न जाने इस पृथ्वी पर कितने मनुष्य बसते हैं। संसार का तनिक भ्रमण कर देखिये, थोड़े थोड़े अंतर पर ही अनोखा मानव, उसका अनोखा समाज तथा उसका आश्चर्यजनक स्वभाव आपको चकित करता चलेगा। यहां तक कि एक ही जननी की कोख से उत्पन्न हुये दो भाई यदि एक दूसरे से बिछड़ कर विभिन्न प्रदेशों में रहने लगें, तो उन में भी कुछ दिनों के पश्चात काफ़ी अन्तर दिखाई पड़ेगा। न जाने इस विश्व में रहने वाले मानव ने कितने समाज बनाये हैं। और किस प्रकार अपने आप को उनका अनुयायी बनाया है। संसार में अनेक ऐसे स्थान हैं जहां कोई भी मनुष्य रहना नहीं चाहता। जहां जीवन सर्वथा नीरस तथा व्यर्थ है परन्तु वहां भी मानव रहता है। शायद वह वहां रहने का अभ्यासी हो चुका हो। परन्तु बहुत से लोगों को ऐसे स्थानों पर रहना असम्भव अवश्य प्रतीत होता है। अपने इस लेख में हम एक ऐसे ही प्रदेश और जनजाति का उल्लेख करेंगे, वह है थारु प्रदेश और उसमें निवास करने वाली थारू जनजाति।
थारू जनजाति कहाँ पाई जाती है? थारू जनजाति की उत्पत्ति कैसे हुई? थारू जनजाति क्या है? थारू जनजाति में विवाह कैसे किया जाता है? थारू जनजाति के वंशज कौन है? थारू जनजाति किस राज्य में पाई जाती है? थारू जनजाति का भोजन? थारू जनजाति का निवास स्थान?
थारू जनजाति की उत्पत्ति
बहुत से जानकारों का मत है, कि प्रारम्भ में यह प्रदेश बिल्कुल मानव से शून्य था। परन्तु आज यहां थारू जाति के लोगों का वास है। आज इन लोगों को यहां देख कर यह निश्चय होता है, कि भूख, मुसीबतें, तथा मानव की घुमक्कड़ प्रकृति ने उसे पृथ्वी के खण्ड खंड पर घुमा कर आबादद कर दिया है। जब थारू लोग यहां आ कर बसे, तो उस समय यह प्रदेश भयंकर वनों से पटा हुआ था। जंगली जानवरों की भयानक चिंघाड़ें चारों शोर सुनाई दिया करती थीं। अथक परिश्रम से दिन रात लग कर इन्हों ने इस भूमि को अपने रहने योग्य बनाया, तथा भूखे पेट की तृप्ति करने के लिये चार दाने अन्न पैदा करने योग्य साधन जुटाये। आरम्भ में तो इन लोगों को बड़े बड़े दुःख उठाने पड़े। परन्तु समय ने इन्हें यहीं बस जाने को विवश कर दिया। यहां के अतिरिक्त अन्य कहीं भी इन्हें अपनी सुरक्षा दिखाई नहीं दी। दुःखों को सहते सहते, इन्हों ने अपने आप को मुसीबतों से टक्कर लेने का अभ्यरत बना लिया। अब प्रश्न उठता है, कि वास्तव में यह थारू लोग कौन थे ? तथा इन्हें अपना देश क्यों छोड़ना पड़ा। और इस प्रदेश को ही इन्हें अपना सुरक्षा-स्थान क्यों मान लेना पड़ा। संसार इतना विशाल है फिर भी कहीं अन्यत्र किसी सुन्दर भूमि को इन्होंने अपना निवास स्थान क्यों नहीं बनाया ?
थारू प्रदेश की स्थिति
किन्तु मनुष्य की इच्छा से परिस्थितियां कहीं अधिक बलवती होती हैं। यही उक्ति इस थारू जनजाति पर भी लागू होती है। इससे पहले कि थारू लोगों के रहन-सहन आदि अथवा सामाजिक जीवन पर कुछ कहा जाये, इस थारू प्रदेश की स्थिति आदि को जान लेना आवश्यक है। इसका इनके सामाजिक जीवन से एक बहुत बड़ा सम्बन्ध है, तथा जिस समय इन लोगों ने इस प्रदेश में शरण ली थी, उस समय संसार में यही प्रदेश इन्हें अपना एक मात्र सुरक्षा स्थान दिखाई पड़ा था।
थारू प्रदेश वास्तव में हिमालय पर्वत पर स्थित उस अनोखे प्रदेश का नाम है, जो नैनीताल के पूर्व मेंनेपाल राज्य की पश्चिमी सीमा के साथ बड़ी दूर तक फैला हुआ है। घोर वनों से ढके हुये पहाड़ी स्थल इतने भयंकर हैं, कि मार्ग तक नहीं मिलते। जंगलों में भयानक जानवरों का वास है, जिन से हर समय प्राणों का भय रहता है। और सब से बुरी चीज़ जो इस प्रदेश में प्रायः पाई जाती है, वह है यहां का निकृष्ट जलवायु जिससे स्वास्थ्य सदा बिगड़ा ही रहता है। मच्छर इतने अधिक होते हैं, कि प्रायः मलेरिया बुखार जोरों पर रहता है। इसके लिये कोई विशेष ऋतु निश्चित नहीं, अपितु वर्ष के बारह महीने इसका प्रकोप रहता है। यहाँ के लोग मलेरिया से इतना नहीं घबराते। कारण यह है, कि अनेको पीढ़ियां इन्होंने इसी प्रदेश में बिता दी हैं। इसलिये ये इस जलवायु को सहन करने के अभ्यस्त हो गये हैं। इसी लिये मलेरिया आदि रोगों के कीटाणू इन के शरीर पर अपना प्रभाव नहीं डालते।
यह प्रदेश देखने में अत्यन्त आकर्षक प्रतीत होता है। प्राकृतिक अपनी अनुपम शोभा दिखाते हैं। अनेक स्थानों पर कल कल करते हुये निर्मल तथा शुद्ध जल के स्रोत बह रहे हैं और हरयाली की चादरों में दिखाई पड़ने वाले छोटे छोटे ग्राम इस प्रदेश की शोभा को अनुपम बना देते हैं। परन्तु फिर भी यदि भारत के किसी अन्य प्रदेश का निवासी यहां आकर इस प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द उठाना चाहे, तो इस से प्रथम कि वह आन्न्दित हो, मलेरिया के भयंकर शिकंजे में जकड़ जाता है। और इस व्याधि से उस समय तक उसका पीछा नहीं छूटता, जब तक कि वह इस प्रदेश का परित्याग कर कहीं अन्यत्न न चला जाये। यह हैं इस भूमि के अवगुण, वास्तव में यह सारा दोष जलवायु का ही है। जलवायु के ही दूषित होने से यहां मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों की अधिकता पाई जाती है।
थारु लोगों में शिकार खेलने की प्रवृत्ति
इस प्रदेश के वासियों को शिकार खेलने का बढ़ा चाव है। कारण यह है कि घने जंगलों के बीच रहने पर इन्हें हर समय जंगली जानवरों का भय रहता है, इसलिये उनका सामना करने के लिये ये लोग हर समय तैयार रहते हैं। निशाना भी इस चोट का बांधते हैं, कि चूकता नहीं। लगभग सभी लोग इस प्रदेश में बन्दूके रखते हैं। जिन पर कोई लाइसेन्स आदि लागू नहीं होता। परन्तु अब सरकार ने प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिये लाइसेन्स का रखना आवश्यक करार दे दिया है। वैसे इन लाइसेन्सों को प्राप्त करने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता है। परन्तु इन लोगों को बिना किसी कष्ट के यह लाइसेन्स प्राप्त हो जाते हैं। फिर भी अधिकतर लोग अशिक्षित होने के कारण बिना लाइसेन्स के बन्दूक आदि हथियार रख ही लेते हैं।
थारू जनजातिजनजाति का इतिहास
पहाड़ियों पर बसने वाले इन थारू लोगों के देश का वास्तविक इतिहास ऐसा है, जिस पर भारत ही नहीं बल्कि समस्त संसार को गर्व है। जहां के महान चरित्र सारी दुनियां के समक्ष आज भी अपना सिर झुकने नहीं देते। भारत का बच्चा बच्चा उसे याद करके मारे गर्व के फूल उठता है। थारू लागों को आज एक पिछड़ी हुई जाति कह कर हम उन से दूर हो सकते हैं। उन्हें जंगली तथा आदिवासी समझ कर उनका तिरस्कार करते हैं। परन्तु यदि हम थारू जनजाति के पूर्वजों की जीवनियों का अवलोकन करें, तो हमें अपनी भूल ज्ञात हो जाये। जिन्हें आज हम आदिवासी समझते हैं, वास्तव में हमारे ही अंग हैं।
इन थारू लोगों का पुराना देश राजस्थान है। राजस्थान जिसकी धरती ने राजपूतों को जन्म दिया। ऐसे राजपूत जिन्होंने अपनी मातृ-भूमि के रूखे तथा उजाड़ आंचल को अपने वीर रक्त से रंग कर दुनियां को देशभक्ति का आदर्श सिखाया। जिन्होंने अपनी मान, मर्यादा तथा धर्म की रक्षा के लिये अपने एक एक बच्चे को रणभूमि में ले जा कर दुश्मन से चोट खा कर शहीद होना सिखाया था। आज के ये थारू लोग भी उन्हीं वीर राजपूतों के वंशज हैं। जो अबहमारे लिये आदिवासी बने हुये है। जो आज हम से इतनी दूर चले गये हैं कि हमें उन्हें अपना समझने में आश्चर्य होता है।
आज से कई सौ वर्ष पहले जब वीर नगरी चित्तौड़ पर मुसलमानों ने आक्रमण किया, तो राजपूत अत्यन्त चेष्टा करने पर भी उन पर विजयी नहीं हो पाये थे। कारण यह था, कि उनके अपने घनिष्ट सेवकों ने ही उनके साथ विश्वास घात किया था। परिणाम यह हुआ कि राजपूत एक एक कर के कट मरे। चित्तौड़ की रानियों ने अपने आप को शत्रुओं के हाथों सौपने की अपेक्षा जौहर कुण्ड में झौक कर अपनी मान मर्यादा की रक्षा करना कहीं अधिक अच्छा समझा। जिससे हमारे पूर्वजों को कोई बट्टा न लगने पाये।
परन्तु राज्य पुरोहितों ने शत्रुओं के साथ मिल कर इन वीर रानियों के साथ भी विश्वासघात किया। रानियां कुण्ड में जलने के लिये पहुंच भी न पाई थीं, कि पुरोहितों का विश्वासघात उजागर हो गया, जिन्होंने भोली भाली रानियों तथा राज-कन्याओं को पकड़ कर शत्रुओं के हवाले कर देने की चाल चली थी। रानियां समय से पहले ही उन की नीच करतूतों को भांप गई। पुरोहितों ने उन्हें गिरफ्तार कराना चाहा, परन्तु जिन्होंने सिंहनियों का दूध पिया हो उन्हें पकड़ना कोई साधारण काम नहीं था।
पुरोहितों का विश्वासघात देख कर रानियां अवसर पा कर रात के समय वहां के महलों से लोप हो गईं। जंगलों, मैदानों, और पहाड़ों की ठोकरें खाती हुईं यहां इस प्रदेश में आ पहुंचीं। देश के खण्ड खण्ड में रानियों की खोज की गई परन्तु उन का कहीं पता न चला। क्योंकि ये सब एक ऐसे सुरक्षित स्थान पर पहुंच चुकी थीं, जहां उस समय तक शायद ही किसी मानव की पहुंच हो पाई थी। रानियों को महलों से सुरक्षित निकाल कर इस प्रदेश में ले आने का कार्य, उन वीर राजपूत सिपाहियों ने किया था, जिन्हें उनके सेनापति तथा राजा लोग रण को जाते हुये रानियों की रक्षा के लिये छोड़ गये थे। पुरोहितों के विश्वासघात से राजपूत रानियों की रक्षा करने में इन राजपूत सिपाहियों ने अपनी जान की बाज़ी लगा कर वर्षों से खाया हुआ चित्तौड़ देश का नमक हलाल किया।
इन छोटे छोटे सिपाहियों का इतना महान बलिदान देख कर यह रानियां अति प्रसन्न हुईं। परन्तु अब वह उनके इस अपूर्व बलिदान का बदला कैसे चुकाती अब तो उनके हाथ खाली थे। किन्तु फिर भी उन्होंने उन राजपूत सिपाहियों को उनके बलिदान हेतु कुछ न कुछ देने का वचन दिया। जब यह रानियां थारू प्रदेश की इन घाटियों में आ कर बस गईं, तो राजपूती आन को रखने के लिये, इन रानियों ने अपनी कुमारी पुत्रियों का दान उन्हें दिया। अपनी रानियों से इस अपूर्व दान को पा कर यह राजपूत सिपाही फूले न समाये, और मारे गर्व के उन्होंने अपने अथक परिश्रम से जंगलों को काट काट कर अपनी रानियों को बसाने के लिये इस भूमि को स्वर्ग बना दिया। राज-कन्याओ से विवाह कर लेने पर भी इन वीर सिपाहियों ने उनका राज-रानियों के समान ही सम्मान रखा। यही कारण है, कि आज भी विवाह हो जाने के पश्चात वधू को इस प्रदेश के लोग रानी कहते हैं। प्रत्येक विवाहित स्त्री का आज भी उसी प्रकार सम्मान किया जाता है, जितना कि एक रानी का।
पुरुष का यही व्यवहार आज इस प्रदेश का सामाजिक कानून बन चुका है। सभी विवाहित पुरुषों को स्त्रियों के अधीन रहना पड़ता है। पत्नी का आदेश मानना पुरुष का धर्म समझा जाता है। और यही नहीं बल्कि पत्नियां अपने पतियों को चौके तक में नहीं घुसने देती और ना ही उन्हें वहां बैठ कर भोजन ही करने देती हैं। कारण यह है, कि स्त्रियां अपने आपको आज तक वही रानियां समझती चली आ रही हैं। तथा पुरुष अपने आपको वही दास राजपूत सिपाही समझते चले आ रहे हैं । सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी इन का यह भ्रम अभी तक वैसा ही बना हुआ है। उसमें तनिक भी अन्तर नहीं आया।
इसका यह अर्थ नहीं, कि थारू स्त्रियां अपने पतियों को कुछ समझती ही नहीं, अथवा उनका निरादर करती हैं। बल्कि वे तो यथासम्भव पति की सेवा करती हैं। पति ही को अपना सर्वंस्व समझती हैं। प्रारम्भ में पतियों ने उन पर कोई अनुचित दबाव इसलिये नहीं डाला ताकि उन के हृदय में अपनी पहली महारानियों की स्मृति निरन्तर बनी रहे। परन्तु समय के साथ साथ अब यह एक रीति सी बन गई है। और यही नहीं अपितु परिस्थितियों के चक्कर ने ऐसे ही और भी अनेक नियम इन के जीवन में उपस्थित किये थे।जो आज भी इन लोगों के जीवन में जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। तात्पर्य यह है, कि मनुष्य के कार्य तथा उसकी परिस्थितियों के अनुसार ही उसका समाज पनपता है। और ज्यों ज्यों उसके आाधारों में परिवर्तन होता है, त्यों त्यों उसके समाज में भी अन्तर उत्पन्न होता है, इन थारू लोगों को ही देखिये, कि जब यह राजस्थान के निवासी थे, तब इनके कर्म अनुसार इनका समाज कुछ और ही था, परन्तु थारू प्रदेश में बसने के पश्चात् इन का समाज बिल्कुल ही भिन्न प्रकार का हो गया।
थारू लोग ब्राह्मण जाति से इतनी अधिक घृणा करते हैं, कि उनका मुख सुबह सवेरे देख लेना बड़ा अपशकुन मानते हैं। चाहे अन्य भारतीय हिन्दू अपने बीच ब्राह्मणों को अन्य जातियों से श्रेष्ठ भले ही समझते रहें, परन्तु यह थारू जनजाति के लोग ब्राह्मणों को संसार के सब से नीच मनुष्य समझते हैं। यह सत्य है कि जब तक इन के पूर्वज चित्तौड़ के वासी रहे, तब तक उन्होंने इन्हें संसार में सब से श्रेष्ठ जाति का मनुष्य समझा था। परन्तु जब वह अपनी मातृ-भूमि के लिये लड़ते लड़ते शहीद हो गये, और उनकी भोली भाली रानियां तथा छोटे छोटे बच्चे इस जगत में बे सहारा हो कर रह गये, तब इन्हीं लोगों ने नमक हराम हो कर यवनों के हाथों उनके सतीत्व को नीलाम करना चाहा। राजस्थान की भूमि पर बहा हुआ सम्पूर्ण रक्त ऐसे ही लोगों की कृतघ्नता की कहानियां दुनियां को सुना रहा है। थारू जनजाति ने ब्राह्मणों को संसार की अछूतों से भी अछूत जाति करार देकर इनके हाथ का पानी तक पीना छोड़ दिया है।
आपको आश्चर्य होगा कि ये थारू जनजाति सूर्य वंशी राजपूत हैं। इतिहासकारों का मत है, कि चित्तौड़ के राजा अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के पुत्र श्री राम के वंशज ही थे (यह बात राजस्थान के इतिहास से भी स्पष्ट हो जाती है, जो कि जनरल टॉड का लिखा हुआ है, तथा जगत के समक्ष राजस्थान भूमि का एक श्रेष्ठ खोज-पूर्ण इतिहास है ) तथा उन्हीं के देवता, इनके भी देव हैं, तो फिर इनके विवाह तथा मृत्यु आदि संस्कार किस प्रकार ब्राह्मण के बिना सम्पन्न होते होंगे ? जब कि रीति अनुसार ब्राह्मण के हाथों ही यह सब कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं ओर प्रत्येक दशा में उसकी उपस्थिति आवश्यक होती है। परन्तु इस का हल भी इन थारू लोगों ने निकाल ही लिया है। ब्राह्मण कुल में जन्म पाकर अपनी रानियों का सतीत्व लुटवाने का घृणित कार्य करने में जब इन्हें लज्जा न आई तो भला थारू किस प्रकार इन का आदर करते। इसीलिये इन लोगों ने ब्राह्मणों से सम्बन्धित अपनी सभी, पुरातन, परम्पराओं का परित्याग कर दिया है। ये लोग अपने सभी संस्कारों को ब्राह्मणों के बिना ही सम्पन्न कर लेते हैं। हां, शुभ कार्यो के लिये कुछ शुभ तिथियां अवश्य निश्चित की गई हैं। बृहस्पतिवार तथा रविवार इन लोगों में श्रेष्ठ दिवस माने जाते हैं। विवाह आदि कार्यो में माघर मास शुभ समझा जाता है। विवाह की रीति भी इन लोगों ने बड़ी सरल तथा बड़ी अनोखी बना रखी है। इसलिये अब वही कहनी उपयुक्त है।
थारू जनजाति का विवाह
विवाह से पूर्व थारू लोगों में सगाई होती है। कन्या तथा वर के घर वाले जब दोनों को एक सूत्र में बांध देने का निश्चय कर लेते हैं तब वर पक्ष की ओर से कुछ आदमी श्रृद्धानुसार मिठाई तथा वस्त्रादि लेकर कन्या के घर पधारते हैं। जहां इन लोगों का आदर-पूर्वक सत्कार किया जाता है। फिर शुभ घड़ी में सभी महमान तथा कन्या पक्ष के लोग किसी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। लड़की तथा लड़के के पिता को परस्पर सामने बैठाया जाता है, और फिर शराब बांटी जाती है। लड़की वाला तथा लड़के वाला अपनी प्यालियां एक दूसरे से बदल कर मद्यपान करते हैं। महमानों को शिकार चावल आदि के साथ भोज दिया जाता है। भोज में मछलियां भी रखी जाती हैं। जब यह कार्य समाप्त हो जाता है तब परस्पर शुभ कामनाओं के लिये प्रार्थना की जाती है, और राम-जुहार होती है। सगाई में सब से अन्तिम रीति “उचावल” की होती है। इस का उल्लेख इस प्रकार है, कि कन्या की माता वर के पिता के पास आ कर उसके पांव छूती है, तथा उचावल प्राप्त के लिये प्रार्थना करती है। इस का अभिप्राय यह है, कि वह लड़की के हार-सिंगार के लिये लड़के वाले से रुपया मांगती है। इस पर लड़के वाला अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ नक़द रुपया लड़की
की मां के आंचल में डाल देता है। यह रुपया केवल कन्या के लिये ज़ेवर बनवाने के काम में ही लाया जाता है। अन्य स्थान पर इसका व्यय पाप समझा जाता है।
जब यह सभी काम पूरे हो जाते हैं। तब किसी भी शुभ दिन को विवाह की तिथि निश्चित कर दी जाती है, और सभी वर पक्ष के लोग इसके पश्चात विदा हो जाते हैं। इस प्रकार सगाई की रीति समाप्त हो जाती है। इस के बाद विवाह का दिन आता है। विवाह अधिकतर माघ मास में ही सम्पन्न किये जाते हैं। विवाह होने के पश्चात जब सब लोग लौट आते हैं, तो वर का पिता अपने घर पर एक शानदार प्रीति-भोज देता है। शराब, मांस, मछली तथा चावलों की खूब दावतें उड़तीं हैं। एक सभा भी नियत की जाती है, जिसमें सभी स्त्री पुरुष साथ साथ मिल कर नाचते हैं, तथा साथ साथ ही बैठते हैं। महफ़िल में तम्बाकू पीने का भी इन्हें बड़ा चाव होता है। तम्बाकू की चिलमें भर भर कर महमानों को पिलाने का काम वर करता है। जिसके बदले में बड़े बूढ़े उसे चिंरजीवी तथा सुखी ग्रहस्थ होने का आर्शीवाद देते हैं।
थारू जनजाति का पहनावा
थारू लोगों का रहन-सहन बड़ा सरल है। परिस्थितियों ने इन्हें
आदिवासियों की तरह रहने पर मजबूर कर दिया था। इसीलिये आज तक हम इन लोगों को एक जंगली जाति के लोग समभते रहे हैं । परन्तु वास्तव में ये लोग भी हमारी ही तरह आर्य वंशज हैं। हम एक ही देश की मिट्टी से पैदा हुये हैं। हम सब ने एक ही देश का अन्न खा कर जीवन पाया है, इसलिये हमारा खून भी एक ही है। इस थारू भूमि के निवासियों का पहनावा भी बड़ा अनोखा है। वैसे तो ये लोग केवल एक लंगोटी ही पहने रहते हैं, परन्तु शरद ऋतु आने पर एक मिर्जई नुमा कोट भी पहन लेते हैं। सिर पर ऊनी कपड़े की काले वर्ण की टोपी और कंधे पर कम्बल तो इनके साथ हर समय रहता है। स्त्रियां एक कुर्ती, तथा काले रंग के घाघरे का उपयोग भी करती हैं। केश राशि को ढकने के लिये काले रंग के एक रूमाल का उपयोग करती हैं। गहने पहनने का इन्हें बड़ा चाव होता है। देखने में ये स्त्रियां इतनी आकर्षक प्रतीत होती हैं, कि इनके रानी होने में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होता। जगत परिवर्तन शील है और यह है परिवर्तन-शील जगत के एक खण्ड पर बसने वाले मानव की कहानी। जो हमारी ही कहानी है, परंतु आश्चर्य है, कि हम स्वयं भी इसे आश्चर्य चकित होकर सुनते हैं।
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