दादू पंथ क्या है, शाखाएं, प्रमुख पीठ और स्थापना कब हुई Naeem Ahmad, November 12, 2023 दादू पंथ के प्रवर्तक संत दादूदयाल थे, राजस्थान एवं गुजरात दोनों से इनका निकट सम्बन्ध रहा है, इस सम्प्रदाय का नाम पहले ब्रह्म सम्प्रदाय.श अथवा परब्रह्म सम्प्रदाय था। किन्तु कालान्तर मे दादू पंथ के नाम से ही सम्प्रदाय प्रसिद्ध हुआ, संत दादू के जीवन चरित्र के सम्बन्ध मे विस्तृत विचार जीवनी परिचय के प्रकरण मे किया गया है इसलिए यहां केवल उनके सम्प्रदाय एव सिद्धांतों पर ही प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। परन्तु दादू दयाल केजन्मस्थल के विषय मे विद्वानों मे बहुत मतभेद है इसलिये उसका किंचित विचार यहां करना आवश्यक प्रतीत होता है। पंडित सुधाकर द्विवेदी ने इनका जन्मस्थान जौनपुर बतलाया है, जब कि हिन्दी के अधिकाश विद्वानों के विचार से इनका जन्म गुजरात के अहमदाबाद नगर मे हुआ था। डॉ० रामकुमार वर्मा, पं० पशुराम चतुर्वेदी तथा डॉ० पीताम्बर दत्त’ बड़थ्थ्वाल, प्रभृति विद्वानों ने उनका जन्मस्थान अहमदाबाद ही स्वीकार किया है। गुजराती के प्रसिद्ध विद्वान् श्री के० का० शास्त्री’ ने भी दादू का जन्म अहमदाबाद होना स्वीकार किया है। दादू के शिष्य जनगोपाल ने दादू दयाल के जीवन चरित्र मे भी इस बात की पुष्टि की है, दादू पंथ के अनुयायी भी उनका जन्म-स्थान अहमदाबाद ही मानते हैं। एक किवन्दती के अनुसार वे साबरमती में बहते पाये गये थे और लोदीराम नामक ब्राह्मण ने उन्हे ले जाकर पालन पोषण किया। परन्तु, डा० मोतीलाल मैनारिया ने इनके अहमदाबाद में जन्म लेने की बात को भावुक भक्तों की कल्पना कहा है, उनके मतानुसार संत दादू दयाल का जन्म सभर अथवा उसके आसपास किसी ग्राम मे हुआ है?। दादू की वाणी में राजस्थानी के साथ साथ गुजराती के रूप भी मिलते हैं। अतः गुजरात से इनका सम्बन्ध होने की संभावना नितांत असंभव नही हो सकेती। सारांश यह है कि दादू दयाल के जीवन का गुजरात तथा राजस्थान दोनों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, चौदह वर्ष की अवस्था मे ही ये राजस्थान की ओर चले गये तथा वही एक संत के रुप में प्रसिद्ध हुए। Contents1 दादू पंथ की स्थापना कब हुई1.1 1.2 दादू पंथ की प्रमुख शाखाएं1.2.1 खालसा: —1.2.2 नागा: —1.2.3 विरक्त: —1.2.4 खाकी:–1.2.5 उत्तरागढ़ी:–2 हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:— दादू पंथ की स्थापना कब हुई कबीर पंथ के अनुसार दादू सम्प्रदाय में भी ईश्वर की उपासना निगुृण ब्रह्म के रूप में की जाती है। जातिगत भेद-भाव को मिटाकर सहज भाव से निराकार ब्रह्म की साधना करने का उपदेश दादू दयाल ने अपने अनुयायियों को दिया है, दादू पंथ की स्थापना सम्वत् 1611 में हुई और दादू के जीवनकाल में ही इसका बहुत व्यापक प्रचार राजस्थान में और बाहर भी हो चुका था। इनके अनेक शिष्य बने जिनमें से 152 प्रधान शिष्य माने जाते हैं। दादू का देहोत्सगं नरैना में हुआ था, और यही दादू पंथ का मुख्य केन्द्र है, इसे दादू द्वारा भी कहते हैं। संत कबीर की भांति संत दादूदयाल ने भी उपासना में आत्मानुभूति एवं सहज भक्ति पर विशेष जोर दिया है। संकुचित्तता,भेदभाव तथा बाह्याडंवर की अनावश्यकता के प्रति दादू दयाल ने निर्देश किया है, परन्तु कबीर एवं दादूदयाल की उपदेश पद्धति में अन्तर है। दादू ने अपना विरोध सदा विनम्रता से, प्रेम से तथा सरलता से प्रकट किया है, कबीर की भांति उन्होंने वाणी के कठोर प्रहार के द्वारा खंडन नहीं किया। संत दादूदयाल ने सरलता से एवं प्रेमपूर्वक अपनी वाणी में अपनी स्वानुभूति, शाश्वत सत्य एवं परम तत्व की सहज रूप से अभिव्यक्त की है। दादू पंथ में मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं किया जाता। ईश्वर की उपासना निराकर, निर्गुण ब्रह्म के रूप में की जाती है, वैष्णव पंथों की भांति कंठी, तिलक इत्यादि आचार धर्म के उपादानों को दादू पंथ में निर्थक समझा जाता है, सहज रूप से किये गये ध्यान तथा नाम स्मरण को ही उपासना का श्रेष्ठ साधन माना जाता है। दादू की रचनाओं में प्रेम भक्ति की जो उत्कृष्ट अभिव्यक्ति मिलती है, वह सम्भवत: सूफीवाद का प्रभाव लक्षित करती है। मुसलमान होने के नाते वे तत्कालीन सूफी फकीरों के सत्संग में आये हों ऐसा सम्भव है। दादू निर्गुण भक्त थे किन्तु उनकी साधना में प्रेम का जो उत्कृष्ट स्वरूप देखा जाता है वह सगुणोपासना की भक्ति से किसी भी प्रकार कम नहीं है। शुद्ध निर्गुण भक्त होते हुए भी सगुण-निर्गुण के प्रति दादू का दृष्टिकोण समन्वयात्मक था। सगुण निर्गुण के विवाद को निस्सार बतलाते हुए दादूदयाल ने नाम स्मरण को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण बतलाया है। उदाहरणार्थ दादूदयाल की ये पक्तियाँ उद्घघत हैं:– सरगुन निरगुन वे रहे, जैसा तैसा लीन्ह।॥ हरि सुमिरन लव लाईए, का जानो का कीन्ह॥ दादू पंथ संत कबीर की भांति दादूदयाल ने भी हिन्दू मुसलमान के भेदभाव को संकुचितता एवं पाखण्ड माना है। दादू पन्थ में हिन्दू मुस्लिम तथा धूत अधूत के भेद की सीमा से ऊपर उठ कर मानव मात्र के लिये भक्त के द्वार खुले रहते है। यही कारण है कि दादूदयाल के शिष्यों में समस्त वर्गों के लोगों को समान स्थान प्राप्त हुआ है। उसमें हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे तथा समाज की निम्न जाति के लोग भी थे। इस प्रकार जातिगत तथा धर्मगत भेदभाव को निर्थक बतला कर दादू दयाल ने अपने दादू सम्प्रदाय के द्वारा हिन्दू मुसलमान की एकता का तथा निम्न जातियों के उद्धार का स्तुत्य प्रयास किया है। दादू पंथ में भक्त ओर परमात्मा के बीच अद्वैतभाव की अनिवार्यता को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है। इस अभिन्नता के भाव का विकास करने का उपदेश दादूदयाल ने अपने अनुयायियों को दिया है। इसके लिए भक्त को अपने अहंभाव का त्याग करके इष्ट के चरणों मे सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए। दादू ज्ञानमार्गी सन्त कवि थे। तथापि उन्होंने अपने सिद्धान्तों को समझाने के लिए खडनात्मक वृत्ति का सहारा नही लिया। उन्होंने सरलता एवं प्रेम के बल पर अपने मत का प्रतिपादन किया है । दादूदयाल ने अपनी सहानुभूति के द्वारा प्राप्त सत्य को ही सत्य माना है। परानुभव की बाते उन्होंने स्वीकार नहीं की। इसीलिए परमात्मा तथा परम सत्य के सम्बन्ध में दादूदयाल को अभिव्यक्ति बहुत मार्मिक हो सकी है। दादू पंथ में ईश्वर को सर्व व्यापक सत्य के रूप मे देखा गया है। सहज भक्ति से एवं प्रेम पूर्ण दृष्टि से उसे विश्व में सर्वत्र देखा जा सकता है। उस परब्रह्म मे तादात्म्य स्थापित करने के लिये भक्त को आत्मसमर्प॒ण करने की आवश्यकता होती हैं। दादू पंथ में गुरु का स्थान ऊँचा है। बिना सतगुरु की शिक्षा के भक्त को ईश्वर की प्राप्ति कभी नही हो सकती। गुरु के महत्व तथा ‘गृरु के प्रति श्रद्धा के सम्बन्ध में दादू और कबीर के विचारों में बहुत साम्य है। स्वय दादूदयाल ने अपनी रचनाओं में कबीर का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। दादूदयाल के गुरु का नाम वृद्धानन्द बताया जाता है, और ये वृद्धानन्द कबीरदास की शिष्य परम्परा के ही एक संत माने जाते है परन्तु इनके जीवन वृत्तांत के सम्बन्ध मे कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं दी गई। सम्भव है गुरु का यह नाम परबह्म का ही कल्पित नाम हो। दादूदयाल के गुरु के सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि वे सहज रूप से विचरण करने वाले है और उनका कोई ठोर ठिकाना नहीं है। दादू पंथ में परब्रह्म को ही आदि गुरु माना गया है। इसीलिये इस पंथ का नाम पहले परब्रह्म रखा गया था। वास्तव में दादू इस पंथ भेद तथा धर्म भेद को निर्थक मानते थे। उन्होंने इस बात की स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि राम और अल्लाह में कोई भेद नहीं है। जब प्रकृति मनुष्य-मनुष्य के बीच में भेद भाव नहीं रखती तो हम क्यों वैसा करके उस परम सत्य के खंड करे। भिन्न भिन्न धर्म और पक्ष बनाकर हम ब्रह्म के ही टुकड़े करते हैं। दादूदयाल ने तथा उनके अनुयायी संतों ने ब्रह्म को सृष्टि में सवत्र एक समान रूप में देखा है, उस तत्व की उपमा एक ऐसे सरोवर से की है जिसमें निरंजन पासी है और मन मीन है तथा प्रेम की तरंगें सदा लहराती रहती है। दादू पंथ मे ब्रह्म को राम सहज शून्य, परम पद, निर्वाण इत्यादि अनेक नाम दिये है। ब्रह्म और जगत के परस्पर सम्बन्ध के विषय- में दादू ने तथा उनके शिष्यों न नर्वात्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। अर्थात् ब्रह्म जगतमय है और जगत ब्रह्ममय है, इस तथ्य को सुन्दरदास ने इन शब्दों में स्पष्ट किया हैः– जगत कहे ते जगत हैं सुन्दर रूप अनेक। ब्रह्म कहे ते ब्रह्म है, वस्तु विछारे एक॥॥ दादू के महान ओजस्वी व्यक्तित्व ने तथा उनके सरल एवं उदात्त दृष्टिकोण ने बहुत बड़े जनसमुदाय को आकर्षित एव प्रभावित किया। उनके मत को स्वीकार करने वाला अनेक शिष्य बने। जैसा कि इसके पूर्व उल्लेख किया जा चुका है, उनके 152 प्रधान शिष्य हुए जिनमें से 100 शिष्य एकान्तवासी थे। शेष 52 शिष्यों ने भिन्न-भिन्त स्थानों में दादू पंथ का प्रचार किया तथा उनकी परम्परा को आगे बढ़ाया। परवर्ती काल में दादू पंथ पांच विभिन्न शाखाओं में विभकत हो गया। यद्यपि इन पांच सम्प्रदायों के नाम विभिन्न रखे गये तथापि सम्प्रदाय के मूल सिद्धातों में एवं दादू के प्रति उनके सम्मान एवं श्रद्धा में कोई अन्तर नहीं पड़ा। इन पाँच शाखाओं के नाम इस प्रकार हैः — खालसा, नागा, विरक्त, खाकी, उत्तरागढ़ी। दादू पंथ की प्रमुख शाखाएं डॉक्टर मोतीलाल में मेनारिया ने तथा स्वामी मंगलदास जी ने केवल चार शाखाओं नाम दिये हैं, डॉ० मेनारिया मे अपने ग्रन्थ राजस्थानी भाषा और साहित्य में उत्तरागढ़ी नाम नहीं दिया शेष वे ही हैं जब कि दूसरे ग्रन्थ राजस्थान का रिगल साहित्य में खाकी’ नाम निकाल दिया है तथा उत्तरागढ़ी के बदले उत्तराध्वी नाम दिया है। पं० परशुराम चतुर्वेदी, डॉ० रामकुमार वर्मा, तथा डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने पाँच शाखाओं मे परस्पर सैद्धान्तिक कोई मतभेद नहीं है, जो अन्तर है वह रहन-सहन एवं स्थान भेद ही है। इन पाँचों शाखाओं के अनुयायी नरेना के दादू पंथ द्वारा को अपने सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र मानते हैं। दादू के प्रमुख 52 शिष्यों की गद्दियाँ है वहां उनके थाँभे बने हैं जो उनके नाम से प्रसिद्ध हैं।॥ उपरोक्त पांच शाखाओं की अलग-अलग विशिष्टताएँ हैं। खालसा: — दादू पंथ की प्राचीन गद्दी नरेना में हैं। उसके उत्तराधिकारियों की शाखा खालसा शाखा कहलाती है। अन्य शाखाओं के अनुयायियों में इस शाखा के प्रति विशेष सम्मान है, इसके अनुयायी पहले कटि-वस्त्र, टोपी और चोला पहनते थे परन्तु अब कोट, धोती तथा साफा पहनते हैं। अव्ययन, अध्यापन की झोर विशेष रुचि रहती है। जयपुर में स० 1977 से एक दादू महा विद्यालय चल रहा है जिसका संचालन खालसा शाखा के द्वारा होता है। नागा: — इस शाखा के प्रवर्तक दादूदयाल के शिष्य संत सुन्दर दास थे। इस शाखा का एक स्थान (थांभा) नरेना में भी है तथा अन्य सप्त थांभे जयपुर राज्य के आसपास के शाखों में हैं। इसके अनुयायी वस्त्र बहुत सादे पहनते है और एक दूसरे से मिलने पर सतनाम कहकर अभिवादन करते है। नागा शिष्य शस्त्र चलाने मे तथा युद्धविद्या मे बहुत कुशल होते है। अग्रेजो के शासनकाल में ये जयपुर राज्य की सेना में सेवा करते थे। आजकल ये लोग अधिकांशत: खेती और व्यापार करते हैं। विरक्त: — विरक्त शाखा के अनुयायी वैरागी साधु होते है। ये कभी एक स्थान पर रहते नहीं हैं। शरीर पर केवल एक कापाय वस्त्र धारण करते हैं तथा हाथ में कमन्डल रखते हैं। रुपये पैसे या धन का स्पर्श नहीं करते और भिक्षा पर अपना निर्वाह करते हैं। ये हमेशा घूमते रहते हैं और चतुर्मास में जब एक स्थान पर ठहरना पड़ता है तब नित्य एक बार दादू वाणी का पाठ करना इनका नियम होता है। विरक्त साधु अधिकांश टोली में निकलते हैं अकेले नहीं और गृहस्थ अनुयायियों को उपदेश देते हैं। खाकी:– खाकी साधु शरीर पर भस्म लगाये जमात में घूमते रहते हैं। विरक्त साधु की भाँति ये भी कभी एक स्थान पर ठहरते नहीं। इनका विश्वास होता है कि पवित्र जीवन जीने के लिए साधु को हमेशा भ्रमण करते रहना चाहिए। ये शरीर पर बहुत कम वस्त्र धारण करते हैं और जटा भी बढ़ाते हैं। खाकी साधु शारिरिक साधना भी करते हैं। उत्तरागढ़ी:– डॉ० मोतीलाल मेनारिया ने इस उपसम्प्रदाय का नाम उत्तराधा दिया है उसके मतानुसार जो दादू पंथी राजस्थान को छोड़कर उत्तर में पंजाब की ओर चले गये और अपने दादू पंथ का प्रचार करने लगे ते उत्तराधा शाखा के कहलाये, इनका मुख्य केन्द्र हिसार जिले का रसिया गाँव है। इस शाखा के अधिकांश अनुयायी दिल्ली, पटियाला, हिसार, रोहतक इत्यादि स्थानों मे होते हैं। ये लोग वैद्यक तथा लेन-देन का काम करते हैं। इस उप-सम्प्रदाय की एक शाखा गोपालदास जी ने हरिद्वार में की थी। इस शाखा के मूल प्रवर्तक बनवारी लाल अथवा रज्जवजी माने जाते हैं। इस प्रकार दादू पंथ का प्रचार राजस्थान तथा उसके उत्तर में अर्थात पंजाब, दिल्ली, हरिद्वार इत्यादि स्थानों में हआ। दादू के प्रमुख शिष्य उत्तराधिकारी हुए। इसके अतिरिक्त बखनाजी, जनगोपाल, रज्जबजी, जगजीवन भी परम्परा में थे। गुजरात में दादू पंथ के समुदाय की स्थापना नहीं हुई परन्तु गुजरात के संत भक्तों पर कबीर पंथ तथा प्रणामी संप्रदाय के अतिरिक्त जिन संत सम्प्रदायों का प्रभाव पड़ा उनमें दादू पंथ भी एक मुख्य सम्प्रदाय है। हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:— तानसेन का जीवन परिचय, गुरु, पिता, पुत्र, दूसरा नाम और शिक्षा संगीत सम्राट तानसेन का नाम सवत्र 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