टेलीफोन का आविष्कार स्कॉटलैंड के अलेक्जेण्डर ग्राहम बेल ने सन् 1876 में किया था। अलेक्जेण्डर 1870 में अपना देश छोडकर अमेरिका के बोस्टन नगर में बस गए थे। ग्राहम बेल एक ऐसा उपकरण बनाने में लगे हुए थे, जिसके सहारे एक साथ छह संदेश प्रेषित किए जा सके। इस काम में उन्होंने अपने एक अन्य वैज्ञानिक साथी टॉमस वाटसन को भी लगा रखा था। दोनों ने इस उपकरण के निर्माण के प्रयास किए, लेकिन सफल न हो सके। इसी दौरान बेल के दिमाग में यह विचार कौंध गया कि क्या कोई ऐसा यंत्र नहीं बनाया जा सकता जिसके सहारे आवाज को विद्युत के रूप में तारों के जरिए एक जगह से दूसरी जगह भेजा जा सके। बस वे इसी प्रयास में जुट गए।
टेलीफोन का आविष्कार किसने किया
सन् 1875 के जून के महीने मे जब बेल और वाटसन ट्रांसमीटर और रिसीवर उपकरणों की परीक्षा कर रहे थे, तो अचानक वाटसन के हाथ से एक डायफ्राम छिटककर चुम्बक से जा चिपका। वाटसन ने जब उसे हटाने की कोशिश की तो बेल ने देखा कि उसके पास रखे रिसीवर उपकरण में धीमी-सी आवाज आ रही है और उसके साथ कम्पन भी हो रहा है।
बेल को इसी घटना से विश्वास हो गया कि वह अपने लक्ष्य के काफी निकट है। आवाज के प्रेषण के लिए ट्रांसमीटर के चुम्बक से डायफ्राम बिल्कुल चिपका हुआ न रहकर थोडी-सी दूर रहे तो आवाज ठीक-ठीक सुनाई दे सकती है। बेल ने अपने साथी वाटसन की मदद से पहला व्यावहारिक टेलीफोन 10 मार्च 1876 को तैयार किया। इसमें एक अच्छे किस्म का डायफ्राम लगा हुआ था, जिसकी विशेषता यह थी कि यह सभी प्रकार की ध्वनियों को ट्रांसमीटर में विद्युत सवेगो (Electrical Impulses) में तथा रिसीवर में उन्ही विद्युत सवेगो को ध्वनि में बदल सकता था। इस पहले मॉडल में बैटरी की व्यवस्था नही थी। यह ट्रांसमीटर में हिलते रहने वाले डायफ़्राम से उत्पन्न होने वाली प्रेरण (Induction) करेंट के आधार पर ही कार्य करता था।
टेलीफोन में मुंह के सामने वाला भाग (माउथ पीस) ट्रांसमीटर का काम करता है और कान वाला भाग रिसीवर का। दोनो का संबध तारों से होता है, जब हम बोलते हैं, तो माउथ पीस मे लगा एक डायफ्राम कम्पन करने लगता है, जिससे हमारी आवाज विद्युत तरगों में बदल जाती है। यह विद्युत धारा टेलीफोन के तारों से होती हुई दूसरे स्थान पर लगे टेलीफोन के रिसीवर तक पहुंच जाती है। इससे उस टेलीफोन के रिसीवर में लगा डायफ्राम कम्पन करने लगता है और विद्युत तरगों को मूल ध्वनि में बदल देता है। यह ध्वनि सुनने वाले व्यक्ति के कान के पर्दे से टकराती है और इस प्रकार दूर बैठा व्यक्ति हमारी आवाज सुन लेता है। ठीक यही क्रिया दूसरे व्यक्ति के माउथपीस और हमारे रिसीवर के बीच होती है। इस प्रकार दो व्यक्ति टेलीफोन पर एक-दूसरे से बात कर लेते हैं।

टेलीफोन द्वारा बात करने के दो तरीके होते है- पहला टेलीफोन एक्सचेंजके माध्यम से और दूसरा ऑटोमेटिक पद्धति से। टेलीफोन एक्सचेंज एक प्रकार का विनिमय केंद्र है, जहां टेलीफोन करने वाले विभिन्न व्यक्तियों के नम्बरो का लेखा जोखा रहता है। जब कोई व्यक्ति टेलीफोन का रिसीवर उठाता है, तो एक्सचेंज में बडे बोर्ड पर उसके नम्बर के ऊपर वाला बल्ब जल उठता है। टेलीफोन ऑपरेटर तुरंत उससे सम्पर्क स्थापित कर, जहा से उसे बात करनी होती है, वहा का टलीफोन नम्बर मालूम करता है। उसके बाद वह उस व्यक्ति के टेलीफोन उपकरण के तारो को बात करने वाले दूसरे टेलीफोन के तारो से जोड देता है। इस प्रकार उन दोनो व्यक्तियों के टेलीफोन का एक दूसरे से सम्पर्क हो जाता है और वे बातचीत कर लते हैं।
दूसरी पद्धति में स्वचालित (ऑटोमेटिक) व्यवस्था होती है। बडे शहरों मे अधिकतर इसी पद्धति का उपयोग होता है। इस तरह की व्यवस्था में टेलीफोन के अगल भाग पर एक गोल डायल लगा रहता है जिस पर एक से 9 ओर शून्य तक के नम्बर अंक्ति होते हैं। इच्छित नम्बर के लिए डायल को घुमाया जाता है। डायल के ऊपर अंक्ति विभिन्न अंकों के ऊपर स्थित छिद्र में अंगुली डालकर जब घुमाया जाता है ना उसी के अनुसार टेलीफोन एक्सचेंज की स्वचालित पद्धति के उपकरण में भी हरकत होती है ओर एक-एक अंक के क्नेक्शन जुडते चले जाते है। टेलीफोन का इच्छित नम्बर घुमाने के तुरत बाद उस टेलीफोन का कनेक्शन दूसरे टेलीफोन से हो जाता है ओर दूसरी ओर घटी बजने लगती है। इस तरह स्वचालित प्रणाली में एक टेलीफोन का संबध दूसरे से अपने आप हो जाता है और बात खत्म होने पर सम्पर्क अपने आप टूट जाता है।
स्वचालित टेलीफोन प्रणाली का आविष्कार अमेरिका के एक तुनकमिजाज व्यक्ति आलमन बी स्ट्रोजर ने किया, जो टेलीफोन एक्सचेंज के आपरेटर से बेहद परेशान था। सन् 1889 में उसने अपना पहला स्वचालित टेलीफोन प्रणाली का बोर्ड का मॉडल तैयार किया ओर उसका सफल प्रदर्शन दिया, लेकिन इस प्रणाली को अपनाने में काफी समय लगा, क्योंकि स्वचालित केंद्र की स्थापना में काफी पैसा खर्च होता था और टेलीफोन कंपनिया पहले ही टेलीफोन एक्सचेंज के केंद्रों की स्थापना में काफी धन लगा चुकी थी। इंडियाना के ला पोर्ट नगर में सन् 1892 में पहला स्वचालित टेलीफोन स्विच-बोर्ड लगाया गया। सन् 1909 में यूरोप का पहला टेलीफोन स्वचालित केंद्र म्यूनिस में लगाया गया।
अब तो संसार मे रेडियो टेलीफोन भी विकसित हो गए हैं, जिनसे हजारों मील की दूरी पर बैठे व्यक्ति से सीधा सम्पर्क हो जाता है। इस प्रणाली में भी मूल रूप से वही साधारण टेलीफोन प्रणाली कार्य करती है, परंतु इसके साथ अन्य व्यवस्थाओं को भी सम्मिलित किया गया है। ऐसे यंत्रों में थर्मियोनिक वाल्वो (Thermionic valve) की व्यवस्था होती है जैसी रेडियो सेट में होती है। ये वाल्व रेडियो तरंगें पैदा करते हैं और संदेश को विद्युत तरंगों के रूप में दूर स्थान तक ले जात हैं। इन तरंगो को एन्टीना द्वार प्राप्त किया जाता है। इस तरह टेलीफोन रेडियो-यंत्र की कार्य प्रणाली के आधार पर कार्य करता है। समुद्री जहाजों में इसी तरह के टेलीफोन काम में लाए जाते हैं। इनसे विश्व के कसी भी स्थान पर रह रहे व्यक्ति से बातचीत की जा सकती है।
कुछ अन्य प्रणालिया भी टेलीफोन वार्ता के लिए अपनाई जाती हैं। अमेरीका के कुछ क्षेत्रों में पैनल प्रणाली अपनायी जाती है। इसमें स्विच एक मोटर से चलने वाली यूनिट से जुडे होते हैं। एक अन्य क्रासबार प्रणाली है, जो रिले पद्धति पर कार्य करती है। इसका विकास बेल कंपनी ने किया था। इसमें मोटर से चलने वाले शिफ्ट तथा विद्युत-चम्बकीय क्लच लग रहते हैं। यह सबसे आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स प्रणाली है, जो सेकण्ड के दो हजारवें अंश में ही इच्छित जगह सम्पर्क स्थापित कराने में सक्षम है। इलेक्टॉनिक प्रणाली से टेलीफोन वार्ता मे अनेक सुविधाएं प्राप्त की जा सकती है। जैसेयदि किसी व्यक्ति को किसी विशेष टेलीफोन से अधिकतर वास्ता पडता है, तो बजाए 6 या 7 अंकों को घुमाने के कवल दो अंक घुमाकर सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। इस माध्यम से बातचीत में किसी तीसरे या चौथे टेलीफोन वाले को भी शामिल किया जा सकता है।
लम्बी दूरी के लिए कोएक्सियल (समाक्ष) केबल प्रणाली को सबसे अच्छा और प्रभावी पाया गया है। इसका कारण यह है कि यह एक साथ सैकड़ों काल वहन करने की क्षमता रखती है। इस पद्धति में एक तांबे की नली लगी हाती है, जो बाहरी सवाहक (Conductor) का कार्य करती है। इसमें से एक तांबे का तार गुजारा जाता है। यह भीतरी सवाहक का कार्य करता है। रेडियो टेलीफोन प्रणाली की तरह इसमें भी ट्रांसमीटरों की व्यवस्था होती है। केवल के आखिरी सिरे पर उतने ही रिसीवरों की व्यवस्था भी होती है। ट्रांसमीटर ओर रिसीवर या एक सेट भिन्न आर्वत्ति (Frequency) पर कार्य करता है। बल पद्धति में लम्बी दूरी के लिए आपरेटर के बिना एक शहर से दूसरे शहर से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है।
अन्य नयी प्रणालियो में माइक्रोवेव पद्धति ओर संचार उपग्रह के माध्यम से टेलीफोन वार्ता की जा सकती है। संचार-उपग्रह का माध्यम भी एक साथ हजारों वार्ताओं को संभव कराने में सक्षम है। डायल पद्धति भी अब धीरे-धीरे पुरानी पडती जा रही है। इसकी जगह इलेक्ट्रानिक स्पर्श-बटनों से युक्त एक पेनल काम में लाया जाता है। इच्छित नम्बर का बटन दबाते ही वह जल उठता है, जिसका अर्थ है उसका सम्पर्क ठीक जगह पर हो गया है। इस पद्धति मे नम्बर घुमाने का झंझट नही होता ओर सम्पर्क भी शीघ्र हो जाता है। यदि दूसरी ओर का टेलीफोन व्यस्त है, तो बार-बार नम्बर मिलाने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि एक बटन दबाने से अपने आप नम्बर रिपीट होता रहता है। टेलीफोन वार्ता में अब एक ओर क्रांतिकारी दौर आ चुका है वह है दूर्दशन फोन (Video call)। इसके द्वारा बातचीत करन वाले व्यक्ति एक-दूसरे की छवि भी देख सकते हैं।
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