तराइन का प्रथम युद्ध कब हुआ था – तराइन का प्रथम युद्ध किसने जीता था Naeem Ahmad, March 22, 2022March 11, 2023 भारत के इतिहास में अनेक भीषण लड़ाईयां लड़ी गई है। ऐसी ही एक भीषण लड़ाई तरावड़ी के मैदान में लड़ी गई थी। वैसे तो इस मैदान में अनेक लड़ाईयां लड़ी गई, लेकिन तरावड़ी के मैदान में प्रथम लड़ाई सन् 1191 में लड़ी गई थी। जिसको इतिहास में तराइन का प्रथम युद्ध कब नाम से जाना जाता है। तराइन का प्रथम युद्ध सन् 1191 में तुर्क और राजपूत सेना के बीच हुआ था। राजपूत सेना का संचालन दिल्ली की गद्दी के सम्राट पृथ्वीराज चौहान कर रहे थे और तुर्क सेना का संचालन गज़नी के बादशाह मोहम्मद गौरी कर रहे थे। तराईन का प्रथम युद्ध कब और किसके मध्य हुआ था इस सवाल का उत्तर हमें यहां मिल जाता है। कि तराइन का प्रथम युद्ध सन् 1191 में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच हुआ था। इस भीषण ऐतिहासिक युद्ध के संबंध में अभी भी अनेक सवाल है जिनके जवाब हम संक्षेप में अपने इस लेख में आगे जानेंगे, और तराइन का पहला युद्ध का वर्णन करेंगे, लेकिन तरावड़ी के प्रथम युद्ध के सही वर्णन को जानने के लिए हमें इसके वर्णन की शुरुआत दो सौ साल पहले से करनी पड़ेगी। Contents1 सुल्तान महमूद गजनवी के बाद गज़नी की स्थिति1.1 गज़नी पर आक्रमण1.2 गज़नी का सर्वनाश कैसे हुआ1.3 ग्यारहवीं शताब्दी का भारत1.4 मोहम्मद गौरी के भारत में हमले1.5 मोहम्मद गौरी का गुजरात में आक्रमण1.6 मोहम्मद गौरी का लाहौर पर आक्रमण1.7 मोहम्मद गौरी का लाहौर पर दूसरा आक्रमण1.8 मोहम्मद गौरी के आक्रमण की नई योजना1.9 मोहम्मद गौरी ने तराइन का प्रथम युद्ध की योजना कैसे बनाई? मोहम्मद गौरी की तराइन के पहले युद्ध की क्या तैयारी थी?2 मोहम्मद गौरी के साथ पृथ्वीराज चौहान का युद्ध – तराइन का प्रथम युद्ध का वर्णन3 तराइन का प्रथम युद्ध में मोहम्मद गौरी की हार4 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- सुल्तान महमूद गजनवी के बाद गज़नी की स्थिति महमूद गजनवी के बाद गज़नी सल्तनत का शासक कौन था? महमूद गजनवी के बाद गज़नी सम्राज्य पर किसका अधिकार था? महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उसके सम्राज्य का क्या हुआ? महमूद गजनवी के बाद उसकी सेना का क्या हुआ? गज़नी के राज-सिहासन पर बैठने के बाद सुलतान महमूद ने भारत पर हमले शुरू किये थे और वह जब तक जीवित रहा, लगातार इस देश को लूटता और विध्वंस करता रहा। ऐसा मालूम होता है कि भारत का सर्वनाश करने के लिए ही वह गज़नी के तख्त पर बैठा था। उसने सन् 1000 ईसवी से भारत में अपने आक्रमण आरम्भ किये थे, और 1026 ईसवी तक उसने साँस नहीं ली। उसने मन्दिरों और तीर्थ स्थानों को लूटकर मिट्टी में मिला दिया। राजाओं के खजानों का धन छीनकर, उन पर अपना आधिपत्य कायम किया और हरे-भरे नगरों तथा ग्रामों को विध्वंस करके उन्हें उजाड़ दिया। यहां की सम्पत्ति सोने, चाँदी और रत्नों से उसने गज़नी का खजाना भर दिया ओर इस्लाम के अनुयायियों को इस देश की लूट के धन से मालामाल कर दिया | अपनी क्रूरता और निदंयता के कारण वह अन्धा’ हो गया था। मस्तिष्क पर मंडराती हुई मृत्यु, अत्याचारों से अन्धे उसके नेत्रो को दिखायी न पड़ती थी। वह मृत्यु को भूल गया था। सन् 1026 ईसवी में अपने अन्तिम आक्रमण के बाद वह भारत से लौटकर जब गज़नी पहुँचा तो वह फिर इस योग्य न रहा कि इस देश में आकर हमला कर सकता। 30 अप्रैल सन् 1030 ईसवी को इस संसार से बिदा होकर उसे चला जाना पड़ा। लूटी हुईं सम्पत्ति– सोना, चांदी, हीरे और जवाहरात — सब का सब गज़नी में ही रह गया। उसकी क्रूरता, निर्दयता और नृशंसता हीं उसके सिर पर लाद॒कर, उसके साथ जा सकी। इस प्रकार की लूट से जिस गज़नी के खजानों को उसने भरा था और भारत की अपरिमित सम्पत्ति से जिसके निवासियों को निहाल किया था, उस गज़नी को और उसके निवासियों को किन नारकीय दृश्यों का सामना करना पड़ा, उसके सम्बन्ध में यहां पर कुछ प्रकाश डालना जरूरी है। सुलतान महमूद ने अपने शासन-काल में अनेक देशों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था और भारत तक अपना शासन कायम कर लिया था। लेकिन उसके मरते ही उसके विशाल राज्य का किला निर्बल पड़ने लगा । जिन स्तम्भों पर उसने अपना राज्य खड़ा किया था, वे स्तम्भ हिलने लगे और उनमें कितनी ही दरारें पैदा हो गयी। सुलतान महमूद गजनवी के मरने में कुछ देर लगी | लेकिन उसके विशाल और मजबूत राज्य के कम्पायमान होने में देर न लगी । गज़नी का पतन बुरी तरह से आरम्भ हो गया। अपने वंशजों और गज़नी के निवासियों के लिए सुलतान महमूद ने जो लूट की अपार सम्पत्ति एकत्रित की थी, उसका सुख उसके वंशज भोग न सके और न गज़नी के निवासी ही उसका सुख उठा सके। लूट के द्वारा एकत्रित की हुई सम्पत्ति, उन सब के लिए–जिनको सुलतान महमूद ने अधिकारी बनाया था, विष के समान साबित हुई। उस सम्पत्ति को उनमें से कोई पचा न सका | सुलतान के वंशज कायर और अयोग्य हो गये और गज़नी के निवासी–केवल उस लूट की सम्पत्ति के कारण भीषण विपदाओं में पड़ गये। भारत की लूट में वहा के जो तुर्क और मुसलमान, सुलतान के शस्त्र बने थे, सुलतान के मरने के बाद, वे स्वयं एक दूसरे से लड़े और मर मिटे। गज़नी पर आक्रमण महमूद गजनवी के बाद गज़नी सल्तनत पर आक्रमण कब हुआ? गज़नी पर किसने आक्रमण किया? गज़नी के युद्ध में किसकी जीत हुई? गज़नी के निकट फीरोज़कोह में कुछ पहाड़ी सरदार रहते थे। वे ग़ोर के सरदारों के नाम से मशहूर थे। वे सब के सब लड़ाकू थे और लूट-मार ही उनका व्यवसाय था। उनका अपना एक इलाका था। सुलतान महमूद ने अपने शासन-काल में उस इलाके पर अधिकार कर लिया था और वे पहाड़ी सरदार सुलतान की सेना में रहकर लूट- मार का काम करते थे। महमूद के मरने के बाद, उसके वंशज गज़नी के तख्त पर बैठे। लेकिन वे कायर और अयोग्य थे। इसलिए सुलतान के कायम किये हुए राज्य की रक्षा न कर सके गोर के पहाड़ी सरदारों ने गज़नी के विरुद्ध विद्रोह किया और वहां के शासन से मुक्त होकर उन्होंने अपने आपको स्वतन्त्र घोषित किया। गोर सरदार जो सुलतान के सहायक थे, स्वतन्त्र होते ही गज़नी के शत्रु हो गये। सुलतान महमूद के जीवन-काल में ही तुर्को की कुछ जातियां आमू नदी को पार कर इस तरफ आ गयी थी। उनका एक वंश सेल्जुक के नाम से मशहूर था। महमूद के समय में ईरान और पश्चिमी एशिया के राज्य गज़नी में शामिल कर लिए गये थे। लेकिन महमूद के मरने के बाद सेल्जुक तुर्को ने ईरान और पश्चिमी एशिया पर अपना शासन कायम कर लिया । इस प्रकार गज़नी का राज्य लगातार क्षीण होता गया ओर महमूद के वंशजों का शासन गज़नी के सिवा अफगानिस्तान, पंजाब और सिन्ध में बाकी रह गया। महमूद के बाद, उसके वंशज बहरामशाह का गज़नी में जब शासन चल रहा था, गोर प्रदेश के पठान सरदार अलाउद्दीन गौरी ने गजनी पर आक्रमण किया और बहरामशाह को पराजित करके गज़नी से भगा दिया। सन् 1151 ईसवी में बहरामशाह के भाग जाने पर, उसका बेटा खुसरो गज़नी के तख्त पर बैठा और उसकी हुकूमत के सात वर्ष भी न बीतने पाये थे कि, ग़जनी में अलाउद्दीन गौरी ने फिर हमला किया और उसे सात दिनों तक बराबर लूटकर उसने गज़नी में आग लगा दी। वह आग इतने जोर के साथ कितने ही दिनों तक जली, जिससे गज़नी का सर्वेस्व मट्यामेट हो गया। अलाउद्दीन गौरी जब गज़नी पर हमला करने की तैयारी कर रहा था, उस समय उन लोगों की एक बडी सेना जमा हो गयी, जो सुलतान महमूद के समय में गज़नी के झंडे के नीचे रहकर लूट-मार का काम करते थे और जो भारत में होने वाले हमलों में आ कर लूट का बहुत-सा धन अपने साथ ले गये थे और मालामाल गये थे। अलाउद्दीन गौरी ने कई बार गज़नी पर हमले किये और लुटमार करने के बाद उसने गज़नी पर अपना कब्जा कर लिया। बहरामशाह गज़नी से भाग कर लाहौर चला गया। गज़नी का सर्वनाश कैसे हुआ गज़नी सम्राज्य का पतन कैसे हुआ? गज़नी सम्राज्य के विनाश का वर्णन? गज़नी वंश का अंतिम शासक का क्या हुआ? जिस गज़नी की आठ लाख की आबादी ने भारत का विनाश किया था और जिसने इस देश की सम्पत्ति को लुटकर अपने घरों को सोने और चांदी से भर दिया था, उस गज़नी की आबादी को लूटने, मिटाने और बरबाद करने का काम कुछ ही वर्षो के बाद अलाउद्दीन गौरी ने किया। जिस गज़नी के लोगों ने भारत को उजाड़ कर वीरान किया था, उनको उजाड़ने और वीरान करने का काम उन्ही लोगों ने किया, जिनकी लूटना, मारना और विनाश करना गज़नी ने ही सिखाया था। अलाउद्दीन गौरी ने गज़नी को लूटा, आग लगाकर भस्म किया और उनके रहने वाले स्त्री-पुरुषों को खेतों की तरह कटवा डाला। जो लोग इस सर्वनाश से बचे, उनको, उनकी स्त्रियों और उनके बच्चों को बाजारों में ले जाकर बेचा गया। ऊची और शानदार इमारतें गिराकर जमीन में मिला दी गयी और सारा गज़नी शहर सात दिनों तक बराबर जलता रहा। गज़नी का बादशाह, सुलतान महमूद का वंशज, बहरामशाह गज़नी से भागकर लाहौर चला गया था, वहां पहुंचने के बाद ही वह मर गया। गज़नी के सैनिकों और सरदारों ने खुसरो मलिक के साथ भागकर और लाहौर में पहुंचकर अपनी जान बचायी। कुछ दिनों के बाद खुसरों मलिक ने लाहौर में रहकर अलाउद्दीन के विरूद्ध युद्ध करने की कोशिश की और गज़नी पर फिर से अधिकार करना चाहा, लेकिन वह ऐसा कर न सका। ग्यारहवीं शताब्दी का भारत ग्यारहवी शताब्दी में भारत की स्थिति क्या थी? ग्यारहवीं शताब्दी में भारत पर किसका शासन था? ग्यारहवीं शताब्दी में भारतीय राजाओं की ताकत क्या थी? सुलतान महमूद ने पूरे छब्बीस वर्षो तक भारत में लुट-मार करने, तीर्थो-मन्दिरों को नष्ट करने और राजाओं को मिटाकर अपना आधिपत्य कायम करने का काम किया था। संकट की इन भीषण परिस्थितियों ने भारत को किस दिशा में पहुंचा दिया था, उसे संक्षेप में यहां जान लेना आवश्यक है। भारत के मन्दिरों और तीर्थों में उसके ब्राह्मणों का राज्य था, उन राज्यों के मिट जाने के बाद, ब्राह्मणों का पतन आरम्भ हुआ। वे लोग नित नये धार्मिक जाल बिछाकर प्रजा को बहकाने और झूठे आडंम्बरो में फसाने की कोशिश करने लगे। शासन का अन्त हो जाने पर विदेशी शक और हूण जो भारत में रह गये, वे बौद्ध हो गये और उन्होंने अपने आपको देव पुत्र कहलाना आरम्भ किया। ब्राह्मणों के वैदिक कर्म नष्ट हो गये ओर वे सब धर्म की नई-नई पगडंडियां निकालने लगे। देश की प्रजा के सामने मोक्ष का एक अनोखा जाल फैलने लगा और वह जाल धीरे-धीरे बुद्धि से परे होता गया। भारत में रहने वाली आर्यो की जातियां शुद्रों में गिनी जानी जाने लगी और वे धीरे-धीरे अछूत बन गयी। इस प्रकार की कितनी ही बातों को लेकर सामाजिक जीवन में जो आंधी शुरू हुई, उसने समस्त देश को पतन के रास्ते में धकेल दिया। जिन्दगी की सही और सच्ची बातों का ज्ञान नष्ट हुआ और ब्राह्मणों का फैलाया हुआ आडम्बर समाज में काम करने लगा। त्याग और तप छोड़कर ब्राह्मणों ने राजाओं की खुशामद का पेशा अख्तयार कर लिया और खुशामद ने राजाओं में उन्माद पैदा कर दिया। धर्म के झूठे आडम्बरों की शिक्षाओं में राजा ओर नरेश शान्ति का पाठ पढ़ने लगे, शौर्य और प्रताप को मिट्टी में मिलाकर वे अपने दिन महलों में रहकर काटने लगे। अय्याशी की वृद्धि हुई, युद्ध प्रिय राजा और सरदार कायर हो गये। उनके जीवन का स्वाभिमान नष्ट हो गया। पश्चिम से आने वाली मुस्लिम जातियों के हमलों के प्रति उन्होंने अपनी आंखें बन्द कर ली और आपस की फूट और ईर्ष्या के सागर में वे डूबने-उतरने लगे। भारत में जब तक सुलतान महमूद के हमले होते रहे, देश के राजाओं और नरेशों ने अपनी-अपनी सांस रोक ली और मुर्दा हो गये। इन युद्धों का यह परिणाम हुआ कि देश में जो थोड़े से शक्तिशाली राज्य थे, वे आपस में लड़कर, छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गये। इन छोटे-छोटे राज्यों में दिल्ली का राज्य बड़ा था और अजमेर का राज्य उसी में शामिल था। देश के राजा और नरेश जितने ही निर्बल होते जाते थे, उतने ही वे आपस में एक, दूसरे के शत्रु होते जाते थे। उनके स्वभावों में एक उसके बाद उनके आपसी युद्ध शुरू हो गये। आश्चर्य की बात यह थी कि वे विदेशी जातियों के हमलों में उनकी अधीनता स्वीकार करना चाहते थे, लेकिन वे आपस में एक दूसरे का साथ नहीं देता चाहते थे। देश की यह भीषण अवस्था लगातार विकराल होती गयी। तराइन का प्रथम युद्ध मोहम्मद गौरी के भारत में हमले मोहम्मद गौरी भारत कब आया था? मोहम्मद गौरी का भारत पर पहला हमला? मोहम्मद गौरी भारत कैसे आया? मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य? मोहम्मद गौरी का भारत पर प्रथम आक्रमण किसके विरुद्ध हुआ? मोहम्मद गौरी का भारतीय अभियान? गज़नी का विध्वंस और विनाश करके अलाउद्दीन गौरी संसार से बिदा हुआ। उसके मर जाने के बाद उसका भाई गयासुद्दीन बादशाह हुआ। गयासुद्दीन उसका छोटा भाई था, जो आगे चलकर मोहम्मद गौरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह सेनापति बनाया गया। मोहम्मद गौरी लड़कपन से ही लड़ाकु और उदंड स्वभाव का था। उसे लड़ना बहुत प्रिय था। स्वभाव का कठोर और साहसी भी था। जिस समय वह सेनापति बनाया गया, उसकी सेना में पचास हजार तुर्क सैनिक थे। गज़नी की सम्पत्ति लूटकर गौरीवंश सम्पत्तिशाली हो गया था और गज़नी का राज्य भी अब उसी के अधिकार में था। सेनापति होने के बाद से ही मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण करने का इरादा किया। इसके लिए उसको एक बड़ी सेना की जरूरत थी और अभी तक उसके पास उतने अधिक सैनिक न थे।इसलिए उसने जिहाद का झण्डा खड़ा किया और समस्त मुस्लिम देशों से लड़ाकू मुसलमानों को बुलाने के लिए उसने इस्लाम के नाम पर आवाज उठायी। सुलतान महमूद की सेना में जो लोग पहले शामिल रह चुके थे और उसमें से जो अभी तक जीवित थे, वे और उनके वंशज गज़नी में आकर एकत्रित हुए। उनके सिवा, अन्य मुस्लिम देशों से लड़ाकू मुसलमान आ-आकर गज़नी में इकट्ठा होने लगे। आने वाले लोगों में इस्लाम का जोश था और गज़नी में आ जाने पर उनमें और भी मजहबी जोश पैदा किया गया। गज़नी में आकर जो लोग जमा हुए, उनमें से पच्चीस हजार चुने हुए सवारों की सेना लेकर मोहम्मद गौरी भारत की और रवाना हुआ। वह सब से पहले गज़नी से भागे हुए बहरामशाह के वंशजों पर आक्रमण करना चाहता था। इसलिए सिन्धु नदी को पारकर मोहम्मद गौरी ने सन् 1175 ईसवी में मुल्तान पर हमला किया और उस पर अधिकार कर लेने के बाद, उसने वहां के किले पर भी अपना कब्जा कर लिया। यहां से वह फिर आगे नहीं बढ़ा और वहां का इन्तजाम करने के लिए सेनापति अली किर्मानी के अधिकार में एक सेना दे कर वह गज़नी लौटकर चला गया। मोहम्मद गौरी का गुजरात में आक्रमण मोहम्मद गौरी ने गुजरात पर कब आक्रमण किया? मोहम्मद गौरी का गुजरात में युद्ध किसके साथ हुआ? तराइन का प्रथम युद्ध से पहले मोहम्मद गौरी ने कहां आक्रमण किया था? मुल्तान से लौट कर मोहम्मद गौरी ने लगभग दो वर्ष तक गज़नी में विश्राम किया और भारत में हमला करने के लिए वह नये-नये तरीकों पर विचार करता रहा। डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक सुलतान महमूद ने अपने लगातार आक्रमणों से भारत को सभी प्रकार से विध्वंश और बरबाद किया था, उसकी निर्दयता और क्रूरता के आघात इस देश को कभी भूले न थे और उनके द्वारा होने वाले गहरे जख्म अभी तक ज्यों के त्यों थे, इसी दशा में मोहम्मद गौरी ने अपने हमलों का सिलसिला शुरू कर दिया। इन हमलों में दोनों की योजना करीब-करीब एक-सी रही। प्रारम्भ से ही दोनों का रास्ता एक रहा। हमलों के पहले अपने साथ बड़ी से-बड़ी सेना एकत्रित करने के लिए मोहम्मद गौरी ने भी वही रास्ता अख्तयार किया, जो रास्ता और तरीका सुलतान महमूद का रहा था। दोनों की सभी बातें करीब-करीब एक सी थीं। एक अन्तर यह था कि सुलतान महमूद भारत की समस्त सम्पत्ति लूटकर गज़नी ले गया था। लेकिन मोहम्मद गौरी भारत के छोटे-बड़े राज्यों को जीतकर लूटमार के साथ-साथ अपना आधिपत्य कायम करना चाहता था। दोनों के उद्देश्यों में केवल इतना ही अंतर था। बाकी सभी बातें दोनों की एक सी थीं। अपनी सेना को लेकर सन् 1178 ईसवी में मोहम्मद गौरी भारत पर आक्रमण करने के लिए फिर रवाना हुआ। उसने सिंध नदी को पार किया और अपनी सेना के साथ वह गुजरात की तरफ आगे बढ़ा। वहां के लोगों को मोहम्मद गौरी के होने वाले आक्रमण की जानकारी हो गयी। महमूद के हमलों के दृश्य लोग देख चुके थे, उस समय की घबराहट अब तक लोगों के सामने थी। हमले की इस नई खबर से लोगों की स्मृतियां जाग्रत हो उठीं। सभी लोग यह सोचकर भयभीत हो उठे कि हम लोगों के मन्दिरों और तीर्थ स्थानों को फिर नष्ट किया जायेगा, हम लूटे जायेंगे और हमको तथा हमारे बाल-बच्चों को कत्ल किया जायेगा। आंधी के समान यह भयंकर समाचार गुजरात और उसके आस-पास फैल गया। प्रत्येक अवस्था में मिटना और नाश होना था। इसलिए लोगों ने निर्णय किया कि शत्रु के साथ लड़कर ही क्यों न मर मिटा जाये। इसी अधार पर मोहम्मद गौरी के आक्रमण का मुकाबला करने की तैयारी शुरू हुई। गुजरात और मालवा के राजपूत सवार और सैनिक गुजरात की सीमा पर आकर एकत्रित होने लगे। गौरी की सेना के आने के समय तक भारतीय लड़ाकुओं की बड़ी सेना इकट्ठा हो गयी। सभी लोगों में उत्साह और साहस था। जीवन के वीभत्स दृश्यों को आंखों से देखने की अपेक्षा वे लोग लड़कर प्राण देना अच्छा समझते थे। गुजरात की सीमा के निकट गौरी की सेना के पहुंचते ही बीर राजपुतों ने एक साथ आक्रमण किया और बड़ी तेज़ी के साथ उन लोगों ने तुर्क सेना के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। युद्ध के समग्र उन लोगों ने प्राणों का मोह छोड़ दिया था। और गोरी की सेना के साथ भयानक मार शुरू कर दी। मरुभूमि की असुविधाओं के अभ्यासी न होने के कारण युद्ध क्षेत्र में तुर्क सैनिक बड़ी कठिनाई का सामना कर रहे थे। गुजरात की सीमा पर होने वाले इस युद्ध की उन्हें पहले से आशंका न थी इस आकस्मिक युद्ध में जो भीषण परिस्थिति उत्पन्न हो गयी, मोहम्मद गौरी ने उसका ख्याल तक न किया था। तुर्क सैनिक अधिक संख्या में मारे ग्रे और जो बचे थे, उन्होंने हिम्मत तोड़ दी। उनकी यह कमजोरी राजपूत सवारों और सैनिकों से छुपी न रही। इसलिए उनका उत्साह दुगना और चौगुना हो गया। अंत में युद्ध के मैदान से गौरी की सेना भागने लगी। मोहम्मद गौरी स्वयं निराश होकर युद्ध से भागा और पांच हजार सवारों के साथ किसी प्रकार बचकर वह गज़नी पहुंचा। मोहम्मद गौरी का लाहौर पर आक्रमण मोहम्मद गौरी ने लाहौर पर कब आक्रमण किया? मोहम्मद गौरी के लाहौर युद्ध में किसकी जीत हुई? मौहम्मद गौरी ने लाहौर पर क्यों आक्रमण किया? मोहम्मद गौरी में एक बड़ा गुण यह था कि वह युद्ध में हारने के बाद भी अपनी आशाओं को तोड़ता न था। उसने एक वर्ष गज़नी में विश्राम किया और युद्ध के कितने ही नये-नये रास्ते उसने सोच डाले। उसने जिन नये पहाड़ी मुस्लिम प्रदेशों को जीता था, उनमें बहुत सी सेना लेकर उसने फिर भारत में चढ़ाई करने की तैयारी की और एक बड़ी सेना लेकर वह फिर भारत की ओर रवाना हुआ इस बार उसने सीधे लाहौर का रास्ता पकड़ा। गज़नी से भाग कर बहरामशाह का परिवार इसी लाहौर में आकर रह रहा था। बहरामशाह मर चुका था और उसका पुत्र खुसरो मलिक अपने कुछ सवारों के साथ यहीं पर रहा करता था। उसका बचा हुआ परिवार भी उसके साथ ही था। मोहम्मद गौरी अपनी सेना के साथ लाहौर पहुँचा और वहाँ पर जाकर उसने लाहौर के किले पर घेरा डाल दिया । खुसरो मलिक ने घबरा कर मोहम्मद गौरी के साथ सन्धि कर ली और गोरी ने सन्धि के बाद सेना के साथ लाहौर में ही कुछ दिनों के लिए मुकाम किया। उसके बाद वह पेशावर लौट आया और कितने ही महीनों तक इधर-उधर रहकर वह फिर भारत की तरफ चला। सन् 1181 ईस्वी में उसने सिन्ध देश पर आक्रमण किया और देवल का प्रसिद्ध किला अपने अधिकार में कर लिया। मोहम्मद गौरी की सेना ने सिन्ध देश पर खूब लूट मार की। अन्त में आग लगा कर उसने सारा देश बरबाद कर दिया और अपने ऊंटों को माल से लाद कर वह गज़नी चला गया। मोहम्मद गौरी का लाहौर पर दूसरा आक्रमण खुसरो मलिक शाह के साथ सन्धि करने के बाद भी लाहौर के सम्बन्ध में मोहम्मद गौरी को शान्ति न मिली। मलिकशाह उस सन्धि के बाद अपनी जिन्दगी लाहौर में किसी प्रकार काटना चाहता था, लेकिन गौरी को यह मंजूर न था। खुसरो मलिक शाह उस सुलतान महमूद का वंशज था, जिसने संसार में न जाने कितने राजाओं और सरदारों की जिन्दगी खतरे में डाली थी और उनको जिन्दा रहना दूभर कर दिया था उसका परिणाम उसके एक-एक वंशज के सामने आया और जो हालतें महमूद ने दूसरो के सामने पैदा की थीं, वे सब की सब उसके वंशजों के सामने आयी। महमूद के पापों और अपराधों का भयानक प्रायश्चित उसके वंशजों को करना पड़ा। लाहौर में खुसरो मलिक शाह के सामने जीवन की जो भीषणता थी, उसे वह और उसका परिवार ही जानता था। खुसरो मलिक शाह के साथ होने वाली सन्धि को ठुकरा कर मोहम्मद गौरी ने लाहौर पर सन् 1184 ईसवी में फिर चढ़ाई की और छः महिने तक उसने मलिक शाह को लगातार बरबाद किया।लाहौर में गौरी का यह आक्रमण उसके जीवन का एक मनोरंजन था। खुसरो मलिक इस योग्य न था जो मोहम्मद गौरी के साथ लड़ सकता। वह एक बार सन्धि कर चुक था और फिर भी गौरी की शर्तो पर सन्धि के लिए चिल्लाता रहा। लेकिन उसकी सुनता कौन था। मोहम्मद गौरी को तो उसके साथ युद्ध का एक खिलवाड़ करना था। मोहम्मद गौरी ने खुसरो मलिक शाह और उसके परिवार की छीछालेदर करके छः महीने के बाद स्यालकोट पर अपना अधिकार कर लिया। इस किले पर उसने अपनी एक सेना रखी और वहां का अधिकार अपने एक सेनापति हुसैन फारमूसा को सौंप कर गज़नी लौट गया। इन दिनों में दिल्ली में वीर चौहान पृथ्वीराज का शासन था, और हिन्दू राजाओं में वह इन दिनों शक्तिशाली माना जाता था। पृथ्वीराज के आतंक से कुछ भयभीत होकर वह न तो लाहौर से आगे बढ़ा और न लाहौर में ही अधिक ठहरा। वह सीधा गज़नी चला गया। खुसरो मलिक शाह के साथ लाहौर में मोहम्मद गौरी ने जो सन्धि की थी ,उसके विरुद्ध उसने दूसरी बार लाहौर पर आक्रमण किया और किसी समझौते के लिए तैयार न होकर स्यालकोट के किले पर अधिकार कर करके अपना शासन आरम्भ कर दिया। खुसरो मलिक के साथ उसका यह एक असह्य अन्याय था। लेकिन अपनी निर्बलता के कारण वह चुप था। फिर भी स्यालकोट में पड़ी हुई मोहम्मद गौरी की सेना के साथ उसका संघर्ष पैदा हुआ और खुसरो मलिक शाह कैद कर लिया गया। इस घटना का समाचार पाकर मोहम्मद गौरी अपनी सेना लेकर गज़नी से रवाना हुआ और लहौर पहुँच कर अपना कब्जा कर लिया। स्यालकोटपहुँच कर उसने खुसरो मलिक शाह और उसके परिवार को कैदी की दशा में फरोजकोह भेजवा दिया और लाहौर का शासन अपने सेनापति अली किरमानी को सौंपकर वह फिर गज़नी चला गया। फोरोजकोह में मलिक शाह अपने परिवार के साथ कैदी की हालत में कई वर्ष रखा गया और पांचवे वर्ष सपरिवार उसे कत्ल कर डाला गया। मोहम्मद गौरी के आक्रमण की नई योजना मोहम्मद गौरी ने तराइन का प्रथम युद्ध की योजना कैसे बनाई? मोहम्मद गौरी की तराइन के पहले युद्ध की क्या तैयारी थी? भारत की सम्पत्ति से भरा हुआ गज़नी का खजाना अपने अधिकार में कर लेने के बाद भी मोहम्मद गौरी का पेट न भरा। गज़नी के आसपास के राजाओं और सरदारों को लूटकर भी वह सम्पत्ति का प्यासा बना रहा। भारत की तरफ कदम बढ़ाकर और सिन्ध प्रदेश को लूटकर एवम मिटाकर भी उसका हौसला पूरा न हुआ। उसने भारत की तरफ आगे अपने कदमों को बढ़ाया और लाहौर पर कब्जा कर लिया। लेकिन राज्य पिपासा अतृप्त हीरही। इसलिए गज़नी में बैठकर भारत को लूटने और उसके राज्यों पर शासन करने का वह रास्ता खोजने लगा। मौहम्मद गौरी को लाहौर से आगे बढ़ने में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान से भय था,और गौरी उसकी शक्ति से भी अपरिचित न था। इसलिए गज़नी में बैठकर एक बहुत बड़ी सेना जमा करके भारत की ओर आगे बढ़ने का उसने निश्चय किया। मोहम्मद गौरी ने जिहाद का झंड़ा खड़ा किया और समस्त मुस्लिम देशों में उसने मुल्ला और मौलवी भेजना शुरू कर दिया। वे लोग मुस्लिम देशों में जाकर वहां के मुसलमानों को जिहाद की खबर देते और जो वीर और लड़ाकू मुसलमान हिन्दुस्तान को लूटकर अपने घरों में खजाना भरना चाहते, उन्हें फौरन गजनी में आकर शक्तिशाली इस्लामी सेना में भरती होने की सलाह देते। उन मौलवियों और मुल्ला लोगों ने मुस्लिम देशों में पहुँचकर लड़ने वालों को तैयार किया। वहाँ जाकर स्थान-स्थान पर हजारों मुसलमानों की भीड़ो में उन्होंने बताया कि हिन्दुस्तान में धन और दौलत के समुद्र भरे हैं। अल्लाह मियाँ ने तमाम मुसलमानों को यह एक नायाब मौका दिया है कि वे इस्लामी फौज में शामिल होने के लिए फौरन गज़नी पहुँचे और दौलत से भरे हुए हिन्दुस्तान के कमजोर और निकम्मे राजाओं पर हमले करके उन्हें लूटें भर वहाँ से जितनी दौलत वे ला सके अपने साथ लाकर अपने घरों को दौलत से भर दें। इस तरह की जोशीली बातों को सुनकर मुस्लिम देशों से खूंख्वार मुसलमान आ-आकर गज़नी में जिहाद के झंडे के नीचे एकत्रित होने लगे। थोड़े दिनों में ही लड़ाकु मुसलमानों की एकबड़ी-से-बड़ी सेना गजनी में जमा हो गयी, उनमें से चुने हुए एक लाख सवारों की सेना लेकर सन् 1191 ईस्वी में मोहम्मद गौरी गज़नी से भारत की ओर रवाना हुआ। अपनी इस विशाल सेना के साथ वह सब से पहले लाहौर में जाकर रुका और कई दिनों तक वहां विश्राम करने के बाद वह बठिंडा की तरफ चला। वहाँ पहुँचकर उसने वहाँ के किले को घेर लिया। बठिंडा के किले में चार हजार राजपूत सैनिक रहा करते थे और उनका सरदार चशडपुराडीर नामक एक शूरवीर राजपूत था। राजपूत सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया । चणडपुणडीर साहसी आदमी था। उसने तीन महीने तक तुर्क सेना के साथ भयानक युद्ध किया और किले पर अपना कब्जा कायम रखा। लेकिन इतने दिनों के युद्ध में उसके बहुत से सैनिक मारे गये और उसके साथ सैनिकों की संख्या इतनी कम रह गयी, जिसके बल पर उस अपार मुस्लिम सेना के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता था। फिर भी वह कई दिनों तक युद्ध करता रहा और जब उसके साथ केवल पाँच सौ सैनिक राजपूत रह गये तो वह मौका पाकर अपने सैनिकों के साथ निकल गया और दिल्ली की तरफ चला गया। मोहम्मद गौरी के साथ पृथ्वीराज चौहान का युद्ध – तराइन का प्रथम युद्ध का वर्णन मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान का युद्ध? तराइन का प्रथम युद्ध में किसकी जीत हुई? तराइन का प्रथम युद्ध में कितने सैनिक शहीद हुए? तराइन का प्रथम युद्ध में दोनों और से कितनी सेनाएं थी? भटिंडा के किले पर मोहम्मद गौरी के आक्रमण का समाचार जब दिल्ली पहुँचा तो पृथ्वीराज ने युद्ध के लिए अपनी सेना को तैयार होने की आज्ञा दी। दिल्ली में राजपूत सेना की तैयारी शुरू हो गयी औरतीस हजार सूरवीर सवारों की सेना को लेकर पृथ्वीराज चौहान बठिंडा की तरफ रवाना हुआ। चण्डपुणडीर को रास्ते में आती हुई दिल्ली की सेना मिली और वह भी उसी में शामिल होकर भटिंडे की तरफ लौट चला। बठिण्डा में मोहम्मद गौरी को खबर मिली कि युद्ध के लिए दिल्ली से अपनी सेना के साथ पृथ्वीराज चौहान आ रहा है तो भटिंडे में एक छोटी-सी सेना छोड़कर वह आगे की ओर बढ़ा। दोनों ओर की शक्तिशाली सेनायेंने थानेश्वर के पास पहुँच गयीं और सरस्वती नदी के किनारे तरावड़ी नामक ग्राम के पास एक बड़े मैदान जिसे (तराइन का मैदान कहा जाता है) में दोनों ओर की सेनाओं का सामना हुआ। मोहम्मद गौरी की आज्ञा पाते ही तुर्क सेना ने राजपूत सेना पर आक्रमण किया और दिल्ली के वीर राजपूतों ने उसका जवाब दिया। दोनों ओर से तराइन का प्रथम युद्ध की शुरुआत हो गयी। मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज की शक्ति से अनभिज्ञ न था। उसने बड़ी सावधानी के साथ भारतीय सेना पर आक्रमण करने की आज्ञा दी और राजपूतों की शक्तियों के समझने का प्रयास किया। उसके साथ अनेक मुस्लिम देशों के कट्टर लड़ाकू मुसलमान थे, जिनकी ताकतों पर गौरी बहुत गर्व करता था। युद्ध आरंभ होने के साथ उसने अपने बहादुर सिपाहियों और सेनापतियों से कहा “ऐ बहादुर मुसलमानों ! हिन्दुस्तान का यह पहला मोर्चा है। इसकी फतहयाबी के बाद तुम्हारा रास्ता साफ हो जाता है। लड़ाई के मैदान में आये हुए दुश्मन के सिपाहियों को तुम्हारी बहादुरी का पता नहीं है। आज इस जंग से ही उनको और उनके दोस्तों को मालूम हो जायेगा कि दुनिया के मुसलमान लड़ाई में कितने होशियार और बहादुर होते हैं।”” मोहम्मद गौरी की इस खुंख्वार मुस्लिम सेना के साथ युद्ध करने के लिए दिल्ली से जो राजपूत सेना आयी थी, उसमें सैनिकों की संख्या मुस्लिम सेना के मुकाबले में कम थी, लेकिन उसका एक-एक राजपूत वीर और साहसी था। पृथ्वीराज चौहान स्वयं अपनी सेना के साथ युद्ध-क्षेत्र में मौजूद था। उसका शक्तिशाली सेनापति चामुणडराय एक प्रबल हाथी पर बैठा हुआ अपनी सेना के मध्य में दिखाई दे रहा था। गोविन्दराय गोहलौत, कनन्ह परिहार, धीर पुण्डीर जैसे कितने ही पराक्रमी राजपूत सरदार तराईन के युद्ध क्षेत्र में बिजली के समान अपने घोड़ों को दौड़ा रहे थे। राजपुतों के साथ हाथियों की एक बडी सेना थी, जिसका युद्ध संचालन कन्ह चौहान कर रहा था। तुर्क सेना के आक्रमण करते ही राजपूत सेना आगे बढ़ी और उसने मार शुरू कर दी। तुर्की सेना का नेतृत्व, सेनापति अली किरमानी कर रहा था। दोनों ओर से भयानक युद्ध होने लगा। गौरी की तुर्क सेना ने जोर लगा कर कई बार आगे बढ़ने और राजपूतों को पीछे हटाने की कोशिश की। लेकिन वह आगे बढ़ न सकी। दोनों ओर से तलवारों की भयानक मार हो रही थी और जख्मी होकर जो सिपाही जमीन पर गिरते थे , उनकी तरफ आंख उठाकर कोई देखने वाला न था। कुछ ही समय के बाद तराइन की युद्ध भूमि रक्त से नहा उठी और बरसाती पानी की तरह रक्त बहता हुआ दिखायी देने लगा। लगातार युद्ध भीषण होता जा रहा था। कि सेनापति अली किरमानी ने ललकार कर अपने सवारों को आगे बढ़ने ओर मैदान को फतह करने का हुक्म दिया। उसकी आवाज को सुनकर तुर्क सवार आगे बढ़े। लेकिन उसी समय राजपूत सेना ढकेल कर उन्हें बहुत दूर पीछे की तरफ ले गयी। इसी मौके पर मुस्लिम सेना के बहुत से आदमी मारे गये और तुर्क सवारों के हाथ-पैर ढीले पड़ने लगे। यह देखकर अली किरमानी अपनी सेना को लेकर मैदान से पीछे हट गया। युद्ध कुछ समय के लिए रुक गया। मोहम्मद गौरी तुर्क सेना की हार से बहुत क्रोधित हुआ। सेनापति अली किरमानी ने बताया कि आज की इस लड़ाई मैं तुर्क सैनिक जो मारे गये हैं, उनकी संख्या दस हजार से कम नहीं है। अगर लडाई का यही तरीका चलता रहा तो हमें अपनी फतेहयाबी मुश्किल मालूम होती है । अली किरमानी की बातों को मोहम्मद गौरी ने सुना, उसे अली किरमानी कुछ नाउम्मीद मालुम हो रहा था। उसने क्रोध में आकर कहा–“मैं मुसलमानों के मुकाबले में राजपुतों को बहादुर नहीं समझता। कल सुबह होते ही जो जंग शुरू होगी, उसमें वीर मुसलमान अपनी तलवारों की मार से एक भी राजपुत को बाकी न रखेंगे और जंग का फैसला कल ही हो जायेगा। कल का दिन इस्लाम के झंडे की फतहयाबी का दिन है”। तराइन का प्रथम युद्ध में मोहम्मद गौरी की हार रात को तुर्क सेना ने विश्राम किया और दूसरे दिन प्रातःकाल तैयार होकर यह तराइन के मैदान में युद्ध के लिए पहुँच गयीं। अपनीसेना को लेकर पृथ्वीराज चौहान आगे बढ़ा और मुस्लिम सेना के सामने पहुँच गया। मोहम्मद गोरी की सम्पूर्ण सेना आज युद्ध के मैदान में आ गयी थी और उस विशाल तुर्क सेना ने राजपूत सेना को सामने देखते ही प्रबल आक्रमण किया। पृथ्वीराज की सेना युद्ध के लिए तैयार खड़ी थी। मुस्लिम सेना के आक्रमण करते ही अपनी सेना को पृथ्वीराज ने आज्ञा दी और मार शुरू हो गयी। तुर्क सवार आज काफी जोश में थे और युद्ध आरम्भ होते ही उन्होंने बहुत जोर की मार की। आज के युद्ध में तुर्क सेना की संख्या बहुत अधिक थी और वे अपनी पूरी ताकत लगा कर मार कर रहे थे। कई घन्टे के युद्ध में तुर्क सवार अनेक बार आगे बढ़े और राजपूत सेना को वे पीछे हटा ले गये। प्रातःकाल से लेकर दोपहर तक मुस्लिम सेना का प्राबल्य रहा। दो बार ऐसा मालूम हुआ कि तुर्क सेना की फ़तहयाबी में देर नहीं है। लगातार भीषण मार करने के कारण मुस्लिम सेना थक गयी औरजिस तेजी में वह मार कर रही थी, उसमें कमी आ गयी। दोपहर तक राजपूत सेना के अधिक आदमी मारे गये। इसके बाद युद्ध की परिस्थिति बदलने लगी। तुर्क सवार मार करने में जितने ही थकते हुए मालूम होते थे, राजपूत सैनिक उतने ही प्रबल होते जाते थे। मुस्लिम सेना की कमजोरी देखकर राजपूत आगे बढ़ने लगे। यह देखकर मोहम्मद गौरी ने अपनी सेना को संभाला और जोशीले शब्दों के साथ उसने आगे बढ़ कर मार करने की आज्ञा दी। लेकिन अब उसकी ललकारों का मुस्लिम “सेना पर कोई प्रभाव न पड़ा। राजपूत मार करते हुए बराबर आगे बढ़ रहे थे। घायल आदमियों की लाशों से युद्ध-क्षेत्र की जमीन पटी पड़ी थी और लाशों के ढेर होते जाते थे। उनके नीचे से रक्त के नाले बह रहे थे। तुर्क सेना को कमजोर पड़ते हुए देखकर मोहम्मद गौरी अपनी सेना में आगे बढ़ा और अपने सवारों को राजपूतों पर जोरदार हमला करने के लिए ललकारा। उसी समय पृथ्वीराज ने अपना हाथी आगेबढ़ाया और उसके आगे बढ़ते ही राजपूत सेना आँधी की तरह मुस्लिम सेना पर टूट पड़ी। भयानक तलवारों की मार से तुर्क सेना बहुत दूर पीछे हट गयी। राजपूत सेना ने मोहम्मद गोरी को घेर कर मारने की कोशिश की, लेकिन उसके सेनापति अली किरमानी ने देखा कि गौरी को राजपुत सेना ने घेर लिया है, वह तुरन्त अपने तुर्क सवारों को आगे बढ़ाकर मोहम्मद गौरी के पास पहुँच गया। राजपूत सैनिक और सरदार मोहम्मद गौरी को खतम करने में लगे थे। गौरी के साथ कुछ तुर्क सवार रह गये थे जो गौरी की रक्षा कर रहे थे, फिर भी राजपूतों की तलवारों के बहुत से आघात मोहम्मद गौरी के शरीर पर हो गये, जिनसे वह कमजोर पड़ गया। अली किरमानी के साथ तुर्क सवारों ने आकर अगर मोहम्मद गौरी को घेर कर बचाया न होता तो मोहम्मद गौरी के जख्मी होकर गिरने में देर न थी। सेनापति अली किरमानी ने आते ही बड़ी तेजी के साथ मोहम्मद गौरी की रक्षा की और उसको जमीन पर गिरने से बचा लिया। राजपूत सैनिक अब भी गौरी को खतम करने की पूरी कोशिश कर रहे थें और उन्होंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसी ओर लगा दी थी। इस समय का सम्पूर्ण युद्ध मोहम्मद गौरी पर केन्द्रित हो रहा था। राजपूत सैनिक और सरदार मोहम्मद गौरी को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर डालना चाहते थे और सम्पूर्ण मुस्लिम सेना मोहम्मद गौरी के प्राणों को बचाने के लिए भयानक मार-काट कर रही थी। इस समय युद्ध की परिस्थिति अत्यन्त गम्भीर हो गयी थी। दोनों ओर की सेनायें इतने जोर के साथ तलवारों की मार कर रही थी कि उस समय चलती हुई तलवारों की तेजी में किसी को कुछ सूझ न पड़ता था। राजपुत सेनापतियों और सरदारों ने अपनी शक्ति मोहम्मद गौरी को खतम करने में लगा दी और समस्त मुस्लिम सेना किसी प्रकार गौरी को बचाने में लगी थी। इसी समय पृथ्वीराज चौहान का हाथी तेजी के साथ गौरी की और बढ़ता हुआ दिखायी पड़ा। राजपूतों ने और भी जोर की मार शुरू कर दी। इसके बाद एक घण्टे तक जो भीषण मार हुईं, उसमें मोहम्मद गौरी की हालत बहुत खराब हो गयी। उसको संभालना अब मुस्लिम सेना को मुश्किल मालूम होने लगा। इस भयानक अवस्था में सेनापति अली किरमानी किसी प्रकार युद्ध से मोहम्मद गौरी को अपने साथ लेकर भागा। पृथ्वीराज ने राजपूत सेना को पीछा करने की आज्ञा दी।इसी समय बची हुई सम्पूर्ण मुस्लिम सेना ने भी अपने साथ मोहम्मद गौरी को लिए हुए तेजी के साथ भागना शुरू कर दिया और रास्ता छोड़कर भागती हुईं वह चालीस मील निकल गयी। तुर्क सेना के दूर निकल जाने के बाद, राजपूत सेना सीधे भटिंडे की तरफ लौट आयी और किले में जाकर कब्जा कर लिया। चालीस मील तक लगातार भागकर मुस्लिम सेना ने एक सुनसान जंगली मैदान में विश्राम किया और सवेरा होते ही वह फिर आगे की ओर बढ़ी। भारत की सीमा को पार कर वह आगे निकल गयी और लगातार चलकर मुस्लिम सेना फ़ीरोजकोह पहुंच गयी। मोहम्मद गौरी भयानक रूप से जख्मी हो चुका था। छः महीने तक लगातार चिकित्सा होने पर गौरी की हालत सम्भल सकी। इस तरह तराइन का प्रथम युद्ध में मोहम्मद गौरी की हार हुई। तराइन का प्रथम युद्ध जीत कर पृथ्वीराज चौहान की चारों ओर प्रशंसा हुई। तराइन का प्रथम युद्ध इतिहास के पन्नों में आज भी अमर है, तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज की विजय का ऐतिहासिक पल था। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- झेलम का युद्ध - सिंकदर और पोरस का युद्ध व इतिहास झेलम का युद्ध भारतीय इतिहास का बड़ा ही भीषण युद्ध रहा है। झेलम की यह लडा़ई इतिहास के महान सम्राट Read more चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध - सेल्यूकस और चंद्रगुप्त का युद्ध चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध ईसा से 303 वर्ष पूर्व 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