सरयू का तट पर स्थितबलिया जनपद अपनी अखंडता, निर्भीकता, बौद्धिकता, सांस्कृतिक एकता तथा साहित्य साधना के लिए प्रसिद्ध है। इसका ऐतिहासिक तथा पौराणिक महत्व है। बलिया शहर से 5 किलोमीटर की दूरी पर ददरी का प्रसिद्ध मेला लगता है। ददरी के मेले के बारे में कहा जाता है कि ददरी मेला भारत का दूसरा सबसे बड़ा पशु मेला है।
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बलिया ददरी का मेला
खाटी भोजपुरी के लिए बलिया, गाजीपुर, देवरिया प्रसिद्ध है। इसे भृगुक्षेत्र कहते है। गंगा और सरयू के पावन हाथों में स्थित इस क्षेत्र का सांस्कृतिक और पौराणिक महत्व है। यह ऋषियो-महर्षियों
की तपस्थली रही है। इन ऋषियों में भृगु का नाम मुख्य है। वैसे महर्षि विश्वामित्र, परशुराम और जमदग्नि ने भी यहां अपने आश्रम बसाये थे। शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार भृगु वैदिक ऋषि है। “गीता ‘
में श्रीकृष्ण ने कहा था कि में ऋषियों में भृगु हूं। इससे सिद्ध होता है कि भृगु तपे-तपाये ऋषि थे।
ददरी का मेला का महत्व
इन्होंने भृगु सरिता की रचना की थी। एक प्रकरण के अनुसार भृगु ने शिवजी को लिंग का रूप धारण करने का शाप दिया था। ब्रह्म द्वारा अपने को उपेक्षित महसूस किया था और विष्णु को अपने स्थान पर सोते हुए देखकर उन पर क्रुद्ध हो कर उनकी छाती पर लात मारा थी। “पद्मपुराण” का प्रसंग ऐसा हैं कि एक बार यज्ञ में सभी ऋषिगण एकत्र हुए। वहा ऋषियों ने एकमत होकर भृगु को यह कार्य सौंपा कि वे इस बात का पता लगाये कि देवताओं मे सबसे ऊंचा चरित्र किसका है ?।

भृगु ने इसी प्रसंग में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों को अनुचित अवस्था में ही पाया था और तीनो को परीक्षा में अनुत्तीर्ण पाया था ? तब भी पवाघात से उठे विष्णु ने भृगु के पावो को सहलाते हुए विनम्रता पूर्वक क्षमा याचना करते हुए कहा था कि कही आप के चरणों को चोट तो नहीं लगी। इस विनम्रता से प्रसन्न होकर विष्णु को ही मनुष्य और देवताओं द्वारा पूजा के योग्य घोषित कर दिया। किंतु पदाघात का प्रायश्चित तो भृगु को भी करना ही था। विष्णु भगवान ने एक छडी काठ की दी और कहा कि आप जाये। यह छड़ी जहां हरी हों जायेगी, वहीं आपका प्रायश्चित पूर्ण हो जायेगा। भृगु अन्यान्य तीर्थों का भ्रमण करते हुए जब गंगा-सरयू के संगम पर बलिया पहुंचे तो अपनी छड़ी संगम पर गाड दी। गड़ते ही छड़ी हरी हो गयी, तब इसी स्थान पर भृगु ने घोर तपस्या की जो भृगु क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया। भृगु ने यहां एक शिष्य-परंपरा कायम की, जिनमे एक दर्दर भी थे। दर्दर ने भृगु की स्मृति में एक मेले का आयोजन किया जिसमे तमाम ऋषियों ने भाग लिया। उसी के नाम पर इस मेले का नाम ददरी मेला पड़ा।
ददरी का मेला और भव्यता
कालान्तर में यह मेला ददरी का मेला के नाम से प्रसिद्ध है। यह मेला अब लगभग तीन सप्ताह तक चल कर कार्तिक पूर्णिमा को समापन पर पहुंचता है। कहते है कि यहां गंगा-सरयू स्नान तथा भृगु आश्रम का दर्शन करने से मनुष्य जन्म-जन्म के पापों से मुक्त हो जाता है। ददरी का मेला पशु-मेला के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यहां हाथी, घोड़ा, बैल, गाय, से लेकर चिडिया-पक्षी भी भारी सख्या मे बिकने के लिए आते है। यहां मीना बाजार लगती है जिसमे प्राय सभी वस्तुएं खरीदी-बेची जाती है। इसके अलावा मनोरजन के साधन भी पर्याप्त उपलब्ध रहते है। नौटंकी, सर्कस, नाच-गान, तमाशा, प्रदर्शनी, खेलकूद, कुश्ती, सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रवचन, कवि-सम्मेलन, गोष्ठी, बिरहा, दंगल, मुशायरा, कब्वाली आदि का वृहद आयोजन किया जाता है, जिसे देखने-सुनने के लिए दूर-दराज के दर्शक-श्रोता उपस्थित होते है। ददरी का मेला भोजपुरी क्षेत्र का सबसे बडा मेला कहलाता है। वैसे ददरी मेला भारत का प्रसिद्ध मेला है।