डायनेमो का आविष्कार किसने किया और डायनेमो का सिद्धांत Naeem Ahmad, July 28, 2022February 18, 2024 डायनेमो क्या है, डायनेमो कैसे बने, तथा डायनेमो का आविष्कार किसने किया अपने इस लेख के अंदर हम इन प्रश्नों के उत्तर जानेंगे। यह ठीक है कि रासायनिक द्रव्यों के उपयोग से बनी बैटरियों से हम बिजली पा सकते हैं और टॉर्च आदि में इसका उपयोग भी कर सकते हैं, पर फिर भी बिजली के हमारे सारे काम इससे चल नहीं सकते। अगर डायनेमो या विद्युत-उत्पादकों का जन्म न होता तो बिजली को वह महत्त्व कभी प्राप्त न हो सकता जो इस समय है। आज के समय बिजली मनुष्य जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। डायनेमो कैसे बन सके, यह समझने के लिए हमें ऑयर्स्टड (oersted ) के इस प्रयोग की ओर जाना पड़ेगा जो उसने 1819 में किया था। डायनेमो का आविष्कार किसने किया था कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के इस वैज्ञानिक ने यह दिखाया कि बिजली की धारा से चुम्बकीय प्रभाव उत्पन्न किए जा सकते हैं। हम यह जानते हैं कि कुतुबनुमा की सुई के पास यदि कोई चुम्बक लाया जाय तो सुई दायें-बायें हटने लगती हैं। पर यह कोई नयी बात नहीं क्योंकि कुतुबनुमा की सुई भी चुम्बक है, ओर एक चुम्बक तो दूसरे चुम्बक पर प्रभाव डाल ही सकता है। विचित्र बात ता ऑयर्स्टड ने यह देखी कि यदि बैटरी का तार जिसमें बिजली। की धारा बह रही हो, कुतुबनुमा के पास लाया जाय, तो भी चुम्बक की सुई दायें-बायें दक्षिणावर्त या वामावर्त घूमने लगती है। सुई का दक्षिणावर्त या वामावर्त घूमना इस बात पर निभर है कि तार में धारा किस दिशा में बह रही है, और तार कुतुबनुमा के ऊपर से जा रहा है अथवा नीचे से। इस प्रयोग से स्पष्ट हो गया कि बिजली जब तार में होकर बहती है तो उसके चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र भी उत्पन्न कर देती है। ऑयर्स्टड ने यह भी देखा कि जिस तार में बिजली बह रही है उसके पास यदि लोहे का हल्का चूरा रखा जाये तो वह खिंच कर तार से चिपक जायगा। पर ज्यों ही तार में धारा बहाना बन्द कर दिया जाय, लोहे का चूरा फिर छूट कर तार से अलग हो जायगा।क्रिप्टो करंसी में इंवेस्ट करें और अधिक लाभ पाएं यह प्रयोग थे तो साधारण, पर बड़े ही महत्त्वपूर्ण थे। विद्युत विज्ञान के विकास में इन्होंने बीज का काम किया। बड़े-बड़े विद्युत चुम्बक इस प्रयोग के आधार पर बने। धारा मापक ओर धारा सूचक यन्त्रों का इसने जन्म दिया जिन गेलवेनो मीटर ( धारा सूचक यन्त्र ), वोल्ट मीटर, एन्मीटर आदि कहते हैं। इन यंत्रों में घोड़े की नाल के आकार का चुम्बक रहता है। इसके सिरों के बीच की जगह में ताँबेंके तार की एक वेष्ठन या कुंडली ( कॉयल ) रखी होती है। तार के वेष्ठन में जैस ही बिजली की धारा बहती है, तार के वेष्ठन का एक पार्श्व उत्तरी ध्रुव ओर दूसरा पार्श्व दक्षिणी ध्रुव के समान व्यवहार करने लगता हैं। चुम्बक बनते ही यह कुंडली नाल चुम्बक की ओर खिंचने लगती है। वेष्ठन का संबंध एक लंबी सुई से भी होता है। वेष्ठन की गति से यह सुई भी दायें-बायें घूमने लगती है। सुई की गति देख कर हम यह जान लेते हैं कि वेष्ठन में धारा बह रही है या नहीं, और बह रही है तो कितने बोल्ट की है, या कितने एम्पीयर की है। तीनों बातें जनने के लिए तीन अलग अलग यंत्र बनते हैं, जिनमें वेष्ठनों का ही भेद है। जिस यंत्र से धारा के अस्तित्व की सूचना मिलती हैं उसे गैलवेनो मीटर कहते हैं। इतने सुकुमार गैलवेनो मीटर भी बनाए गए हैं जो सूक्ष्म से सूक्ष्म धारा भी बता सके। जिस यंत्र से हम यह नापते हैं कि बिजली किस दबाव पर आ रही है ( अर्थात् अवस्था-भेद कितना है ) उसे वोल्ट मीटर कहते हैं। कुल कितनी बिजली प्रति सेकंड तार में हो कर बह रही हैं यह जानने वाले यंत्र का नाम एम्मीटर या एम्पीयर मीटर है। एम्मीटर के वेष्ठन में तार के घेरों की संख्या बहुत कम होती है, ओर इसलिए इस तार की बाधा भी सापेक्षतः कम होती है। सीधी भाषा में आप समझ सकते है कि गैलनोमीटर, वोल्टमीटर ओर एम्मीटर बिजली के कारखाने के बाट-तराजू हैं।अकेले ऑयस्टड के काम ने डायनेमो का आविष्कार तो न कराया, पर विद्यत ओर चुम्बक में संबंध अवश्य स्थापित कर दिया। माइकल फैराडे ( faraday ) नामक प्रसिद्ध वेज्ञानिक को ऑयर्स्टड के प्रयोगों में विशेष रुचि थी। ऑयर्स्टड के प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया कि बिजली की धारा से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो सकते पर फेरेडे ने इस प्रश्न को उलट दिया। उसने सोचा कि क्या चुम्बकीय क्षेत्र से बिजली की धारा भी उत्पन्न हो सकती है ? दोनों में सम्बन्ध तो अवश्य है इस पर उसे विश्वास था। उसने 1831 में प्रयोग आरंभ किए। उसने तार के एक वेप्ठन के दोनों सिरे गैलवेनोमीटर से संयुक्त कर दिए। बाद को उसने देखा कि यदि वेष्ठन को नाल चुम्बक के ध्रुवों के बीच में स्थिर रखते है तब तो गेैलवेनोमीटर में बिजली की धारा के अस्तित्व का संकेत नहीं मिलता है, पर यदि कुंडली को थोड़ा सा आगे खींचा जाय तो इसमें बिजली की धारा क्षण भर के लिए पैदा हो जाती है। गैलवेनोमीटर को सुई एक ओर घूमने लगती है। अब यदि वेष्ठन पीछे की ओर खिसकायी जाये तो फिर धारा तार में पैदा होती है, पर अब की सुई दूसरी ओर घूमती है। जब तक वेष्ठन में गति है, तब तक ही इसमें धारा रहती है। यही प्रयोग दूसरी तरह भी कर सकते हैं। वेष्ठन को स्थिर रखा जाये, पर नाल-चुम्बक को आगे- पीछे हटाया जाये अच्छा तो यह होगा कि वेष्ठन के मध्य के भाग में एक सीधा चुम्बक अन्दर-बाहर खिसकाया जाये। जब तक चुम्बक में गति रहेगी, वेष्ठन में बिजली की धारा बहतीं रहेगी। इस प्रकार उत्पन्न धाराओं को उपपादित धारा ( इंडयूस्ड करेंट ) कहते हैं, क्योंकि चुम्बक द्वारा उत्पन्न किए गए आवेश से ये पैदा होती हैं । माइकल फेराडे के 1831 के इस आविष्कार ने उसका नाम अमर कर दिया। सन् 1931 में उसके इस आविष्कार की शताब्दी संसार में बड़ी धूमधाम से मनायी गयी थी। इस प्रयोग ने डायनेमो को जन्म दिया जिसका विवरण हम आगे देंगे। इसी के आधार पर इंडकशन कॉयल या उपपादन वेष्ठन बना जिससे हमें आवर्त्त धारायें (या उल्टी-सीधी धारायें) प्राप्त होती हैं। ए० सी० और डी० सी० डायनेमोयह हम कह चुके हैं कि कुंडली में तब तक ही आवेश धारा रहती है जब तक चुम्बक गतिमान रहता है। अब प्रश्न यह है कि धारा के प्रवाह को किस प्रकार स्थायी रूप दिया जाये। कोई ऐसी मशीन बननी चाहिए जिससे या तो चुम्बक बराबर चलाया जाता रहे अथवा कुंडली बराबर घुमायी जाती रहे। फेराडे ने यह समस्या सुलझानी आरम्भ की, उसने अपना सर्वप्रथम डायनेमो ताँबे के एक पहिये का नाल-चुम्बक के ध्रवों के बीच में घुमा कर बनाया। इसमें जो बिजली पैदा हुई उसे काम में लाने के लिए उसने धातु को दो कमानियाँ लगायीं– एक को पहिये की परिधि से लगाया ओर दूसरे को धुरी से। धारा कभी तो परिधि से धुरी को ओर बहती थी, ओर कभी घुरी से परिधि की ओर। पहिये के प्रत्येक पूरे चक्कर में धारा की दिशा इस प्रकार दो बार बदल जाती थी। डायनेमो सिद्धांतफैराडे का यह डायनेमो सिद्धांत की दृष्टि से तो ठीक था पर इसमें बिजली बहुत कम पैदा होती थी। ताबे के पहिये को फैरेडे ने अब डायनेमो से निकाल दिया ओर इसके स्थान पर उसने तार की कुंडली का समूह लगाया। इस कुंडली के समूह को आर्मेचर कहते हैं। बिजली के पंखों में तारों के जाल से गंथा हुआ आर्मेचर आपने देखा होगा। इस आर्मेचर को चुम्बक के उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच में जोर से घुमाया गया। कुंडली के प्रत्येक तार के दोनों सिरे धातु-पत्र के दो वलयों से सयुक्त थे। आर्मेचर में ऐसा प्रबन्ध होता है कि कोई तार एक दूसरे को न छुये। इस काम के लिए विद्युत-अत्ररोधक पदार्था का ( जेसे शेलक या लाख ) उपयोग करते हैं, ओर तार पर डारे भी लपटे होते हैं। ये तार आर्मेचर को धुरी से भी प्रथक रखे जाते हैं। प्रत्येक धातुवलय के साथ धातु की एक पत्ती भी लगी होती है जिसे ब्रश या बुरुश कहते हैं। यह पत्ती सब तारों से बिजली ग्रहण कर लेती है, ओर यहीं से बिजली आगे पहुँचती है। चाहे इसे रोशनी के बल्वों के लिए काम लाइए, या चाहे इससे पंखे चलाएं।हम कह चुके है कि आर्मेचर के एक पूरे चक्कर लगाने में बिजली की धारा की दिशा बदल जाती है। पहले आधे चक्कर में बिजली एक दिशा में घूमती है, ओर दूसरे आधे चक्कर में दूसरी ओर। डायनेमो में आर्मेचर प्रति मिनट सैकड़ों चक्कर लगाता है, इसलिए इससे उत्पन्न धारा प्रतिक्षण अपनी दिशा बदलती रहती है। ऐसे डायनेमो से उत्पन्न धारा को “उल्टी-सीधी धारा’ या प्रत्यावर्त धारा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे अलट्रनेटिंग करेंट या ए० सी० कहते हैं। सर्वदा एक ही दिशा में बहने वाली धारा को सीधी धारा या डायरेक्ट करेंट” कहते हैं। इसी का नाम डी०सी० है। कुछ शहरों के बिजली घर डी० सी० बिजली देते हैं ओर कुछ के ए० सी०। अगर आपके तारों में ए० सी० बिजली आ रही है तो आपको अधिक सावधान रहने की आवश्यकता होगी। भूल से यदि आपका हाथ ऐसे स्थान पर पड़ जाय जहाँ बिजली लीक हो रही है, तो आपका हाथ वहाँ चिपक जायगा। डी० सी० बिजली ऐसी स्थिति में केवल धक्का पहुँचाती है, अर्थात् ‘शॉक’ देती है। डायनेमो का सिद्धांतजो डायनेमो प्रत्यावर्त्तक धारा देते हैं उन्हें अल्टीनेटर या प्रत्यावर्तक कहते हैं। इसमें ही थोड़ा सा परिवर्तन करके ऐसा डायनेमो भी बनाया जा सकता है जो सीधी धारा (डी० सी० ) ही दे। सीधी धारा वाले डायनेमो में दो धातु वलयों के स्थान में एक ही धातु वलय होता है आर धातु वलय दो भागों में विभक्त रहता है। कुंडली के तारों का एक-एक सिरा वलय के एक-एक अर्ध भाग से संयुक्त रहता है। कुंडली के घुमते समय हर एक ब्रुश भी एक-एक अर्ध भाग पर लगी अलग-अलग पत्ती के संपर्क में आता है। कुंडली के आधे चक्कर में, मान लीजिए कि धारा ब्रुश-1 से लैंप की दिशा में बह रही है। दूसरे आधे चक्कर में धारा की दिशा बदल जायगी, पर अब ब्रुश -1 भी तो दूसरे अर्ध भाग पर लगी पत्ती पर आ जायगा, और इसलिये अब भी धारा ब्रुश-1 से लैंप की और ही बहती रहेगी। धारा ब्रुश-1 से निकल कर बल्ब में ओर वहां से ब्रुश-2 में होती हुई लौटकर अपना चक्कर पूरा कर डालेगी। डी० सी० जनरेटर या डायनेमो जिस सिद्धांत पर काम करते हैं, उनका यह संक्षिप्त सरल विवरण दिया गया है। वस्तुत: ए० सी० बिजली को डी० सी० बिजली में परिवर्तन करना इतना आसान नहीं है।जिन यंत्रों से यह काम संपन्न होता है उन्हें धारा परिवर्तक या कम्यूटेटर कहते हैं। आजकल डी० सी० बिजली के डायनेमो में आर्मेचर घूमता है और चुम्बक स्थायी रहता है। पर ए० सी० बिजली के डायनेमो में चुम्बक ( जिसे ‘रोटर कहते हैं ) धुमता है आर आर्मेचर ( जिसे ‘स्टेटर” कहते हैं ) स्थिर रहता है। डायरेक्ट करेंट ( डी० सी०) के डायनेमो तो अपनी ही बिजली से चुम्बकों को जीवन प्रदान करते हैं, पर ए० सी० डायनेमो के चुम्बक अपना चुम्बकत्व उत्पन्न करने के लिए किसी दूसरे डी० सी० डायनेमो से ही बिजली ले सकते हैं। इस काम के लिए जिस डायनेमो का उपयोग ए० सी० बिजलीघरों में किया जाता है उसे एक्साइटर कहते हैं। अब प्रश्न यह् है कि ए० सी० या डी० सी० बिजली पैदा करने के लिये आर्मेचर को जोरों से घुमाने की आवश्यकता पड़ेगी पर यह काम कैसे किया जाये?। हम भाप से चलने वाले अथवा पानी के प्रवाह से घूमने वाले चक्र-यंत्र ( टरबाइन ) का उल्लेख अपने पिछले लेखों में कर चुके हैं। अतः पानी या भाप से बिजली पैदा करने का अर्थ यही है कि इनकी गति से डायनेमो के आर्मेचर घुमेंगे ओर इन आर्मेचरों के चुम्बकीय क्षेत्र में घूमने पर बिजली पैदा होगी। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=”8586″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like 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