तिरला का युद्ध (1728) तिरला की लड़ाई

तिरला का युद्ध

तिरला का युद्ध सन् 1728 में मराठा और मुगलों के बीच हुआ था, तिरला के युद्ध में मराठों की ओर से मल्हारराव होलकर और पंवारो की संयुक्त सेना थी और मुगलों की और से सुबेदार दया बहादुर की विशाल सेना थी। यह तिरला की लड़ाई धार और अमझेरा के मध्य स्थित तिरला के मैदान में हुई थी, इसलिए इस युद्ध को भारतीय इतिहास में तिरला का युद्ध के नाम से जाना जाता है।

तिरला का युद्ध – तिरला की लड़ाई

सारंगपुर के युद्ध में राजा गिरधर के पतन के बाद अगले दो वर्ष तक बाजीराव पेशवा तथा मल्हारराव होल्कर प्रभृति महानुभावों का ध्यान निजाम की ओर झुका। पेशवा ने मालवा से अपनी सेना वापस बुला ली। दिल्ली के तत्कालीन मुगल सम्राट ने दया बहादुर को गिरधर के स्थान पर मालवा का शासक नियुक्त किया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सब युद्धों में नवयुवक मल्हारराव ने असाधारण वीरता और अलौकिक चतुरता का परिचय दिया। उन्होंने अपनी अद्भुत कारगुजारी से पेशवा को बहुत ही प्रसन्न कर लिया। पेशवा ने खुश होकर सन् 1728 में इन्हें मालवा के 12 जिले जागीर में दिये। सन 1731 में पेशवा की इन पर और भी कृपा हुईं और अबकी बार उन्होंने इन्हें मालवे का बहुत सा मुल्क दे डाला। इस समय मल्हारराव मालवे में 82 जिलों के मालिक हो गये।

सारंगपुर के युद्ध के तीन वर्ष बाद पेशवा ने अपने भाई चिमाजी और मल्हारराव के संचालन में फिर मालवे में सेना भेजी। इस समय मुगल सम्राट की ओर से दया बहादुर मालवा का शासन करता था। यह भी बड़ा जुल्मी था। मालवे के लोग इससे भी बड़े अप्रसन्न थे। सर जॉन माल्कम साहब को नन्दलाल मण्डलोई के किसी वंशज से दया बहादुर के शासन समय की जो जानकारी प्राप्त हुई थी उसके आधार से उन्होंने अपने Memories of central India part 2 में लिखा है:— “सम्राट मुहम्मदशाह के शासन काल में जब मुगल साम्राज्य के टुकड़े टुकड़े हो रहे थे और दिल्ली सम्राट की शक्ति बड़ी शीघ्रता से क्षीण हो रही थी उस समय मालवे में दया बहादुर नाम का एक ब्राह्मण सूबेदार था।

उस समय मुगल साम्राज्य में जो महान अन्धाधुन्धी और भ्रष्टता फेल रही थी, उसका शान्तिमय किसानों और मजदूरों पर बड़ा ही बुरा प्रभाव हो रहा था। वे हर एक छोटे छोटे अधिकारी के अत्याचारों से बुरी तरह पिसे जा रहे थे। मालवा के ठाकुर, किसान ओर छोटे छोटे मातहत रइसों पर दयाबहादुर और उसके एजन्टों के बड़े बड़े जुल्म हो रहे थे। उन पर कई प्रकार के अमानुषिक कर लगा दिये गये थे और वे बुरी तरह लूटे जा रहे थे। इन लोगों ने दिल्ली के सम्राट के पास अपनी फ़रियाद भेजी और अपने दुःख मिटाने के लिये उनसे प्राथना की। उस समय का सम्राट मुहम्मदशाह बड़ा कमज़ोर ओर विषय-लम्पट था। वह दिन रात ऐशो-आराम में अपने आपको भूला हुआ रहता था। जब इस फ़रियाद का कोई नतीज़ा नहीं हुआ तब मालवे के राजपूत राजाओं ने अपनी आँख जयपुर के सवाई जयसिंहजी की ओर फेरी ओर उनसे अपना दुःख मिटाने की अपील की। जयसिंह जी उस समय उन अत्यन्त शक्तिशाली राजाओं में से एक थे जो बादशाह की फरमा बरदारी के लिये मशहूर थे। पर कहा जाता है कि बादशाह की कृतघ्रता से जयसिंह जी की इस राज भक्ति में बहुत कुछ कमी आ गई थी। उन्होंने ( जयसिंह जी ने ) पेशवा बाजीराव से गुप्त पत्र-व्यवहार करना शुरू किया और मुसलमान साम्राज्य को किस प्रकार उलट देना इसके मन्सूबे होने लगे।

जिन मालवे के राजपूत राजाओं ने जयसिंहजी के पास अपने दुःखों की शिकायत की थी। उन्हें जय सिंह जी ने यह आदेश किया कि वे मराठों को मालवे पर आक्रमण कर मुगल शासन को उलट देने के लिये निमन्त्रित करें। राव नन्दू- लाल चौधरी उस समय एक बड़ा धनवान और प्रभावशाली जमींदार था। उसके पास पैदल और घुड़सवारों की 2000 फौज थी जिसे वह अपनी जागीर से तनख्वाह देता था। नर्मदा के भिन्न भिन्न घाटों की रक्षा का भार भी उसी पर था। इसीलिए मराठों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने ओर उन्हें मालवे के आक्रमण में सहायता करने का भार उसे सौंपा गया था। पेशवा की सेना ने बुरहानपुर के पास अपना पड़ाव डाल रखा था। यहाँ से मल्हारराव 12000 सेना को साथ लेकर आगे बढ़े। राव नन्दलाल ने अपना वकील भेजकर मालवे में प्रवेश करने के लिये उनका स्वागत किया और उन्हें विश्वास दिलाया कि उनकी सेना के लिये ये नर्मदा के घाट खोल देंगे इतना ही नहीं; प्रत्युत सारे जमींदार इस आक्रमण में उनकी सहायता करेंगे। यह आश्वासन पाकर मराठो सेना आगे बढ़ी। उसने अकबरपुर नामक घाट के मार्ग से नर्मदा को पार किया।

जब इस बात की खबर दया बहादुर को लगी तो उसने अपनी सेना के साथ प्रस्थान करके टांडा जाने वाले मार्ग पर पड़ाव डाल दिया। उसकी धारणा थी कि शत्रु सेना इसी मार्ग द्वारा मालवे में प्रवेश करेगी। पर उसका यह अनुमान गलत निकला।महाराष्ट्र सेना मालवे के जमींदार और प्रजागण की सहायता से बिना किसी प्रकार की बाधा के भैरव घाट के मार्ग से मालवे में आ धमकी। धार और अमझेरा के बीच तिरला नामक स्थान पर इसका दया बहादुर की सेना से मुुकाबला हुआ। दया बहादुर इस युद्ध में मारा गया और उसकी सेना तितर-बितर हो गई। इसी समय से मालवे में मराठों की सत्ता स्थापित हुई।

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