दतिया जनपद मध्य प्रदेश का एक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक जिला है इसकी सीमाए उत्तर प्रदेश केझांसी जनपद से मिलती है। यहां एक किला तथा उसके कुछ भग्नावशेष देखने को मिलते है। जिसे दतिया का किला या दतिया महल के नाम से स्थानीय लोगों द्वारा पुकारा जाता है।
दतिया का इतिहास
जनश्रुति के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ पहले बक्रदन्त नामक दैत्य का राज्य था। उसी के नाम पर इस स्थान का नाम दतिया पडा। पहले दतिया गुप्त सम्राज्य के अन्तर्गत था। उसके पश्चात यहाँ गुर्जर प्रतिहारों का राज्य रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के बाद यहाँ चन्देलों का राज्य रहा, उसके पश्चात यहाँ बुन्देलों का राज्य रहा इस सुप्रसिद्ध स्थल पर एक किला तथा अनेक आवासीय महल उपलब्ध होते है।
वीर सिंह जी देव की मित्रता मुगल समाज्य जहाँगीर से थी। इस मित्रता को वे कभी नहीं भूले। सन् 1625 में जब जहाँगीर काबुल की यात्रा कर रहे थे। उस समय माहवत खाँ ने उनका अपहरण कर लिया। उन्हे छुडाने के लिये अपने छोटे पुत्र भगवान राव को जहाँगीर की मदद के लिये भेजा। वहाँ से लौटकर उन्होने दतिया नगर में महल बनवाया और भगवानराव को वहाँ का राजा नियुक्ति किया। इस समय खान जहान लोदी बीजापुर के असत खाँ की मदद कर रहा था। उसकी मृत्यु सन् 1656 में हो गयी थी। उसकी याद में सुरही छतरी नामक स्मारक दतियाँ के समीप बना।
दतिया महल या दतिया का किलाभगवान राव का उत्तराधिकारी शुभकरण हुआ, उसने अपने जीवनकाल में 22 युद्ध किये मुख्य रूप से बादक सान और आलाजान उनके नजदीकी थे। जब शाहजहाँ के लडको के मध्य सत्ता के लिये संघर्ष छिड गया, उस समय उसे बुन्देलखण्ड का सूबेदार बनाया गया था। सन् 1659 में औरंगजेब दिल्ली का शासक बना। उसके पश्चात औरगंजेब के अनेक युद्ध मराठों से हुए, इस युद्ध में दतिया नरेश ने मुगलशासक का साथ दिया। सन् 1679 मे शुभकरण की मृत्यु हो गयी। उसके पश्चात उसका पुत्र दलपतिराव उत्तराधिकारी हुआ और वह भी अपने पिता के समान मराठों के विरूद्ध औरंगजेब की मदद करता रहा इसलिए मुगल दरबार में उसे सम्मान दिया गया और वे उनके विशेष विश्वास पात्रों में हो गया।
इसी समय -सन् 1694 में जिन्जी के कुछ भाग पर अधिकार हो जाने पश्चात मुगल बादशाह ने उसे दो द्वार भेंट किये। ये दोनों द्वार फूलबाग दतिया में बने हुए हैं। दलपति राव की मृत्यु सन् 1707 मे जजऊ के युद्ध मे हो गई। इसी साल औरंगजेब की भी मृत्यु हो गई।
औरंगजेब की मृत्य के पश्चात स्वभाविक रूप से मराठों बुन्देली और मुगलो में सत्ता संघर्ष तीव्रगति से चालू हुआ। औरंगजेब के जीवन के अन्तिम वर्ष में मुगल सत्ता कमजोर पड गयी और बुन्देलखण्ड के देशी नरेश स्वतंत्र हो गये। इस समय दतियाँ के नरेश सत्यजीत थे। इनका युद्ध ग्वालियर के सिन्धियाँ नरेश से हुआ। इस समय सिन्धियाँ की ओर से पेग्ल युद्ध कर रहा था। उससे दतिया का कुछ इलाका मराठो के अधिकार में चला गया और सत्यजीत युद्ध में मारे गये उसके बाद उनके पुत्र परीक्षक दतिया के नरेश बने उन्होने मराठों से युद्ध करना उचित नही समझा। इसलिये 1801 से लेकर 1804 के बीच मराठों से सन्धि कर ली। इसी प्रकार की एक सन्शि अंग्रेजो से भी हुई और यहाँ स्थाई शान्ति भी स्थापित हुई। राजा परिक्षक ने यहाँ परकोटे का निर्माण कराया और नगर में प्रवेश करने के लिये चार द्वारों का निर्माण कराया। ये दरवाजे रिक्षरा द्वार, लसकरद्वार, भाण्डेय द्वार और झाँसी के द्वार के नाम से जाने जाते है। सन् 1818 में अंग्रेज गर्वनर जनरल वारेनहेस्टिंग यहाँ आये थे। जब 1902 में लार्ड कर्जन यहाँ आये उस समय दतिया की स्थित नाजुक हो गयी थी, और वह उजडने लगा था।
दतिया महल – दतिया का किला
दतिया महल, दतिया के इतिहास की सबसे खुबसूरत और ऐतिहासिक धरोहर है। दतिया महल को सतखंडा महल, पुराना महल, बीर सिंह देव महल, दतिया का किला और गोविन्द महल आदि नामों से भी जाना है। यह महल एक पहाड़ी पर बना हुआ है। दतिया महल धरातल से पांच मंजिला बना है। हकीकत में यह सात मंजिला है। दो तल इस किले के नीचे बताये जाते है। यह महल हिन्दू मुस्लिम वास्तुकला का विशेष नमूना है।
दतिया के दर्शनीय स्थल निम्नलिखित है।
- दतिया किले का परकोटा
- दतिया दुर्ग के चार प्रवेश द्वार
- दतिया दुर्ग का गोविन्द महल
- अन्य अवासीय महल
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