दरिया पंथ के प्रवर्तक, संस्थापक, पीठ, शिक्षा और इतिहास Naeem Ahmad, November 16, 2023 दरिया पंथ के प्रवर्तक मारवाड़ के संत दरिया साहब थे। इनका जन्म संवत् 1733 में जेतारण में हुआ था। दरिया जी की जाति के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। डॉ० रामकुमार वर्मा, पं० परशुराम चतुर्वेदी, श्री क्षितिमोहन सेन तथा डॉ० पीत्ताम्बर दत्त बड़थ्थ्वाल प्रभृति विद्वानों ने इन्हें मुसलमान जाति का धुनिया होना बतलाया है। इसके प्रमाण में सभी विद्वानों ने दरिया साहब की वाणी के ही निम्नलिखित पद को उद्घृत किया है :– जो घुनियाँ तो भी में राम तुम्हारा।। अधम कमीन जाति मति हीना । तुम ही हो सिरताज हमारा ॥ दरिया पंथ के संस्थापक कौन थे किन्तु डॉ० मोत्तीलाल मेंनारिया ने इस कथन का तीव्र विरोध किया है। इसके प्रणाम में वे दरिया पंथ के अनुयायियों का यह विश्वास बतलाते हैं कि वे दरिया पंथी उन्हें मानने को बिल्कुल तैयार नहीं। इसके अतिरिक्त डॉ० मैनारिया ने दरिया साहब का एक पद उदाहरणार्थ दिया है। जिसमें उनके माता पिता के नाम दिये है। और जो स्पष्ट हिन्दू नाम लगते हैं। वह पद इस प्रकार है :– पिता भानजी जान गीगां महतारी। लिविध मेरण ताप आप लियो अवतारी ॥ दरिया पंथ जोधपुर राज्य की सन 1891 ई० की सैन्सन रिपोर्ट में भी दरियाव जी को मुसलमान बतलाया हैं जो डॉ० मेनारिया के अनुसार उनकी भूल है। वास्तव में वे किस जाति के थे यह बतलाने में सम्प्रदाय के अनुयायी असमर्थ है। कही है कि संत दरियाव जी दादूदयाल के ही अवतार थे। डा० मेनारिया के अनुसार दरिया पंथ रामसनेही की ही एक शाखा है। राजस्थान में रामसनेही पंथ की धारा तीन स्थानों मे अलग-अलग विकसित हुई। एक शाहपुरा की, दूसरी खैड़ापा की तथा तीसरी रैण की। रैण शाखा दरिया पंथ के रुप मे प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के अनुयायी संत दरियाव जी को अपना गुरु मानते हैं। दरियाव साहब के गुरु प्रेमदयाल नामक संत थे। दरियाव साहब बड़े सरल एवं कोमल हृदय के व्यक्ति थे, इसका प्रमाण उनकी सरलता एवं प्रसाद गुणों से युक्त वाणी है। दरिया पंथ में उपासना के क्षेत्र में नाम स्मरण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। ईश्वर की आराधना ये निराकार ब्रह्म रूप में करते हैं। सुमिरन के लिये राम-नाम को स्वीकार किया है परन्तु राम का नाम अवितनाशी ब्रह्म के अर्थ मे लेते हैं। दरिया साहब के सिद्धान्तानुसार परमात्मा अनादि, अगम और अगोचर है। वह सर्वत्र व्याप्त है। यह माया स्वरूप दृश्य जगत भी उसी ब्रह्म के अन्तर्गत है। केवल मुख से रामनाम के जाप का उनकी दृष्टि में कोई महत्व नहीं है। शुद्ध मन से अर्थात् अन्त: करण से राम नाम के ध्यान में तत्लीन होना सच्चा सुमिरन है। अपनी वाणी के ‘नाद परचे का अंग में उन्होंने नाम-स्मरण की, साधना की पद्धति समझाई है। परमात्मा का नाम स्मरण तथा उससे प्राप्त होने वाले आनन्द को दरिया साहब ने साधना की सिद्धि तभी मानी है जब साधक के अंग-अंग में परिवर्तन हो जावे। इस भाव को इन पंक्ति के द्वारा उन्होंने स्पष्ट किया है :– पारस परसा जानियो, जो पलटे अंग अंग। अंग अंग पलटे नहीं तो है झूठा संग।। दरिया साहब के मतानुसार ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिये साधक का कपट रहित एवं सरल हृदय होना आवश्यक है। फिर वह चाहे गृहस्थ हो चाहे साधु। उनके सम्प्रदाय में गृहस्थ तथा उदासी दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। दरिया साहब ने फुटकर पद लिखे हैं जो दरिया साहब की वाणी के नाम से प्रकाशित हुए हैं। दरिया पंथ का प्रचार भी राजस्थान में ही हुआ है। हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:—- तानसेन का जीवन परिचय, गुरु, पिता, पुत्र, दूसरा 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