तराइन का दूसरा युद्ध मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान बीच उसी तरावड़ी के मैदान में ही हुआ था। जहां तराइन कातराइन का प्रथम युद्ध हुआ था। तराइन का द्वितीय युद्ध कब हुआ था? तराइन का द्वितीय युद्ध इन हिन्दी? तराइन के दूसरे युद्ध में किसकी जीत हुई? आदि प्रश्नों का उसका वर्णन करने के पहले, पूर्व कालीन कुछ घटनाक्रमों का यहां पर लिखना आवश्यक है।
Contents
पृथ्वीराज चौहान के बारे में जानकारी
(पृथ्वीराज चौहान कौन था? पृथ्वीराज चौहान दिल्ली का राजा कैसे बना? राजा अनंगपाल के कितनी पुत्री थी?)
पृथ्वीराज से पहलेअनंगपाल दिल्ली का राजा था, उसके दो
लड़कियां थीं। (राजा अनंगपाल के कितनी पुत्री थी) उसने अपनी बड़ी लड़की का ब्याह कन्नौज के राजा विजयपाल राठौर के साथ और अपनी छोटी लड़की का विवाह अजमेर के राजा सोमेश्वर चौहान के साथ किया था। कन्नौज में विजयपाल को जो लड़की ब्याही थी, उससे जयचन्द का जन्म हुआ था और जो लड़की सोमेश्वर को ब्याही गयी थी, उससे पुथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ। इस प्रकार कन्नौज के जयचन्द और पृथ्वीराज चौहान मौसेरे भाई थे।
अनंगपाल के कोई पुत्र न था। इसलिए उसके राज्य के उत्तराधिकारी जयचन्द और पृथ्वीराज चौहान दोनों होते थे। लेकिन अनंगपाल का स्नेह पृथ्वीराज चौहान के प्रति अधिक था। इसीलिए अनंगपाल के मरने के बाद, दिल्ली के राज्य का उत्तराधिकारी पृथ्वीराज बनाया गया। राजा अनंगपाल ने अपने मरने के पहले ही राज्य का अधिकार पृथ्वीराज को सौंप दिया था और इस बात की व्यवस्था कर दी थी कि मेरे मरने के बाद दिल्ली के सिंहासन पर पृथ्वीराज चौहान ही बेठेगा।
इस घटना से जयचन्द के हृदय में बड़ा असंतोष पैदा हुआ। राजा
अनंगपाल की बड़ी पुत्री से जयचन्द का जन्म हुआ था, इसलिये नाना के राज्य का वास्तव में उत्तराधिकारी वही था। पृथ्वीराज अवस्था में भी छोटा था और छोटी लड़की से उत्पन्न हुआ था, इसलिए नियमानुसार अनंगपाल के राज्य का वह उत्तराधिकारी नहीं होता था। फिर भी पृथ्वीराज को ही दिल्ली का राज्य मिला। इसका कारण था। जयचन्द का स्वभाव और चरित्र उसकी छोटी अवस्था से ही अच्छा न था, इसलिए उसके प्रति अनंगपाल का स्नेह न था । जयचन्द जब छोटा था, उसी समय से वह जानता था कि आगे चलकर दिल्ली के राज्य का अधिकारी मैं बनूंगा, लेकिन जब ऐसा न हुआ और पृथ्वीराज उसका अधिकारी बना तो उसी दिन से उसके अंतःकरण में पृथ्वीराज चौहान के प्रति एक गम्भीर ईर्षा पैदा हो गई।
जयचन्द और पृथ्वीराज की बढ़ती हुई शत्रुता
(जयचंद और पृथ्वीराज चौहान में शत्रुता का क्या कारण था? जयचंद पृथ्वीराज चौहान का अपमान क्यों करना चाहता था?)
दिल्ली के राज-सिंहासन पर पृथ्वीराज के बैठते ही जयचन्द ने अपनाविरोध आरम्भ किया। पैदा होने वाली ईर्षा को वह अपने हृदय में पचा न सका। पृथ्वीराज को नीचा दिखाने और किसी प्रकार उसका सत्यानाश करने के उपायों की खोज में वह रहने लगा। मन्दौर के परिहार राज्य और अनहलवाड़ा पट्टन के राजा के साथ चौहानों की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी । जयचन्द उन दोनों राज्यों के राजाओं से मिला और उसने उनके साथ पृथ्वीराज के विरुद्ध बहुत-सी बातें की। उन बातों में पृथ्वीराज का अपमान करने लिए रस्ता निकाला गया।

मन्दोर के राजा ने पृथ्वीराज के साथ अपनी लड़की का ब्याह
करना निश्चय किया। पृथ्वीराज ने स्वीकार कर लिया। लेकिन बाद
में मन्दोर के राजा ने पृथ्वीराज के साथ अपनी पुत्री का ब्याह न किया। उसे ब्याह करना भी न था। वह तो पृथ्वीराज का एक अपमान करना चाहता था। इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों के बीच में एक संघर्ष पैदा हुआ। पुरानी शत्रुता तो थी ही, वह और भी गहरी हो गयी।
पृथ्वीराज चौहान और समरसिंह
(समरसिंह और पृथ्वीराज चौहान की मित्रता कैसी थी?)
चित्तौड़ के राजा समरसिंह को पृथ्वीराज को बहन प्रथा ब्याही थी।
इस सम्बन्ध ने दोनों के बीच एक अटूट स्नेह पैदा कर दिया था। दोनों युवावस्था में थे। दोनों की विचारधारा एक थी और दोनों के जीवन में एक अद्भुत वीरता थी। चरित्र, शोर्य और स्वभाव ने दोनों को मिला कर एक दिया था। आरम्भ से ही दोनों एक, दूसरे के सुख दुख के साथी बने और जीवन के अंतिम समय तक दोनों, एक दूसरे के साथ संकट के समय प्राण देने के लिए तैयार रहे।
पृथ्वीराज के साथ समरसिंह का सम्बन्ध होने के कारण मन्दोर का
परिहार राज्य और अनहलवाड़ा पट्टन के राजा, समरसिंह के साथ शत्रुता रखते थे। यद्यपि समरसिंह के साथ उनकी शत्रुता का अलग से कोई कारण न था। अब जयचन्द भी समरसिंह के साथ शत्रुता का व्यवहार रखने लगा। इन्हीं दिनों में एक घटना और हुई तागोरकोट के किसी एक स्थान में जमीन में गड़े हुए सात करोड़ रुपये पृथ्वीराज को मिले। यह समाचार चारों तरफ फैल गया और उसे सुनकर पट्टन के राजा और जयचन्द को एक चोट लगी। वे दोनों समझते थे कि भारतीय अन्य राज्यों के मुकाबले में दिल्ली का राज्य सभी प्रकार शक्तिशाली है। इस सात करोड़ रुपये की रकम से पृथ्वीराज की शक्ति और अधिक बढ़ जायगी। इस ईर्षा से जल कर दोनों विरुद्ध हो किसी षड़यंत्र की खोज करने लगे। जयचन्द स्वयं लड़ने की अपेक्षा दूसरे को लडा देने में अधिक पडा था। उसने पृथ्वीराज और अनहलवाड़ा पट्टन के राजा के बीच में ऐसे कितने ही कारण पैदा कर दिये जिनसे उनके बीच शत्रुता की मात्रा बहुत बढ़ गयी। पृथ्वीराज ने पट्टन के राज्य पर आक्रमण करने का निश्चय किया और इसके परामर्श के लिए उसने चित्तौड़ के राजा समरसिंह को दिल्ली में बुलाया।
अनहलवाड़ा पट्टन पर आक्रमण
पृथ्वीराज ने कई दिनों तक समरसिंह के साथ परामर्श किया और
राजा पट्टन से अपमानजनक व्यवहारों का बदला लेने के लिए उस पर आक्रमण करने का निश्चय किया। पट्टन के राजा के साथ भी समरसिंह का एक ऐसा सम्बन्ध था, जिसके कारण वह खुलकर उसके विरुद्ध में नहीं जाना चाहता था। पृथ्वीराज ने इस बात को स्वीकार कर लिया। समरसिंह को दिल्ली में छोड़कर पृथ्वीराज ने अपनी सेना के साथ पट्टन राज्य पर हमला किया। दोनों ओर से युद्ध हुआ और अन्त में पट्टन के राजा की पराजय हुई।
युद्ध में विजयी होकर पृथ्वीराज अपनी सेना के साथ दिल्ली लौट
आया और शत्रु की पराजय पर खुशी मनाई गयी। समरसिंह पहले ही इस विजय के सम्बन्ध में जानता था। इसलिए जान बूझकर वह पृथ्वीराज के साथ इस युद्ध में नहीं गया था। नागोरकोट की जमीन में जो सात करोड़ रुपये पृथ्वीराज को मिले थे, उनमें से आधे रुपये पृथ्वीराज ने समरसिंह को दे दिये। लेकिन समरसिंह ने उन रुपयों को स्वयं न लेकर अपनी सेना के सैनिकों में उसको बांट दिया। इसके बाद भी समरसिंह दिल्ली में रहा ओर बाद में पृथ्वीराज से विदा हो कर वह अपनी सेना के साथ चित्तौड़ चला गया।
संयुक्ता का स्वयंवर
(पृथ्वीराज चौहान का विवाह कब हुआ था? पृथ्वीराज चौहान की पत्नी कौन थी? संयुक्ता के स्वयंवर की घटना?)
संयुक्ता कन्नौज के राजा जयचन्द की बेटी थी। उसकी अव्यवस्था
विवाह के योग्य हो गयी थी। इसलिए जयचन्द ने अपने मंत्रियों, मित्रों और सम्बन्धियों से परामर्श लेकर संयुक्ता के विवाह का स्वयंवर किया और समस्त भारतीय राजाओं को उनमें शामिल होने के लिए उसने निमन्त्रण भेजा। लेकिन पृथ्वीराज और समरसिंह को स्वयंवर में आनेके लिए निमन्त्रण नहीं भेजा गया।जयचन्द ने इतना ही नहीं किया, बल्कि स्वयंवर के दिन निकट आ जाने पर जयचन्द ने पृथ्वीराज और समरसिंह की मूर्तियां धातु की बनवाई और स्वयंवर में जब सब राजा एकत्रित हुए तो धातु की बनी हुई पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के स्थान पर रखी गयी। अपनी इस योजना का निश्चय जयचन्द ने पहले से ही कर लिया था और स्वयंवर से पहले ही इस किये जाने वाले दुर्व्यवहार का समाचार पृथ्वीराज को मिल गया था।
चित्तौड़ के राजा समरसिंह के साथ पृथ्वीराज का अटूट स्नेह था।
उससे बिना पूछे हुए वह कोई काम न करता था। स्वयंवर के इस
होने वाले दृश्य पर भी पृथ्वीराज ने समरसिंह से परामर्श किया और अपनी सेना को लेकर छिपे हुए भेष में पृथ्वीराज स्वयंवर में जाकर सम्मिलित हुआ। वहां पर बैठे हुए राजा पृथ्वीराज को पहचान न सके। स्वयंवर के समय संयुक्ता अपने हाथ में माला लेकर आयी और बेठे हुए राजाओं को पंक्ति में दो बार घूमकर उसने अपनी माला धातु की बनी हुई पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में डाल दी। संयुक्ता के ऐसा करते ही राज-भवन में एक अद्भुत कोलाहल मच गया। उसी अवसर पर पृथ्वीराज अपने स्थान से उठकर तेजी के साथ आगे बढ़ा और संयुक्ता को अपने साथ लेकर इतनी शीघ्रता के साथ वह बाहर हुआ कि बेठे हुए राजा अपने कर्तव्यों का कुछ निर्णय न कर सके। राजा जयचन्द के देखते-देखते ही पृथ्वीराज संयुक्ता के साथ अपनी सेना में जो बाहर दूर खड़ी थी,पहुँच गया और वहाँ से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। पृथ्वीराज की गति को कोई रोक न सका।
स्वयंवर के इस नाटक का प्रभाव, उसमें आने वाले राजाओं पर
अच्छा नही पड़ा। भारतीय राजाओं में आपस की ईर्षा का रोग तो बहुत पुराना था। आपस की फूट के कारण ही समस्त भारतीय राजाओं का और इस देश का अनेक बार सर्वनाश हो चुका था। लेकिन राजाओं की पारस्परिक ईर्षा का अंत न हुआ था। पृथ्वीराज के साथ भी देश के अनेक राजाओं की शत्रुता पहले से थी और स्वयंवर के इस नाटक को देखकर और भी कितने ही राजा और नरेश उसके शत्रु बन बैठे।
पृथ्वीराज चौहान और राजकुमारी संयुक्ता
(पृथ्वीराज चौहान का वैवाहिक जीवन? पृथ्वीराज चौहान और संयुक्ता का वैवाहिक जीवन)
मनुष्य पर प्रकृति और परिस्थिति का प्रभाव पड़ता है। संयुक्ता के
साथ विवाह करने के बाद के पृथ्वीराज में और पहले के पृथ्वीराज में अंतर पड़ते लगा। यह अन्तर समय के साथ-साथ धीरे-धीरे विशाल और विस्तृत होने लगा। जो पृथ्वीराज कल तक एक शूरूवीर और साहसी योद्धा था, वह आज रात दिन महलों में रहकर विलासिता का भोक्ता बन गया। संयुक्ता एक परम सुन्दरी युवती थी। उसके अपूर्व सौन्दर्य ने महाराज पृथ्वीराज को आकर्षित किया, फलस्वरूप पृथ्वीराज का प्रत्येक समय संयुक्ता के साथ महलों में रहकर आमोद-प्रमोद में बीतने लगा। विलासिता और वीरता जीवन की दो चीजें हैं और दोनों ही एक दूसरे की विरोधिनी हैं। विलासिता वीरता का नाश करती है और वीरता, विलासिता से घृणा करती है। एक वीर पुरुष विलासी नहीं हो सकता और विलासिता में डूबा हुआ कोई आत्मा-वीरात्मा नहीं हो सकता।
एक ओर पृथ्वीराज के शत्रुओं की संख्या बढ़ रही थी और दूसरी
ओर जीवन का अनुराग और विलास उसे अकर्मण्यता की ओर ले जा रहा था। संयुक्ता के स्वयंवर में एक असहाय आघात से राजा जयचन्द का ह्रदय क्षतविक्षत हो चुका था। वह किसी प्रकार पृथ्वीराज को इसका बदला देना चाहता था। उस बदले का वह निर्माण कर रहा था, लेकिन पृथ्वीराज उसे देख न सकता था। उसके नेत्रों का प्रकाश अन्त:पुर के भीतर ही केन्द्रित होकर रह गया था। पृथ्वीराज को राजा जयचन्द के द्वारा मिलने वाले बदले का कुछ पता न था।
गज़नी में मोहम्मद गोरी की तैयारियां
(मोहम्मद गौरी की तराइन का दूसरा युद्ध की तैयारी?)
तराइन के प्रथम युद्ध के क्षेत्र में मोहम्मद गौरी, पृथ्वीराज के साथ युद्ध करके जिस प्रकार जख्मी हुआ था, उसमें उसके बचने की कम आशा रह गयी थी । फ़ीरोज़कोह में छः महीने तक चारपाई पर पड़े रह कर और मरहम पट्टी करके, मोहम्मद गौरी किसी प्रकार सेहत हुआ और उसके बाद वह फ़ीरोज़कोह से ग॒ज़नी चला गया। तरावड़ी के पहले युद्ध में अपने एक लाख बहादुर सवारों के साथ पृथ्वीराज के मुकाबले में वह पराजित हो चुका था। उसकी भुजाओं की ताकत और दिलेर हिम्मत कमजोर पड़ चुकी थी, लेकिन उसके दिल के अरमान पहले से भी अधिक जोरदार हो चुके थे। वह किसी प्रकार पृथ्वीराज से तराइन के प्रथम युद्ध का बदला देना चाहता था और इसीलिए आज गज़नी में खामोशी के साथ बैठकर वह कामयाबी के रास्ते की खोज कर रहा था।
फ़ीरोज़कोह से ग॒ज़नी आये हुए मोहम्मद गौरी को अभी थोड़े हो
दिन बीते थे और वह भारत में हमला करके पृथ्वीराज को पराजित करने का तरीका खोज रहा था। इसी मौके पर कन्नौज के राजा जयचन्द का मजबूत मशविरा पाकर और उसको विश्वास के योग्य समझकर उसने भारत में हमला करने की तैयारी शुरू कर दी। मोहम्मद गौरी ने अपने सेनापतियों, मन्त्रियों और सरदारों को बुलाकर परामर्श किया और भारत में पृथ्वीराज के विरुद्ध एक भयानक हमला करने के लिए उसने जोरदार तैयारी करने का हुक्म दिया।
मोहम्मद गौरी की तराइन का दूसरा युद्ध के लिए भारत की ओर रवानगी
(तराइन का दूसरा युद्ध में मोहम्मद गौरी की सेना? तराइन का दूसरा युद्ध के लिए मोहम्मद गौरी का प्रास्थान)
पहले की अपेक्षा इस बार फौजी बेड़ा और भी बड़ा और जोरदार
तैयार करने के लिए मोहम्मद गौरी ने फिर जिहाद का झंडा खड़ा
किया। इस्लामी सेना में पहले भर्ती होकर जो लोग गये थे, उनके सिवा और भी बड़ी संख्या में लोगों को बुलाने की कोशिश शुरू हो
गयी। मौलवी और मुल्ला चारों तरफ मुस्लिम देशों में दौड़कर गये
और जिहाद का नारा ऊँचा किया। तुर्कों, मुगलों, अरबों, अफगानों
ओर गाज़ियों के भयंकर दल मुस्लिम देशों से निकलकर गजनी के लिए रवाना हुए और थोड़े ही दिनों के भीतर गजनी में मुसलमानों का एक निहायत जोरदार आलम इकट्ठा हो गया। इन आये हुए आदमियों में लड़ाकू लोगों का चुनाव किया गया और चुने हुए सवारों में एक लाख, बीस हजार आदमियों को लेकर एक बड़ी-से-बड़ी सेना तैयार की गयी। इस विशाल और शक्तिशाली सेना को लेकर सन् 1192 ईस्वी के अन्तिम दिनों में मोहम्मद गौरी गज़नी से रवाना हुआ उसने बड़ी दृढ़ता के साथ सिन्धु नदी को पार किया और पहाड़ों के नीचे-नीचे चलकर सतलुज नदी के किनारे पहुँच गया। अपने सैनिक और सवारों को विश्राम देने के उद्देश्य से मोहम्मद गोरी ने उस लम्बी यात्रा में आवश्यकता के हिसाब से मुकाम किया और फिर रवाना होकर उसने सीधा दिल्ली का रास्ता पकड़ लिया।
दिल्ली में युद्ध की तैयारियां
(तराइन का दूसरा युद्ध के लिए पृथ्वीराज चौहान की तैयारी? तराइन का दूसरा युद्ध में पृथ्वीराज की सेना कितनी थी)
अचानक पृथ्वीराज को समाचार मिला कि मोहम्मद गौरी की
एक बहुत बड़ी सेना हमला करने के लिए आ रही है। यह सुनते ही
पृथ्वीराज अकस्मात चौंक पड़ा। उसने तुरन्त अपना प्रतिनिधि भेजकर चित्तौड़ के महाराज समरसिंह को खबर दी और वह स्वयं दिल्ली में युद्ध की तैयारियाँ करने लगा। उसके हृदय में इस बार के युद्ध के लिए पहले का सा उत्साह न था। इन दिनों में उसने मोहम्मद गौरी के आक्रमणों की आशंका भी नहीं थी। संयुक्ता के स्वयंवर के बाद पृथ्वीराज ने जिस प्रकार का अपना जीवन बनाया था, वह समझता था कि उसकी बाकी पूरी जिन्दगी इसी प्रकार आमोद-प्रमोद और अनुराग में बीतेगी।
दिल्ली में युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं। लेकिन पृथ्वीराज के मन
में अनेक प्रकार की आशंकायें उत्पन्न हो रही थीं। उसे न जाने क्यों, इस बात का विश्वास होने लगा कि इस बार मोहम्मद गौरी के भारत आने में कन्नौज के राजा जयचन्द का जाल है और यह भी सम्भव है कि इस जाल में दूसरे भारतीय राजा भी कुछ शामिल हों इस प्रकार कितनी ही बातें सोच कर पृथ्वीराज के हृदय में एक आशंका उत्पन्न होने लगी।
अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए तैयार होकर चित्तौड़ का राजा
समरसिंह जब दिल्ली में पहुँचा, उस समय तक युद्ध के लिए पृथ्वीराज की सेना तैयार हो चुकी थी और स्वयं पृथ्वीराज समरसिंह का रास्ता देख रहा था। इसी मौके पर फिर समाचार मिला कि मोहम्मद गौरी की सेना बठिंडा में आ चुकी है और वहाँ से थानेश्वर की तरफ रवाना हो गयी है। समरसिंह के साथ परामर्श हो चुकने के बाद, दिल्ली की सेना में युद्ध के बाजे बजे और वीर क्षत्रिय युद्ध के लिए सुसज्जित होने लगे।
संयुक्ता के साथ पृथ्वीराज की विदाई
तराइन का दूसरा युद्ध के लिए तैयार होकर पृथ्वीराज संयुक्ता के पास महलों में पहुँचा। संयुक्ता ने सम्मान पूर्वक स्वागत करते हुए पृथ्वीराज की ओर देखा। उसकी कमर में लटकती हुई तलवार को स्पर्श करके उसने कहा आज आपकी यह प्रसिद्ध तलवार शत्रुओं के प्राणों का नाश करेगी। पृथ्वीराजसंयुक्ता की ओर देख रहा था, उसके सुन्दर मुख-मंडल पर एक स्वाभाविक भर सरल मुस्कान थी। लेकिन संयुक्ता ने पृथ्वीराज के तेजस्वी मुख-मंडल पर प्रसन्नता की रेखायें नहीं देखीं। उसने साहस के साथ गम्भीर होकर कहा।
“श्राप शूरवीर क्षत्रिय हैं। आपके शौर्य का प्रताप दूर देशों तक
फैला हुआ है। शूरवीर क्षत्रिय के सुख और मनोरंजन का स्थान युद्धक्षेत्र होता है। संग्राम में विजयी होने पर क्षत्रिय को यश मिलता है और पराजय होने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
पृथ्वीराज ने अनुरागपूर्ण नेत्रों से संयुक्ता की ओर देखते हुए उसके
अटूट प्रोत्साहन से भरे हुए शब्दों को सुना और उसने उत्तर देते हुए कहा- “मैं युद्ध में जाने के लिए, संयुक्ता ! तुमसे बिदा लेने आया था और तुम्हारे मुख से मैं इन्ही शब्दों को सुनना चाहता था। तुम्हारे इन वाक्यों से मेरे शरीर की प्रत्येक रग रग में अपूर्व शक्ति का संचार हो रहा है।
संयुक्ता ने साहस और उल्लास के साथ पृथ्वीराज को युद्ध के लिए विदा किया। अन्त:पुर से लौटकर पृथ्वीराज बाहर आया, चित्तौड़ की सेना के तैयार हो जाने पर समरसिंह उसके बीच में पहुँच गया था और प्रथ्वीराज का रास्ता देख रहा था। दिल्ली की सेना भी तैयार हो चुकी थी। पृथ्वीराज के हाथी पर बैठते ही युद्ध के बाजे बजे और दोनों सेनायें वहाँ से रवाना हुई। तरावड़ी के समीप पहुँच कर राजपूत सेनाओं ने मुकाम किया और रात को विश्राम किया।
ठीक आधी रात के समय मोहम्मद गोरी जाग उठा और बडी
तेजी के साथ वह तैयार होने लगा। उसी समय उसकी समस्त सेना बड़ी तत्परता के साथ अपनी तैयारी में लग गयी और मुस्लिम सेनापति ने मोहम्मद गौरी को सेना के तैयार होने की सूचना दी।
तराइन का दूसरा युद्ध में तुर्क सेना का आक्रमण
(तराइन का दूसरा युद्ध कब हुआ? तराइन का दूसरा युद्ध किसके बीच हुआ? तराइन का दूसरा युद्ध कौन जीता था? पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु कैसे हुई? पृथ्वीराज चौहान को किसने मारा था? पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु कब हुई?)
आधी रात को भयानक अन्धकार में तुर्क सेना अपने खेमों से रवाना हुई ओर तेजी के साथ आगे बढ़कर उस तराईन के मैदान में पहुँची जहाँ राजपूत सेना गहरी नींद में सो रही थी। मुस्लिम सेना एक साथ सोते हुए राजपूत सैनिकों पर टूट पड़ी और बात की बात में बहुत से राजपूत सैनिक काटकर मार डाले गये। उस भयानक संकट के समय राजपूत जाग कर और अपनी तलवारों को लेकर तुर्क सेना के साथ युद्ध करने लगे। बहुत बड़ी संख्या में राजपुत सैनिक पहले ही मारे जा चुके थे और जिन राजपूतों ने जाग कर मार-काट शुरू कर दी, उनको भी लड़ने के लिए तैयार होने का मौका न मिला। इसी दशा में मार-काट करते हुए बाकी रात दोनों ओर के सैनिकों ने बिता दी।
सवेरा हो जाने पर भी युद्ध बराबर जारी रहा। मोहम्मद गौरी के
साथ इस बार सेना पहले से भी बहुत अधिक थी और उसके मुकाबले के लिए जो राजपूत सेना आयी थी, वह बहुत थोडी थी, फिर भी धोखा देकर गौरी की सेना ने रात में आक्रमण करके राजपूत सैनिकों का सर्वनाश किया। निंद्रा से जाग कर बचे हुए राजपूत, बिना किसी तैयारी के यवनों के साथ बराबर युद्ध करते रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि जो राजपूत बाकी रह गये थे, वे भी बडी तेजी के साथ मारे गये।
इस संकट के समय क्या हो सकता है, इस पर पृथ्वीराज को कुछ
सोचने ओर निर्णय करने का मौका न मिला। युद्ध की मार-काट इतनी तेजी के साथ हो रही थी कि उसमें कुछ सोचने अथवा किसी के साथ परामर्श करने का कोई मौका ही न था। युद्ध करते हुए अपने हाथी पर से पृथ्वीराज ने एक बार समरसिंह को देखा और कुछ दूरी पर कई एक राजपूत सरदार और सेनापति भी दिखायी पडे।
दूसरे दिन दोपहर बीत गयी। युद्ध बन्द होने की हालत में न था।
अब राजपूत सैनिकों की संख्या बहुत कम हो गयी थी और यही देखकर मोहम्मद गौरी ने युद्ध को बराबर जारी रखा था। वह जानता था कि युद्ध बन्द करने से फिर राजपूतों को सम्हलने और तैयार होने का मौका मिल जायगा और उस दशा में उनको जीत सकना बहुत मुश्किल हों जायगा। पृथ्वीराज के सामने अब बड़ी कठिन समस्या थी। वह किसी भी अवस्था में युद्ध-क्षेत्र से भागना नहीं चाहता था। युद्ध के लिए रवाना होने के समय जब वह संयुक्ता के पास बिदा लेने गया था, उस समय संयुक्ता के मुंह से निकले हुए शब्द, पृथ्वीराज के कानों में अब भी गूंज रहें थे।उसके सामने दो रास्ते थे। युद्ध में शत्रु को मार कर या तो वह विजयी हो सकता था अथवा अपने प्राणों की आहुति देकर वह स्वर्ग लोक का अधिकारी बन सकता था। वह जानता था कि युद्ध से भागने वाले क्षत्रिय को कहीं ठिकाना नहीं मिलता। वह न तो इस लोक में कहीं सम्मान पाता है और न उसे मोक्ष हो प्राप्त होता है।
युद्ध की परिस्थिति लगातार भयानक होती गयी। पृथ्वीराज ने कुछ दूरी पर तुर्क सेना के बीच में युद्ध करते हुए एक तेज घोड़े पर मोहम्मद गौरी को देखा, आवेश में आकर पृथ्वीराज ने अपना हाथी बढ़ाया और तेजी के साथ, उसने अपनी तलवार का वार मोहम्मद गौरी पर किया। गौरी ने अपने घोड़े को पीछे की तरफ दूर तक हटाया और पृथ्वीराज की तलवार से वह साफ-साफ बच गया। इसके बाद मोहम्मद गौरी फिर आगे बढ़ कर पृथ्वीराज के निकट पहुँच गया और दोनों शूरमा एक दूसरे पर अपनी-अपनी तलवारों की मार करने लगे।
राजपूत सेना अब बहुत थोडी रह गयी थी और जहाँ पर पृथ्वीराज
मोहम्मद गौरी के साथ लड रहा था, वहाँ से दूर थी। इस मौके को
देखकर तुर्क सेनापति अली किरमानी अपने साथ कई एक तुर्क सरदारों और बहुत-से चुने हुए सवारों को लेकर पृथ्वीराज के पास पहुँच गया और उसे घेर कर उसने खत्म कर देने की कोशिश की। इसके बाद मोहम्मद गौरी के समस्त तुर्क सवारों ने एक साथ पृथ्वीराज पर आक्रमण किया।
पृथ्वीराज के प्राण भयानक संकट में पड गये। राजपूतों ने पृथ्वीराज को तुर्को के बीच में घिरा हुआ देखकर दौड़ते हुए मुस्लिम सवारों पर आक्रमण किया। दोनों तरफ के शूरवीर सैनिक पृथ्वीराज के समीप आकर मार-काट करने लगे। मोहम्मद गौरी के साथ-साथ, समस्त उसकी सेना पृथ्वीराज पर प्रहार करने लगी और राजपूत पृथ्वीराज को रक्षा करने में तुर्क सवारों पर मार करते थे। थोड़े से राजपूत सैनिकों और सरदारों को पृथ्वीराज की रक्षा करना मुश्किल मालूम होने लगा। फिर भी वे अपने प्राणों की आशा छोड़कर भीषण मार करने लगे। वीरवर चामुणडराव, सामन्त सी, धीर पुणडीर, आदि अनेक राजपूत सरदारों के साथ, समरसिंह पृथ्वीराज की रक्षा करने के लिए तुर्क सेना के साथ अपनी तलवारों की भयानक मार कर रहे थे। लेकिन जिन अठारह हजार तुर्क सवारों ने पृथ्वीराज के हाथी को घेर लिया था, उनके घेरे से पृथ्वीराज को बचाना अत्यन्त कठिन मालूम हो रहा था। पृथ्वीराज के समस्त शरीर में तलवारों के के सैकड़ों गहरे घाव हो चुके थे, जिनसे रक्त बहकर जमीन पर गिर रहा था। पेट, छाती पर पीठ से खून के फव्वारे निकल रहे थे, फिर भी पृथ्वीराज के दोनों हाथ शत्रुओं पर अपनी तलवारों के वार कर रहे थे।
राजपूत वीरों ने अपनी भीषण मार में कुछ उठा न रखा, लेकिन
पृथ्वीराज की अरक्षित अवस्था तेजी के साथ बढ़ती जा रही थी।
पृथ्वीराज को स्वयं मालूम हो गया कि तुर्क सवारों की इन मारों से
से बच सकना सम्भव नहीं है। इस भीषण संकट काल में दिल्ली की सेना का एक भी राजपूत युद्ध के क्षेत्र से भाग न सका। प्रबल तुर्क सेना के द्वारा वे कट-कटकर जमीन पर गिरते जाते थे। लेकिन जब तक उनके हाथों में तलवारें रहतीं, वे मार-मार की आवाज से लगातार युद्ध स्थल को भयानक बना रहे थे।
इसी समय कई हजार तुर्क घुड़वारों ने समरसिंह को घेर कर
आक्रमण किया और कई एक गहरे जख्मों के कारण समरसिंह घोड़े से नीचे गिर गया। उसके गिरते ही चित्तौड़ की सेना में जोर की आवाज हुई। उस आवाज को सुनते ही चौहान सेना के जो शूरवीर राजपूत सेनिक और सरदार पृथ्वीराज के बचाने के लिए तुर्को के साथ युद्ध कर रहे थें, उनका ध्यान भंग हुआ। क्षणभर के लिए समरसिंह की तरफ उनके देखते ही तुर्क सवार एक साथ पृथ्वीराज पर टूट पड़े और तलवारों के वार एक साथ पृथ्वीराज के शरीर पर हो गये। अब धीरे-धीरे पृथ्वीराज अपने शरीर को हाथी के हौदे पर सम्हाल न सका, वह नीचे गिरा। पृथ्वीराज के जमीन पर गिरते ही तुक सवारों ने अपनी तलवार से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालें।
पृथ्वीराज और समरसिंह दोनों सूरमा एक साथ युद्ध में मारे
गये। दिल्ली के राजपूत सैनिकों में हाहाकार मच गया। मोहम्मद गौरी की सेना ने पीछे हटकर युद्ध रोक दिया। राजपूत सेना भी पीछे हट गयी और पृथ्वीराज तथा समरसिंह की लाशों को उठाकर वह अपने साथ ले गयी।