती है । यह दृश्य अत्यंत मनोहारी है । वहां से कुछ देर बाद ही हम कलिम्पोंग पहुँच गये । यहाँ एक अच्छा सा होटल देख हमनें उसमें चैक इन किया । 4100 फुट की उचाई पर बसा यह शहर मिरिक जैसा शांत तो नहीं है लेकिन दार्जिलिंग जैसी भीड़ भी यहाँ नहीं है । इस छोटे से शहर में पर्यटकों को सिक्किमी, भूटानी और तिब्बती संस्कृति का मिला जुला असर देखने को मिलता है । किसी जमाने में यह सिक्किम का ही हिस्सा था । तब यह तिब्बत से सिक्किम के वयापार का बड़ा केंद्र था । कलिम्पोंग में साइट सीन अधिक नहीं है।
दार्जिलिंग की कुछ अन्य विशिष्टताएं
- दार्जिलिंग का रज्जु-मार्ग सवारी बैठाने के भारत के गिने-चुने रज्जु-मार्गो में से एक है। यहां एक-दो कंपनियों ने भी सामान ढोने के लिए अपने रज्जु-मार्ग बनाए हुए हैं।
- दार्जिलिंग की छोटी लाइन भारत की तीन छोटी लाइनों में से एक है। दूसरी छोटी लाइन कालका-शिमला के बीच है और तीसरी मेट्टुपालयम ऊटी (कर्नाटक) के बीच है।
- यहां बौद्ध मठ अधिक संख्या में पाए जाते हैं। यह बौद्ध धर्म और दर्शन के अध्ययन का अच्छा केंद्र है।
- यहां भारत-प्रसिद्ध हिमालय पर्वतारोहण संस्थान है, जहां माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसे 1954 में नेहरू जी ने स्थापित किया था।
- दार्जिलिंग की मुख्य खेती चाय है। यहां की चाय अपने जायके के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। संसार की सबसे महंगी चाय (लगभग 40,000 रु. प्रति किलोग्राम) के बाग यहीं पर हैं। यहां चाय की फैक्टरियां भी हैं।
- दार्जिलिंग जिले के एक ओर नेपाल तथा दूसरी ओर भूटान देश है। इसके तीसरी ओर सिक्किम है, जी स्वयं पहले एक स्वतंत्र देश था और अब भारत का एक हिस्सा (राज्य) है। चीन की सीमा भी यहां से कुछ ही घंटों की दूरी पर है। टूरिस्ट ब्यूरो की मिरिक जाने वाली बस नेपाल सीमा पर बसे पशुपति नगर होकर जाती है।
- दार्जिलिंग पश्चिमी बंगाल का एक जिला है। पश्चिमी बंगाल ही भारत का एक ऐसा राज्य है, जो हिमालय पर्वत और समुद्र दोनों से जुड़ा हुआ है।
- दार्जिलिंग के लोग हस्ट-पुष्ट, भोले-भाले तथा परिश्रमी हैं।
- यहां अंग्रेजी, हिंदी, गोरखा और बंगला भाषाएं बोली और समझी जाती हैं।
- यहां देवदार तथा बांस के वृक्ष बहुतायत में हैं।
- यहां गर्मियों के दिनों में अधिकतम तापमान 15° डिग्री से° तथा न्यूनतम तुम तापमान 8° डिग्री से° होता है। इस प्रकार यहां गर्मियों में भी पूरी बाजू के गर्म कपड़े पहनने पड़ते हैं। सर्दियों में अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान क्रमश 6° से 1.5° से° होता है। यहां चलने वाली ठंडी हवा तथा पल-पल में छाने वाले बादलों के कारण मौसम बदलने में देर नहीं लगती। एक ही दिन में कई बार भी मौसम बदल सकता है। यहां घूमने के लिए अप्रैल से जून और सितंबर से नवंबर तक का समय ठीक रहता है।
- यहां का प्रशासन नगरपालिका की बजाय दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद द्वारा चलाया जाता है। यह परिषद एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई है।
- दार्जिलिंग से निकटतम हवाई अड्डा 90 किमी दूर बागडोगरा है। स्थानीय भ्रमण के लिए यहां जीपें मिलती हैं। पहाड़ी क्षेत्र देखने के लिए चौरस्ता से खच्चर भी किराए पर मिलते हैं।
दार्जिलिंग पर्यटक सहायता केंद्र
दार्जिलिंग में पश्चिमी बंगाल सरकार के पर्यटक सूचना केंद्र, नेहरू रोड पर सिल्वर फर, भानु सरणी में, दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन पर; न्यू कार पार्क, लेडन ला रोड पर तथा बागडोगरा हवाई अड्डे पर हैं। इनके अतिरिक्त सिल्वर फर, भानु सरणी में दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद द्वारा नियंत्रित पर्यटन कार्यालय भी है। दार्जिलिंग टूरिस्ट ब्यूरो टाइगर हिल, दार्जिलिंग व गंगटोक के लिए टूर संचालित करता है।
दार्जिलिंग में निवास सुविधाएं
दार्जिलिंग में माल रोड पर भानु सरणी में पश्चिमी बंगाल पर्यटन विकास निगम का टूरिस्ट लॉज है, जहां सस्ती दर पर रहने की सुविधा है। डॉ. जाकिर हुसैन रोड पर प. बंगाल सरकार का यूथ होस्टल है, जो मुख्यत छात्र पर्यटकों के लिए है। कर्सियाँग में टूरिस्ट सेंटर तथा स्नो व्यू यूथ होस्टल हैं। इनके अतिरिक्त दार्जिलिंग के घर-घर तथा गली-गली में हर स्तर के टूरिस्ट होटल हैं। दार्जिलिंग पहुंचते ही इन होटलों के एजेंट आपको रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि पर अपने आप ही मिल जाएंगे। परंतु यदि मौसम साफ हो और आपके पास सामान ज्यादा न हो, तो इन एजेंटों के चक्कर में न आएं अपनी पसंद का होटल ढूंढने में कोई कोताही न बरतें।
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