जौनपुर का इतिहास – जौनपुर हिस्ट्री इन हिन्दी Naeem Ahmad, September 7, 2022March 26, 2024 जौनपुर जनपद उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में स्थित है। वर्तमान समय में यह वाराणसी मण्डल में है। जौनपुर मण्डलीय मुख्यालय वाराणसी से 61 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। भौगोलिक दृष्टि से जौनपुर जनपद 25°.24° और 26°.12° उत्तरी अक्षांश तथा 82.7° और 83.5° पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है। जिले की लम्बाई उत्तर से दक्षिण 85 किलोमीटर तथा चौड़ाई पश्चिम से पूर्व 90 किलो मीटर हैं। जौनपुर जिले की सीमा पूर्व में गाजीपुर और आजमगढ़ , पश्चिम में प्रतापगढ़ और इलाहाबाद, उत्तर में सुल्तानपुर तथा दक्षिण में वाराणसी और मिर्जापुर जिले की सीमाओं को स्पर्श करती है। इस जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 4038 वर्ग किलो मीटर हैं जो प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्रफल का 1.4 प्रतिशत हैं। समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई 268 फीट है।जौनपुर का इतिहासप्राचीन जौनपुर से सम्बन्धित ऐतिहासिक साक्ष्य अभी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। जहां तक लिखित सामग्री का प्रश्न है जौनपुर की वही स्थिति है जो प्राचीन भारत की है। किन्तु साक्ष्यों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि जहां आज जौनपुर शहर है, प्राचीनकाल में वहीं गोमती के किनारे एक नगरी आबाद थी, किन्तु उसके नामकरण के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं।जौनपुर का पुराना नामजौनपुर नाम स्थापित होने से पहले इसके कई अन्य नाम रखे जा चुके थे और उन नामों से आज का जौनपुर बहुत प्राचीनकाल से ही विख्यात रहा। इसका एक प्राचीन नाम ‘यमदग्निपुरा’ था, जो प्रसिद्ध ऋषि एवं सप्तर्षियों में से एक ऋषि यमदग्नि के नाम पर आधारित है। ऋषि यमदग्नि वर्तमान जमइथा नामक स्थान पर निवास करते थे,जो जफराबाद और जौनपुर के बीच में गोमती नदी के तट पर स्थित है। उनकी तपस्थली के अवशेष आज भी इस स्थान पर विद्यमान हैं।जालौन का इतिहास समाजिक वह आर्थिक स्थितिप्राचीन जौनपुर का एक नाम ‘यवनेन्दपुर’ भी था। हरिवंश पुराण में ‘यवनेन्दपुर’ का उल्लेख हैं। यवनेन्दपुर शब्द की ध्वनि यवनों से भी सम्बन्ध रखती है। परन्तु इसे प्राचीन जौनपुर मानने में कठिनाई यह है कि इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं कि पौराणिक काल में यवन लोग इस क्षेत्र में निवास करते रहे या उनका इस क्षेत्र में कभी कोई उपनिवेश भी रहा हो। लाल दरवाजा मस्जिद के स्तम्भ पर उत्कीर्ण एक नाम जनरल कर्निघम द्वारा ‘यमोमयायमपुर’ पढ़ा गया और यह जौनपुर का एक प्राचीन नाम माना गया। किन्तु बाद में लोगों ने इस पाठ को अशुद्ध सिद्ध कर ‘अयोध्यापर’ पढ़ा। जौनपुर जिले के एक पूर्व कलेक्टर मि. ओमनी का एक ग्रन्थ बुन्देलखण्ड में मिला है,जिसमें “यौनापुर” गोमती तट पर दिखलाया गया है जिससे जौनपुर का संकेत मिलता है।माधौगढ़ का रामेश्वर मन्दिर जालौन उत्तर प्रदेशहिन्दू परम्परागत इतिहास के अनुसार ऐसा कहा जाता हैं कि जब भगवान रामचन्द्र जी अयोध्या के शासक थे, उस समय इस क्षेत्र पर ‘केरारवीर’ नामक राक्षस का आधिपत्य था, जिसका वध श्री रामचन्द्र जी ने किया था। आज भी इस असुर का नाम शहर में आबाद ‘केरारवीर’ मुहल्ले के साथ जीवित है। जहां आज जौनपुर का किला है उसके दक्षिणी-पश्चिमी ढाल पर एक मंदिर है जिसमें प्रस्थापित प्रतिमा का मनुष्य के धड़ से हल्का-सा साम्य है। ऐसा कहा जाता है कि यह आकार रहित पिण्ड सर्वप्रथम एक टीले पर स्थित था, बाद में सन् 1168 ई. में कन्नौज के राजा विजय चन्द ने इस स्थान को भव्य मंदिर से सुशोभित किया था। आगे चलकर फिरोजशाह ने इस मंदिर को ध्वस्त कर इसी स्थान पर तथा इसी मंदिर के अवशिष्ट प्रस्तर खण्डों से अपने नये किले का निर्माण कराया था तथा मूर्ति को उखाड़ कर फिकवा दिया था। किन्तु हिन्दुओं ने उसे उठवाकर वर्तमान मंदिर का निर्माण कर उस मूर्ति, को पुनः प्रतिष्ठापित कर दिया। यह मूर्ति सम्भवतः उसी केरारवीर राक्षस की है।जौनपुर का इतिहासकेरारवीर बहुत सम्भव है कि ‘कार्त्तवीर्य’ ही रहा हो, जो है हयवंश का राजा था और राम और कोई नहीं बल्कि जमदग्नि ऋषि के आज्ञाकारी पुत्र परशुराम ही हों। जमदग्नि जौनपुर शहर से काफी नजदीक गोमती के किनारे आधुनिक ‘जमइथा’ गाँव के पास निवास करते थे। कार्त्तवीर्य अपने समय का चक्रवर्ती सम्राट था। उसने सम्पूर्ण मध्यवती भूमि पर विजय श्री प्राप्त की। जमदगिन भार्गव गोत्र से सम्बन्धित थे। भार्गव और है हयवंश की दुश्मनी जनश्रुतियों में प्रचलित है।महाराणा प्रताप की वीरता और साहस की कहानीजमदग्नि को कार्त्तवीर्य का सामना इसी आधुनिक ‘जमइथा’ ग्राम में करना पड़ा। इस संघर्ष; में जमदग्नि कार्त्तवीर्य के पुत्रों द्वारा मार डाले गए। इस घटना पर जमदग्नि के पुत्र परशुराम को बहुत क्रोध आया और परशुराम ने कार्त्तवीर्य का वध कर डाला। सम्भवतः यहीं से उसने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन बनाने की प्रतिज्ञा की।केरारवीर का मंदिर और उसकी मूर्ति का निर्माण उसके सम्मान में एक प्रसिद्ध क्षत्रिय शासक के रूप में किया गया न कि एक राक्षस के रूप में। उपयुक्त विवरणों से यह सम्भावना बनती है कि ‘जौनपुर’ शब्द के उद्गम में शायद दो शब्द रहे हो- जमदग्नि और यवन या जवन। सम्भव है इन दोनों ने ही ‘जौनपुर’ नाम के निर्धारण में अपनी भूमिका निभाई हो। प्राचीन काल में यह ‘जमदग्निपुरा’ और पठानकाल आते-आते यह यवनपुर, जवनपुर और फिर जौनपुर हो गया हो। कुछ भी हो, इतना तो निश्चित है कि वर्तमान नाम जौनपुर मुस्लिम काल में पड़ा। भाषा और उच्चारण की दृष्टि से भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ‘जौनपुर’ नाम मुस्लिम काल का हैं। वर्तमान जौनपुर नगर की स्थापना फिरोजशाह तुगलक ने सन् 1359 ई.में की। फिरोजशाह तुगलक ने अपने भाई फखरूद॒दीन ‘जुना’ (मुहम्मद बिन तुगलक) की याद में नगर का नाम ‘जूनागढ़’ रखा था जो आगे चलकर जूनापुर और बाद में ‘जौनपुर हो गया। जौनपुर के नामकरण का यही इतिहास है।सन् 1857 तक जौनपुर का संक्षिप्त इतिहासभारतीय इतिहास का जो क्रमिक रूप छठी शताब्दी ई.पू. से प्राप्त होता है यदि उस आधार पर जौनपुर के इतिहास का अध्ययन किया जाय तो छठीं शताब्दी ई.पू. में जौनपुर कोशल महाजनपद का एक अंग था। उस काल में कौशल 16 महाजनपदों में से एक महाजनपद था। ‘रामायण’ में कौशल की सीमा गोमती और सर्पिका या स्यन्दिका नदी तक बताई गई है। स्यन्दिका या सर्पिका सई नदी का प्राचीन नाम हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि उस काल में छठी शताब्दी ई.पू. जौनपुर कौशल राज्य का अंग था।बिजय मंडल किला का इतिहासछठी शताब्दी ई.पू. के उत्तरार्ध में चार प्रमुख राजतन्त्रों – मगध, कौशल, वत्स एवं अवन्ति का उदय हुआ तो काशी भी महाकौशल के अधीन हो गई। कौशल एवं मगध में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था। कौशल नरेश ने अपनी पुत्री कोशला देवी का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार के साथ किया तथा काशी के कुछ ग्राम उसे उपहार में भी प्रदान किए। सम्भवतः मगध को प्रदत्त कुछ ग्रमों में जौनपुर का भी कुछ भू-भाग रहा हो। बिम्बिसार के पश्चात् अजातशत्रु ने भी इन क्षेत्रों को पुनः संघर्षो उपरांत उपहार में प्राप्त किया।धीरे धीरे सम्पूर्ण कौशल राज्य मगध साम्राज्य में मिल गया होगा तथा जौनपुर भी मगध के अधीन हो गया होगा।सीरी किला का इतिहास:- दिल्लीपुरातात्विक साक्ष्यों से भी छठी शताब्दी ई.पु. में जौनपुर का अस्तित्व निश्चित रूप से प्रमाणित होता हैं। जौनपुर जनपद की सीमा के निकट औड़िहार से ‘आहत’ सिक्के प्राप्त हुए हैं। डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त को भी जौनपुर से आहत सिक्के एक व्यापारी द्वारा प्राप्त हुए हैं। डॉ. गुप्त के अनुसार ये आहत सिक्के मौर्यों के पहले से चले आ रहे हैं। किन्तु आहत सिक्कों की तिथि के सम्बन्ध में बहुत ही मत वैभिन्य है। तक्षशिला से दो निधियाँ मिलती हैं, जिनकी तिथि डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त 245 ई.पूर्व के पहले की नहीं मानते, डॉ. गुप्त सन् 1924 ई. में प्राप्त निधि की तिथि 300 ई.पूर्व के पहले की मानते हैं। श्री एस.सी. रे सन् 1924 ई. में प्राप्त निधि की तिथि 400 ई. पूर्व का अन्तिम काल मानते हैं। ह्वीलर के अनुसार आहत मुद्राओं की तिथि चौथी शताब्दी ई. पूर्व है।तुगलकाबाद किला इतिहास इन हिन्दीअहमद हसन दानी 1912 ई° में प्राप्त निधि की तिथि तीसरी शताब्दी ई.पू. का द्वितीयार्ध मानते हैं। जबकि स्मिथ के अनुसार इनकी तिथि 600 ई.पूर्व की हैं। भण्डारकर ने इनकी तिथि 700 ई. पूर्व तथा कीथ ने इनकी तिथि 800 ई. पूर्व मानी है और कर्निघम ने 1000 ई. पूर्व के बाद की नहीं मानी है। किन्तु सामान्यतया 400-300 ई. पूर्व सर्वमान्य तिथि मानी जाती है।अतः इन सिक्कों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मौर्य काल में यह स्थान भली-भाँति आबाद था। इसका समर्थन अभी हाल ही में जौनपुर जनपद से प्राप्त मौर्यकालीन विष्णु की कुछ म्रण-मूर्तियाँ भी करती हैं। ये मूर्तियां तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की हैं। इस प्रकार जौनपुर के इतिहास की प्राचीनता 600 ई. पूर्व के ही पूर्व मानी जा सकती है, किन्तु अभी तक कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं मिला हैं जो जौनपुर के इतिहास को उतने प्राचीन काल से अब तक श्रृंखलाबद्ध कर सके। कुछ मुद्राशास्त्र सम्बन्धी प्रमाणों व पुरातत्व सम्बन्धी सामग्रियों के अतिरिक्त मुसलमानों के पूर्व का इतिहास पूर्णतया अन्धकारमय हैं और सम्पूर्ण रूप से अनुमानों पर आधारित है।मालखेड़ा का इतिहास – मालखेड़ा का किलाजौनपुर जिले से ही प्राप्त कुछ कुषाण एवं गुप्त कालीन स्वर्ण मुद्राएँ एवं ताम्र सिक्के रामनारायण बैंकर के व्यक्तिगत संग्रह में संगृहीत हैं। इनमें एक स्वर्ण सिक्का वासुदेव का है। इसी प्रकार शाहगंज तहसील के खुटहन गाँव के पास से एक तांबे का सिक्का मिला है जहाँ आज भी एक टीला विद्यमान है। इसके अतिरिक्त जफराबाद से चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के छत्र-प्रकार तथा समुद्रगुप्त के ध्वजाधारी सिक्के भी मिले हैं। डॉ. अल्तेकर ने इसका समर्थन किया है। इस प्रकार कुषाण एवं गुप्तकाल में जौनपुर इनके अधिकार क्षेत्र में था। गुप्त कालीन इतिहास तथा मुद्रा साक्ष्यों के आधार पर जौनपुर 550 ई. तक गुप्तों के अधीन रहा। गुप्तों के बाद जौनपुर का इतिहास मौखरियों के साथ जुड़ गया। इसके साक्ष्य के रूप में जौनपुर के जामा मस्जिद का एक प्रस्तर-लेख मिला हैं जिस पर मौखरि राजा ईश्वरवर्मन का नाम उत्कीर्ण है। यह प्रस्तर-लेख खण्डित है अतः तिथि आदि के विषय में विस्तार से कुछ भी ज्ञात नहीं है। भितौरा (फैजाबाद) अयोध्या तथा रामनगर से प्राप्त मौखरि मुद्राओं से भी जौनपुर पर मौखरियों के अधिकारों की पृष्टि होती है।पुराना किला कहा स्थित है – पुराना किला दिल्लीजब थानेश्वर में हर्ष ने शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की तथा चक्रवर्ती सम्राट बना तो उसने उत्तर भारत का अधिकांश भाग अपने कब्जे में ले लिया और सम्भवतः जौनपुर भी हर्ष के साम्राज्य में रहा होगा। किन्तु हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में भारी राजनैतिक उथल-पुथल हुई उसमें भी जौनपुर का भाग्य बदलता रहा और सम्भवतः कलचुरियों के अधिकार क्षेत्र में भी रहा होगा। देववर्नाक अभिलेख से सूचना मिलती है कि ‘गोमती कोट्टक’ गुप्तवंशीय शासक आदित्यसेन के साम्राज्य में सम्मिलित था। ‘कोटटक’ का अभिप्राय दुर्ग से है। सम्भवतः यह ‘गोमती कोट्टक’ गोमती के तट पर जौनपुर में स्थित दुर्ग के लिए प्रयक्त हुआ है। सम्भव है फिरोजशाह तुगलक ने अपने शासन काल में इसी दुर्ग का विस्तार एवं नवीनीकरण किया हो जो आज ‘जौनपुर के किला’ के नाम से विख्यात है।तालबहेट का किला किसने बनवाया – तालबहेट फोर्ट हिस्ट्री इन हिन्दी750 ई. के लगभग कन्नौज में यशोवर्मन नाम के एक शासक का उदय हुआ। उसने मगधनाथ को हराया और जौनपुर उस समय मगध के अधीन था, अतः यशोवर्मन ने मगध के साथ-साथ जौनपुर पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु यशोवर्मन के बाद कन्नौज पर उसके उत्तराधिकारी स्थिर ढंग से शासन नहीं कर सके। शक्तिशाली मालवा राज्य ने कन्नौज पर कई आक्रमण किये तथा जौनपुर एवं प्रयाग के बीच कई लड़ाईयाँ लड़ीं। इस संघर्ष-काल में जौनपुर प्रतिहारों (वत्सराज, नागभटुट द्वितीय) तथा पालवंशीय शासकों धर्मपाल एवं देवपाल के अधीन रहा। प्रतिहार शासकों, मिहिर भोज, महेन्द्रपाल, महिपाल एवं महदेन्द्रपाल द्वितीय के काल तक जौनपुर पर प्रतिहारों का अधिकार रहा।दतिया का इतिहास – दतिया महल या दतिया का किला किसने बनवाया थाखजुराहो के लेख में जो 944 ई. के आस-पास का बताया जाता है, इस बात का संकेत मिलता है कि इस काल में जौनपुर चन्देलों के अधीन रहा। आज भी जौनपुर में चन्देल राजपू्तों की बहुत अच्छी संख्या है। महमुद गजनवी 1019 ई. में चन्देलों पर आक्रमण कर समृद्ध जौनपुर से बहुत बड़ी धनराशि उठा ले गया। सन् 1097 ई. में चन्द्र देव नामक एक गहड़वाल योद्धा ने कन्नौज पर अपनी प्रभु सत्ता स्थापित की और ऐसा प्रतीत होता हैं कि उसके उत्तराधिकारियों ने जौनपुर तक अपनी विजय पताका फहराई क्योंकि चन्द्र देव के चौथे वंशज विजय चन्द के समय तक गहड़वालों का शासन गोमती की घाटी में पूर्णछप से स्थापित हो चुका था। विजय चन्द के बाद जयचन्द्र तथा जयचन्द्र का पुत्र हरिश्चन्द्र कन्नौज की गद॒दी पर बैठा और जौनपुर को अपने अधीन किया। हरिश्चन्द्र के बाद जौनपुर में गहड़वाल शासन के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य मौन हैं। सम्भवतः हरिश्चन्द्र के बाद हिन्दू शासन का अन्त हुआ और जौनपुर मुसलमानों के प्रभुत्व में आ गया। जौनपुर के ऐतिहासिक स्थल जौनपुर के राजपूत कालीन इतिहास का सम्बन्ध रघुवंशी क्षत्रियों से हैं। राजपूतों में सर्वप्रथम रघुवंशी यहां आए जो अपने को अयोध्या के पुराने राजाओं के वंशज बतलाते है।रघुवंशी क्षत्रिय अयोध्या से सम्भवतः 12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जौनपुर के पूर्वी क्षेत्र में आकर बसे। यह क्षेत्र इन्हें काशी नरेश चेतसिंह से वैवाहिक सम्बन्ध के आधार पर प्राप्त हुआ। रघुवंशियों के यहां बसने से पूर्व सोइरी और भर जाति के लोग यहां पूरी तरह संगठित हो चुके थे। जिन्हें रघुवंशियों ने या तो खदेड़ दिया या अपने अधीन कर लिया। सोईरी जाति का अब पता नहीं चलता, किन्तु यहां अनेक टीले और कुएँ आज भी विद्यमान हैं जिन्हें कहा जाता है कि सोइरियों ने बनवाया था। भर जाति पूरी तरह से नष्ट एवं पलायित नहीं हुई और आज भी भर जाति के लोग जौनपुर में हैं। ऐसा माना जाता है कि सोइरी स्वरूप बदलकर हिन्दू उपजातियों में विलीन हो गए।जौनपुर मुस्लिम शासन के अधीनजौनपुर पर मुस्लिम शासन का आरम्भ 1194 ई. से होता हैं जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने कन्नौज के राजा विजयचन्द्र के पुत्र जयचन्द्र को यमुना के किनारे पराजित किया और मार डाला। इसके बाद इन प्रदेशों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। फिरोजशाह के समय में जौनपुर मुसलमानों की राजधानी भी बना। कुतुबुद्दीन ऐबक की विजय से गयासुद्दीन तुगलक तक जौनपुर का इतिहास अन्धकारमय है। यद्यपि इस बीच में कुछ हिन्दू शासकों ने भी मुसलमान शासकों द्वारा नियुक्त होकर जौनपुर पर शासन किया।1321 ई. में मनहेच शक्ति सिंह द्वारा शासित था। 1321 ई. में गयासुददीन तुगलक ने अपने तीसरे पुत्र जफरखान को शक्ति सिंह के आधिपत्य से मनहेंच को अपने कब्जे में करने के लिए भेजा। जफर अपने कार्य में सफल हुआ और उसने हिन्दू मन्दिरों को नष्ट कर मस्जिद का निर्माण करवाया। जफर को विजित प्रदेश के शासन के निमित्त गर्वनर के रूप में नियुक्त किया गया जिसका मुख्यालय जफराबाद में था। जफरखान के बाद ताँतार खाँ तथा एनुलमुल्क ने गवर्नर के रूप में इस प्रदेश की सेवा की।एनुलमुल्क मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु तक इस प्रदेश का प्रशासक बना रहा। बाद में फिरोज शाह इस क्षेत्र से आकर्षित हुआ और उसने जौनपुर शहर के विस्तार के लिए अपने अधिकारियों को आदेश दिया। फिरोजशाह के समय से जौनपुर का का इतिहास काफी महत्वपूर्ण है। फिरोजशाह ने अपने भाई इब्राहिम शाह बरबक को इस प्रदेश के शासन के लिए नियुक्त किया जिसने ‘किला मस्जिद’ का निर्माण कराया। फिरोजशाह की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली सल्तनत के कुछ प्रान्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर नए राजवंशों की नींव डाली। सर्वप्रथम ऐसा करने वाले प्रान्तों में जौनपुर एक था।जौनपुर शर्की शासन के अधीनफिरोजशाह के वंशज महमूद शाह के पहले जौनपुर दिल्ली सल्तनत के अधीन सामन्तों द्वारा शासित होता था। 1393 ई. में मलिक सरवर ने जिसे ख्वाजा जहां भी कहते हैं महमूद शाह से मलिक उस शर्क’ की पदवी ग्रहण की। वह कन्नौज से बिहार तक फैले हुए एक विशाल क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया गया और इसका शासन केन्द्र जौनपुर बना। दिल्ली के शासक जब निर्बल हो गए तो सुल्तान ख्वाजा जहां ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया और एक राजवंश की स्थापना की जो उसके पदनाम के आधार पर ‘शर्की-वंश’ के नाम से जाना गया।उसका शासन इतना सशक्त था कि जाजनगर के राय और लखनौती के राजा जौनपुर को हाथी भेंट स्वरूप भेजने लगे जो पहले दिल्ली को भेजे जाते थे।1394 ई. में स्थापित शर्की वंश अत्यन्त भाग्यशाली था कि उसे कई अच्छे शासक मिले। 1399 ई. में मलिक सरवर या ख्वाजा जहां की मृत्यु हो गई और उसका दत्तक पुत्र मलिक करनफूल उत्तराधिकारी हुआ। उसने मुबारक शाह की उपाधि धारण की और सर्वप्रथम अपने नाम से सिक्के जारी किए। 1402 ई. में मुबारक शाह की मृत्यु हो। गई और उसका अनुज सिंहासन पर बैठा जो इतिहास में इब्राहीम के नाम से प्रसिद्ध है। इब्राहिम शर्की वंश का सर्वाधिक प्रभावशाली शासक था उसने लगभग 34 वर्ष तक राज्य किया। वह सुसंस्कृत विद्वान तथा विद्या का संरक्षक था। जौनपुर नगर को उसने अनेक इमारतों विशेषकर मस्जिदों से सुशोभित किया जिसमें से एक प्रसिद्ध अटाला मस्जिद भी है। उसके संरक्षण में जौनपुर में स्थापत्य की एक नई शैली का विकास हुआ जो शर्की-शैली के नाम से प्रसिद्ध है। जौनपुर की मस्जिदों में मीनारें नहीं हैं और उन पर हिन्दू स्थापत्य का प्रभाव दिखाई पड़ता है। उच्च कोटि के सांस्कृतिक कार्यों के कारण इब्राहिम शाह के समय जौनपुर ‘शीराजे हिन्द’ के नाम से विख्यात हुआ।इब्राहिम शाह जौनपुर का सबसे शक्तिशाली शासक था। 1407 ई. में उसने दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेशों बुलन्दशहर और सम्भल को अपने अधीन कर लिया। 1413 ई. में ग्वालियर क्षेत्र के कुछ स्थानों पर अधिकार करने में भी वह सफल रहा। 1440 ई.में उसकी मृत्यु हो गई और उसका उत्तराधिकारी उसका बड़ा पुत्र महमूदशाह जौनपुर का शासक बना। महमूदशाह ने 1442 ई. में बंगाल पर आक्रमण किया और सफल भी रहा। वह कालपी की तरफ भी बढ़ा परन्तु 1445 ई. में मालवा के शासक ने उसके बढ़ते हुए कदम को रोका।महमूदशाह कालपी पर अधिकार करने में सफल नहीं हुआ। झांसी जिले के आइरिच नामक स्थान पर संग्राम छिड़ गया। उसने दिल्ली पर भी आक्रमण किया किन्तु बहलोल लोदी नेउसे परास्त किया। महमूदशाह ने लगभग 20 वर्ष तक शासन किया। उसने बुलन्दशहर से उड़ीसा के सीमावर्ती प्रदेशों, तक अपना प्रभुत्व कायम रखा। वह निर्माण कार्य के प्रति अपने प्रेम के लिए प्रसिद्ध था। उसने जौनपुर के आस-पास अनेक मस्जिदों का निर्माण कराया। 1457 ई. में उसकी मुत्य हो गई। अब उसका पुत्र मुहम्मद शाह जौनपुर के तख्त पर आसीन हुआ। मुहम्मद शाह ने बहलोल लोदी से चालाकी पूर्ण संधि करके अपने राज्य क्षेत्र को बहलोल लोदी की तरफ से सुरक्षित कर लिया। परन्तु वह एक सिद्धान्तहीन तथा चिड़चिड़े स्वभाव वाला था तथा उसने अपने भाई हुसैनशाह के साथ बुरा व्यवहार किया जिसके कारण जौनपुर में गृहकलह उत्पन्न हो गया। हुसैनशाह ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर स्वयं को कन्नौज का शासक घोषित कर दिया। इस प्रयास में उसे अपनी माता बीबीराजी का भी सहयोग मिला जो कन्नौज में रह रही थी। इस समाचार से डरकर भागते हुए दहशत में उसकी मौत 1465 ई. में हो गयी और वह डालामऊ में दफनाया गया। इस प्रकार उसके गौरवविहीन प्रंचचषीय शासन का अन्त हुआ और हुसैनशाह ने शर्की-सल्तनत की बागडोर सम्भाली। उसने बहलोल लोदी से संधि कर लिया और वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिया। दिल्ली की ओर से सुरक्षित होकर उसने उड़ीसा पर आक्रमण किया और वहाँ से राजकर प्राप्त किया। बाद में साम्राज्य विस्तार के मोह में संधि का उल्लंघन कर उसने 1473 ई. में दिल्ली पर उस समय आक्रमण कर दिया, जब लोदी राजधानी से बाहर था। इसमें प्रारम्भ में उसे सफलता भी मिली लेकिन बाद में बहलोल लोदी ने हुसैन की सेना पर आक्रमण कर उसे परास्त किया। हुसैनशाह भाग निकला और बुन्देलखण्ड में शरण ली। बहलोल लोदी ने अपने प्रतिनिधि मुबारक शाह लोहनी को 1482 ई. में जौनपुर का गवर्नर नियुक्त किया।1495 में बिहार में निवर्सित दशा में हुसैनशाह की मृत्यु हो गई और उसके साथ ही साथ शर्की राजवंश का भी अवसान हो गया। शर्की वंश ने लगभग 85 वर्ष तक जौनपुर में शासन किया। शर्की शासन में जौनपुर भौतिक दृष्टि से समृद्ध हुआ और सांस्कृतिक कार्यों को प्रोत्साहन मिला तथा देश के प्रान्तीय राज्यों में जौनपुर ने उच्च स्थान प्राप्त कर लिया। बहलोल लोदी ने 1486 ई. में अपने पुत्र बारबकशाह को जौनपुर का शासक नियुक्त किया। 1488 ई. में बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद 17 जुलाई, 1489 को बहलोल लोदी का पुत्र सिकन्दर लोदी दिल्ली का बादशाह बना। लोदी शासकों ने जौनपुर पर अधिकार करने के बाद इसकी स्थापत्य कला को बहुत ही क्षति पहुँचाई और जौनपुर की ख्याति और महत्व को बहुत घटा दिया। नवम्बर, 1517 ई. में सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहिम लोदी उत्तराधिकारी हुआ। इब्राहिम लोदी के आदेशानुसार जलाल खाँ की हत्या कर दी गई और दरिया खाँ को जौनपुर का शासक बना दिया गया। सन् 1482 से 1525 ई. तक लोदी वंश का जौनपुर पर आधिपत्य रहा।जौनपुर मुगल शासन के अधीनलोदी वंश के अन्तिम शासक इब्राहिम लोदी से उसके दरबारी अमीरों ने अप्रसन्न होकर काबुल में जहीरुददीन बाबर के पास भारत पर आक्रमण के लिए एक पत्र भेजा। 20 अप्रैल, 1526 ई. को बाबर ने पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी को पराजित किया और इब्राहिम लोदी मारा गया। इसी बीच दरिया खां के पुत्र बहादुर खां लोहानी ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया और अवध से लेकर बिहार तक का क्षेत्र अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। कालपी और संभल उसके नियंत्रण में पहले से ही थे।बाबर ने जौनपुर पर अधिकार करने के लिए अपने सरदार फिरोज खां और महमूद खां को भेजा। बहादुर खां लोहानी ने फिरोज खां का वीरता पूर्वक सामना किया और फिरोज खां को जौनपुर पर अधिकार करने से रोका। बाबर के पुत्र हुमायूं ने अपने पिता से जौनपुर पर आक्रमण करने की अनुमति प्राप्त कर जौनपुर पर अपना आधिपत्य जमा लिया। बाबर ने जब मेवाड़ के शासक राणा सांगा को दण्डित करने का निश्चय किया तो उसने हुमायूं को जौनपुर से वापस बुला लिया। हुमायूं ने जौनपुर का शासन जुनेद बिरलास को सौंप दिया। 29 जनवरी, 1530 को बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं उत्तराधिकारी बना और हिन्दू बेग को जौनपुर का शासक नियुक्त किया। हुमायूं ने हिन्दू बेग की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बाबा बेग जलायर को जौनपुर का शासक नियुक्त किया। 26 जून, 1539 को हुमायूं और शेरशाह के मध्य चौसा में हुए युद्ध में हुमायूं हार गया। 17 मई, 1540 को कन्नौज के निकट भोजपुर में दोनों के मध्य पुनः युद्ध हुआ और इस युद्ध में भी हुमायूं पराजित हुआ। बेग जलायर ने जौनपुर का किला और शासन शेरशाह को सौंप दिया। शेरशाह भारत का बादशाह बन गया और उसने अपने पुत्र आदिलशाह को जौनपुर का शासक नियुक्त किया। शेरशाह का जौनपुर से पहले से ही सम्बन्ध था। वह जौनपुर के शासक जमाल खां के कर्मचारी हसनसूर के आठ पुत्रों में से एक था। उसका प्रारम्भिक नाम फरीद था। फरीद ने अपनी शिक्षा जौनपुर में ही प्राप्त की थी। शेरशाह के शासनकाल में जौनपुर में शान्ति स्थापित रही तथा उसने यहां कई जनहितकारी कार्य भी किए। 1545 ई. में शेरशाह का देहान्त हो गया।हुमायू बैरम खां के परामर्श पर ईरान गया और वहां के बादशाह एवं अमीरों से सैन्य सहायता माँगी। सैन्य सहायता प्राप्त कर हुमायूं ने पुन: भारत पर आक्रमण किया और सफल रहा। हुमायूं ने बैरम खां और उसके भांजे अली कुली खां शैबानी की सहायता से उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।शेरशाह की मृत्यु के बाद उसका शासन छिन्न-भिन्न हो गया था, इसलिए हुमायूं को विजय प्राप्त करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। अपने इसी विजय अभियान में हुमायूं ने जौनपुर पर भी अधिकार कर लिया और अली कुली खां को जौनपुर का शासक नियुक्त कर दिल्ली चला गया। 27 जनवरी, 1556 में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर 12 वर्ष, की अवस्था में भारत का बादशाह बना। इसी बीच अली कुली खां विद्रोही बन गया। 15 जुलाई, 1561 को अकबर मुनईम खां के साथ विद्रोह के दमन हेतु आगरा से जौनपुर की ओर प्रस्थान किया। खान जमां अली कुली खां ने इलाहाबाद के कड़ा नामक स्थान पर अकबर का स्वागत किया तथा उसकी सेवा में सुन्दर उपहार एवं हाथी भेंट किए।अकबर ने अपनी कृपा दृष्टि से अली कुली खां को सम्मानित किया और सम्पूर्ण क्षेत्र उसी के अधीन रहने दिया और अकबर उपहारों को ग्रहण कर 29 अगस्त, 1561 को आगरा लौट गया।अली कुली खां ने 1564 ई. में दूसरी बार विद्रोह किया। अकबर के जौनपुर आने पर अली कुली खां ने 1565 ई. में अकबर से पुनः क्षमा याचना की तथा अकबर ने उसे स्वीकार भी कर लिया और सम्पूर्ण क्षेत्र उसी के अधीन रहने दिया। शीघ्र ही अली कुली खां ने तीसरी बार विद्रोह कर दिया। अली कुली खां के विद्रोह का समाचार प्राप्त होने पर अकबर ने विद्रोहियों को कुचलने का दृढ़ निश्चय कर 6 मई, 1567 को जौनपुर की ओर प्रस्थान किया। 9 जून, 1567 को कड़ा के निकट फतेहपुर परसोकी में हुए युद्ध में खानजमां अली कुली खां मारा गया। अकबर इलाहाबाद से जौनपुर आया और यहां तीन दिन रूका। वह जौनपुर, गाजीपुर, बनारस, चौसा, चुनार का किला एवं जमानिया का क्षेत्र अपने विश्वासपात्र मुनईम खां को सौंप कर वापस चला गया। मुनईम खां ने ही जौनपुर के शाही पुल का निर्माण कराया जो अपनी मजबूती और सुन्दरता के लिए आज भी विख्यात है।1576 ई. में मुनईम खां की मृत्यु के बाद हुसेन कुली खां जौनपुर का शासक नियुक्त हुआ। 1579 ई. में हुसैन की मृत्यु के बाद मुजफ्फर खां शासक नियुक्त हुआ परन्तु वह भी 1580 ई. में विद्रोहियों द्वारा मार डाला गया। अकबर ने तर्सन खां को जौनपुर का जिलेदार नियुक्त किया। 1584 ई. में तर्सन खां की मृत्यु के बाद 1590 ई. तक जौनपुर में कोई सूबेदार नियुक्त नहीं हुआ। अब्दुर्रहीम खानखाना को एक वर्ष के लिए जौनपुर का शासक नियुक्त किया गया परन्तु वे जौनपुर किसी कारणवश न आ सके और जौनपुर की दशा दयनीय होती गई। अकबर ने शर्की राज्य की राजधानी जौनपुर से इलाहाबाद परिवर्तित कर दी और कुलीच खां को जौनपुर भेजा। कुलीच खां ने 1594 ई. तक शासन का संचालन किया। उनके बाद मिर्जा युसुफ खां ने तीन वर्ष तक जौनपुर के शासन का संचालन किया।अकबर द्वारा शर्की राज्य की राजधानी जौनपुर से इलाहाबाद परिवर्तित कर दिए जाने से जौनपुर का महत्व घटता गया। 25 अक्टूबर, 1605 ई. को अकबर की मृत्यु के बाद जौनपुर की व्यवस्था और शिथिल हो गई। जौनपुर से सम्बन्धित कोई विशेष घटना जहाँगीर के शासनकाल तक हुई हो ऐसा इतिहास में नहीं मिलता। अब जौनपुर न तो राजधानी रही और न ही शासन-केन्द्र इसलिए जहाँगीर के समय जौनपुर में न तो शासकों की कोई विशेष रुचि थी और न ही यहां कोई विद्रोह ही हुआ, जिसके लिए जौनपुर इतिहास में स्थान पाता। जौनपुर से मात्र मालगुजारी वसूल होती रही और उसे इलाहाबाद के शासक के पास भेजा जाता रहा। निष्कर्षत: अकबर के बाद जौनपुर निरन्तर उपेक्षित होकर अपना महत्व खोता गया।सन् 1658 ई. में पुनः एक विद्रोह हुआ। शाहजादा शुजा जो औरंगजेब से युद्ध कर रहा था, एक सेना जौनपुर भेजकर फौजदार को किले से निष्कासित कर किले पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब ने इसकी सूचना पाते ही जौनपुर की ओर प्रस्थान किया और विद्रोहियों का दमन कर नगर में शांति स्थापित की और कुछ दिनों जौनपुर में निवास किया। 1685 ई. में उसने यहा एक नया बन्दोबस्त प्रचलित किया। 3 मार्च, 1707 ई. को औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य बिखरने लगा। इसका प्रभाव जौनपुर पर भी पड़ा। सितम्बर 1719 ई. में मुहम्मद शाह दिल्ली का बादशाह बना और उसने जौनपुर बनारस, चुनार एवं गाजीपुर के क्षेत्र नवाब मीरमर्तना खां को सौंप दिए तथा ये क्षेत्र इलाहाबाद के अधीन हो गए। अवध के नवाब सआदत अली खां ने इन चार सरकारों को नवाब मीर मुर्तना खां से इस शर्त पर ले लिया कि सात लाख रुपया वार्षिक मीर मुर्तना खां को मिलता रहेगा।उसके बाद सआदत खां ने यह क्षेत्र आठ लाख रुपया वार्षिक पर मीर रुस्तम अली को सौंप दिया।मीर रुस्तम अली ने बनारस जिले के गंगापुर तहसील के एक भूमिहार ब्राह्मण मनसा राम को इस क्षेत्र के प्रबन्ध एवं संचालन के लिए नियुक्त किया। मनसा राम ने शीघ्र ही अपनी योग्यता के बल पर इस क्षेत्र पर सुदृढ़ नियंत्रण स्थापित कर लिया और आमदनी को बढ़ाकर 13 लाख रुपया कर दिया। 1737 ई.में सआदत अली खां ने अवध को नवाब सफदर जंग को सौंप दिया। 1739 ई. में मनसा राम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बलवन्त सिंह उत्तराधिकारी हुआ। बलवन्त सिंह ने बहुत अधिक मात्रा में धन और बहुमूल्य उपहार दिल्ली भेजकर राजा की पदवी प्राप्त की।1750 ई. में फर्रुखाबाद के नवाब अहमद खां बंगश ने सफदर जंग को पराजित किया। अहमद खां बंगश ने जौनपुर के शेर जमां खां की पुत्री से विवाह किया और शेर जमां खां के भतीजे साहब जमां खां को जौनपुर, वाराणसी और चुनार का फौजदार नियुक्त किया। बंगश के निर्देश पर साहब जमां खां ने बलवन्त सिंह को पराजित कर जौनपुर के किले पर अधिकार कर लिया। 1752 ई. में एक समझौते के द्वारा बलवन्त सिंह को क्षमा कर उसके क्षेत्र पुनः उसे इस शर्त पर सौंप दिए गए कि वह 2 लाख अतिरिक्त मालगुजारी देगा। बलवन्त सिंह पुनः शक्तिशाली हो गया और वह उन सरदारों को ढूँढ कर दण्डित करने लगा जो उसके विरुद्ध हो गए थे। इसी क्रम में 1757 ई. में उसने एक सेना गड़वारा के हिम्मत बहादुर के विरुद्ध भेजी। हिम्मत बहादुर सई नदी के तट पर स्थित परारी के कच्चे किले में जा छिपा। परन्तु उसका पुत्र सुख नन्दन सिंह बन्दी बना लिया गया तथा गंगापुर में बन्दी स्थिति में ही उसकी मृत्यु हो गई।बलवन्त सिंह का दूसरा शत्रु कबुल मुहम्मद मछली शहर में किले में सुरक्षित छिपा हुआ था। बलवन्त सिंह ने पत्र-व्यवहार करके उससे भेंट की तथा धोखे से उसे बन्दी बनाकर गंगापुर जेल में रखा, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई। 1761 ई. तक बलवन्त सिंह का शासन क्षेत्र काफी विस्तृत हो चुका था। वह एक सफल शासक के रूप में स्थापित हो चुका था। उसने अनेक बड़े-बड़े जमींदारों का दमन कर उन्हें अपने अधीन कर लिया। 1763 ई. में अंगुली के जमीदार खुशहाल सिंह को पराजित कर मार डाला। जब अनेक पराजित जमींदारों ने चंदौली के किले में एकत्र होकर बलवन्त सिंह के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की तो बलवन्त सिंह ने उनको भी पराजित किया।जौनपुर अंग्रेजी शासन के अधीनसन् 1764 ई. में जौनपुर तथा बनारस ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ में आ गया क्योंकि बक्सर युद्ध में कम्पनी विजयी रही। इस विजय के बाद मि. मेरिएट यहाँ के रेजीडेन्ट नियुक्त किए गए। मेरिएट ने पूर्ण शासन स्थानीय प्रबन्धकों को सौंप दिया। 20 जनवरी, 1765 ई. को मेजर फ्लेचर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने जौनपुर के किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने बलवन्त सिंह को इस क्षेत्र का प्रशासन सौंप दिया। परन्तु शीघ्र ही वे बीमार पड़ गए और इस क्षेत्र में अराजकता फैलने लगी। 23 अगस्त, 1770 ई. को. बलवन्त सिंह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र चेत सिंह उत्तराधिकारी हुआ। 22मई , 1775 की संधि के अनुसार आसफुद्दौला को बनारस सूबे सहित इस क्षेत्र को कम्पनी को सौंपना पड़ा। 15 अप्रैल, 1776 को चेत सिंह को यह क्षेत्र रेजीडेन्ट फुसिस फोक के नियंत्रण में रखते हुए प्रदान किया गया।1781 ई.में अंग्रेजों ने राजा चेत सिंह को पदच्युत् कर महीप नारायण सिंह को उसका उत्तराधिकारी बनाया। वे प्रभावहीन रहे और इस प्रकार इस क्षेत्र का वास्तविक शासन अंग्रेजों के हाथ में चला गया। कार्नवालिस ने जुलाई, 1787 ई. में डंकन को बनारस का रेजीडेन्ट नियुक्त किया। मार्च , 1788 में डंकन ने जौनपुर का निरीक्षण किया। डंकन ने भूमि-सुधार की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने सम्पूर्ण क्षेत्र का पुनः बन्दोबस्त कराया। डंकन ने अमीनों द्वारा मालगुजारी वसूल करने की पुरानी व्यवस्था समाप्त कर दी और ताल्लुकेदारों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से मालगुजारी देने का प्रतिज्ञा-पत्र लिखवाया। सन् 1795 ई.में स्थायी बन्दोबस्त की घोषणा कर दी गई। अप्रैल, 1857 ई. तक न तो जनता में अशान्ति फैली और न तो किसी ने कोई विद्रोह ही किया।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- [post_grid id=”8179″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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