टेसू और झेंझी की कहानी – टेसू और झेंझी का इतिहास Naeem Ahmad, November 12, 2023 यह बात तो भारत ही क्या भारत से बाहर के देशों में भी विख्यात है कि भारत एक त्यौहारों और खुशियों का देश है। भारत में वर्ष भर शायद ही कोई ऐसा दिन हो जिस दिन भारत के किसी कोने में कोई न कोई त्यौहार न हो। कुछ त्यौहार जैसे होली, दीपावली, ईद, लोहड़ी, क्रिसमस, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, आदि की गणना प्रमुख त्यौहारों में होती है, वहीं पर कुछ त्यौहार ऐसे भी होते हैं, जो समुदाय विशेष या क्षेत्र विशेष में अधिक प्रचलित होते हैं। जैसे तमिलनाडु का पोंगल और केरल का ओणम आदि। इसी तरह से किन्नर समुदाय का कओवगम तमिलनाडु में मनाया जाने वाला त्यौहार, कामख्या जी असम में तांत्रिक समुदाय का लगने वाला अंबुवाची मेला एक विशेष समुदाय के त्यौहारों के स्पष्ट उदाहरण है। त्यौहारों की बात हो और ब्रज का नाम न आएं ऐसा तो शायद संभव हो। ब्रज क्षेत्र के नागरिक तो स्वभाव से ही हंसमुख होते हैं। उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि दुख क्या है वह जानते ही नहीं। किंतु सत्य यह है कि दुख और सुख हर जगह विद्धमान है। ब्रज के लोग खुश रहने के छोटे से छोटे अव्यव को भी नहीं छोड़ते और फिर यदि कोई कहानी या लीला उनके प्रिय ईष्ट कान्हा से जुड़ी हो तो वह भला उसको कैसे छोड़ सकते हैं। ऐसी ही कुछ कहानी, कथानकों से निर्मित है टेसू और झेंझी के विवाह का त्योहार। टेसू और झेंझी के विवाह की अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग कहानियां प्रचलित है। किंतु रीतियां हर क्षेत्र में एक समान है। कहने को तो टेसू और झेंझी के विवाह के इस त्यौहार को किशोर और किशोरियों के त्योहार के रूप में देखा जाता है। किंतु जिस क्षेत्र में इसे मनाया जाता है, वहां के सभी नागरिक बच्चे बुढ़े और जवान समान रूप से शामिल होते हैं। बस अंतर इतना है कोई कम समय देता है कोई ज्यादा। यह त्यौहार वैसे तो ब्रज का ही मुख्य त्यौहार है, किंतु ब्रज क्षेत्र ने धीरे धीरे इसकी भव्यता खो दी है। धन्य है बुंदेलखंड और इटावा की धरती जिसने आज भी विरासत के रूप में इस त्यौहार को संभाल रखा है। समय के साथ साथ शहरी क्षेत्र तो लगभग इस त्यौहार को भूल ही गया है। किंतु बुंदेलखंड के गांवों में रक्षाबंधन के बाद से ही टेसू और झेंझी के गीत के स्वर गूंजने लगते है। बेटे टेसू और बेटियां झेंझी की तैयारी करने लगते हैं। Contents1 टेसू और झेंझी का इतिहास1.1 टेसू और झेंझी कहां मनाया जाता है?1.2 कब मनाया जाता है?1.3 कैसे मनाया जाता है?1.4 टेसू क्या है?1.5 झेंझी क्या है?2 टेसू और झेंझी की कहानी3 हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:— टेसू और झेंझी का इतिहास रंग बिरंगे टेसू के साथ बाल मन का उत्साह और अपने अपने टेसू को संभालना सजाना, घर घर जाकर टेसू के गीत गाकर, टेसू की शादी के लिए चंदा इकट्ठा करना और फिर कितना मिला हिसाब-किताब रखना कितने कठिन कार्य हो जाते हैं टेसू के दिनों में। बेटियां भी अपनी झेंझी को सजाकर मुकुट पहनाती है और घर के आंगन में जाकर नाच गा कर झेंझी की शादी के लिए चंदा इकट्ठा करती है। उनके लिए सबसे कठिन कार्य है कि कोई लड़का टेसू और झेंझी की शादी से पहले उनकी झेंझी रानी का मुंह न देख ले। टेसू और झेंझी बहुत विचार किया क्यों मनाया जाता होगा यह त्यौहार?। क्या बोध डालता होगा बाल मन पर?। क्या मात्र किस्से कहानियों को जीवित रखने के लिए या फिर कुछ और बात है?। शायद इससे भारतीय संस्कृति के द्वारा पोषित शादियों की झलक बालमन पर अंकित करने का सुगम रास्ता खोजा गया?। इसके अलावा इसमें हस्तकला, चित्रकला, गायन-वादन, नृत्य, पाक कला, धन संग्रह आदि का भी समावेश है। जो कि बालमन और किशोरों को समाजिक ज्ञान देता है। टेसू और झेंझी के विवाह का यह त्यौहार समाज के लिए आवश्यक कई रीतियों का निर्वाह करता है। बालमन पर अनूकूल प्रभाव हेतू अपने बच्चों को टेसू और झेंझी फेस्टिवल मनाने के लिए अवश्य प्रेरित करना चाहिए। टेसू और झेंझी कहां मनाया जाता है? टेसू और झेंझी का त्योहार मूलत: ब्रज मंडल का त्योहार है। किंतु अब यह बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्र, इटावा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र, फिरोजाबाद आदि क्षेत्रों में प्रमुखता से मनाया जाता है। कब मनाया जाता है? पूर्व में यह त्यौहार रक्षाबंधन से प्रारंभ होकर क्वार मांस की पूर्णिमा तक चलता था। किंतु समयाभाव के कारण अब यह त्यौहार विजयदशमी से प्रारंभ होकर क्वार मास की पूर्णिमा तक मनाया जाता है। कैसे मनाया जाता है? पूर्व में यह त्यौहार जब डेढ़ महीने चलता था, तब किशोर अपने हाथों से टेसू तैयार करते थे और किशोरियां झेंझी। किशोरों का एक माह तो टेसू को बनाने और रंग-रोगन में निकल जाता था। किंतु किशोरियां अपनी झेंझी तैयार करने के बाद भी शाम को एक चौकोर खाने में गेंहू के आटे से सूरज, चंद्रमा, तरैया बनाकर गीत गाने का समय निकाल ही लेती थी। किशोरियां दिन में झेंझी की शादी के लिए गोबर के उपले भी तैयार करती थी। गीत गाते हुए अपने द्वारा बनाए चौक को फूल आदि से सजाना भी किशोरियों का काम था। कहीं कहीं दीवार पर भी एक झेंझी राजकुमारी की आकृति भी उकेरीं जाती थी। किंतु समय के साथ साथ यह प्रथाएं बंद हो गई। टेसू और झेंझी के निर्माण का काम कुम्हारों के हाथ में आ गया जोकि आज भी अनवरत चल रहा है। टेसू क्या है? एक तीन लकड़ियों पर बनी मानव आकृति जोकि पुरातन महाराज से मेल खाती हो को टेसू कहते हैं। टेसू को तरह तरह से सजाया जाता है। सबसे आवश्यक यह है कि टेसू के पास एक पटुका नुमा कपडा अवश्य होना चाहिए। एंव बीच में एक दीया रखने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। लकड़ियों के बीच से इस प्रकार बांधा जाता है कि उनके नीचे के भाग में दो पैर और एक टेकुआ ( जिस से टेसू खड़ा हो सके) बनाया जाता है। और ऊपर के भाग में एक लकड़ी पर सर और दोनों बाजू बनाएं जातें हैं। बीच में मिट्टी का दीपक रखने का स्थान बनाया जाता है। झेंझी क्या है? एक कच्ची पटकी में छेंद करके झेंझी की आंख, नाक, मुंह बनाया जाता है, और उसे रंगों द्वारा एक सुंदर लड़की का रूप दिया जाता है। इसके अलावा झेंझी के आगे पीछे तक की जगह छेंद बनाएं जातें हैं जिससे उसमें हवा का आवागमन बना रहे। उसके उपरांत झेंझी को एक मुकुट भी लगाया जाता है। फिर उस सजी हुई झेंझी के अंदर बालू डालकर एक जलता हुआ दीपक रखा जाता है। ऊपर से मिट्टी के ही सजे हुए सकोरे से झेंझी को ढांक दिया जाता है। किशोरियां झेंझी को किसी डब्बे या बर्तन में कपड़े से ढककर इस प्रकार रखती है कि कोई उसकी झेंझी को देख न ले। दशहरे के दिन कुम्हार के यहां से किशोर टेसू और किशोरियां झेंझी खरीदती है। उसके उपरांत शाम होते ही यह अपना अपना समूह बनाकर मोहल्ले पड़ोस के घरों में टेसू और झेंझी की शादी के लिए चंदा इकट्ठा करने निकल पड़ते हैं। विशेष बात यह है कि किशोर अपने टेसू को लेकर किसी के घर के अंदर नहीं जा सकते। उनको दरवाजे के बाहर से ही चंदा मांगना पड़ेगा। किंतु किशोरियां किसी भी घर के आंगन में अपनी झेंझी के साथ जा सकती है। टेसू अटर करै, टेसू मटर करै, टेसू ले कि टरे, जैसी काव्यमयी आवाज से किशोर अपने आने की सूचना घर वालों के देते हैं। घर के सदस्य आने के बाद उनसे टेसू के गीत सुनते है और फिर चंदे के रूप में धन, आटा, तेल, घी देते हैं। फिर किशोरों का समूह अगले घर की ओर चला जाता है। इसी प्रकार किशोरियां भी “अड़ता रहा टेसू, नाचती रही झेंझी, हम लेने आये दामडिया, नाच मेरी झेंझरिया” गाकर घर के आंगन में जाकर चंदे की मांग करती है। उस घर की महिलाएं उनसे झेंझी के गीत गाने, नाचने को कहती हैं। और मनोरथ पूरा होने पर धन, आटा चावल, घी तेल देती है। यही क्रम चतुर्दशी तक चलता है। फिर आती है पूर्णिमा यानी टेसू और झेंझी की शादी की रात। कहीं कहीं पर तो टेसू और झेंझी की शादी वास्तविक शादी से भी अधिक धूमधाम से मनाई जाती है। जिसमें इन बच्चों के साथ इनके माता-पिता दादा-दादी परिवारजन कहने का मतलब है कि सभी एकत्र होते हैं। महिलाएं भोजन बनाती है, जिसमें किशोरियां भी बराबर का साथ देती है। और पुरुष समाज किशोरों के साथ साज सजावट का कार्य देखते हैं। इस शादी को देखने के लिए कभी-कभी दूसरे गांवों के लोग भी एकत्रित होते हैं कि इसके यहां अच्छी शादी हुई। कहीं कहीं टेसू और झेंझी का यह खेल नवमी से पूर्णमासी तक खेला जाता है। 16 दिन तक किशोरियां गोबर या मिट्टी से चांद तरैया सांझी (झेंझी) माता बनाकर पूजती है। नवमी को सुअटा की प्रतिमा बनाती है। हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार लड़के थाली चम्मच बजाकर टेसू की बरात निकालते हैं। वहीं लड़कियां भी शरमाती सकुचाती हुई झिझंया रानी को विवाह मंडप में ले आती है। फिर शुरू होता है ढोल की थाप पर मंगल गीतों के साथ टेसू और झेंझी का विवाह। सात फेरे पूरे भी नहीं हो पाते और लड़के टेसू का सिर धड़ से अलग कर देते हैं, वही झेंझी भी पति वियोग में सती हो जाती है। चौक पूर कर वेदी बनाकर पंडित और नाई की उपस्थिति में मंत्रोच्चार के बीच टेसू झेंझी का विवाह सम्पन्न होता है। इससे पहले नाई दावत और कन्यादान का बुलावा भी देता है। कुछ धार्मिक लोग झेंझी को बेटी मानकर कन्यादान भी करते हैं। दावत के साथ ही टेसू और झेंझी का विवाह सम्पन्न हो जाता है। खील बताशे और रेवड़ियां बांटी जाती हैं। शादी के समय गाएं जाने वाले लोक गीत भी गाए जाते हैं। सुबह को टेसू और झेंझी को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। टेसू और झेंझी की कहानी टेसू और झेंझी के संबंध में कई कहानियां समाज में प्रचलित है। जिनका हम नीचे उल्लेख करते हैं:– प्रथम कथा:– इटावा के आसपास में यह कहानी प्रचलित है कि हिडिंबा और भीम के विवाह के उपरांत एक पुत्र घटोत्कच उत्पन्न हुआ, जिसके पुत्र का नाम राजा टेसू या बब्रावाहन था। जनश्रुति के अनुसार महाभारत में श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र द्वारा राजा टेसू या बब्रावाहन का वध कर दिया। जब भीम को पता चला कि टेसू मेरा नाती है, तो भीम के कहने पर श्रीकृष्ण ने टेसू को पुनर्जीवित कर दिया। और वरदान दिया कि तुम्हारी शादी के बाद ही ओरों की शादी होगी। इसीलिए इसको टिसुयारी पूनो भी कहा जाता है। इसी तिथि के बाद शादी ब्याह के शुभ कार्य आरंभ होते हैं। द्वितीय कथा:– माना जाता है कि टेसू का आरंभ महाभारत काल से ही हो गया था। कहां जाता है कि कुन्ती को विवाह से पूर्व ही दो पुत्र उत्पन्न हुए थे, जिसमें पहला पुत्र बब्रावाहन था, जिसे कुन्ती जंगल में छोड़ आई थी। वह बड़ा विलक्षण बालक था। वह पैदा होते ही सामान्य बाल से दुगनी रफ्तार से बढ़ने लगा और कुछ सालों बाद तो उसने बहुत ही उपद्रव करना शुरू कर दिया। पांडव उससे बहुत परेशान रहने लगे तो सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि वह उन्हें बब्रावाहन के आतंक से बचाएं। तो भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन काट दी। परंतु बब्रावाहन तो अमृत पी गया था तो वह मरा नहीं। तब श्रीकृष्ण ने उसके सर को छेकूर के पेड़ पर रख दिया। लेकिन फिर भी बब्रावाहन शांत नहीं हुआ तो श्री कृष्ण ने अपनी माया से सांझी (झेंझी) को उत्पन्न किया और टेसू से उसका विवाह कराया। तृतीय कथा:– इस कथा के अनुसार बब्रावाहन, भीमसेन का किसी राक्षसी से उत्पन्न पुत्र था, जिसे घटोत्कच भी कहा गया है। यह परमवीर और दानी पुरुष था। उसकी यह आन थी कि वह हमेशा युद्ध में हारने वाले राजा की ओर से लड़ता था। जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो कृष्ण यह जानते थे कि बब्रावाहन कौरवों की ओर मिल गया तो पांडव युद्ध कभी नहीं जीत पाएंगे। इसीलिए एक दिन ब्राह्मण का वेश धरकर बब्रावाहन के पास गए और उससे उसका परिचय मांगा। तब बब्रावाहन कहने लगा कि वह बड़ा भारी योद्धा और दानवीर है। तो श्री कृष्ण ने कहा यदि तुम ऐसे ही महादानी हो तो अपना सिर काटकर दे दो, तब बब्बरावाहन ने अपना सिर काटकर श्रीकृष्ण को दे दिया। परंतु यह वचन मांगा कि वह उसके सर को ऐसी जगह रखेंगे जहां से वह महाभारत का युद्ध देख सके। श्रीकृष्ण ने बब्बरावाहन को दिए वचन के अनुसार उसका सिर छेकुर के पेड़ पर रख दिया, जहां से युद्ध का मैदान दिखता था। परंतु जब भी कौरवों और पांडवों की सेनाएं युद्ध के लिए पास में आती थी, तो बब्बरावाहन का सिर यह सोचकर कि हाय कैसे कैसे योद्धा मैदान में हैं, पर मैं इनसे न लड़ सका, जो से हंसता था। कहते हैं कि उसकी हंसी से डरकर दोनों सेनाएं मिलों तक पीछे हट जाया करती थी। इस प्रकार यह युद्ध कभी भी न हो पायेगा यह सोचकर श्रीकृष्ण ने जिस डाल पर सिर रखा हुआ था, उसमें दीमक लगा दी। दीमक के कारण सिर नीचे गिर पड़ा और उसका मुख दूसरी ओर होने के कारण उसे युद्ध दिखाई देना बंद हो गया। तब कहीं जाकर महाभारत का युद्ध आरम्भ हो सका। चतुर्थ कथा:– बहुत साल पहले किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। परिवार में लगभग साठ सत्तर व्यक्ति थे, जो सभी प्रकार से सम्पन्न थे। इनमें से छोटे भाई की पत्नी मर चुकी थी, उसे बड़े भाइयों की पत्नियां बहुत परेशान करती थी। इससे दुखी हो कर वह अपनी पुत्री को लेकर दूसरे गांव चला गया। यह गांव जंगल के किनारे एक सुंदर गांव था। उस जंगल में एक राक्षस रहता था। ब्राह्मण की रूपवान कन्या जब एक दिन पानी भरने गई तब उस राक्षस ने उसे देख लिया और उस पर मोहित हो गया। उसने लड़की से उसका परिचय लिया और उसके पिता से मिलने की ईच्छा प्रकट की तब लड़की ने कहा कि उसके पिता शाम के समय घर रहते हैं, राक्षस शाम को ब्राह्मण से मिलने गया। ब्राह्मण बहुत घबराया उसने सोचा राक्षस मना करने पर मानने वाला नहीं इससे उसने कहा कि विवाह तो हो जाएगा परंतु कुछ रस्में पूरी करनी पड़ेगी, इसलिए सोलह दिन का समय लगेगा। इस बीच ब्राह्मण ने अपने परिवार के लोगों को सहायता के लिए बुलाने का पत्र लिख दिया। क्वार माह के यह सोलह दिन सोलह श्राद्ध के दिन माने जाते हैं। और इन दोनों ब्राह्मण की लड़की जो खेल गोबर की थपलियो से खेली वह सांझी या तरैया कहलाया, और तभी से सांझी खेलने की परम्परा का आरंभ हुआ। सोलह दिन बीतने पर राक्षस आया परंतु ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं पहुंच पाए। इसलिए उसने फिर बहाना किया कि उसकी लड़की अब नौ दिन मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी। राक्षस नौ दिन बाद फिर आने की कहकर चला गया। तभी से यह नौ दिन नौराता कहलाएं और इन दिनों सुअटा खेलने की प्रथा शुरू हुई। नौ दिन भी खत्म हो गए इस पर ब्राह्मण ने उससे कहा अब केवल आखिरी रात रह गई है। अब पांच दिन तुम और मेरी बेटी घर घर भीख मांगेंगे तब शरद पूर्णिमा के दिन तुम्हारी शादी हो सकेगी। राक्षस इस बात के लिए भी मान गया और तभी से दशहरे से पूर्णिमा तक उस राक्षस के नाम टेसू और ब्राह्मण की लड़की झेंझी मांगने की प्रथा का आरंभ हुआ। इस प्रकार जब भीख मांगते पांच दिन बीत गए और ब्राह्मण के परिवार के लोग नहीं आएं तो ब्राह्मण निराश हो गया। उसे अपनी पुत्री का विवाह राक्षस से करने के अलावा और कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो शरद पूर्णिमा के दिन उसने विवाह निश्चित कर दिया। लेकिन अभी विवाह के साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे, कि ब्राह्मण के परिवार के लोग आ गए, और उन्होंने उस राक्षस को मार डाला। चूंकि उनकी लड़की का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था इसलिए उसे भ्रष्ट मानकर उन्होंने उसे भी मार डाला। इसलिए टेसू और झेंझी का विवाह पूरा नहीं होने दिया जाता है, उन्हें बीच में ही फोड़ दिया जाता है। ब्राह्मण के भाईयों ने ब्राह्मण को भी मार डाला। इसलिए नौराता में मिट्टी के गौर बनाकर खेले जाने वाले सुअटा टेसू के विवाह के बाद उस ब्राह्मण पिता के प्रतीक सुअटा के रूप में फोड़ दिया जाता है। हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:— ओणम पर्व की रोचक तथ्य और फेस्टिवल की जानकारी हिन्दी में विशु पर्व, केरल के प्रसिद्ध त्योहार की रोचक जानकारी हिन्दी में थेय्यम 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