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दयाबाई का जीवन परिचय और रचनाएं

दयाबाई का जीवन परिचय और रचनाएं

महिला संत दयाबाई जी महात्मा संत चरणदास जी की शिष्य और संत सहजोबाई जी की गुर-बहिन थी। संत चरण दास जी और संत सहजोबाई जी का जीवन परिचय हम अपने पिछले लेखों में लिख चुके हैं। संत दयाबाई मेवात राजस्थान के डेहरा नामी गांव में पैदा हुई जहां कि इनके गुरु महराज ने अवतार धरा था और फिर गुरू जी के साथ दिल्ली जाकर उनकी सेवा कमाती रहीं और वही चोला भी छोड़ा।

दयाबाई जी महात्मा चरणदास जी और सहजोबाई की सजाती अर्थात्‌ ढूसर जाति की थीं और कहते है, कि अपने गुरु के कुल ही में जन्म लिया था। विक्रमी संवत् 1750 से 1775 के दरमियान इन का प्रकट होना पाया जाता है और संवत 1818 में संत दयाबाई ने अपना पहला ग्रंथ “दया बोध” रचा था।

दूसरा ग्रंथ “विनय-मालिका” भी है जिसमें दयादास की छाप है इन्ही का बनाया हुआ कहा जाता है। इसमें सन्देह करने की कोई बात नहीं पाई जाती क्योंकि पहले तो दोनों ग्रंथों की भाषा और ढंग एक सी है दूसरे दोनों में महात्मा संत चरनदास जी ने अपने गुरु की महिमा गाई है तीसरे दयाबोध में जो निष्चय करके पूरा पूरा संत दयाबाई का रचा हुआ है एक जगह दयादास नाम करके छाप दी हुई है [ आपकी वाणी में सुमिरन के अंग की साखी नम्बर 3 देखिये ] और चौथे चरणदासियों का भी ख्याल है कि “दयादास” जी कोई प्रथक व्यक्ति न थी बल्कि यह नाम दयाबाई जी का ही है। इसमें सन्देह नहीं कि “विनय-मालिका” किसी गहरे भक्त की लिखी हुई है जो प्रेमीजनों के पढ़ने योग्य है इसलिये उसे भी प्रकाशित किया है।

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संत दयाबाई की कुछ प्रमुख रचनाएं

।।दोहे।।

बंदों श्री सुकदेवजी सब बिधि करो सहाय।
हरो सकल जग आपदा प्रेम-सुधा रस प्याय॥
जै जै परमानंद प्रभु परम पुरुष अभिराम।
अंतरजामी कृपानिधि दया” करत परनाम॥
ब्रह्म रूप सागर सुधा गहिरो अति गम्भीर।
आनंद लहर सदा उठै नहीं धरत मन धीर॥
जहाँ जाय मन मिटत है ऐसो तत्त सरूप।
अचरज देखि “दया” करे वंदन भाव अनूप॥
चरणदास गुरुदेवजू ब्रद्म-रूप सुख-धाम।
ताप-हरन सब सुख-करन दया” करत परनाम॥
अंध कूप जग में पड़ी दया” करम बस आय।
बूड़त लई निकासि करि गुरु गुन” ज्ञान गहाय॥
छकै रहे आनन्द में आठ पहर गलतान।
अद्भुत छवि जिनकी बनी “दया” धरत मन ध्यान।।
चरणदास गुरुदेव हैं दया-रूप भगवान।
इन्द्रादिक जो देवता देत तिन्हैं सनंमान॥
सतगुरु सम कोंउ है नहीं या जग में दातार।
देत दान उपदेस सौ करै जीव भव पार॥
गुरु किरपा बिन होत नहिं भक्ति भाव विस्तार।
जोग जज्ञजप तप “दया” केवल ब्रह्म विचार॥
या जग में कोउ है नहीं गुरू सम दीन-दयाल।
सरनागत कूं जानि के भले करें प्रतिपाल॥
मनसा बाबा करि “दया” गुरु चरणों चित लाव।
जग समुंद्र के तरन कूं नाहिन आन उपाव॥
जे गुरु कूँ बंदन करें “दया” प्रीति के भाय।
आनंद मगन सदा रहे तिरविधि ताप नसाय।।
चरन कमल गुरदेव के जे सेवत हित लाय।
“दया” अमरपुर जात हैं जग सुपनो बिसराय॥
सतगुरु ब्रह्म सरूप हैं मनुष भाव मत जान।
देह भाव भाने “दया” ते हैं पसू समान॥
नित प्रति वंदन कीजिये गुरु के सीस नवाय।
“दया” सुखी कर देत है हरि सरूप दरसाय॥

।। चौपाई।।

गुरु बिन ज्ञान ध्यान नहिं होवै।
गुरु बिन चौरासी मग जोवै॥
गुरु बिन राम भक्ति नहिं जागे।
गुरु बिन असुभ कम नहीं त्यागे॥
गुरु ही दीन-दयाल गोसाईं।
गुरु सरनै जो कोई जाई॥
पलटै करें काग सूँ हंसा।
मन के मेटत है सब संसा॥
गुरु हैं सब देवन के देवा।
गुरु को कोउ न जानत भेवा॥
करुना-सागर कृपा-निधाना।
गुरु है ब्रह्म रूप भगवाना॥
हानि लोभ दोउ सम करि जाने।
ह्वदै ग्रंथ नीकी विधि भाने।।
दै उपदेस करे भ्रम नासा।
“दया” देत सुख-सागर वासा॥
गुरु को अहि निसि ध्यान जो करिये।
विधिवत सेवा में अनुसरिये॥
तन मन सूँ अज्ञा में रहिये।
गुरु अज्ञा बिन कछू न करिये॥
गुरु भज्ञा मैटीजे नाहीं।
भावै देह पात है जाही॥
होय गुरमुखी जग मे रहै।
सिर पर सीत ऊस्न सब सहै।।

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