टेलीविजन का आविष्कार किसी एक व्यक्ति द्वारा एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि इसका विकास अनेक वैज्ञानिकों के वर्षो के प्रयास का परिणाम है। लेकिन फिर भी सफल टेलीविजन के आविष्कार का श्रेय एक स्काटिश पादरी युवकजॉन लोगी बेयर्ड को जाता है।
उन्होंने 26-27 जनवरी सन् 1926 में संसार के पहले सफल टेलीविजन का प्रदर्शन किया। इससे पहले इस दिशा में किए गए प्रयासों को भुलाया नही जा सकता।
1842 में अलेक्ज़ेंडर बेन नाम के एक अन्य स्कॉटिश वैज्ञानिक ने विद्युत-तार से चित्र प्रेषित करने के लिए एक यंत्र बनाया था। इस यंत्र को बाद में बेवल ने विकसित किया। इसके बाद एकजर्मन भौतिकशास्त्री आथर कोन ने विद्युत रसायन के स्थान पर प्रकाश विद्युत प्रभाव का इस्तेमाल कर इसे और परिष्कृत किया।
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टेलीविजन का आविष्कार किसने किया
टेलीविजन के लिए सबसे बडी समस्या स्केनिंग यानी
सक्ष्मावलोकन की थी। इसका समाधान कुछ अंश तक बर्लिन विश्वविद्यालय के पाल निकोव नामक युवक ने करने का प्रयास किया। स्केनिंग ओर उसे फिर से वास्तविक रूप में सज्जीकरण के लिए उन्होने गत्ते का डिस्क लिया और उस पर छोटे-छाटे सूराखों को इस प्रकार व्यवस्थित किया कि वे इसकी कोर (core) के पास एक सर्पिल वृत्त बना सके। एक विशेष प्रकार के केमरे मे इस डिस्क को लगाया। इस केमरे के सामने किसी हरकत करती वस्तु पर छिद्रित डिस्क के घूमने से केमरे में लगे एक तेज रोशनी वाले लेम्प से प्रकाश किरण निकलकर वस्तु या दृश्य पर पडती थी। इस प्रक्रम से वह वस्तु छोटे-छोटे बिन्दुओं में बट जाती थी।
छिद्रों का आकार डिस्क पर सर्पिल रूप में हाने से वस्तु का सूक्ष्मवलोकन डिस्क की एक ही परिक्रमा में हो जाता था। एक प्रकाश संवेदी (Light sensetive) सेल जो बैटरी से जुडा होता था ओर जिसका सबंध रिसीवर से होता था, इस वस्तु या दृश्य को विद्युत संवेगो मे बदल कर लगातार प्रेषित करता रहता था। एक दूसरे छिद्रित डिस्क मे सर्पिल वृत्त मे बने सूराखों के सहारे तेज और मंद प्रकाश के असंख्य बिन्दुओं के सम्मिलन से पूरा दृश्य फिर से निर्मित हो जाता था, लेकिन निकोय इसे अधिक विकसित नहीं कर पाए, क्योंकि इसमें तकनीकी बाधाएं बहुत थी।
इसी बीच टेलीविजन के दो बुनियादी यंत्रो का विकास हुआ। स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय क प्रोफेसर फर्डिनाड ब्राउन ने क्रक्स की कैथोड-ट्यूब में संशोधन किया। उन्होंने ट्यूब के चौडे सिरे वाले भाग पर चमकीले इमल्शन का लेप करके कैथोड से निकलने वाले इलेक्ट्रॉन के प्रवाह को दिखने योग्य बना दिया। वे इस नली का उपयोग ओसिलोस्कोप’ (दोलनमापी) के रूप में करत थे।
दूसरा यंत्र था ‘प्रकाश विद्युत सेल। इसका आविष्कार 1905 में जर्मनी के जूलियस एल्स्टर आर हार्स गाइटेल ने किया। सन् 1909 मे म्यूनिख के एक इंजीनियर मैक्स दाइकमान ने भी कैथोड किरणों के माध्यम से एक छोटा-सा मॉडल बनाया जो छाया चित्रा का प्रेषण कर सकता था।
बेयर्ड ने इन सभी प्रयासों से पर्याप्त लाभ उठाया ओर सन् 1925 मे उन्हें अपने टेलीविजन मॉडल से एक मनुष्य की आकृति को एक कमरे से दूसरे कमरे में प्रेषित करन मे सफलता मिली। बेयर्ड ने अपने मॉडल में निकोव द्वारा प्रयुक्त छिद्रित डिस्क का उपयोग किया था। बेयर्ड ने अपने मॉडल द्वारा प्रषित चित्र को और साफ सुथरा बनाने के लिए बेतार द्वारा प्रेषण का क्षेत्र बढाने के प्रयास किए। बेयर्ड द्वारा निर्मित टेलीविजन सेट का प्रायोगिक प्रेषणबी बी सी से सन् 1929 में शुरू किया गया।

इन्हीं दिनों अमेरीकी प्रयोगशालाओं में भी टेलीविजन की इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली को बहुत अधिक विकसित कर लिया गया। यहां के वैज्ञानिक फिलो टी फान्सवर्थ, आर डॉ वीक ज्यारिकिन ने इस क्षेत्र में बड़े असाधारण कार्य किए। 1928 में ज्योरिकिन ने टेलीविजन के आधारभूत साधन ‘आइकानोस्कोप” बनाया। यह एक बिल्कुल नयी इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली का नियोजन था, जिसे निकोब डिस्क ओर ब्राउन नली के स्थान पर लगाया गया। टेलीविजन बिम्बो को शीघ्र ओर कुशलता से प्रेषित करने में यह एक क्रांतिकारी विकास था जो आज भी टेलीविजन का आधारभूत साधन बना हुआ है।
टीवी सेट के अंदर एक कैथोड नलिका होती है, जिसमें चार्ड सिर के भीतरी भाग में प्रतिदीप्त जिंकसन्फाइड का लेप होता है। यही टीवी का स्क्रीन कहलाता है। जब इलेक्ट्रॉन गन से निकलने वाले इलेक्ट्रॉन स्क्रीन पर पड़ते हैं, तो यह स्क्रीन चमक उठती है। यह विशेष पदार्थ पूरे स्क्रीन पर छाटे-छोटे कणों के रूप में फैला होता
है। इन कणों में उसी मात्रा में प्रकाश के स्फुर्लिंग निकलते रहते हैं जिस अनुपात में उस पर इलेक्ट्रॉनटकराते हैं। जिस प्रकार से इलेक्ट्रॉन गन टी वी कमरा मे क्रमवीक्षण करता है उसी तरह कैथोड-किरण ट्यूब तेज रफ्तार सम इलेक्ट्रोनों को दाएं बाएं शूट करती रहती है और स्क्रीन पर हरकत करते चित्र दिखाई देते रहते
है।
टी वी प्रसारण केन्द्र में एक खास किस्म के कमरे से पर्दे पर वह दृश्य डाला जाता है जिसे प्रसारित करना होता है। यह स्क्रीन लाखो छोटे-छोटे कणों से निर्मित होता है। इन कणों को अभ्रक पट्टी के एक तरफ जमा दिया जाता है। इन कणों आकार इंच के हजारवें भाग के बराबर होता है। आसपास के कण एक दूसरे से विद्युत रूप से पृथक पृथक होते है। इन कणों में प्रकाश की क्रिया तेजी और बहुलता से होती है। इन कणों पर जब प्रकाश डाला जाता है, तो इनमे से इलेक्ट्रॉन-कण निकलने लगते है। इन इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रकाश की मात्रा पर निर्भर करती है। कैमरे के दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉन-गन की व्यवस्था होती है, जो इलेक्ट्रॉन- कणों का स्रोत होती है। इलेक्ट्रोन-गन मे से निकलने वाली इलेक्टॉन बीम दाए-बाए और ऊपर नीचे क्रम से घुमायी जाती है। यह क्रम-वीक्षण (Scanning) कहलाती है। इन इलेक्ट्रॉन कणों की सख्या के अनुरूप विद्युत-धारा उत्पन्न होती है, जो नन्हें-नन्हें पुंजो की शक्ल में होती है। विद्युत-धारा के इन पुंजो को एम्प्लीफायर द्वारा प्रवर्धित (Amplified) किया जाता है। उसके बाद इन्हे प्रसारित करन के लिए रेडियो-तरंगो पर सवार कर दिया जाता है। एंटिना के माध्यम से टेलीविजन सेट मे पहुंचने पर ये तरंगे पुन दृश्य रूप कसे पाती है, यह पहले बतलाया जा चुका है।
रंगीन टेलीविजन का आविष्कार
टेलीविजन के स्क्रीन पर विद्युत-पुंजो को पृथक करके उसी क्रम मे ऊपर-नीचे दाए-बाए घुमाया जाता है, जिस क्रम में प्रसारण केन्द्र में घुमाया गया था। तभी दृश्य उभरता हैं। रंगीन टेलीविजन में दृश्य तीन मूल रंगों के मेल से बनता है-लाल, नीला और हरा। दृश्य को इन्ही तीन रंगों के खण्डो में विभाजित किया जाता है। तीनो मूल रंगों के हिस्से तीन अलग-अलग कैमरो के स्क्रीन पर डाले जाते हैं। ये तीनो कैमरे रंगो के अनुरूप विद्युत-धाराओं के तीन क्रम उत्पन्न करते है। फिर ये स्व॒तंत्र रूप सेरेडियो तरंगो के ऊपर सवार करके प्रसारित कर दिए जाते है।
रंगीन टेलीविजन सेट मे अलग-अलग रंगो के लिए तीन इलेक्ट्रॉन-गने होती हैं। ये गन विद्युत-धारा में से अपने क्रम वाली तरंगे चुनकर उन्हे इलेक्ट्रॉन-पुंजो के रूप में स्क्रीन पर एक साथ प्रक्षेपित करती है। तीन पंक्तियों में से प्रत्येक पंक्ति के कण अलग अलग रंगो का प्रकाश स्क्रीन पर डालते है। तीनों रंगो के मेल से स्क्रीन पर रंगीन दृश्य उभर आता है।
टेलीविजन प्रसारण प्राणली
टेलीविजन प्रसारण का क्षेत्र बढाने के लिए आजकल दो प्रणालियां अधिकतर अपनायी जा रही है। पहली माइक्रोवेव प्रणाली तथा दूसरी संचार उपग्रह प्रणाली। माइक्रोवेव प्रणाली द्वारा टेलीविजन के कार्यक्रम प्रसारित करने की संक्षिप्त कार्य प्रणाली इस प्रकार है- जिस कार्यक्रम को टेलीवजन पर दिखाना होता है, वहां से चित्र और आवाज की तरंग माइक्रोवेव डिस्क द्वारा टेलीविजन सेट में भेजी जाती है। केन्द्र पर लगी दूसरी माइक्रोवेव डिस्क उन्हें ग्रहण करती है। टेलीविजन केन्द्र के टावर से ये तरंगे मास्टर स्विचिंग रूम (एम एस आर ) में पहुंचती है।
यदि कार्यक्रम का अन्य केन्द्रो से भी रिल करना हो तो ये तरंग एम एस आर से कोएक्सियल केबल जो जमीन के अंदर बिछी होती है उसके द्वारा पोस्ट एड टेलीग्राफ के माइक्रोवेव में पहुंचती है। फिर माइक्रोवेब डिस्क के जरिए इन्हें दूसरे केन्द्र तक भेजा जाता है। एक केन्द्र से दूसरे के मध्य में हर सौ किलोमीटर पर एक रिपीटर
स्टेशन होता है। ये रिपीटर स्टेशन तरंगो को आगे बढाते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर बम्बई से दिल्ली के टेलीविजन केन्द्र तक 26 रिपीटर स्टेशन है। यदि बम्बई से कोई कार्यक्रम दिल्ली के लिए प्रसारित किया जाता है, तो तरंगे एक के बाद एक इन्ही रिपीटर
स्टेशनों से होती हुई दिल्ली केन्द्र तक पहुंचती है। दूसरे केंद्र के एम एस आर पर पहुंचकर ये तरंगे टेलीविजन सिस्टम से होती हुई टेलीविजन सेट तक पहुंचती है।

सेटेलाइट द्वारा टेलीविजन कार्यक्रम प्रसारित करने के लिए जिस स्थान का कार्यक्रम दिखाना होता है, वहां भी माइक्रोवेव डिस्क की व्यवस्था की जाती है। उदाहरण के तौर पर यदि दिल्ली के किसी कार्यक्रम को विदेश अथवा बहुत दूर के शहर में प्रसारित करना हो तो दिल्ली के ओबी स्पॉट से माइक्रीवेव डिस्क द्वारा दिल्ली टेलीविजन से एम एस आर की ओर तरंगे भेजी जाती हैं। वहा से उन्हें जमीन के अंदर कोएक्सियल केबल के माध्यम से दिल्ली के विदेश संचार भवन में भेजा जाता है। उसके पश्चात उन्हे माइक्रोवेव डिस्क के माध्यम से देहरादून में लगे अर्थ स्टेशन की ओर भेजा जाता है। वहा स्थित पराबोलायड एटिना के माध्यम से आकाश में स्थित सैटेलाइट की ओर तरंगे भेजी जाती हैं। उसके बाद सेटेलाइट से इन तरंगो को उस देश का संचार माध्यम प्राप्त कर शेष पूर्वविधि से उसे अपने टेलीविजन केन्द्रों से प्रसारित करने की व्यवस्था कर लेता है। हमारे देश मे इन दोनों ही संचार प्रणालियो का उपयोग टेलीविजन के कार्यक्रम सारे देश में प्रसारित करने के लिए किया जा रहा है।
टीवी में क्रातिकारी विकास
वैज्ञानिकों ने एक नयी तरह की विधि का भी विकास किया है। एक विशेष प्रकार के एंटिना का निर्माण किया गया ह, जो विश्व के किसी भी स्थान से किसी भी संचार उपग्रह से सिग्नलों को ग्रहण करके सीधे टेलीविजन स्क्रीन पर दिखा सकता है। इस विधि से आप विश्व के किसी भी देश में हो रहे टेलीविजन कार्यक्रम को देख सकते है।
एक ओर नए तरह का टेलीविजन सेट विकसित किया गया है, जो एक साथ दो कार्यक्रम टेलीविजन स्क्रीन पर प्रेषित करता है। टी वी के बडे स्क्रीन के मध्य मे नीचे की ओर एक छोटा-सा स्क्रीन होता है, जिस पर अलग से कार्यक्रम आता है। यदि कोइ रोचक कार्यक्रम देखने के साथ-साथ आप उस दिन चलने वाले क्रिकेट मेच का भी आनद लेना चाहे तो इस प्रकार का टी वी हाजिर है। दो कार्यक्रम एक साथ दिखाने वाले इस टेलीविजन सेट का प्रचलन लगभग सभी के देशों मे हो चुका है।
इलेक्टॉनिक यंत्रों का आकार वाल्वो के स्थान पर ट्रांजिस्टरो और ट्रांजिस्टरों के स्थान पर सिलिकोन चिप्स का विकास करके घटाया गया। अब एक ओर नये विकास का तेजी के साथ आगमन हो रहा है। इस नये विकास का नाम ‘ ऑप्टिकल फाइबर’ है। अमेरिका की बेल लेबोरेटरीज में इसके विकास पर जोर शोर से कार्य हो रहा है। किसी भी घर की संचार लाइन में यह ऑप्टिकल फाइबर नामक सूक्ष्म यंत्र लगा देने से अनेक संचार चैनलो से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। एक ही लाइन से टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन, कम्प्यूटर आदि जोडे जा सकते हैं। महिलाएं बटन दबाकर बाजार में वस्तुओं का भाव मालूम कर घर बेठे ही आर्डर भी दे सकती है। टेलीविजन पर मनचाहे कार्यक्रम, बाजार भाव बच्चो की शिक्षा से संबधित उपयोगी कार्यक्रम, टेलीफोन पर वार्ता, रेडियो पर कार्यक्रम, कम्प्यूटर में पहले से सेट किए गए कार्यो आदि को एक ही लाइन द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। कम्प्यूटर पहले से सेट कार्यों को समय-समय पर टी वी के पर्दे पर पेश करता रहेगा। इस प्रकार ‘ऑप्टिकल फाइबर’ से होने वाली क्रांति का क्षेत्र बहुत विस्तत है।