डिग्गी धामराजस्थान की राजधानी जयपुर से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर टोंक जिले के मालपुरा नामक स्थान के करीब डिग्गी नामक छोटा सा नगर है। यह स्थान यहां स्थित प्रसिद्ध श्री कल्याण जी टेंपल के लिए भारत भर मे विख्यात है। श्री कल्याण जी मंदिर डिग्गी राजस्थान के प्रमुख तीर्थ स्थानों में गिना जाता है। डिग्गी कल्याण जी का इतिहास बताता है कि कल्याण जी मंदिर का निर्माण मेवाड़ के राणा संग्राम सिंह के राज्य काल में संवत् 1584 (सन् 1527) के ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की त्रियोदशी को तिवाड़ी ब्राह्मणों द्वारा हुआ था।
डिग्गी कल्याण जी की कथा
कल्याण जी मंदिर की स्थापना कैसे हुई? कल्याण जी का क्या महत्व है? आदि तमाम प्रशनों के उत्तर इस स्थान के संबंध में प्रचलित एक कथा में मिल जाते है। प्रचलित कथा के अनुसार देवराज इंद्र के दरबार की सबसे सुंदर अप्सरा उर्वशी देवराज के मनोरंजन के लिए नृत्य कर रही थी। कि किसी कारण वह हंस पड़ी। जिससे क्रोधित होकर देवराज इंद्र ने अप्सरा उर्वशी का स्वर्ग लोक से निष्कासन कर दिया। तथा उसे 12 वर्ष तक मृत्यु लोक में रहने का दण्ड दिया। अपने निष्कासन के कुछ समय तक तो उर्वशी सप्त ऋषियों के आश्रम में रही। उसके बाद उसने चंद्रगिरि पर्वत पर शरण ली।
डिग्गी कल्याण जी मंदिर के सुंदर दृश्य
अपनी भूख को शांत करने के लिए अप्सरा उर्वशी रात्रि के समय में एक घोडी का रूप धारण करके राजा दिगवा के उद्यान में अपनी भूख को शांत करती थी। जब राजा डिगवा को इस बात का पता चला की कोई रात्रि में उसके उपवन को हानि पहुंचाता है। तो राजा ने रात्रि में पहरा बैठा दिया और आज्ञा प्रसारित कर दी जिसे भी वह क्षति पहुंचाने वाला दिखाई दे उसे तुरंत पकड़ लिया जाएं। राजा स्वयं भी निगरानी के लिए उपवन में गया। जब रात्रि का समय हुआ तो अप्सरा उर्वशी अपनी भूख शांत करने के लिए घोडी का रूप धारण करके राजा के उपवन में आई। तो राजा ने उसे देख लिया और पकडऩे के लिए आगे बढ़ा। राजा को अपनी ओर आता देख घोडी तीव्र गति से पर्वत की ओर भागी राजा डिगवा ने भी घोडी का पिछा किया। पर्वत पर जाकर घोडी ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया। मानवीय दुर्बलताओं से युक्त राजा देवलोक की अप्सरा के मोह जाल में फंस गया। उर्वशी ने अपनी सारी कहानी उन्हें बताई, परंतु मोह जाल में फंसे राजा ने उसे राजमहल की शोभा बढाने का आमंत्रण दिया। उर्वशी ने राजा के प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया परंतु एक चेतावनी भी दी कि दण्ड अवधि समाप्त होने के पश्चात जब देवराज इंद्र उसे लेने आयेंगे तब यदि राजा डिगवा उसकी रक्षा न कर सके तो वह उन्हें श्राप दे देगी।
अप्सरा उर्वशी के दण्ड की अवधि समाप्त होते ही देवराज इंद्र उर्वशी को लेने आएं। देवराज इंद्र और राजा डिगवा में भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में किसी की पराजय न होती देख देवराज इंद्र ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। और भगवान विष्णु की सहायता से स्वर्ग लोक के राजा ने पृथ्वी लोक के राजा को पराजित कर दिया। इस पर अप्सरा उर्वशी ने राजा डिगवा को कुष्ठ रोग हो जाने का श्राप दे दिया। जिसके फलस्वरूप राजा डिगवा को भयंकर कुष्ठ रोग हो गया। राजा डिगवा ने भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की थी। भगवान विष्णु ने उधर इन्द्र की सहायता की लेकिन इधर राजा डिगवा के कष्ट निवारण का भी उपाय उन्होंने बतलाया। भगवान विष्णु ने कहा कि कुछ समय उपरांत उनकी प्रतिमा समुंद्र में बहकर आयेगी। उस के दर्शन से अभिशप्त राजा का कष्ट निवारण हो जायेगा। कुछ समय पश्चात सचमुच विष्णु प्रतिमा बहती हुई आयी। जिसे वहीं उपस्थित एक व्यापारी ने बाहर निकाला। प्रतिमा के दर्शन से राजा तथा व्यापारी दोनों का कल्याण हो गया और दोनों संकट मुक्त हो गए।
डिग्गी कल्याण जी मंदिर के सुंदर दृश्य
अब एक समस्या ओर खड़ी हो गई थी कि भगवान विष्णु की प्रतिमा का अधिकारी कौन होगा। व्यापारी और राजा दोनों ही अपने पास रखना चाहते थे। कहते है कि तभी आकाशवाणी से निर्देश हुआ कि रथ में घोडों के स्थान पर जो व्यक्ति प्रतिमा को खीच कर ले जा सके। वह उसको प्राप्त करने का अधिकारी होगा। काफी प्रयासों के बाद व्यापारी रथ में प्रतिमा को न ले जा सका। राजा डिगवा कुछ हद तक इसमें सफल हो गए। परंतु राजा का रथ उस स्थल पर जाकर रूक गया जहाँ देवराज इंद्र और राजा डिगवा के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। राजा ने काफी प्रयास किए परंतु रथ आगे न बढ़ सका। बाद में राजा ने इसी स्थल पर कल्याण जी के मंदिर की स्थापना कर दी। और यह स्थान डिग्गी धाम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्री डिग्गी कल्याण जी धाम के मुख्य मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा यद्यपि चतुर्भुज की विष्णु प्रतिमा है। परंतु श्रृदालुगण जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी के अनुसार प्रतिमा में अपनी मान्यताओं के अनुसार अनेक देवताओं के रूपों का दर्शन करते है। डिग्गी जी की यात्रा पर आने वाले भक्त इस प्रतिमा में राम, कृष्ण, तथा प्रद्युम्न के रूपों को पाते है। और भगवान से कल्याण की प्रार्थना करते है।
मंदिर कला और पुरातत्व की श्लाघनीय कृति है। मुख्य मंदिर का निर्माण यद्यपि सोहलवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षो में हुआ था परंतु इसका समय समय पर जीर्णोद्धार होता रहा है। मंदिर का मूल भाग ही अब सोलहवीं शताब्दी की स्मृति को अपने में संजोएं है। इस भाग में प्रतिहार कला का विशेष प्रभाव है। अधिष्ठान अथवा वेदीबंध पर इस समय की अनेक देवी देवताओं की प्रतिमाएं है। जिनमें अधिकांश का स्वरूप समन्वयात्मक है। इनमें हरिहर, पितामह, उमा महेश्वर, लक्ष्मीनारायण की प्रतिमाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मंडोवर पर अंकित सुर सुन्दरियों की प्रतिमाएं जहाँ नारी के मासल सौंदर्य का प्रतीक है। वहीं मिथुन मूर्तियां लौकिक सुखो के चरमानंद की ओर इंगित करती है। मंदिर में 9वी दसवीं शताब्दी की प्रतिहार कला शैली की प्रतिमाएं जडी है। जिनमें शेषशायी विष्णु की प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रस्तुत देव भवन में मुगल कला का प्रभाव भी दृष्यमान है। ताजमहल जैसी संगमरमर पर खुदाई तथा मुगलिया कला कि महराबें मंदिर की शोभा में अभिवृद्धि करती है।
यूं तो इस मंदिर में प्रतिदिन भक्तों की भारी भीड रहती है। परंतु प्रति पूर्णमासी को यहां मेला भरता है। वर्ष में तीन बहुत बडे मेले यहां लगते है। एक वैशाख पूर्णिमा को जो सबसे पुराना मेला है। दूसरा श्रावण मास की अमावस्या को जिसमें सबसे अधिक भीड़ रहती है। तीसरा मेला जल जूनी एकादशी अथवा श्रावण मास की इग्यारस को लगता है। ऐसे अवसरों पर कल्याण जी के दर्शन के लिए देश के कोने कोने से भक्त लोग आते है।
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