तारापीठ मंदिर का इतिहास – तारापीठ का श्मशान – वामाखेपा की पूरी कहानी Naeem Ahmad, February 25, 2019July 28, 2023 तारापीठ पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिले में स्थित है। यह जिला धार्मिक महत्व से बहुत प्रसिद्ध जिला है, क्योंकि हिन्दुओं के 51 शक्तिपीठों में से पांच शक्तिपीठ वीरभूमि जिले में ही है। बकुरेश्वर, नालहाटी, बन्दीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ। तारापीठ यहां का सबसे प्रमुख धार्मिक तीर्थ है। और यह एक सिद्धपीठ भी है। यहां पर एक सिद्ध पुरूष वामाखेपा का जन्म हुआ था, उनका पैतृक आवास आटला गांव में है। जो तारापीठ मंदिर से 2 किमी की दूरी है। कहते है कि वामाखेपा को माँ तारा के मंदिर के सामने महाश्मशान में तारा देवी के दर्शन हुए थे। वही पर वामाखेपा को सिद्धि प्राप्त हुई और वह सिद्ध पुरूष कहलाए। माँ तारा, काली माता का एक रूप है। मंदिर में माँ काली की मूर्ति की पूजा माँ तारा के रूप मे की जाती है। तारापीठ का इतिहास, तारापीठ का धार्मिक महत्व तारापीठ मुख्य मंदिर के सामने महाश्मशान है। उसके बाद द्वारिका नदी है, इस नदी में आश्चर्य की बात यह है कि भारत की सब नदियां उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। लेकिन यह नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है। तारापीठ राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन और तारा माँ का अधिष्ठान है। इसलिए यह हिन्दुओं का महातीर्थ कहलाता है। यहां पर सुदर्शन चक्र से छिन्न भिन्न होकर देवी सती की आंख की पुतली का बीच का तारा गिरा था। इसलिए इसका नाम तारापीठ है। तारापीठ तीर्थ के सुंदर दृश्य तारापीठ मंदिर का निर्माण और तारापीठ सरोवरअधिक पैसा कमाना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें यहां पर एक बार रतनगढ़ के प्रसिद्ध वैश्य रमापति अपने पुत्र को लेकर नाव द्वारा व्यापार करने आये थे। तारापीठ के पास उनका पुत्र सर्प के काटने से मर गया। उन्होंने अपने पुत्र की मृत देह को दूसरे दिन दाह संस्कार करने के लिए रखा, और उस दिन तारापुर में हि ठहर गए। उनके एक सेवक ने उनको तारापीठ के एक बडे तालाब के पास लेजाकर एक आश्चर्यजनक दृश्य दिखाया। उन्होंने देखा कि मरी हुई मछलियां तालाब के जल के स्पर्श करके जीवित हो उठती है। यह देखकर उनको बहुत खुशी हुई, और अपने पुत्र की मृत देह को वहां लाकर तालाब में फेंक दिया। उसी समय उनका पुत्र जीवित हो गया। उसी दिन से उस तालाब का नाम जीवन कुंड़ पड़ा। रमापति वैश्य ने तालाब के पास एक टूटा हुआ मंदिर देखा, और उसमें उन्होंने चंद्रचूड़ अनादि शिवलिंग और तारा माँ की मूर्ति देखी। उन्होंने अपने आप को धन्य माना और अपने पैसे से ही उन्होंने मंदिर की मरम्मत कराई और पूजा की। वे वहां भगवान नारायण की एक मूर्ति स्थापित करना चाहते थे, किन्तु किसी ऋषि के आदेशानुसार माँ तारा देवी की मूर्ति में ही नारायण की की पूजा होगी। काली और कृष्णा अलग अलग नहीं, उनकी जिस तरह पूजा होनी चाहिये उसी तरह ही उन्होंने पूजा की और काली तथा कृष्ण की मूर्ति के भाव अनुसार एक ही मूर्ति प्रतिष्ठित कराई। तत्पश्चात चंद्रचूड़, शिव, और तारा माँ की पूजा करके अपने पुत्र को लेकर आनंदपूर्वक अपने घर चले गए। तारा माँ का मंदिर बहुत प्राचीन और सिद्धपीठ है। सिद्ध पुरूष वामाखेपा कौन थे और उन्हें कैसे सिद्धि प्राप्त हुई, वामाखेपा की पूरी कहानी, तारापीठ की पूरी कहानी वामाखेपा एक अघोरी तांत्रिक और सिद्ध पुरूष है। तारापीठ से 2 किमी दूर स्थित आटला गांव में सन् 1244 के फाल्गुन महिने में शिव चतुर्दशी के दिन वामाखेपा का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम सर्वानंद चट्टोपाध्याय था तथा माता जी का नाम राजकुमारी था। इनका बचपन का नाम वामाचरण था। और छोटे भाई का नाम रामचरण था। चार बहने थी और एख बहन का लड़का भी इनके पास ही रहता था। इस तरह परिवार में नौ सदस्य थे। घर में खाने पीने की चीजों का सदा अभाव रहता था। माता पिता बहुत धार्मिक थे, और भजन कीर्तन करते रहते थे। 5 वर्ष की आयु में ही वामाचरण ने माँ तारा की बहुत सुंदर मूर्ति बनाकर उसमें चार हाथ, गले में मुंडमाला और अपने बाल उखाड़ कर तारा माँ के बाल लगाए थे। पास में एक जामुन का पेड़ था। जामुन से ही माँ तारा का प्रसाद लगाते थे और कहते थेकि माँ तारा जामुन खा लो। अगर तुम नहीं खाओगी तो में कैसे खाऊँगा? तारापीठ तीर्थ के सुंदर दृश्य वामचरण धीरे धीरे बड़े होने लगे, जब वह 11 वर्ष के थे और उनका भाई केवल 5 वर्ष का था। तब उनके ऊपर बड़ी भारी मुसीबत आई उनके पिता सर्वानंद जी बहुत बीमार हो गये ओर माँ काली, माँ तारा कहते हुए स्वर्ग सिधार गए। वामचरण ने पिता की देह को तारापीठ के श्मशान में लेजाकर उनका अंतिम संस्कार किया। विधवा मांं ने किसी तरह से मांग कर श्राद्ध का काम पूरा किया। घर की हालत खराब सुनकर वामाचरण के मामा आकर दोनों भाईयों को अपने घर नवग्राम में ले गए। वामाचरण गाय चराने लगे और रामचरण गाय के लिए घास काटकर लाते और आधा पेट झूठा भात खाकर रहते। एक दिन रामचरण के हंसिये से घास काटते हुए वामाचरण की उंगली कट गई, और गाय खेत में जाकर फसल खाने लगी। खेत के मालिक ने मामा को शिकायत कर दी। मामा ने वामाखेपा को छडी लेकर बहुत मारा। तत्पश्चात वामाचरण भागकर अपनी माँ के पास आटला गांव आ गए। उधर रामचरण को एक साधु गाना सिखाने के लिए अपने साथ ले गये। वामाचरण ने घर आकर निश्चय किया कि वे अब श्मशान मे रहेंगे। उस दिन पूर्णमासी थी वहां पर कई आदमी बैठे थे। वामाचरण उनके पैर दबाते दबाते सो गए। एक बार वामाचरण ने एक बैरागी से गांजा पीकर उसकी आग असावधानी से फेंक दी। उस से भयंकर आग लग गई, और कई घर जल गये। सभी लोग वामाचरण को पकड़ने लगे। वामाखेपा उस आग में कूद गये और जब वे आग से बाहर निकले तो उनका शरीर सोने की तरह चमक रहा था। माँ तारा ने अपने पुत्र की अग्नि से रक्षा की थी। यह देखकर सभी आवाक रह गये। तत्पश्चात वामाखेपा का साधक जीवन आरंभ हुआ। मोक्षदानंद बाबा व साई बाबा आदि ने उन्हें महाश्मशान महाश्मशान में आश्रय दिया। कैलाशपति बाबा उन्हें बहुत प्यार करते थे। एक दिन कैलाशपति बाबा ने रात में वामाचरण को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस रात वामाखेपा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियां उनके चारों ओर खड़ी थी।वामाखेपा ने जयगुरू, जय तारा माँ पुकारा और वे सब आकृतियां लुप्त हो गई। और वामाचरण ने बाबा कैलाशपति के आश्रम में जाकर गांजा तैयार किया। काली पूजा की रात में वामाखेपा का अभिषेक हुआ, सिद्ध बीज मंत्र पाकर वामाचरण का सब उलट पुलट हो गया और सैमल वृक्ष के नीचें जपतप करने लगें। शिव चौदस के दिन वामाखेपा ने सिद्ध बीज मंत्र जपना शुरू किया, सुबह से शाम तक ध्यान मग्न होकर तारा माँ के ध्यान में लगे रहे। खाना पीना भूल गये। रात में दो बजे उनका शरीर कांपने लगा सारा श्मशान अचानक फूलो की महक से महक उठा। नीले आकाश से ज्योति फूट पड़ी और चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया। उसी प्रकाश में वामाचरण को माँ तारा के दर्शन हुए। बाघ की खाल पहने हुए एक हाथ में तलवार, एक हाथ में कंकाल की खोपड़ी, एक हाथ में कमल फूल और एक हाथ में अस्त्र लिए हुए, आलता लगे पैरो में पायल पहने, खुले हुए केश, जीभ बाहर निकली हुई, गले में जावा फूल की माला पहने, मंद मंद मुसकाती माँ तारा, वामाखेपा के सामने खड़ी थी। वामाखेपा उस भव्य और सुंदर देवी को देखकर खुशी से भर गए। 18 वर्ष की अल्पायु में विश्वास के बल पर वामाखेपा को सिद्धि प्राप्त हुई और वे संसार में पूज्य हुए। जिस प्रकार परमहंस रामा कृष्णा को दक्षिणेश्वर में माँ काली के दर्शन हुए थे। उसी प्रकार वामाखेपा को भी तारापीठ के महाश्मशान में माँ तारा के दर्शन हुए थे। वामाखेपा की माता का स्वर्गवास हो गया। उस समय द्वारका नदी में बाढ़ आयी हुई थी। किन्तु वामाखेपा तारा माँ कहते हुए नदी में कूद गये, और नदी के दूसरे किनारे पर पहुंच कर अपनी माता के मृत शरीर को अपनी पीठ पर रखकर फिर पानी में कूद पड़े। और महाश्मशान में लाकर अपनी माता का अंतिम संस्कार किया। माँ के श्राद्ध के दिन खाली जमीन साफ साफ कराकर सब गांव वालों को निमंत्रण भेज दिया। अपने आप अनेक प्रकार के स्वादिष्ट पकवान वामाखेपा के घर में आने लगे। सारे गांव के अतिथिगण राजाओं के खाने योग्य जैसे छत्तीस प्रकार के पकवान खाने लगे। तभी आकाश में घने बादल छा गए। वामाखेपा ने माँ तारा को याद करके लकडी लेकर उससे चारों तरफ एक घेरा बना दिया। मूसलाधार वर्षा हुई, परंतु घेरे के अंदर एक बूंद पानी नही गिरा। और अतिथियों ने आनंद पूर्वक भोजन किया। जब अतिथिगण भोजन करके जाने लगे तो वामाखेपा ने माँ तारा को याद करके बादलों को साफ कर दिया और बारिश रूक गई। वामाखेपा को देखने से लगता था कि वह बडे कठोर है। लेकिन उनका ह्रदय बड़ा पवित्र और कोमल था। वे अपने भक्तों के अनुरोध पर कई असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। धीरे धीरे वामाखेपा की उम्र बढ़ती गई। और वे 72 साल के हो गए। कृष्णाष्टमी का दिन था, वामाखेपा तारा माँ का प्रसाद खा रहे थे। अचानक कुत्ते बड़ी जोर जोर से चिल्लाने लगे। फिर एक कंकाल की तरह के चेहरे वाला एक सन्यासी आया और फिकी सी हंसी हंसते हुए बोला अब क्या बाबा चलो तुमको अपने साथ ही ले चलूंगा। उस दिन भक्त लोग उनको घेरे बैठे रहे। बाबा की सांस जोर जोर से चल रही थी। अचानक उनकी नाक का अग्र भाग लाल हो उठा सभी लोग माँ तारा, माँ तारा पुकारने लगे। माँ तारा, माँ तारा सुनाई पडने के साथ ही वामाखेपा का शरीर स्थिर हो गया, और एक महायोगी योगमाया में लीन हो गया। चारों ओर वामाखेपा के स्वर्ग सधारने की खबर फैल गई। दूर दूर से लोग इस सिद्ध पुरूष के दर्शन के लिए उमड़ पड़े। महाश्मशान के पास ही एक नीम के पेड़ के नीचे उनको समाधि दी गई। और माँ तारा का सबसे योग्य पुत्र माँ तारा में ही समा गया। महाश्मशान में तारा देवी का पादपद मंदिर है। तारापीठ की यही मुख्य जगह है। यहाँ पर आकर यात्री लोग मनोकामना के लिए ध्यान करते है। और उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती हैं। इस मंदिर के पास ही वामाखेपा का समाधि मंदिर है। श्मशान मे बड़े बड़े साधु संतों की समाधियां भी है। साथ में कई समाधि मंदिर भी है। अभी भी बहुत साधु कुटी बनाकर श्मशान में रहते है। यहां पर मुर्दे भी जलाये जाते है। तारापीठ में एक ओर जगह देखने योग्य है। उसका नाम है मुंडमारनीलता। वहां पर भी माँ तारा की मूर्ति है। सुना है कि काली माँ अपने गले की मुंडमाला वहां रखकर द्वारका नदी में स्नान करके माला पहन लेती है। इसलिए इस स्थान का नाम मुंंडमालनी है। यहां पर भी एक श्मशान है। हमारा यह लेख आपको कैसा लगा हमें कमेंट करके जरूर बताए। यह जानकारी आप अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर भी शेयर कर सकते है। पश्चिम बंगाल पर्यटन पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:– [post_grid id=”6702″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to 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