इसमें तिलमात्र भी सन्देह नहीं कि श्री तुकोजीराव मल्हारराव के
योग्य उत्तराधिकारी थे। आपने कई युद्धों में असाधारण चतुराई
और वीरत्व का परिचय दिया था। उन्होंने अपनी फौजों में यूरोपियन युद्ध-कला और नियम-पालकता (Discipline) का प्रचार किया। सन् 1767 में पेशवा ने रोहिलों को दंड देने के लिये जो फौज भेजी थी उसमें सिन्धिया के साथ साथ तुकोजीराव ने भी बहुत बड़ा भाग लिया था। इसका कारण यह था कि रोहिलों ने पानीपत की लड़ाई में मराठों के खिलाफ़ अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया था। पहले पहल मराठों की यह फौज तीन हिस्सों में विभक्त हुईं। उसकी एक टुकड़ी सिन्धिया के हाथ में, दूसरी होल्कर के हाथ में, ओर तीसरी दूसरे सेनापतियों के हाथ में रही। सिन्धिया ने उदयपुर पर कूच किया ओर वहाँ के महाराणा पर 60 लाख का खिराज लगाया। तुकोजीराव ने कोटा और बूँदी पर चढ़ाई कर उन पर खिराज लगाया। अन्य दो जनरल सागर में रहकर बुन्देलखण्ड के राजाओं से खिराज वसूल करने लगे।
तुकोजीराव होलकर प्रथम का जीवन
इसके बाद सब सेना ने मिलकरभरतपुर के राजा के खिलाफ कूच किया। इसका कारण यह था कि भरतपुर का राजा अवध के नवाब शुजाउद्दौला से मिल गया था जो मराठों से विश्वासघात कर पानीपत के युद्ध में अहमदशाह अब्दाली से जा मिला था। यही नहीं, उक्त राजा ने आगरा का किला ओर उसके आसपास का कुछ मुल्क भी छीन लिया था। इससे चिढ़कर मराठों ने बदला लेने का निश्चय किया। भरतपुर से 16 मील की दूरी पर दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ। इसमें भरतपुर का राजा पूर्णरूप से हार गया तब उसी राजा नवल सिंह ने 6500000 रुपया नकद और लिया हुआ मुल्क वापस लौटाकर मराठों से सुलह की। इसके बाद मराठों की विजयी सेना ने दिल्ली की ओर कूच किया। सन् 1770 में नजीब खाँ रोहिला से इन्होंने दोआब का प्रान्त जीता। यह प्रान्त पहले मराठों के हाथ में था परन्तु पानीपत की लड़ाई के बाद उनके हाथ से निकल गया था। इसके बाद उन्होंने फरुखाबाद के पठानों पर चढ़ाई की। ये पठान लोग पानीपत के युद्ध में मराठों के खिलाफ लड़े थे। इस समय रोहिले और पठानों ने आपस में गुट बाँधकर मराठों का मुकाबला करने का निश्चय किया। मराठों और इनके बीच में छोटी बड़ी अनेक लडाइयाँ हुईं। आखिर में मराठों ने इनसे सब किले ओर इटावा का जिला छीन लिया। इन लड़ाइयों में एक लडाई सन् 1770 में पत्थरगढ़ मुकाम में हुई जिसमें शत्रु की कोई 70000 सेना की भयंकर हानि हुईं। आखिर में शत्रुओं ने सुलह के पैगाम पहुँचाये। मराठों ने अपना खोया हुआ मुल्क वापस लेकर अपने विपक्षियों से सुलह कर ली।
पाठक जानते हैं कि इसी समय दिल्ली का नामधारी सम्राट शाह आलम बादशाही से च्युत होकर प्रयाग में अंग्रजों के आश्रय में रहता था। मराठों ने उससे लिखा पढ़ी करना शुरू किया। अंग्रेजों ने जब देखा कि मराठे मुगल बादशाह को शाही तख्त पर बैठा कर अपना काम बनाना चाहते हैं तो उन्होंने भी शाह आलम को शाही तख्त पर बैठाने का प्रयत्न शुरू किया। उन्होंने देखा कि बादशाह का मराठों के हाथ में चला जाना उनके स्वार्थ में हानिकारक है। अतः मराठों की सत्ता का बढ़ना अंग्रजों को अखरा। अतएव उन्होंने भी यही चाहा कि अवसर मिलते ही बादशाह को तख्त पर बैठाने का श्रेय प्राप्त करना चाहिये। पर बादशाह बहुत बेचेन हो रहा था। उसने मराठों से बात चीत कर ली। उसने उन्हें वचन दे दिया कि— “अगर तुम मुझे बादशाही तख्त पर फिर बैठा दोगे, तो में तुम्हें उस सब जागीर का परवाना फिर दे दूँगा जो पानीपत की लड़ाई के बाद तुम्हारे हाथ से निकल गई है।” उसने मराठों से यह भी शर्त की कि- मेरी ओर जो तुम्हारी चौथ बकाया है, वह भी में सब दे दूँगा।” बस फिर क्या था। सन् 1771 के अन्त में मराठों ने शाह आलम को दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया। सन् 1772 में मुगल सम्राट शाह आलम और मराठों की संयुक्त सेना ने रोहिला सरदार जबीता खाँ के खिलाफ़ कूच किया। यद्यपि यह पत्थरगढ़ में हार चुका था,पर अभी तक सीधा नहीं हुआ था। अतएव इस वक्त फिर उस पर चढ़ाई करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। रोहिले मराठों का मुकाबला न कर सके। पीछे हटकर उन्होंने शुक्रताल नामक किले में आश्रय ग्रहण किया। मराठों ने इस किले पर भी घेरा डाल दिया। इस वक्त जबीता खाँ के बहुत से आदमी मारे गये । जबीता खाँ भी प्राणों को लेकर बिजनौर भाग गया। मराठों ने इसका पीछा किया ओर चन्दीघाट के उस पार उसे पूरी तौर से शिकस्त दी। फिर मराठों ने इसके तमाम किले और सारे मुल्क पर अधिकार कर लिया। इसके बाद मराठ अपनी कुछ सेना दोआब में छोड़ कर दिल्ली की ओर लौट गये। जब मराठे दिल्ली में थे तब उनके विरुद्ध एक षड़यन्त्र की सृष्टि हुई। इस षड़यन्त्र का मुखिया अवध का नवाब शुजाउद्दौला था। अंग्रेज भी इसमें शामिल थे। मुग़ल सम्राट शाहआलम का भी इसमें हाथ था। बात यह हुईं थी कि महादजी सिन्धिया ने मुगल सम्राट से पेशवा के भाई नारायणराव को प्रधान सेनापति का पद जबरदस्ती दिलवा दिया था। यह पद अब तक पूर्वोक्त ज़बीता खाँ को प्राप्त था। यह पद प्राप्त हो जाने से शाही फ़ौज पर भी मराठों का अधिकार हो गया था। यह देखकर शुजाउद्दौला और अंग्रेज सशक्त हुए। खास मुगल सम्राट को भी यह बात न भाई। बस फिर क्या था; मराठों के खिलाफ इन तीनों के षड़यन्त्र शुरू हुए। मुगल सम्राट ने भी फौज इकट्ठा की। इसमें ब्रिटिश फौजें भी शामिल थीं। तुकोजीराव और बिनी वाले की आधीनता में मराठी सेना भी तेयार हो गई । दोनों में युद्ध हुआ। मुगल सम्राट शाह आलम हार कर पीछे हटे। उन्हें मजबूर होकर मराठों की शर्तें स्वीकार करनी पड़ी।
तुकोजीराव होलकर प्रथमअभी तक रोहिलों ने मराठों से सुलह नहीं की थी। अतएव फिर
मराठों ने उन पर चढ़ाई की। इस चढ़ाई का कारण यह बतलाया गया कि रोहिलों ने 50 लाख रुपया देने का जो वचन दिया था इसका अभी तक पालन नहीं किया था। रोहिलों ने भी मुकाबिला किया। आसदपुर में पूरी तौर से उन्होंने उल्टे मुँह की खाई। उनका सेनापति अहमद खाँ गिरफ्तार कर कैद कर लिया गया। इसके बाद अवध के नबाब शुजाउद्दौला और अंग्रेजों ने रोहिलों का पक्ष ग्रहण किया। यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि किसी अनबन के कारण इस समय महादजी सिन्धिया रुष्ठ होकर तुकोजीराव प्रभृति मराठा सरदारों को छोड़कर राजपूताना चले गये थे और इसी अर्से में माधवराव पेशवा का भी देहान्त हो गया था। अंग्रेजों ओर नवाब शुजाउद्दौला ने मराठों को नीचा दिखलाने का यह उपयुक्त अवसर देखा। वे रोहिलों से मिल गये। इधर तुकोजीराव होल्कर भी बड़े राजनीतिज्ञ थे। जब उन्होंने देखा कि मतभेद के कारण अपना बल कुछ क्षीण हो गया है और विपक्षियों की संख्या बहुत बढ़ती जा रही है तब वे बड़ी सैनिक चतुराई के साथ पीछे हट गये। दिल्ली से हट कर मराठी सेना भरतपुर पहुँची। भरतपुर शहर से कुछ मील की दूरी पर भरतपुर की सेना से इनका मुकाबला हुआ। दोनों में युद्ध ठना। भरतपुर की सेना बुरी तरह हारी। आखिर भरतपुर के राजा से कुछ शर्तें तय कर मराठी सेना दक्षिण की ओर चली गयी। तुकोजीराव होल्कर इन्दौर आ गये ओर बिसाजी बीनी वाले भी पूना चले गये।
माधवराव पेशवा की मृत्यु के विषय में हम पहले ही लिख चुके हैं।
सन् 1776 में माधवराव के छोटे भाई नारायणराव का खून हो गया। कहा जाता है कि इस खून में राघोबा का हाथ था। इस घटना से मराठी सरदारों में बड़ी खलबली मच गई। खून करने वाले के खिलाफ़ मराठे सरदारों का गुट बना; लेकिन नारायणराव को माधवराव नामक पुत्र हुआ जिससे रिजेन्सी कौन्सिल में राघोबा दादा को पेशवाई से हटा दिया। इसके बाद राघोबा दादा शुजाउद्दोला और अंग्रेजों की सहायता पाने की आशा से मालवा गये। उन्होंने सिन्धिया और होल्कर के राज्य में प्रवेश किया। वहाँ रहने के लिये उन्हें इजाज़त मिल गई। पूना सरकार ने अपने प्रधान सेनापति हरिपन्त फड़के को राघोबा का पीछा करने के लिये भेजा। इधर राघोबा पूना सरकार के विरुद्ध पड़यन्त्र रचने की इच्छा से कभी धार और कभी भोपाल आदि स्थानों में घूमते रहे। आखिर महाराजा होल्कर और महाराजा सिन्धिया ने उन्हें पूना लौटने के लिये मजबूर किया। रास्ते में सिन्धिया और होल्कर की फौजों को निगरानी रहते हुए भी राघोबा किसी तरह आँख बचा कर भाग निकले। उन्होंने गोविन्दराव गायकवाड़ और अन्य कुछ मराठे राजाओं को अपने पक्ष में कर लिया। उधर होल्कर, सिन्धिया और हरिपन्त की संयुक्त सेनाओं ने बड़ौदा के नजदीक राघोबा को जा घेरा। माहीनदी के किनारे दोनों पक्षों की फौजों में युद्ध हुआ। इसमें राघोवा बुरी तरह हारे और उन्हें पीछे हटना पड़ा। विजेताओं ने उनका पीछा किया। राघोबा ने खंभात के नवाब से सहायता माँगी, पर उन्होंने देने से इन्कार किया। आखिर में वे खंभात के नवाब के ब्रिटिश एजेन्ट से मिले। ब्रिटिश एजेन्ट ने उन्हें ज्यों त्यों कर सूरत की ब्रिटिश फेक्टरी में पहुँचा दिया। अंग्रेजों का राघोबा को आश्रय देना और उनका सालसीट पर आक्रमण करना, यही खास तौर से प्रथम मराठा युद्ध का कारण है।
बम्बई सरकार का यह कार्य गर्वनर जनरल ने पसन्द नहीं किया।
उन्होंने बम्बई सरकार के इस कार्य की पुष्टि करने से इनकार कर दिया। उन्होंने (वारन हेस्टिंग्ज ने) बम्बई की अंगरेजी सरकार को यह भी लिखा कि “आपको मेरी अनुमति के बिना किसी के साथ युद्ध घोषित करने का अधिकार नहीं है।” इतना ही नहीं उन्होंने पूना की पेशवा-सरकार से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये अपना एक वकील भी भेजा । इस कारण थोड़े से समय के लिये दोनों का मनमुटाव शान्त हुआ। और सन् 1776 में अंग्रेजों और पूना की सरकार के बीच में एक सन्धि हुई जो पुरन्दर की सन्धि के नाम से मशहूर है। इस सन्धि में अंग्रेजों ने यह स्वीकार किया कि वे राघोबा का पक्ष ग्रहण न करेंगे। इसी बीच पूना की पेशवा सरकार और सिन्धिया-होल्कर में किसी कारण मनो-मालिन्य हो गया। पर शीघ्र ही आपस में समझौता भी हो गया। सब एक दूसरे से मिल गये। सन् 1776 में महाराष्ट्र देश में कुछ गड़बड़ और अशान्ति हो गई थी उसे तीनों ने मिलकर मिटा दिया। सन 1778 में तुकोजीराव होलकर ने नरसो गोविन्द पर चढ़ाई की ओर उस से करकब का थाना छीन कर उसके असली हकदार पटवर्धन कुटुम्ब को दे दिया। नरसोगोविन्द झूठमूठ ही थाने का मालिक बन बैठा था। तुकोजीराव ने नरसो गोबिन्द को भी गिरफ्तार कर लिया। हम पहले लिख चुके हैं कि पुरबंदर में मराठों और अंग्रेजों की जो सन्धि हुई थी उसमें अंग्रेजों ने राघोबा का पक्ष ग्रहण न करने का वचन दिया था पर गवर्नर जनरल के बराबर सूचना करते रहने पर भी बम्बई सरकार अपना हठ न छोड़ा। बम्बई की ब्रिटिश सरकार राघोबा को सूरत से ले गई और पूने में ब्रिटिश राजदूत ने बम्बई के ब्रिटिश अधिकारियों के कार्य का समर्थन करते हुए कहा कि—“ पूना की पेशवा सरकार ने राघोबा के के लिये कोई इन्तजाम नहीं किया था, अतएवं बम्बई सरकार को यह कार्यवाई करनी पड़ी।” यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि पुरन्दर की में ऐसी कोई बात तय नहीं हुई थी जिसके लिये ब्रिटिश राजदूत ने रूख था। इन सब कारवाइयों को देखकर पूना की पेशवा सरकार को अंग्रेजों से सावधान रहने की आवश्यकता प्रतीत हुईं। इसी बीच में एक घटना हो गई। नाना फड़नवीस के भतीजे मोरोबा ने सचिव के पद् के लिये दावा किया। इस पर मराठों में दो दल हो गये। एक दल के लोगों ने तो नाना फड़नवीस का पक्ष लिया ओर दूसरे ने मोरोबा का। मोरोबा ने अंग्रेजों के साथ मिल कर राघोबा को पेशवाई दिलवाने का षड़यन्त्र रचना शुरू किया। पर इसका कोई फल नहीं हुआ। बम्बई सरकार अब तक राघोबा को आश्रय देती रही। जब पूना सरकार ने देखा कि उसके बराबर कहने सुनने का बम्बई की ब्रिटिश सरकार पर कुछ भी असर नहीं होता है, तब उसने फ्रेंचों से अपना सम्बंध करना शुरू किया। इससे बम्बई की सरकार बहुत भयभीत हुईं। उसने यह पत्र गवर्नर जनरल को लिखा। जो गवर्नर जनरल अब तक अपनी मातहत बम्बई सरकार के कार्यों का विरोध कर रहे थे वे इन सब घटनाओं का विवरण सुनकर उसका समर्थन करने लग गये। इस वक्त उन्होंने राघोबा को पेशवा बनाने की योजना स्वीकृत की और बम्बई सरकार की मदद के लिये कलकत्ता से कुछ फौज भेज दी। यह घटना सन् 1778 की है। इन फौजों के बम्बई में पहुँचने के पहले ही सरकार ने राघोबा और उसके अनुयायियों को साथ लेकर पूने पर चढ़ाई कर दी। पूने की फौजें भी मुकाबले के लिये तैयार थीं। बोरघाट पर दोनों का युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में अंग्रेजों के केप्टन स्ट्यूअर्ट तथा और केप्टन भी मारे गये। फिर ब्रिटिश सेना ज्यों ही तलेगाँव के पास पहुँची कि उसे सिन्धिया और तुकोजीराव के प्रधानत्व में एक बहुत बड़ी सेना का मुकाबला करना पड़ा। अंग्रेज पीछे हटे। सन् 1779 में वे बड़गाँव पहुँचे। यहाँ मराठों का ओर उनका भयानक युद्ध हो गया। मराठी सेना ने अंग्रेजी सेना पर भयंकर आक्रमण किया। यह आक्रमण बहुत सफल हुआ। अंग्रेजी सेना ने पूरी तोर से शिकस्त खाई और उसका बड़ा नुकसान हुआ। इस पर अंग्रेजों की ओर से होम्स महोदय ने मराठों से सुलह का अनुरोध किया। यह अनुरोध स्वीकार किया गया। बोरगाँव में दोनों में सन्धि हुई। इस सन्धि से अंग्रेजों ने राघोबा को पूना सरकार का समर्पण करने का पूरा वादा किया, जिस पर उसने ( ब्रिटिश ने ) थोड़े समय से अधिकार कर लिया था। इतना ही नहीं ब्रिटिश सरकार ने अपने अधिकारी मि० होम्स ओर मि० फॉमर को बतौर जमानत के पेशवा सरकार को सौंपा और यह यकीन दिलाया कि शर्तें पूरी तौर से पालन की जावेंगी। इसके बाद ब्रिटिश फौजों को बम्बई लौटने के लिये इजाजत दी गई। यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि लौटती हुई ब्रिटिश फौजों की रक्षा भी होल्कर और सिन्धिया की फौजों ने की थी। इस युद्ध में भी तुकोजीराव होल्कर ने जिस अद्भुत कौशल का परिचय दिया था उससे प्रसन्न होकर पूना की पेशवा सरकार ने उन्हें ओर भी जागीरें दी।
सन्धि के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने राघोबा को पूना की सरकार के सिपुर्द कर दिया। उसने सिन्धिया की देखरेख में राघोबा को झांसी में रखने का निश्चय किया। सिन्धिया और होल्कर की फौजों के पहरे में थे झांसी भेजे जा रहे थे कि फिर किसी तरह वे रास्ते में से भाग कर सूरत के अंग्रेजों के आश्रय में चले गये। इसी बीच कर्नल गोडार्ड की अध्यक्षता में बंगाल की ब्रिटिश सेना भी आ पहुँची। इसलिये अंग्रेजों ने बोरगाँव की सन्धि को ताक में रखकर गुजरात और कोकन प्रान्त के कुछ स्थानों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद अंग्रेजों ने पूना की ओर भी कूच किया। उन्हें पद पद पर मराठों का विरोध सहना पड़ा। आखिर ज्यों त्यों कर यह सेना बोरघाट पहुँची। यहाँ पहुँचते ही उसने तुकोजीराव होल्कर और फड़के के संचालन में एक सुविशाल मराठी सेना को देखा। दोनों में भयंकर युद्ध शुरू हुआ ओर इसमें दोनों ओर का नुकसान हुआ। आखिर में मराठी सेना ने अंग्रेजी सेना को घेर लिया और उसकी रसद का मार्ग बन्द कर दिया। भयंकर हानि
सहने के बाद किसी तरह कर्नल गोडार्ड पीछे हटने में समर्थ हुए। पनवेल के रास्ते से वे बम्बई लौट गये। अंग्रेजों ने फिर सुलह के पैगाम भेजे।सन् 1782 में अंग्रेजों ओर मराठों के बीच फिर सुलह हुईं । इसमें अंग्रेजों ने मराठों का वह सब मुल्क वापस लौठाने का वादा किया जो अभी अभी उन्होंने उनसे ले लिया था। इसके अलावा उन्होंने राघोबा का पक्ष त्यागने की भी पुनः प्रतिज्ञा की।
सन् 1783 में राघोबा पेन्शन देकर कोपरगाँव भेज दिये गये। इन्हें तुकोजीराव होल्कर ने सुरक्षितता का अभिवचन दिया था कोपर गाँव जाने के थोड़े ही दिनों के बाद राघोबा का देहान्त हो गया। इससे पूना की पेशवा सरकार का बहुत कुछ चिन्ता-भार हलका हो गया। राघोबा के षड़यन्त्रों के कारण उसे हमेशा सचेत रहना पड़ता था और यही कारण था कि उसे अपने मुल्क का कुछ हिस्सा देकर निजाम आदि को खुश रखना पड़ता था। अब चिन्ता- भार से मुक्त होकर पूना की पेशवा सरकार ने निजाम और मैसूर सरकार को लिखा कि उनकी तरफ चौथ का जो बकाया है उसे वे शीघ्र जमा करें। सन् 1785 में यादगिरी में निजाम और पूना सरकार के बीच सम्मेलन हुआ। पूना सरकार की ओर से नाना फड़नवीस, तुकोजीराव होलकर और हरिपन्त प्रतिनिधि थे। इसमें परस्पर के मतभेद किसी समझौते के द्वारा दूर कर दिये गये, और साथ ही साथ टीपू सुल्तान के राज्य पर हमला करने का भी एक गुप्त समझौता हुआ। दीपू ने जब यह समाचार सुना तो उसने परस्पर का मतभेद मिटाने के लिये अपना एक वकील पूना भेजा। पर इसी समय उसने पेशवा के अधिकृत राज्य नारगन्ड और चित्तूर पर चढ़ाई करने के लिये 10000 सेना भेज दी। टीपू ने इन दोनों राज्यों पर अधिकार कर उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। इतना ही नहीं, उसने बेलगाँव जिले के कुछ हिस्से पर भी अधिकार कर लिया। इस पर मराठों को बड़ा गुस्सा हुआ। सन् 1785 के दिसम्बर मास में नाना फड़नवीस ने टीपू पर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में तुकोजीराव होलकर भी शामिल थे। टीपू भी तैयार होकर मुकाबले पर आ गया। दोनों में युद्ध ठन गया। टीपू ने अपनी फौजों का संचालन आप ही किया। अन्त में मराठों की भारी विजय हुईं। उन्होंने टीपू के बादामी किले पर भी अधिकार कर लिया। टीपू विजय से निराश हो गया। उसने मराठों के पास सुलह का पैगाम भेजा। सन् 1787 में दोनों के बीच सुलह हो गई । उसने मराठों को 6500000 खिराज के रूप में दिये। इसके अलावा हैदर अली ने मराठों से जो जमीन ले ली थी वह भी वापस कर दी गई। मराठों को जो हक मैसूर में पहले प्राप्त थे, वे फिर कायम कर दिये गये।
इसके बाद सन् 1787 से 1790 तक महाराष्ट्र में शान्ति थी।
पर सन् 1787 में जोधपुर, जयपुर और गुलाम कादिर की फौजों ने मिलकर लालसोट मुकाम पर महादजी सिन्धिया को शिकस्त दी। इससे उत्तर भारत में मराठों के प्रभाव को बड़ा धक्का पहुँचा। आगरा और अजमेर पर फिर राजपूतों ने अधिकार कर लिया। बूंदी ने भी मराठों के खिलाफ बलवे का झंडा उठाया। ऐसी दशा सें महादजी सिन्धिया ने अहल्याबाई और पूना की सरकार को सहायता के लिये लिखा। इस पर अहल्याबाई ने महादूजी सिन्धिया को लिखा “अगर आप उत्तर भारत में जीते हुए मुल्कों में से हमें हिस्सा दें, जैसा कि मल्हारराव होल्कर के समय में तय हो चुका है, तो हम आप को सैनिक सहायता देने के लिये तैयार हैं। सन् 1788 में पूना दरबार ने सिंधिया को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिये तुकोजीराव और अलीबहादुर को लिखा। इसी समय उदयपुर की फौजों ने मेवाड़ में होल्कर की फौजों को शिकस्त दी। इस पर बदला लेने के लिये अहल्याबाई ने अपनी नई सेना भेजी। इस सेना ने उदयपुर की सेना को हराया। तुकोजीराव के पुत्र काशीराव, दादा सिन्धिया की सहायता करने के लिये, भेजे गये ओर तुकोजीराव उदयपुर के राणा से शर्तें तय करने के लिये नाथद्वारा गये। यहाँ उन्हें अलीबहादुर भी आकर मिल गये। इसके बाद सन् 1789 में ये दोनों सिन्धिया की सहायता करने के लिये मथुरा के लिये रवाना हो गये। अब सिन्धिया की स्थिति मजबूत हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर भारत में फिर मराठों की सत्ता का बोल बाला होने लगा। इस समय सिन्धिया ने होल्कर को उनके हिस्से का 921000 प्रति साल की आमदनी का मुल्क देना स्वीकार किया। इसमें 200000 प्रति साल की आमदनी का मुल्क तो तुरन्त दे देने के लिये कहा, पर इससे सिन्धिया ने यह शर्ते रखी कि इस मुल्क का सायर महसूल और इनाम का हक वे खुद ( सिन्धिया ) अपने हाथों में रखेंगे। तुकोजीराव ने यह बात अस्वीकार की। इसी बात को लेकर आगे सिन्धिया और होल्कर में अनबन हो गई। सन् 1790 में सिन्धिया सतवास थाना के मार्ग से होकर पूना जा रहे थे। उक्त थाना होल्कर राज्य में पड़ता था। इस पर सिन्धिया ने अधिकार कर लिया। सन् 1792 के बाद सिन्धिया पूने ही में रहे। उन्होंने वहाँ तुकोजीराव और अलीबहादुर को मालवा से बुला लेने की कोशिश की। इसका कारण यह था कि सिन्धिया हिन्दुस्थान पर अपना अबाधित अधिकार चाहते थे। पर सन् 1794 के फरवरी मास में वे स्वर्गवासी हो गये। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे अपने पुत्र दौलतराव सिन्धिया के लिये एक सुविशाल राज्य छोड़ गये थे।
इसी अर्से में निजाम और पेशवा में फिर विरोध के बादल उमड़ने लगे। पेशवा ने तुकोजीराव को अपनी फौजों सहित निमन्त्रित किया। पेशवा निजाम पर चढ़ाई करने ही वाले थे कि तुकोजीराव अपनी सेना सहित पूना पहुँच गये। खरड़ा मुकाम पर पेशवा और निजाम की सेना का मुकाबला हुआ। निजाम खुद अपनी सेना का संचालन कर रहे थे। भयंकर युद्ध हुआ ओर इसमें निजाम की पूर्ण पराजय हुईं। निजाम ने अपना बहुत कुछ मुल्क ओर धन देकर मराठों से सुलह कर ली। सन् 1796 के अगस्त मास में महेश्वर मुकाम पर देवी अहिल्याबाई का परलोकवास हुआ। इसके दो मास बाद ही पूना में ऊपर की मंजिल से गिर जाने के कारण पेशवा का भी शरीरान्त हो गया। अब पेशवा के घर में फिर गद्दी नशीनी के लिये झगड़ा शुरू हुआ। पहले तो सरदारों ने यह चाहा कि बाजीराव को एक तरफ रख कर वह लड़का गद्दी पर बिठाया जाय जिसे स्वर्गीय पेशवा की विधवा रानी गोद ले। पर अंत में पटवर्द्धन के घराने को छोड़ कर सब ने बाजीराव ही का पक्ष समर्थन किया और वे सन् 1796 के दिसम्बर सास में गद्दी पर बिठा दिये गये। तुकोजीराव पूना में बेठे हुए इब सब घटनाओं को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देख रहे थे। पर इस समय उनका स्वास्थ्य दिन ब दिन खराब होता जा रहा था। आखिर सन् 1797 की 15 अगस्त को यह महान राजनीतिज्ञ और वीर इस संसार को छोड़ कर परलोकवासी हुआ। तुकोजीराव के चार पुत्र थे । इनमें से दो औरस (Legitimate) और दो अनऔरस थे। अर्थात् दो असली रानी से थे और दो रखैल से। औरस पुत्रों का नाम काशीराव ओर मल्हाराव था। अनौरस पुत्रों का नाम यशवन्तराव और विठोजी था। तुकोजीराव की इच्छानुसार पेशवा ने काशीराव का उत्तराधि-
कारित्व स्वीकार कर लिया। इसके अतिरिक्त मृत्यु के पहले तुकोजीराव ने बड़ी बुद्धिमानी के साथ काशीराव ओर मल्हारराव के बीच का मतभेद भी मिटा दिया था। पर इसका कोई फल नहीं हुआ। काशीराव में शासन करने की क्षमता नहीं थी। बुद्धि से भी थे बड़े कमज़ोर थे। इसके विपरीत मल्हारराव में वे सब गुण थे जो एक योग्य शासक और सैनिक नेता में होने चाहियें। इस वक्त तक सिन्धिया और होल्कर का मतभेद ज्यों का त्यों बना हुआ था। होल्कर घराने के कई लोग जैसे यशवन्तराव, विठोजी, हरीबा
आदि मल्हार॒राव को गद्दी पर बिठाना चाहते थे। सिन्धिया ने काशीराव का पक्ष इस शर्त पर ग्रहण किया कि उन्हें सिन्धिया पर का वह कर्ज छोड़ना होगा जो वे ( होल्कर ) अहिल्याबाई के समय से उनसे (सिन्धिया से) मांगते हैं। यह कर्ज 16 लाख रुपया था। मल्हारराव को, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, पेशवा और नाना फड़नवीस की सहायता थी। पर इस समय सिन्धिया ही सर्व- सत्ताधारी थे। उनकी ताकत बहुत बढ़ी हुईं थी। सन् 1797 के सितम्बर मास की 14 तारीख को सिन्धिया ने मल्हारराव को पकड़ने के लिये अपनी फौज रवाना की। इस सेना ने होल्कर राज्य के कुछ गावों पर अधिकार कर लिया। आखिर मल्हारराव के आदमियों और सिन्धिया की फौज का मुकाबला हो गया। छोटी सी लड़ाई हुईं। इसमें मल्हारराव और उनके कुछ साथी मारे गये। इस समय यशवन्तराव, हरीबा और बिठोजी किसी तरह वहां से निकल भागे। मल्हारराव की विधवा पत्नी और यशवन्तराव की भीसाबाई नामक पुत्री सिन्धिया की हिरासत में आ गई। यंशवन्त राव ओर हरीबा नागपुर चले गये। वहाँ के भोंसला राजा ने उन्हें गिरफ्तार कर कैद कर लिया। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सब कार्यवाई सिन्धिया के इशारे पर की गई थी। बिठोजी ने पेशवा के राज्य में गड़बड़ मचाना शुरू किया था आखिर वें भी सिन्धिया के द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये। बिठोजी को पेशवा ने मृत्युदंड दिया। पेशवा का उद्देश चाहे जो कुछ हो पर यह कहना पड़ेगा कि वे सिन्धिया के इशारे पर ही नाच रहे थे। वे उनके हाथ की कठपुतली बने हुए थे। सिन्धिया का बड़ा जोर था। यहाँ तक कि सन् 1797 के दिसम्बर मास में नाना फड़नवीस तक को सिन्धिया ने कैद कर लिया था। सन् 1797 में तो सिन्धिया ने पेशवा के भाई अमृत राव का डेरा तक लूट लिया था।
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