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जोधपुर राज्य का इतिहास

जोधपुर राज्य का इतिहास – History of jodhpur state

जोधपुर राज्य का राजघराना विख्यात राठौड़-वंश के हैं। राठौड़ वंश अत्यन्त ही प्राचीन है। राठौड़ वंश की उत्पत्ति के लिये भिन्न भिन्न इतिहासवेत्ताओं के भिन्न भिन्न मत हैं। राठौडों की ख्यात के लिखा है–इन्द्र की रहट (रीढ़ ) से उत्पन्न होने के कारण ये राठौड़ कहलाये। कुछ लोगों का कथन है कि उनकी कुल-देवी का नाम राष्ट्रश्यैना या राठाणी है, इसी से उनका नाम राष्ट्रकूट या राठौड़ पड़ा। कर्नल टॉड साहब को नाडोर के किसी जैन-जाति के पास राठौड़ राजाओं की वंशावली मिली थी, उसमें उनके मूल पुरुष का नाम युवनाश्व लिखा था। इससे उक्त साहब ने यह अनुमान किया कि राठौड़ सिथियन्स की एक शाखा है, क्योंकि यवनाश्व शब्द यवन और असि नामक दो शब्दों से बना है और असि नाम की एक शाखा सिथियन्स की थी, अतएव राठौड़ सिथियन्स है मिस्टर बेडन पावल ने Royal Asiatic society of Great Britain and London नामक प्रख्यात मासिक पत्र के सन्‌ 1899 के जुलाई मास के अंक में राजपूतों पर एक लेख लिखा था। उसमें आपने फरमाया था:— “उत्तर की ओर से सिथियन्स कई गिरोह बनाकर हिन्दुस्थान में आये थे। आगे जाकर उनकी हर एक शाखा का नाम अलग अलग पड़ गया।शायद उन्हीं में से रट, राठी या राठौड़ भी हैं जो अपना असली नाम भूल गये और पाछे से भाटों ने उनके साथ राम, कुश, हिरण्यकश्यप आदि की कथाएँ जोड़ दीं।” सम्राट सिकंदर का हाल लिखने वाले प्राचीन यूनानी लेखकों ने सिकंदर की चढ़ाई के समय में पंजाब-प्रान्त में अरट्ट नाम की एक जाति का उल्लेख किया है। शक संवत्‌ 880 में राष्ट्रकूट-राजा कृष्णराज तीसरे के करड़ा वाले दान पत्र में लिखा है कि यादव- वंश में रट नामक राजा हुआ। उसी के पुत्र राष्ट्रकूट के नाम से यह राष्ट्रकूट वंश प्रसिद्ध हुआ। इसी जाति की सहायता से प्रख्यात मौर्य वंशीय सम्राट चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र का राज्य विजय किया था। कुछ विद्वान अरट्ट को रट्ट, राष्ट्रकूट आदि का पर्यायवाची नाम मानते हैं। दक्षिण के राठौड़ो के कितने ही ताम्र-पत्रों में इनका यादव-वंशी होना लिखा है। हलायुध पंडित ने अपनी ‘कविरहस्य’ नामक पुस्तक में इन्हें चन्द्र-वंशी माना है। कन्नौज के अन्तिम राजा जयचन्द्र के पूर्वजों के कई ताम्र-पत्र मिले हैं, उनमें उन्हें सूर्यवंशी लिखा है। वर्तमान राठौड़ प्रायः अपने आपको सूर्यवंशी कहते हुए, अयोध्या के परम प्रतापी महाराजा रामचन्द्रजी के वंशज बतलाते हैं।

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जोधपुर राज्य का इतिहास – History of jodhpur state

राठौड़ों की प्राचीनता

भारत के अत्यन्त प्राचीन राजवंशों में से राठौड़ वंश भी एक है।
महाभारत में जिन अराष्ट्रों’ का उल्लेख है, कुछ विद्वानों के मतानुसार वह रट्ट, राष्ट्रकूट या राठौड़ ही का प्राचीन नाम है। ईस्वी सन्‌ के 250 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने शिला-लेखों के रुप में जो अनेक धार्मिक घोषणाएं प्रकट की थीं, उनमें जूनागढ़, मानसरा, शाहाबादगढ़ी आदि के शिला-लेखों सें ‘राष्ट्रिक’ शब्द का उल्लेख आया है। इनके अतिरिक्त बौद्ध-धर्म ग्रन्थ दीपवंश में लिखा है कि बौद्ध-साधु ‘मोगली पुत्र’ महारट्ट लोगों को उपदेश देने गये थे। भांजा, बेडसा और करली की गुफाओं के लेखों में-जो इस्वी सन्‌ की दूसरी की हैं–लिखा है कि मुख्य दानी महारट्ट या महारट्टानी थे। इन सब बातों से यह स्पष्टतया प्रकट होता है कि राठौड़ वंश एक प्राचीन-वंश है और एक समय इसका प्रताप दूर दूर देशों तक फैला हुआ था।

प्राचीन समय में राठौड़ों का प्रताप

कई प्रख्यात पुरातत्व-वेत्ताओं ने अनेक शिला लेखों और ताम्र- पत्रों की सहायता से यह प्रकट किया है कि एक समय इनका प्रताप सारे भारत में फैला हुआ था। ठेठ दक्षिण में एडम्सब्रिज से लेकर उत्तर में नेपाल तक तथा पश्चिम में मालवा, गुजरात से लेकर पूर्व में बिहार, बंगाल और हिसालय तक इनका प्रबल आतंक छाया हुआ था। अब सवाल यह उठता है कि राठौड़ उत्तर से दक्षिण में गये या दक्षिण से उत्तर मे आये। अभी तक जितने शिला-लेख या तामपत्र मिले हैं उन सब का अनुसंधान कर डा० फ्लिट ने पता लगाया है कि वे उत्तर से दक्षिण में गये ओर फिर दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़े। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज के पुत्र इन्द्रराज को चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह ने विक्रम संवत्‌ 550 के लगभग शिकस्त देकर दक्षिण में अपना अधिकार जमाया। इतने पर भी राष्ट्रकूट वहीं बेलगांव आदि स्थानों में जमे रहे। इसके बाद राष्ट्रकूट गोविन्दराज के पोते और कर्कराज के पुत्र दूसरे इन्द्रराज ने चालुक्यवंशीय राज्य-कन्या से विवाह किया, जिससे दन्तिदुर्ग पैदा हुआ। यह बड़ा प्रतापी हुआ। इसने संवत्‌ 810 ईस्वी सन्‌ 753 से कुछ पहले सोलंकी राजा कीर्तिवर्मा ( दूसरे ) से उसके राज्य का बड़ा भाग छीन कर फिर से दक्षिण में राठौड़ों का राज्य स्थापित किया। इसने उत्तर में लाटदेश ( दक्षिण गुजरात ) तक का सारा प्रदेश विजय कर राजाधिराज’ तथा परमेश्वर! की महान सम्मान सूचक उपाधियाँ धारण की। दक्षिण के सोलंकियों की मुख्य सम्मान सूचक पदवी बहुभा थी। इस पदवी को भी राठौड़ों ने धारण कर ली। इसी से राठौड़ों के राज्य-काल में जो अरब मुसाफिर भारत में आये थे उन्होंने राठौड़ों को ‘बलहरा’ लिखा है। यह बल्लम राज के लौकिकरुप’ बलहराय का बिगड़ा हुआ रूप है।

राठौड़ वंश
राठौड़ वंश

दन्तिदुर्ग ( पांचवें ) के निःसंतान मरने पर उसका चाचा कृष्णराज
उत्तराधिकारी हुआ। इसने सोलंकियों का रहा सहा राज्य भी विजय कर लिया। इसने राहप नामक राजा को भी पराजय किया था | सुप्रख्यात एलोरा (दक्षिण) की गुफा में पर्वत को काटकर ‘कैलशा नामक, जो भव्य मन्दिर बना हुआ है, वह इन्हीं के कला- प्रेम का आदर्श नमूना है। कृष्णराज के बाद उनका पुत्र गोविन्द राज राज्याधिकारी हुआ। यह बड़ा विलास प्रिय था। इसलिये इसके छोटे भाई ध्रुवराज ने इसका राज्य छीन लिया। ध्रुवराज ने निरुपम! और ‘धारावर्ष’ की पदवियाँ धारण की। इसने गौड़ों पर विजय प्राप्त करने वाले वत्सराज परिहार को परास्त कर मारवाड़ में भगा दिया था। इसने उत्तर में अयोध्या और दक्षिण में काँची तक विजय प्राप्त की थी। ध्रुवराज के बाद गोविन्दराज ( तीसरा ) राज्य-सिंहासन पर बैठा। इसने ‘जगतुंग और ‘प्रभूतवर्ष का खिताब धारण किया। यह महा प्रतापी था। इसने युवराज पद पर रहते हुए ही बहुत सी लड़ाईयों में विजय प्राप्त की थी। इसने दक्षिण के बारह राजाओं की संयुक्त सेना पर भी अपूर्व विजय प्राप्त की थी। दक्षिण के लाट-देश से लगाकर करीब करीब रामेश्वर तक का सारा प्रदेश इसके अधिकार में था। इस्वी सन्‌ 815 तक इसने राज्य किया।

गोविन्द राज ( तीसरे ) के बाद उसका पुत्र अमोध वर्ष व राज्य- सिंहासन पर बेठा। ‘वीर नारायण’ ‘नृप तुंग आदि इसकी उपाधियाँ थीं। इसमे बाल्यावस्था ही में राज्य पाया था। इसकी सोलंकी राजा विजयादित्य से कई लड़ाईयाँ हुई थीं। इसने मान्यखेट ( मालखेड़, निजाम राज्य ) को अपनी राजधानी बनाया था। इसने लगभग 63 वर्ष तक राज्य किया। यह स्वयं बड़ा विद्वान था और विद्वानों का बड़ा सम्मान करता था। इसकी बनाई हुई प्रश्नोत्तर रत्न तालिका, नामक एक छोटी सी पुस्तिका होने पर भी रत्नलमाला’ के समान कंठ में धारण करने योग्य है। प्राचीन समय में इस पुस्तक का तिब्बती भाषा में भी अनुवाद हुआ था। इसने ‘कविराजमार्ग, नामक एक ग्रन्थ कनाड़ी भाषा में भी लिखा था। यह जैन विद्वानों का बड़ा सम्मान करता था। अदिपुराण तथा पाश्वोभ्युद्य आदि जेन ग्रन्‍थों के कर्ता जिनसेन सूरी का यह शिष्य भी था। ईस्वी सन 934 तक इसका विद्यमान होना पाया जाया है।

अमोध वर्ष के बाद कृष्णराज दूसरा राज्य-सिंहासन पर बैठा। इसने गंगा तट के मुल्कों पर चढ़ाईयाँ की। इस्वी सन्‌ 911 तक के इसके लेख मिलते हैं। इसके बाद इन्द्रराज, अमोघ वर्ष ( दूसरा ) गोविंद, अमोघवर्ष (तीसरा) आदि आदि राजा क्रम से हुए। इनके समय में कोई विशेष घटनाएँ नहीं हुई। हाँ अमोघ वर्ष ( तीसरा ) का पुत्र कृष्णराज ( तीसरा ) प्रतापी हुआ। इससे देंतिंग और वप्पुरा को मारा। गंगा-वंशीय रायमल को पदष्युत कर उसके स्थान पर व्यूतग को राजा बनाया। पल्लव वंशी अन्तिम राजा को हराया। तकोल की लड़ाई में चोल के राजा राजादित्य को मारा और चेरी देश के राजा सहस्त्राजुर्न को जीता। इसके ईस्वी सन्‌ 940 से 961 तक के लेख मिलते हैं।

उपरोक्त वृतान्त से पाठकों को राठौड़ वंश के अपूर्व गौरव और अद्वतीय प्रताप का दिग्दर्शन हुआ होगा। अब हम राठौड़ वंश के उस प्राचीन प्रताप के विषय में अरब प्रवासियों के मत उद्धृत करते हैं। सुलेमान नामक एक अरबी प्रवासी ने ‘सिल्सिलु तवारिख’ नामक एक पुस्तक ईस्वी सन् 851 में लिखी है। उसमें उसमे ‘बलहराओं’ के विषय में लिखा है, पृथ्वी के चार बड़े राजाओं में से बलहरा ( राठौड़ ) भी एक है, जो हिन्दुस्थान के राजाओं में सब से बढ़कर है। दूसरे राजा उसका आधिपत्य स्वीकार करते हैं और उसके वकीलों का बड़ा आदर करते हैं। वह अपनी फौज की तनख्वाह अरब लोगों की तरह बराबर चुकाता है। उसके पास बहुत से हाथी घोड़े और बेशुमार दौलत है। उसका सिक्का तातारी द्रिहम है, जो ताल में दिरहम से दय्योढा है। उसके सिक्को पर वह संवत्‌ लिखा है, जब कि उसने पहले पहल राज्य किया था। हर एक राजा अपना सन् अपन जुलुस से लिखते है। उन सब की पदवी ‘बलहरा’ है जिसका अर्थ “महाराजाधिराज’ है। उसका राज्य चीन की सरहद से लेकर कोकण तक समुद्र के किनारे किनारे हैं। बलहरा का पड़ोसी गुजरात का राजा है,जिसके पास सवारों की अच्छी फौज है।” यह वृतान्त राजा अमोघवर्ष प्रथम के समय का लिखा हुआ है । इब्निखुर्दाद ने ईस्वी सन 912 में “किताबुल्म सालिक बुल ममालिक” नामक पुस्तक लिखी है। उसमें वह लिखता है–

“हिन्दुस्तान में सब से बड़ा राजा बलहरा है। इस की अँगुठी पर
यह ख़ुदा हुआ रहता है कि, “जो काम दृढ़ता के साथ प्रारंभ किया जाता है वह सफलता के साथ समाप्त होता है। अल्मसऊदी ने ईस्वी सन्‌ 944 में ‘मुरुजुल जहब’ नामक ग्रंथ लिखा था, उस में वह कहता है– “इस समग्र हिन्दुस्तान के राजाओं में सबसे बड़ा मानकेर ( मान्यखेट ) नगर का राजा बलहरा (राठौड़) है। हिन्दुस्तान के बहुत से राजा उसे अपना स्वामी मानते हैं। उसके पास असंख्य हाथी और लश्कर है। लश्कर विशेष कर पैदल है, क्योंकि उस की राजधानी पहाड़ों में है।’

मध्य-प्रदेश के मुलताई गाँव में राष्ट्रकूट राजा युद्ध शूर का एक लेख शक संवत 631 कार्तिक शुक्ल 17 का मिला है। मि० फ्लिट का मत है कि बारहवीं सदी के शुरु तक वहाँ राष्ट्रकूटों का राज्य था। हमने ऊपर राठौड़ वंश के प्राचीन गौरव पर एतिहासिक दृष्टि से प्रकाश डालने की चेष्टा की है। अब वर्तमान जोधपुर राज्य के राठौड़ राज्य की उत्पत्ति और विकास पर कुछ लिखने की आवश्यकता है। जोधपुर राज्य के राजवंश का सीधा संबंध कन्नौज के राठौडों से था। जोधपुर राजवंश के मूल पुरुष कन्नौज से मारवाड आये थे कन्नौज के राठौड़ के कई शिलालेख ओर ताम्रपत्र, मिले हैं। उन्हीं के आधार से जोधपुर राजवंश के प्राचीन पूर्वज कन्नौज के अधिपतियों के इतिहास पर कुछ ऐतिहासिक प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

कन्नौज के ताम्रपत्र में यशोविग्रह से लेकर हरिश्चंद्र तक के दस राजाओं के नाम लिखे हैं। वि० सं० 1148 का ( चन्द्रदेव के समय का ) एक ताम्रपत्र चन्द्रावती में मिला है। उसमें लिखा है कि सूयवंश में कई राजाओं के हो जाने के बाद यशोविग्रह राजा हुए। यशोविग्रह के बाद उनके पुत्र महिचन्द्र राजगद्दी पर बिराजे। इनका
दूसरा नाम महिनल अथवा महिषा भी था।

जोधपुर राज्य का राजवंश

चंद्रदेव

कन्नौज के तीसरे राठौड़ राजा का नाम चन्द्रदेव था। कहीं कही ये सिर्फ चन्द्र नाम से ही सम्बोधित किये गये हैं। अभी तक इनके समय के तीन ताम्रपत्र (वि० सं० 1148, 1150 और 1156) प्राप्त हुए हैं। इन ताम्रपत्रों में लिखा है कि “चन्द्र बड़े न्यायी-नरेश थे। वे शत्रु के नाश करने वाले और दुष्टों के संहारक थे,” आपने अपनी प्रजा के अनेक कष्टों को दूर किया। काशी ( बनारस ) कुशीक ( कन्नौज ) उत्तरीय कोसल (अवध ) और इन्द्रप्रस्थ ( दिल्‍ली ) आदि प्रदेश आपके अधिकार में थे। आप हमेशा तीर्थयात्रा करते रहते थे और तीर्थ-स्थानों में अपने वजन के बराबर स्वर्ण दान दिया करते थे। आपने काशी में केशव की मूर्ति स्थापित की थी। पांचाल देश पर भी आपने विजय प्राप्त की थी।

वि० सं० 1148 के ताम्रपत्र से मालूम होता है कि उस समय चन्द्र
राज्य-सिंहासन पर बैठ गये थे। अतएव यह मान लेना भूल न होगी कि उन्होंने वि० सं० 1148 के पहले ही कन्नौज पर विजय प्राप्त कर ली थी। बसाही नामक स्थान में वि० सं० 1161 का एक ताम्रपत्र मिला है। उसमें लिखा है कि “चन्द्रदेव ने भोज और कर्ण की मृत्यु हो जाने के बाद कन्नौज पर अधिकार किया।” भोज और कर्ण क्रमश: परमार और हैहय राजवंश के नृपति थे। इन दोनों में आपस में चक-चक चला करती थी। कर्ण एक शक्तिशाली राजा था। उसने एक समय भोजराज पर चढ़ाई की थी। इसने गौड ओर गुजर प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था। इसी समय कर्ण ने भी कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया होगा। कर्ण की मृत्यु हो जाने पर उसके राज्य में झगड़े-बखड़े शुरू हो गये। इन आपसी झगड़ों से फायदा उठाकर चन्द्र ने कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया।

मदनपाल

मदनपाल का दूसरा नाम मदनदेव भी था। इन्होने अपने कई शत्रुओं को पराजित किया। वि० सं० 1157 का एक ताम्रपत्र मिला है। यह ताम्रपत्र चन्द्रदेव के समय का लिखा हुआ है पर इसमें मदनपाल का भी वर्णन है! इसमें लिखा है कि चन्द्रदेव ने अपने राज्य के अन्तिम समय में मदनपाल को राज्य के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये थे इन्हें ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि प्राप्त थी। ये बड़े विद्वान थे। इन्होंने मदनपाल मिघण्टु, नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की थी।

गोविन्द चन्द्र

अभी तक इनके राज्यकाल के करीब 40 ताम्रपत्र और कई स्वर्ण के सिक्‍के मिले हैं। आपने गौड़ पर चढ़ाई की थी। इसमें आपको बहुत अच्छी विजय मिली थी। इस समय मुसलमान लोग लाहोर तक आ पहुँचे थे। और वहाँ से दक्षिण की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। अतएव गोविन्द चन्द्र जी को इन मुसलमान आक्रमणकारियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने पड़े आप अपनी वीरता और विद्वत्ता के लिये बढ़े मशहूर थे। आप के समय के जो ताम्रपत मिले हैं उनमें आप “विविध विद्या विचार वाचस्पति” के सम्मानपूर्ण विशेषगणो द्वारा सम्बोधित किये गये है। आप विद्वानों के आश्रय दाता थे। आपके समय के ताम्रपत्रों से आपका वि० सं० 1161 से वि० सं० 1211 तक होना पाया जाता है। पर वि० सं० 1166 का एक ताम्रपत्र मिला है जिसका आरंभ इस प्रकार होता हैः–

“मदनपाल के विजयी राज्य में महाराज-पुत्र गोविन्द चन्द्र देव।””
इस पर से यह ज्ञात होता है कि मदनपाल ने अपने जीते जी ही अपने पुत्र को राज्य के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये थे। गोविन्द चन्द्र को विजय चन्द्र, राज्यपाल, ओर आस्फोट चन्द्र नामक तीन पुत्र थे। आपकी रानी कुमार देवी ने एक मन्दिर बनवा कर धर्मचक्र जिन शासन को दे दिया था। गोविन्द चन्द्र की आज्ञा से उनके प्रधान सचिव ने “व्यवहार समुच्चय नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। इनके समय के कई स्वर्ण के सिक्‍के मिले हैं।

जोधपुर राज्य का इतिहास
जोधपुर राज्य का इतिहास

विजय चन्द्र

विजय चन्द्र का दूसरा नाम मल्लदेव था। इनकी स्त्री का नाम चन्द्रलेखा था। चन्द्रलेखा विष्णु भक्त थीं। उसने विष्णु के कई मन्दिर बनवाये थे। विजय चन्द्र जी के समय ( वि० सं० 1224 ) के एक ताम्रपत्र से मालूम होता है कि उन्होंने अपने पुत्र जयचन्द्र को युवराज पद प्रदान किया था।

जयचन्द्र

जयचन्द्र जी, जैत्रचन्द्र और जयन्तचन्द्र के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
आपके पितामह गोविन्द चन्द्र जी ने आपके जन्म के दिन दशाणि देश पर विजय प्राप्त की थी। इसी कारण आपका नाम जैत्रचन्द्र पड़ा। वि० सं० 1126 में जयचन्द्र जी राज्य सिंहासन पर बिराजे। आपके पास बहुत बड़ी सेना थी अतएव आप ‘दलपंगुल’ भी कहलाते थे। आपने कालिंजर के राजा मदनवर्मा पर विजय प्राप्त की थी। इन मदनवर्मा का वि० सं० 1119 का शिलालेख मिला है। जयचंद्र जी विद्वानों के आश्रयदाता थे। प्रसिद्ध पौराणिक काव्य “नैषध के रचयिता श्रीहर्ष ने आपके दरबार की शोभा को बढ़ाया था। आपने इस कलिकाल में भी राजसूर्य यज्ञ किया था। इसी समय से दिल्ली के तत्कालीन चौहान नरेश पृथ्वीराज जी और आपके बीच वेमनस्य उत्पन्न हो गया जो कि आगे चलकर दोनों पक्षों के नाश एवम मुसलमानों की विजय का कारण हुआ। मुसलमानों के यहाँ आने का एक दूसरा कारण यह भी था कि जयचन्द्र जी की रखेल सुहावदेवी ने उनसे अपने पुत्र मेघचन्द्र को युवराज बनाने के लिये कहा था। महाराजा ने इस बात को नामंजूर कर दिया। इस पर सुहावदेवी ने मुसलमानों को अपनी सहायतार्थ आने के लिये निमंत्रित किया।

जयचन्द्र जी ने कई किले बनवाये थे। इनमें से एक तो कन्नौज ही में था। दूसरा इटावा जिले के असाई गाँव में और तीसरा गंगा के किनारे करों नामक स्थान पर था। करा के किले पर मुसलमानों और जयचंद्र जी के बीच घोर संग्राम हुआ था। इस लड़ाई में कई मुसलमान सरदार मारे गए। इस स्थान पर अब भी कई मुसलमान सरदारों की कब्रे इस बात का प्रमाण दे रही हैं। मुसलमानों का प्रथम आक्रमण तो जयचंद्र जी ने विफल कर दिया, पर वि० सं० 1250 में शाहबुद्दीन गोरी फिर चढ़ आया। चंदावल नामक स्‍थान पर युद्ध हुआ। जयचंद्र जी हार गये और गंगा को पार करते हुए उसमें डूब कर मर गये। कुछ इतिहास-लेखकों का कथन है कि उन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने प्राण विसर्जन किये। जो कुछ भी हो, यह तो निषिवाद सिद्ध है कि उसी साल उनका देहान्त हो गया । जयचन्द्र जी की मृत्यु हो जाने से उत्तरीय हिन्दुस्थान के छोटे छोटे राज्य मुसलमानों के अधिकार में आ गये। हिन्दुओं के देश में मुसलमानों का झंडा फहराने लगा।

हरिश्चंद्र (बरदाई सेन)

जयचन्द्र जी की मृत्यु त्य हो जाने के बाद कन्नौज मुसलमानों के अधिकार में आ गया। राठौड़ सरदार इधर उधर बिखर गये। रामपुर, खेम-सेदपुर और समसाबाद आदि स्थानों के प्राचीन इतिहास से पता चलता है कि कन्नौज में मुसलमानों का अधिकार होते ही राठौड़ पहले पहल वहाँ से (खोड) ( समसाबाद ) नामक स्थान में जाकर बसे। “आईने अकबरी का लेखक इस बात की पुष्टि करता है। जयचन्द्र जी के पुत्र हरिश्चंद्र के समय का वि० सं० 1253 का एक ताम्रपत्र मिला है। उसमें हरिश्चंद्र जी को निम्नलिखित उपाधियों से विभूषित किया गया हैः– “परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर परम माहेश्वर, अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपति, विविध विद्या विचार वाचस्पति आदि।

ये ही पदवियाँ जयचन्द्र जी के नाम के आगे भी लगाई जाती थीं।
यह भी मालूम हुआ है कि हरिश्चंद्र जी ने ब्राह्मणों को कई गाँव जागीर में प्रदान किये थे। रामपुर के प्राचीन इतिहास से पता चलता है कि हरिश्चंद्र का राज्य खोड़ ( वर्तमान समसाबाद ) तक फैला हुआ था। खोड़ जिला जयचन्द्र जी ने भोर लोगों के पास से छीना था। खोड़ पर ईस्वी सन् 1194 से 1213 तक राठौड़ों का अधिकार रहा। सन् 1214 में शमसुद्दीन अल्तमश ने खोड़ से राठौडों को निकालकर उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसी समय से खोड का नाम समसाबाद रखा गया। शमसुद्दीन ने समसाबाद पर अपना सूबेदार नियुक्त कर दिया। समसाबाद से निकाल दिये जाने पर फिर राठौड़ इधर उघर बिखर गये। जिसे जहाँ आश्रय मिला वह वहीं चला गया। जयचन्द्र जी के पुत्र जयपाल के वंशज बदायूँ जिले के ऊसेट नामक स्थान पर चले गये जहां कि राष्ट्रकूटों की एक शाखा पहले ही से राज्य कर रही थी। सन् 1223 में मुसलमानों ने उक्त स्थान पर भी हमला कर दिया। अब ये लोग बिलासडा नामक स्थान पर चले गये। इसके कुछ समय बाद राजा रामसहाय जी रामपुर में जाकर रहने लगे। कुछ समय व्यतीत हो जाने पर रामपुर वाले राठौड भी दो शाखाओं में विभक्त हो गये। इन दोनों शाखाओं के वंश ने अब भी रामपुर ( एटा जिला ) और खिमसीपुर ( फुरुखाबाद ) के जागीरदार हैं। हरिश्चंद्र जी के वंशज पहले तो खोड़ से फरुखाबाद गये और महुई नामक स्थान में रहने लगे। काली नदी के किनारे इन्होंने एक किला भी बनवाया। यहाँ से ये लोग मारवाड़ चले गये। श्रीयुत काली राय जी अपने फतेहगढ़ के इतिहास में लिखते हैं कि हरिश्चंद्र जी को हरसु भी कहा करते थे। रामपुर आदि स्थानों के इतिहासों में हरिश्चंद्र जी प्रहस्त नाम से और मारवाड के इतिहास में बरदाई सेन के नाम से सम्बोधित किये गये है

मारवाड़ का वर्तमान राठौड़ राजवंश

राव सीहाजी जोधपुर राज्य

राव सिहाजी जयचन्द्र जी के वंशज थे। बीकानेर नरेश रायसिंह जी के समय का एक शिलालेख मिला है, उसमें उन्हें जयचन्द्र जी का प्रपौत्र लिखा है। आइने अकबरी का लेखक सिहाजी को जयचन्द्र जी का भतीजा बतलाता है। कर्नल टॉड की सिहाजी के लिये कोई निश्चित राय नहीं है। कहीं वे सिहाजी को जयचन्द्र जी के भतीजे, कहीं पुत्र और कहीं पौत्र लिखते हैं। कुछ भी हो यह तो निर्विवाद हैं कि सिहाजी हरिशचन्द्र जी ओर जयचन्द्र के खास बंशज थे। ऐतिहासिक अनुसंधान से इनका जयचंद्र जी का प्रपौत्र होना ही अधिक संभव जान पड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहां राव सिहाजी ही वर्तमान जोधपुर राजवंश के आदि पुरुष हैं। राव सिहाजी किस प्रकार मारवाड की ओर आये, इस पर कुछ ऐतिहासिक प्रकाश डालना आवश्यक है।

ई० स० 1211 में शमसुद्दीन अल्तमश दिल्ली के राज्य सिंहासन पर बैठा। इसके तीन साल बाद उसने खोड़ नामक स्थान पर आक्रमण किया जहाँ पर कि जयचन्द्र जी के वंशज राज्य करते थे। तुमुल संग्राम के बाद राठौड़ों को हारकर खोड़ छोड़ना पड़ा। राव सिहाजी और उनके पिता महुई नामक स्थान पर चले गये। यहाँ काली नदी के किनारे पर इन्होंने एक किला बनवाया था जिसका भग्नावशेष अब भी विद्यमान है। मालूम होता है कि मुसलमानों के लगातार आक्रमण के कारण सिहाजी को यह स्थान भी छोड़ना पड़ा। सिहाजी यहाँ से पश्चिम की ओर बढ़े। बिठू ( मारवाड ) नामक स्थान से वि० सं० 1330 का राव सिहाजी का एक शिलालेख मिला है। इससे मालूम होता है कि सिहाजी ई० स० 1243 ( वि० स० 1300 ) के करीब मारवाड़ गये। जब खोड उनके हाथ से निकल गया तब वे महुई नामक स्थान पर चले गये थे। यहाँ भी इन्होंने एक किला बनवाया था। अनुमान किया जा सकता है कि यहाँ वे 25 या 30 वर्ष के करीब रहे होंगे। इसके बाद ही वे मारवाड़ की तरफ रवाना हुए।

मारवाड़ में सिहाजी के वंशज कनोजिया-राठौड़ के नाम से प्रसिद्ध
हैं। क्‍योंकि वे कन्नौज से वहाँ गय थे। जगमालजी द्वितीय के समय का वि० सं० 1686 का एक शिलालेख नगारा नामक स्थान से मिला है। उसमें सिहाजी को सूर्यवंशी ओर कनोजिया राठौड़ लिखा है। एक समय सिहाजी द्वारका की यात्रा के लिये जा रहे थे कि रास्ते में पुष्कर के पास उन्हे कुछ भीनमाल ब्राह्मण मिल गये। इन ब्राह्मणों को मुसलमान आक्रमणकारी बहुत सताया करते थे। अतएव इन्होंने सिहाजी को शक्ति शाली जानकर उनसे सहायता मांगी। सिहाजी ने उनके साथ जाकर आक्रमणकारियों को भगा दिया। द्वारका में कुछ दिन ठहर कर सिहाजी अनहिलवाड़ा-होते हुए मारवाड़ आ गये। इस समय पाली के ब्राह्मणों को मीणा, मेरू, आदि लोग बहुत सताया करते थे। ये ब्राह्मण सिहाजी की वीरता से भलि भाँति परिचित थे। अतएव उन्होंने सिहाजी से अपनी सहायता करने के लिये प्रार्थना की। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि आप इन लुटेरों से बिलकुल मुक्त कर देेगें तो हम आपको एक लाख रुपया नक़द देंगे। पाली इस समय व्यापार का केन्द्र था। अरब, परशिया आदि पश्चिमीय देशों और हिन्दुस्थान के बीच होने वाले व्यापार की सामग्री इसी स्थान से होकर गुजरती थी। सिहाजी ने जी जान से उन ब्राह्मणों की सहायता की। अतएव उन लोगों ने भी आपको कुछ गांव जागीर में दे दिये। इन गांवों की आमदनी से सिहाजी अपना और अपनी सेना का निर्वाह करने लगे। सिहाजी का विवाह सोलंकी राजकुमारी के साथ हुआ था। उससे आपको आस्थानजी, सोनागजी, और अजाजी नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। कुछ खमय व्यतीत हो जाने पर सिहाजी ने खोड़ के गुहिलों से कुछ गांव छीन लिये। इसी समय पाली पर मुसलमानों ने आक्रमण किया। सिहाजी ने न केवल मुसलमानों को पाली से भगा ही दिया वरन्‌ बहुत दूर तक उनका पीछा भी किया। बिठू नामक स्थान पर लड़ाई हुईं, जिसमें सिहाजी काम आये। आपकी स्त्री पार्वती आपके साथ सती हुई। इस घटना से संबंध रखने वाला एक शिलालेख अभी हाल ही में मिला है। यह शिला-लेख जोधपुर राज्य के महकमा तवारिख के दफ्तर में मोजूद है। पाली में एक कुँए के पास सिहाजी का स्मारक अभी भी मौजूद है। एक स्मारक बिठू नामक स्थान में उस जगह भी है जहाँ पर कि आपका अग्नि संस्कार किया गया था।

राव आस्थान जी जोधपुर राज्य

राव सिहाजी के बाद उनके पुत्र राव आस्थान जी राज्यासन पर बिराजे। ये अपने पिता की तरह वीर थे। इनके किस्मत चेतने का एक अवसर उपस्थित हुआ। वह यह कि खेड के गाहिल नरेश और उनके मंत्री के बीच किसी बात से अनबन हो गई। उस मंत्री ने आस्थान जी के पास आकर उनसे खेड हस्तगत करने के लिए अनुरोध किया। शीघ्र ही परस्पर यह इकरारनामा हो गया के जब कभी राठौड़ों और गोहिलों के बीच युद्ध छिड़े तब उक्त मंत्री अपनी सेना सहित गुहिलों का साथ छोड़ दे। वह गुहिलों की बायी बाजू पर हो जाये जिससे कि राठौड़ गुहिलों को हरा सकें। इतना हाने पर लड़ाई छेड़ने के लिये कोइ बहाना खोजा जाने लगा। आस्थान जी ने गोहिल नरेश के सामने यह प्रस्ताव पेश किया कि ये अपनी लड़की का विवाह उनके साथ कर दे। खेड के गुहिल राजा प्रताप सिंह जी इस प्रस्ताव से सहमत न हुए। इसी बहाने को लेकर खेड़ पर चढ़ाई कर दी गई। युद्ध शुरू हुआ। नियत समय पर प्रताप सिह जी का उक्त कारभारी (मंत्री ) चालाकी खेल गया। प्रताप सिह जी अपने कई गुहिल सरदारों के साथ युद्ध में काम आये। उनके बचे हुए सरदार काठियावाड़ भाग गये। काठियावाड़ में गुहिलों ने फिर नवीन राज्य की स्थापना की, जो कि अभी भावनगर, श्रांगधरा के नाम से प्रसिद्ध हैं। खेड़ पर आस्थान जी का राज्य हो गया।

इस समय ईडर साँवलिया नामक भील के अधिकार में थी। आस्थान जी ने साँवलिया को लड़ाई में मारकर अपने भाई सोनाग को यह प्रान्त दे दिया। आस्थान जी एक वीर एवम कुशल शासक थे। आपने अपन बाहुबल से खेड के समान शाक्तिशाली-प्रान्त पर अपना अधिकार किया था। अपने दोनो भाइयों को भी अलग अलग प्रान्त का शासक बना दिया था। इ० स० 1291 मे आपका स्वर्गवास हो गया। आपके आठ पुत्र थे।

राव दुहड़ जी

राव दुहड़ जी, राव आस्थान जी के सब से ज्येष्ठ पुत्र थे। आप भी अपने पिता ही के समान पराक्रमी थे। आपने कुल मिलाकर 140 गाँवों पर विजय प्राप्त की। उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। आपके राज्य-काल में लुम्बार्षि नामक एक सारस्वत ब्राह्मण कन्नौज से राठौडों की कुल-देवी चक्रेश्वरी की मूर्ति लाया था। दुहड जी ने एक मन्दिर बनवाकर उसमें अपनी कुलदेवी को प्रस्थापित किया और उस ब्राह्मण को ‘तीगडी” नामक गाँव जागीर में दिया। इसी गांव में दुहड जी के समय का वि० सं० 1366 का एक शिलालेख मिला है। पर इसके अक्षर साफ नहीं हैं अतएव इसका मतलब निकालना बड़ा मुश्किल है। इसी गांव में दुहड़ जी और परिहारों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसमें दुहड़ जी वीरगति को प्राप्त हुए। दुहड जी के सात पुत्र थे। जिनमें से रायपाल जी उनके उत्तराधिकारी हुए। ये न बड़े वीर ही थे और न दानी ही। परिहारों पर आक्रमण कर इन्होने मन्डोर पर अधिकार कर लिया था तथा परमारों से इन्होंने बाड़मेर छीन लिया था। रायपाल जी ने अकाल में अपनी प्रजा की अन्नवस्थादिक वस्तुओं से बहुमूल्य सेवा की थी। इसके लिये आपको लोग माहिरेलण’ के नाम से सम्बोधित करते थे।

राव कनपाल जी

रायपाल जी के बाद कनपाल जी खेड़ की गद्दी पर बिराजे। आप
मुसलमानों के साथ की लड़ाई में मारे गये। आपके तीन पुत्र थे। इन तीनों में से भीम बड़े योद्धा थे। वे वास्तव में भीम ही थे। काका
नदी के किनारे इनके और भाटियों के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में यद्यपि भीमजी वीर-गति को प्राप्त हुए तथापि इसी समय से जेसलमेर और खेड़ के बीच की सीमा निश्चित हो गई। इस संबन्ध में एक कवि कहता हैः—
“आधी धरती भींव आधी ला देखे धणी ।
काक नदी छे सींव, राठोड़ा ने भांटियाँ॥
अर्थात काक नदी राठौड़ों और भाटियों के बीच की सीमा हो गई।
उसके एक ओर जेसलमेर राज्य और दूसरी तरफ भीमसिंह जी का राज्य है। राव कनपालजी के बाद रावव जालन जी राज्यासीन हुए। इनके समय में ऐतिहासिक दृष्टि से कोई विशेष महत्वपूर्ण घटना नहीं हुईं। ये मुसलमानों के साथ होने वाली लड़ाई में मारे गये। अपनी मत्यु के समय जालन जी अपने पुत्र छाड़ा जी को कह गये थे
कि उमर कोट के दुर्जनसाल जी से खिराज के घोड़े ले लेना।” छाड़ा जी ने अपने पिता की अन्तिम इच्छा पूर्ण करने के लिये दुर्जनसालजी से चौगुने घोड़े वसूल किये। आपने जेलसमेर के भाटियों से खिराज वसूल किया। इतना ही नहीं जेसलमेर के भाटियों को उन्होंने लड़की देने के लिये भी बाध्य किया।

राव सातल देव राठौड़
राव सातल देव राठौड़

राव ताड़ाजी

राव छाड़ा जी के बाद राव तीड़ा जी राजगद्दी पर बिराजे। इन्होंने
महोबा प्रान्त पर विजय की। भीनमाल के सरदार सावंत सिंह
को आपने अपने अधीन कर लिया। इसी समय मुसलमानों के आक्रमण से त्रस्त होकर सातल और सोम नामक चौहान सरदारों ने तीड़ा जी से सहायता माँगी। इन्होंने इस प्रार्थना को स्वीकृत कर मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया। अगणित मुसलमान आक्रमणकारी रावजी की सेना द्वारा धराशायी कर दिये गये। स्वयं रावजी भी इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। आपके तीन पुत्र थे।
राव तीड़ा जी के बाद क्रमशः राव काल्हड देव जी, राव त्रिभुवनसी जी, राज्यासीन हुए इनके समय में ऐतिहासिक दृष्टि से कोई महत्वपूर्ण घटना घटित नहीं हुई।

राव सलखा जी जोधपुर राज्य

राव त्रिभुवनसी जी के बाद राव सलखा जी राजगद्दी पर आसीन हुए। राव सलखा जी का विवाह मंडोर के पड़िहार राना रूपड़ा की कन्या के साथ हुआ था। राव सलखा जी अपने शशुर की सहायता से मंडोर को पुनः मुसलमानों द्वारा छीनने में समर्थ हुए। इसी बीच त्रिभुवनसी जी के पुत्र कान्हड़ जी ने मुसलमानों को हराकर खेड़ पर अधिकार कर लिया। सलखा जी के ज्येष्ठ पुत्र मल्लीनाथ जी ने जालोर के मुसलमानों को कान्हण पर आक्रमण करने के लिये निमंत्रित किया। कान्हड जी मुसलमानों द्वारा मार डाले गये। आठ वर्ष तक महोबा पर राज्य कर इ० सं० 1373 में राव सलखा जी स्वर्गवासी हो गये। आपके मल्लीनाथ जी, जेतमाल जी, बीरसजी जौर सोमिताजी नामक चार पुत्र थे। राव सलखा जी का देहान्त हो जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र मल्लिनाथ जी महोबा का शासन करने लगे। राव सलखा जी एक साधु पुरुष गिने जाते थे।

उनकी पवित्र स्मृति में एक मन्दिर बनवाया गया था जो अभी तक लूनी नदी के किनारे पर स्थित तलावड़ा नामक स्थान में मौजूद है। आपके पुत्र जगमाल जी अपनी वीरता के लिये मशहूर थे। ये गुजरात के मुसलमान शासक की लड़की को बलपूर्वक छीन लाये थे। मल्लिनाथ जी ने जतमाल जी को ‘सिवाना’ का शासक नियुक्त कर दिया था। बीरमजी खेड़ की गद्दी पर रहे। सोमिताजी ने ओसियाँ से परमारो को निकाल कर उस पर अपना अधिकार कर लिया।

राव वीरम जी

हम पहले ही कह आये हैं कि खेड़ की गद्दी पर वीरमजी कायम रहे। एक समय की बात है क्वि जोईया लोग तत्कालीन दिल्‍ली- सम्राट का बहुत सा सामान लूटकर मल्लिनाथ जी की शरण में आये। इन जोईया लोगों के पास एक घोड़ी थी जो कि मल्लिनाथ जी की आँखों में चढ़ गई। अतएव मल्लिनाथ जी ने उन लोगों से वह घोड़ी माँगी। इन लोगों ने वह घोड़ी देने से साफ़ इनकार कर दिया। इसी बात को लेकर मल्लिनाथ जी और जोईया लोगों के बीच अनबन हो गई। जोइया लोग मल्लिनाथ जी का आश्रय त्याग कर वीरम जी के आश्रय में चले गये। कुछ समय बाद वीरम जी पर उन लोगों का इतना प्रेस बढ़ गया कि वह घोड़ी बिना माँगे ही उन्होंने वीरम जी को भेंट कर दी। मल्लिनाथ जी के ज्येष्ठ पुत्र जगमाल जी ने वीरम जी से उक्त घोड़ी माँगी पर वीरमजी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। इसी बात को लेकर वीरमजी और मल्लिनाथ जी के बीच अनबन हो गई। वीरमजी मल्लानी के रेगिस्थान में चले गये। वहाँ जाकर उन्होंने सेतरावा नामक गाँव बसाया। संतरावा अपने पुत्र देवराज को देकर वीरमजी सिन्ध में चले गये। वहाँ पर उक्त जोईया लोगों ने उन्हें सावन नामक गाँव जागीर में दिया। पर जोईया लागों के साथ भी वीरमजी की अधिक नहीं पटी। एक विस्तृत आकार का ढोल बनवाने के लिए वीरमजी ने एक पलाश के वृक्ष को कटवा डाला। यह वृक्ष जोईया लोगों द्वारा बड़ा पवित्र माना जाता था। अतए्व बीरमजी और उनके बीच झगड़ा शुरू ही गया। इस कार्य में वीरमजी को अपने प्राण गवाने पड़े। राव वीरमजी के पाँच पुत्र थे।

राव चूडाजी जोधपुर राज्य

राव वीरमजी के पुत्र राव चूडाजी बड़े शक्तिशाली राजा हुए। आपके समय में जोधपुर राज्य का खूब विस्तार हुआ। आपने मंडोर, नागोर, डोडवाना, खाटू, अजमेर और सांभर आदि स्थानों को मुसलमानों से छीनकर अपने राज्य में मिलाया। वीरमजी की मृत्यु हो जाने पर उनकी स्त्री-चूंड़ाजी की माता-मांगलियाणी जी अपने पुत्रों सहित थल्ली परगने में आल्हा नामक चारण के मकान में रहने लगी। चूडाजी बचपन ही से ही होनहार मालूम होते थे। बड़े होने पर मल्लिनाथ जी ने आपको सलोडी का थानेदार नियुक्त कर दिया। इसी समय की बात है कि इंदा राजपूतों ने मंडोर का किला मुसलमानों से छीन लिया। पर उक्त किले की रक्षा करना ज़रा कठिन मालूम होने लगा।अतएव उन्होंने चूडाजी से सहायता के लिये प्राथना की। चूडाजी ने उनकी सहायता करना निश्वित कर लिया। कुछ समय व्यतीत हो जाने पर इंदा राजपूतों के सरदार राय धवलजी ने चूडाजी का विवाह अपनी कन्या के साथ कर दिया और मन्डोर उन्हें दहेज में दे दिया। इस कथन की पुष्टि में
किसी कवि का कहना है:–
चूडो चवरी चाड, दीयो मन्डोवर दायजे ।
ईदा तर्णो उपकार कमधज कदे न बीसरे ॥
मंडोर के स्वामी हो जाने के कारण चूडाजी राजपूतों की दृष्टि में
चढ़ गये। राजपूत लोग इन्हें बड़ी ऊँची निगाह से देखने लगे। इन्हीं राजपूतों की सहायता से आप नागोर, डीडवाना, खाटू और सांभर आदि स्थानों को मुसलमानों से छीनने में समर्थ हुए। बीकानेर राज्य में स्थित ‘चूंडासर’ नामक गांव चुडाजी ही का बसाया हुआ है। जोधपुर से 16 मील के अन्तर पर चामुण्डा नामक गांव है। इस गाँव में चामुण्डादेवी का एक मन्दिर है। कहते हैं कि यह मन्दिर भी चूडाजी द्वारा ही बनाया गया था। राव चूडाजी के सब मिलाकर चौदह पुत्र थे।

राव रणमल जी

राव रणमल जी, चूंडाजी के ज्येष्ठ पुत्र थे। एक समय राव चूडाजी ने इनसे कह दिया था कि ‘मेरे बाद मंडोर कान्ह के अधिकार में
रहना चाहिये। कान्ह चूडाजी के छोटे पुत्र थे। अपने पिता को आज्ञानुसार रणमलजी मंडोर को अपने छोटे भाई के हाथ सौंप आप चित्तौड़ चल गये। चित्तौड़ की गद्दी पर इस समय राणा लाखाजी आसीन थे। इन्होंने रणमलजी से प्रसन्न हो कर उन्हें 40 गाँव दे दिये। इधर राव कान्हजी सिर्फ 11 माह राज्य कर परलोकवासी हो गये। कान्हजी की मृत्यु हो जाने पर चूडाजी के दूसरे पुत्र साला जी गद्दी पर बेठे। पर ये भी तीन या चार साल राज्य कर सके। सालाजी और उनके भाई रणधीरज जी के बीच अनवन हो गई। अतएव रणधीरज जी ने मेवाड़ जाकर अपने ज्येष्ठ बन्धु रणमल जी को समभालाना शुरू किया। उन्होंने रणमल जी से कहा कि “आपने सिर्फ कान्हजी के लिये राज्य छोड़ा है न कि सालाजी लिये। अतएव सालाजी का राज्य पर कोई अधिकार नहीं है। यह बात रणमलजी के भी ध्यान में जम गई। उन्होंने मोकल जी की सहायता से मंडोर पर चढ़ाई कर दी। सालाजी को गद्दी से उतार कर उस पर रणमलजी बेठे। कुछ समय पश्चात्‌ रणमलजी राणाजी की सहायता द्वारा नागोर से मुसलमानों को भगाने में समर्थ हुए। रणमल जी ने नागोर अपने राज्य में मिला लिया। महाराणा कुम्भ के समय की कुम्भलगढ़ को प्रशस्ति में भी इसका वर्णन आया है। इस प्रशस्ति से इस बात की पुष्टि होती है कि
रणमल जी ने मोकल जी की सहायता से नागोर पर विजय प्राप्त की। रणमल जी ने समय समय पर मेवाड़ के राणाओं की अच्छी सहायता की। ई० स० 1433 में राणा खेताजी के चाचा और सेरा नामक दो औरस पुत्रों ने मोकल जी का खून कर डाला। जब यह खबर राव रणमल जी तक पहुँची तो वे तुरन्त मोकल जी के पुत्र कुंभा जी की सहायता पर आ डटे।उन्होंने हत्याकारियों को मारकर कुम्भा जी को राज्य-सिंहासन पर बैठाने में सहायता दी। इसके कुछ ही समय बाद चाचा के पुत्र आका और मोकल जी के ज्येष्ठ बन्धु ने मेवाड़ के सरदारों द्वारा राणा कुम्भा जी तक यह खबर पहुँचाई कि “वे सावधान रहें। कहीं ऐसा न हो कि मेवाड़ का राज्य-सिंहासन राठौड़ों के हाथ में चला जाये।” यह युक्ति काम कर गई। कुभाजी, रणमल जी को संदेह की दृष्टि से देखने लग गये, इतना ही नहीं प्रत्युत मौका पाकर उन्होंने रणमलजी को मरवा डाला। रणमल जी के पुत्र जोधा जी इस समय मेवाड़ ही में थे। रणमल जी की मृत्यु होते ही जोधा जी के किसी हितेषी ने उनसे मेवाड़ छोड़ देने के लिये कहा। जोधा जी अपने सात सौ सिपाहियों को लेकर वहाँ से चल पड़े। चूडाजी शिशोदिया बड़ी भारी सेना के साथ जोधा जी के पीछे भेजे गये। मेवाड़ी सेना के चलते रास्ते आक्रमण करते रहने के कारण मारवाड़ पहुँचते पहुंचते जोधा जी के पास केवल सात सिपाही शेष रह गये। जोधा जी ने पहले तो मंडोर में रहने का विचार किया पर मेवाडी सेना के पीछे लगी रहने के कारण उन्हें अपना यह विचार स्थगित करना पडा। वे थली परगने के काहुनी नामक स्थान में जाकर रहने लगे, राणा कुम्भा जी ने समस्त मारवाड पर अपना अधिकार कर लिया। उन्होंने राव चूडाजी के प्रपौत्र सधवदेव को राव की पद॒वी देकर सोजत के शासक नियुक्त कर दिया। मंडोर और चोकडी नामक स्थानों की रक्षा के लिये राणाजी ने अपनी बढ़िया से बढ़िया सेना नियुक्त की। राव रणमल जी के 26 पुत्र थे। इन सब में राव जोधाजी बड़े थे।

राव रणमल राठौड़
राव रणमल राठौड़

राव जोधा जी

राव जोधा जी बड़े वीर और पराक्रमी राजा थे। काहुनी नामक स्थान से मन्डोर को प्राप्त करने के लिये आपने उस पर कई आक्रमण किये पर सब विफल हुए। इसी बीच एक समय रावजी किसी जाट के मकान में चले गये। जाट वहां न था। जोधा जी ने उसकी स्त्री से खाने के लिये कुछ माँगा। उस दिन जाट के घर में बाजरी का खीच पकाया गया था। अतएव जाटनी ने उसी को थाल में परोसकर जोधा जी के सामने रख दिया। रावजी ने उस खीच में अपनी अगुलियाँ रख दीं, खीच गरम था अतएव उनकी अंगुलियाँ जल गई। यह देख जाटनी ने कहा “मालूम होता है तुम भी जोधा जी ही के समान मूर्ख हो।” उसे क्‍या मालूम था कि ये ही राव जोधा जी हैं। रावजी ने उक्त जाटनी से जोधा जी को मूर्ख बतलाने का कारण पूछा। जाटनी ने कहा–“जोधाजी ने ( एक मूर्ख आदमी के समान ) एक दम मंडोर पर आक्रमण कर दिया। यही कारण था कि उन्हें उसमें असफलता हुई।” जाटनी की इस बात से जोधा जी को बड़ा उपदेश मिला। उन्होंने इ० स० 1453 में सांकला हरयू , और भाटी जेसा की सहायता से मन्डोर पर आक्रमण किया और राणाजी की सेना को हराकर उस पर अपना अधिकार कर लिया। जब यह समाचार राणाजी के पास पहुँचा तो वे खुद सेना लेकर मारवाड़ पर चढ़ आये। राव जोधा जी ने भी सेना संगठित कर राणाजी का सामना करने के लिये कूच बोल दिया। यह देखकर कि राठौड सैनिक “कार्य साधयामि वा शरीर पातयामि” पर तुले हुए हैं, राणाजी वापस मेवाड़ लौट गये। अब तो जोधा जी का उत्साह बढ़ गया। एक भारी सेना एकत्रित करके,
उन्होंने अपने पिताजी की मृत्यु का बदला लेने के लिये मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। गोंडवाड को लूटकर जोधा जी चित्तौड़ की तरफ बढ़े। उन्होंने वहाँ पहुँच कर किले के दरवाजों को जला डाला और शहर में घुस कर धूमधाम मचा दी।

राव उदय सिंह राठौड़ मारवाड़
राव उदय सिंह राठौड़ मारवाड़

राणाजी ने देखा कि शत्रु का सामना करना कुछ कठिन है तो वह
अपने पुत्र उदय सिंह को जोधा जी के साथ सन्धि कर लेने के लिये भेज दिया। संधि में तय हुआ कि दोनों राज्यों की सीमाएँ आंवला और बबूल के झाड़ों द्वारा निर्धारित कर ली जायें। उदयपुर की सीमा पर आंवले का झाड़ और मारवाड़ की सीमा पर बबूल का झाड़ लगा दिया गया। इसी समय से जोधा जी अत्याधिक शक्तिशाली होते गये। इं० स० 1408 में जोधा जी ने मन्डोर से तीन कोस के अन्तर पर की एक पहाड़ी पर किला बनवाया। इस किले के किवाड अभी भी जोधा जी के किवाड़ों के नाम से प्रसिद्ध हैं। उक्त पहाड़ी की सतह में जोधा जी ने अपने नाम से जोधपुर नामक शहर बसाया। किले के पास ही “ रानीसर ” नामक एक तालाब है जो कि राव जोधा जी की रानी द्वारा बनाया गया था।

सन् 1474 में जोधा जी ने छपरा, द्रोणपुर (वर्तमान बिदावती)
आदि के राजा को हरा कर मार डाला। फिर अपने पुत्र बिदा को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया। इसी प्रकार आपने सांकला सरदार जेसाल को हरा कर उसका जांगल प्रान्त ( वर्तमान बीकानेर ) हस्तगत कर लिया। इस प्रान्त पर जोधा जी के पुत्र बीकाजी का अधिकार रहा। वर्तमान बीकानेर शहर इन्हीं बीकाजी का बसाया हुआ है। इस समय अजमेर, मालवा-राज्य के आधीन था। राव जोधा जी ने इस प्रान्त के 360 गावों पर अपना अधिकार कर लिया। ये गाँव मेड़ता जिले में मिला लिये गये। बरसिंह जी और दुदाजी वहाँ के शासक नियुक्त कर दिये गये।

एक समय राव जोधा जी गया जी की यात्रा करन गय हुए थे। वहाँ
पर आपने यात्रियों पर भारी टैक्स लगा हुआ पाया। उस समय गया जौनपुर के राजा के अधिकार में था। अतएव उससे कहकर यात्रियों पर का वह टैक्स माफ़ करवा दिया। सन् 1498 में राव जोधा जी का स्वर्गवास हो गया। आपके बीस पुत्र थे। अपनी मृत्यु होने के पहले ही आप अपने पुत्रों को अलग अलग जागीर प्रधान कर गये थे , ताकि वे आपस में झगड़ने न पावें। आपने अपने जीवन का अन्तिम समय बड़ी ही शान्ति के साथ व्यतीत किया। आप बड़े पराक्रमी, दानी एवं दूरदर्शी शासक थे।

राव सातल जी

जोधा जी का स्वर्गवास हो जाने पर उनके पुत्र सातल जी वि० सं०
1547 में जोधपुर राज्य की गद्दी पर बिराजे। सातलजी ने तीन वर्ष राज्य किया। आपने अपने भतीजे नराजी को दत्तक ले लिया था। आपके भाई बरसिंहजी ओर दुदाजी ने जिनको कि जोधा जी ने मेड़ता के शासक नियुक्त कर दिये थे-सांभर लूट ली। अतएव अजमेर का सूबेदार मल्लूखां बदला लेने के लिये चढ़ आया। राव सातल जी, राव सुजा जी के साथ अपने भाइयों की मदद के लिये चले। मल्लूखां ने पीपाड़ के पास आकर अपना पड़ाव डाला। इस समय पीपाड़ गांव की स्त्रियां गौरी-पूजा के निमित्त बाहर गई थीं। मल्लूखाँ की दृष्टि इन पर पड़ी और उसने इन्हें पकड लिया। जब यह खबर चारों राठौड़ भ्राताओं को लगी तो उन्होंने मल्लूखां पर चढ़ाई कर दी। कोसाना नामक स्थान पर लड़ाई हुई। मुसलमानों का सेनापति घड़ूका मारा गया। मल्लूखां भाग गया। इस युद्ध में राव सातल जी भी वीरगति को प्राप्त हुए। ई० स० 1490 में सातलजी की रानी फूलां ने फूलेलाव नामक तालाब बनवाया। फलौदी जिले के कोलू नामक गाँव में एक शिला-लेख मिला है। इसमें जोधा जी को महाराव और सातलजी को राव की पदवी से सम्बोधित किया गया है। इस पर से मालूम होता है कि सातलजी अपने पिता के जीते जी ही फलोदी के शासक नियुक्त हो गये थे।

राव सुजा जी

राव सातल जी के याद राव सुजा जी सन् 1491 में जोधपुर राज्य की गद्दी पर बिराजे। सुजा जी को नाराजी नामक पुत्र सातलजी द्वारा दत्तक लिये गये थे। पर सातलजी का स्वर्गवास होते ही सुजा जी ने राज्य पर अधिकार कर लिया। नाराजी की सिर्फ पोकरन और फलोदी के जिले दे दिये गये। इस समय फलोदी एक छोटा सा गांव था। पोकरन मल्लिनाथ जी के पोत्र हमीर जी के वंशजों के अधिकार में था। पर नाराजी ने उन्हें वहां से हटाकर पोकरन पर अधिकार कर लिया। अजमेर के सूबेदार मल्लूखाँ ने सुजा जी के भाई बरसिंह जी को अपने यहाँ कैद कर रखे थे। यह बात जब सुजा जी को मालूम हुई तो उन्होंने अजमेर पर चढ़ाई कर दी। इनके अजमेर पहुँचने के पहले ही उनके भाई बीकाजी और दुदाजी ने ने उक्त स्थान पर चढ़ाई कर बरसिंहजी को लौटा देने के लिये मल्लूखाँ को बाध्य किया। इस प्रकार बरखिंहजी को छुड़ाकर तीनो भाई मेड़ता आ गये।

जेतारण पर बहुत समय से सिन्धल राठौड़ों का अधिकार था।
यह प्रान्त इनको मेवाड़ के राणाजी की ओर से मिला था। जब जोधाजी ने गोड़वाड जिले का बहुत सा हिस्सा राणाजी से जीत लिया तो जतारण के राठौड़ों ने भी उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। पर सुजा जी ने गद्दी पर बैठते ही सिन्धल राठौड़ों को जतारण से निकाल दिये। यह स्थान सुजा जी ने अपने पुत्र उदाजी को दे दिया। सुजा जी के सब से बढ़े पुत्र का नाम बाघजी था । इनका देहान्त सुजा जी के जीते जी ही हो गया था। 23 वर्ष राज्य कर लेने पर राव सुजा जी का भी देहान्त हो गया। जिस समय बाघजी मृत्यु-शैय्या पर पड़ हुए थे, उनके पिताजी ने उन्हे अपनी अन्तिम इच्छा प्रदर्शित करने के लिये कहा। कुँवर बाघजी ने उत्तर दिया “मेरी अन्तिम इच्छा यह है कि आप के बाद मेरा पुत्र गद्दी पर बेठे।” राव सुजा जी ने यह बात मंजूर की ओर बाघजी के पुत्र वीरमजी को युवराज बना दिया। पर सुजा जी की मृत्यु हो जाने पर वीरमजी के हकों का बिलकुल खयाल न रखते हुए उनके छोटे भाई राव गांगा जी गद्दी पर बैठ गये।

राव गांगा जी

राव सुजाजी के बाद वि० सं० 1572 में राव गांगा जी जोधपुर राज्य पर राज्यासीन हुए। ये भी बड़े वीर थे। वि० सं० 1572 में जब महाराणा संग्राम सिंह और बाबर के बीच युद्ध हुआ था, उस समय राव गांगा जी महाराणा की ओर से बड़ी ही वीरता पूर्वक लड़े थे। और भी कई छोटे बड़े युद्धों में इन्होंने भाग लिया था। ई० स० 1531 में इनका स्वर्गवास हो गया।

राव मालदेव जी जोधपुर राज्य

राव गांगाजी के स्वर्गवासी होने के पश्चात्‌ उनके पुत्र राव मालदेव जी जोधपुर राज्यगद्दी पर आसीन हुए। ये बढ़े शक्तिशाली नरेश हो गये है। इन के पास 80000 सेना थी । इनके समय में जोधपुर राज्य का विस्तार बहुत विस्तृत हो गया था। जिस समय राव मालदेव जी गद्दी पर बेठे, उस समय उनके अधिकार में सिर्फ जोधपुर और सोजत जिला रह गया था। नागोर, जालोर, सांभर, डीडवाना और अजमेर पर मुसलमानों का राज्य था। मल्लानी पर मल्लिनाथजी के वंशज राज्य करते थे। गोड़वाड़ मेवाड़ के राणाजी के हाथों में था। सांचोर में चौहानों का अधिकार था। मेड़ता वीरमजी के आधिपत्य में था। पर कुछ ही समय में उक्त सब परगने मालदेव जी द्वारा हस्तगत कर लिये गये। इतना ही नहीं वरन चाटसू , नरेना लालसोत, बोनली, फतेहपुर, झूमनूँ आदि आदि स्थानों पर भी इन्होंने अपना अधिकार कर लिया था। आपने अपने राज्य के पश्चिम की ओर से छोहटन और पारकर परमारों से, और उमरकोट, सोढ़ाओं से जीतकर अपने राज्य में मिला लिये। दक्षिण में राधनपुर आदि पर भी आपने अधिकार कर लिया। बदनूर, मदारिया और कोसीथल नामक स्थान भी मेवाडवालों से छीन लिये। पुरमंडल, केकड़ी, मालपुरा, अमरसर, टोंक और टोड़ा नामक स्थानों को आपने जीतकर अपने राज्य में मिला लिये। इन्होंने सिरोही पर भी अपना अधिकार कर लिया था, पर वहाँ के शासक उनके रिस्तेदार थे, अतएव सिरोही उन्हें वापस लौटा दी गई। राव मालदेव जी ने बीकानेर नरेश को वहाँ से हटाकर वह राज्य भी अपने राज्य में मिला लिया था। इस प्रकार सब मिलाकर 52 जिलों और 84 किलों पर मालदेव जी ने अधिकार कर लिया था।

चित्तौड़ के राणा उदयसिंह जी को भी मालदेवजी ने कई वक्त सहायता दी थी। राणा विक्रमादित्य जी की मृत्यु के बाद राणा सांगा का अवेध पुत्र बनवीर राज्य का अधिकारी बन बैठा। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह कुम्भलमेर भाग गये। वहाँ से उन्होंने राव मालदेव जी को सहायता के लिये लिखा। मालदेव जी ने तुरन्त अपने जेता और कुंपा नामक दो बहादुर सेनापतियों को सहायतार्थ भेज दिये। सन् 1540 में उन्होंने बनवीर को चित्तौड़ की गद्दी पर से उतारकर उसके स्थान पर उदयसिंह जी को बिठा दिया। इस सहायता के उपलक्ष में राणाजी ने 4000p फिरोज़ी सिक्के और एक हाथी मालदेव जी को भेंट किया।

सन् 1542 में मुगल सम्राट हमायूँ, के शेरशाह द्वारा तख्त से उतार
दिये जाने पर वह मालवदेव जी की शरण में आया। तीन चार माह तक वह मन्डोर में रहा। किसी के समझा देने पर, कि मालदेव जी उसका खजाना लूटना चाहते हैं, वह मारवाड़ से चला गया। हम ऊपर कह चुके है कि मेड़ता के सरदार वीरमजी और राव मालदेवजी के बीच अनबन हो गई थी। अतएव मालदेवजी ने मेडता से बीरमजी को निकाल दिया। वीरमजी शेरशाह के आश्रय में चले गये। वहाँ जाकर वे उसे मालदेव जी पर चढ़ाई करने के लिये उडकसाने लगे। शेरशाह वीरमजी की बातों में आकर मालदेव जी पर चढ़ आया। अजमेर के सुमेला नामक स्थान पर उसने अपनी छावनी डाल दी। मालदेव जी भी शत्रु का मुकाबला करने के लिये अपनी सेना सहित गिरी नामक स्थान पर आ धमके। मालदेव जी की सना को देख कर शेरशाह का धेर्य जाता रहा। वह भागने का विचार करने लगा। पर उस समय उसकी स्थिति ऐसी हो गई थी कि वह भाग भी नहीं सकता था। यदि वह भागता तो मालदेव जी की सेना द्वारा तहस नहस कर दिया जाता। डर के मारे उसने बालू के बोरे भरवा कर अपनी सेना के चारों ओर रखवा दिये। इस प्रकार दोनों ही ओर एक माह तक सेना पड़ी रही। फरिश्ता का कहना है कि “यदि शेरशाह को कुछ भी मौका मिल जाता तो वह अवश्य भाग जाता।” पर हम ऊपर कह चुके हैं
कि उसकी स्थिति बड़ी खराब थी। सुरक्षितता से वह भाग भी नहीं सकता था। ऐसे समय में वीरमजी ने उसे बहुत कुछ ढांढस बँधवाया। इतना ही नहीं, उन्होंने एक चाल भी चली। उन्होंने मालदेव जी के सरदारों की ढालों में सम्राट की सही करवा कर कुछ पत्र रखवा दिये। यह तो इधर किया और उधर मालदेव जी के पास कुछ दूत भेजे गये। इन दूतों ने मालदेव जी से जाकर कहा कि “आपके सरदार सम्राट से मिल गये हैं। यदि आप को हमारा विश्वास न हो तो उनकी ढाल मंगवाकर आप स्वयं देख लें उनमें सम्राट के हस्ताक्षर युक्त पत्र मौजूद हैं। मालदेव जी ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने समस्त सरदारों की ढालें मंगवा कर देखा तो सचमुच उन्हें उसमें सम्राट द्वारा भेज गये पत्र मिले। अब तो राव मालदेव जी हताश हो गये। विजय की आशा छोड़ कर वापस जालोर लौट आये। उनके सरदारों ने उन्हें बहुत कुछ समझाया पर सब व्यर्थ हुआ। अन्त में जेता और कुंपा नामक सरदार युद्ध-क्षेत्र में डटे ही रहे। सिर्फ 12000 राजपूत सैनिकों के साथ इन्होंने 80000 मुसलमानों का सामना बड़ी ही वीरता के साथ किया। मुकाबला ही क्‍यों, यदि मुसलमानों की सहायतार्थ और सेना न आ गई होती तो इन्होंने उन्हें हरा ही दिया था। सहायता पा जाने से शेरशाह ने दूने उत्साह से राजपूतों पर हमला कर दिया। जेता और कुंपा अपने तमाम सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। शेरशाह की विजय हुई। इस युद्ध के लिये शेरशाह ने कहा था कि, “एक मुठ्ठी भर बाजरे के लिये मेंने हिन्दुस्तान का साम्राज्य खो दिया होता।

महाराजा अभय सिंह जोधपुर
महाराजा अभय सिंह जोधपुर

इस लड़ाई के बाद ही से मालदेव जी का सितारा कुछ फीका पड़ गया। सन 1548 में यद्यपि रावजी ने अजमेर और बागोर पर पुनः अधिकार कर लिया था तथापि यह अधिकार बहुत दिनों तक नहीं रह सका। सन् 1556 में हाजी खाँ नामक एक पठान ने मालदेव जी से अजमेर छीन लिया। इसी बीच सन् 1556 में सम्राट अकबर दिल्ली के तख्त पर आसीन हो गया था। उसने आंबेर नरेश भारमलजी को अपनी ओर मिला कर राजपूताने के कुछ जिले हस्तगत कर लिये थे। सन् 1557 में अकबर ने शाहकुली खाँ साशक जनरल को भेजकर हाजीखाँ को भगा दिया और अजमेर प्रान्त शाही सल्तनत मे मिला लिया। इस युद्ध के द्वारा अजमेर, जेतारण और नागोर के जिले अकबर की अधीनता में गये। धीरे धीरे मारवाड़ के पूर्वीय भाग पर भी सम्राट का अधिकार हो गया। राव मालदेव जी के अधिकार में बहुत थोड़ा सा प्रान्त रह गया। सन् 1562 में अजमेर के सूबेदार शर्फुद्दीन हुसेन मिर्जा ओर राठोड़ देवीदासजी तथा जयमलजी के बीच मेड़ता में युद्ध हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि मालदेव जी को मेड़ता प्रान्त से भी हाथ धोना पड़ा। इस प्रान्त में सम्राट की ओर से वीरमजी के पुत्र जयमल जी सूबेदार नियुक्त किये गये। इसी साल राव मालवदेव जी ने जोधपुर नगर में अपनी इहलोक यात्रा संवरण की।

राजा उदयसिंह जी जोधपुर राज्य

राव मालदेवजी का स्वर्गवास हो जाने पर चन्द्रसिंह जी जोधपुर राज्य की गद्दी पर बिराजे। इनके बाद सन् 1584 में राव उदय सिंह जी सिंहासनारूढ़़ हुए। आपने अपनी लड़की का विवाह शाहज़ादा सलीम से और अपनी बहिन का विवाह सम्राट अकबर के साथ कर दिया था। सम्राट अकबर ने खुश होकर आपको आपका सारा मुल्क लौटा दिया। हाँ, अजमेर को सम्राट ने अपने ही अधीन रखा। राजपूत लोग उदयसिंह जी को मोटा राजा कह कर पुकारते थे। इनका शरीर इतना स्थूल हो गया था कि ये घोड़े पर भी नहीं चढ़ सकते थे। आपने 13 वर्ष राज्य किया। मारवाड़ के प्राय: समस्त भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि राठौड़ कुल के राजकुमारों की नीति-शिक्षा उत्तम रीति से हुआ करती थी। उनकी नीति-शिक्षा का भार विश्वासी और बुद्धिमान सरदारों को सौंपा जाता था। सब से पहले सरदार लोग इन्हें इम्द्रिय-दमन की शिक्षा दिया करते थे। पर उदयसिंह जी से इस बात का नितान्त अभाव था। यद्यपि आपके 27 रानियाँ थी पर फिर भी समय समय पर आप अपनी विषय- लोलुपता का परिचय दे ही जाते थे। इस सम्बन्ध की एक घटना को लिख देना आवश्यक समझते हैं।

एक समय उदय सिंह जी बादशाह के दरबार से लौट रहे थे कि रास्ते में बिलाड़ा नामक ग्राम में एक सुन्दरी ब्राह्मण कन्या पर इनकी दृष्टि पड़ी। उस बाला के अद्भुत सौंदर्य को देख कर उदय सिंह जी का मन हाथ से जाता रहा। उन्होंने उसके पिता से उसे देने के लिये कहा। पर जब ब्राह्मण ने यह बात स्वीकार न की तो इन्होंने बलात्कार करना निश्चित किया। जब यह बात उक्त ब्राह्यण को मालूम हुई तो वह बड़ा क्रोधित हुआ। उसने निश्चय कर लिया कि प्राण भले ही चले जाये पर अपने जीते जी अपनी लड़की का इस प्रकार अपमान न देख सकूंगा। उसने अपने आंगन में एक बड़ा होम-कुंड खोदा। फिर उस कन्या के टुकड़े टुकड़े करके उस यज्ञ कुंड में डाल दिये। बहुत सी लकडियां और घृत भी उसमें डाला गया। दुर्गन्धमय धूमराशि उसके आंगन में भर गई । ज्वाला की भयंकर लपटे धांय धांय करती हुई आकाश-मंडल को चूमने लगीं। इसी समय उस ब्राह्मण ने खड़े होकर राजा को श्राप दिया “तुझको अब कभी शान्ति न मिलेगी। आज से तीन वर्ष, तीन माह, तीन दिन और तीन पहर के मध्य में मेरी यह प्रतिहिंसा अवश्य पूर्ण होगी।” यह कह कर वह ब्राह्मण भी उस जलते हुए अग्नि कुंड में कूद पड़ा। अग्नि की अगणित लपटों ने उसे भी वहीं भस्मीभूत कर दिया। यह भयंकर और वीभत्स समाचार राजा उदयसिंह जी के कानों तक पहुँचा। कहा जाता है कि इसी समय से ये एक क्षण भरके लिये भी शान्ति प्राप्त न कर सके। उनका अन्तिम काल इसी प्रकार विषाद में व्यतीत हुआ।

राजा शूरसिंह राठौड़

उदय सिंहजी की मृत्यु के पश्चात्‌ इनके पुत्र शूरसिंह जी जोधपुर राज्य-सिंहासन पर बिराजे। श्रखिंहजी एक पराक्रमी और रण-
कौशल नरेश थे। आपकी वीरता पर मुग्ध होकर सम्राट अकबर ने आपको सवाई राजा की उपाधि प्रदान की थी। शूरसिंह जी ने सिरोही के राव सुरतान जी को परास्त कर उनसे मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकृत करवाई थी। इसके बाद आपने गुजरात के मुजफ्फर शाह पर चढ़ाई कर उसे हराया और बहुत सा लूट का माल सम्राट के पास भेजा। इस विजय में आपको भी बहुत सा द्रव्य प्राप्त हुआ था। इस द्रव्य से आपने जोधपुर नगर के कई दुर्गो’ और महलों का जीर्णोद्धार करवाया था। नर्मदा नदी के किनारे अमर नामक एक वीर राजपूत निवास करता था। इसने इस समय तक बादशाह की अधीनता स्वीकार नहीं की थी, अतएव इस बार शूरसिंह जी उस पर भेजे गये। इन्होंने उसे भी परास्त कर दिया। अमर युद्ध” क्षेत्र में काम आया। सम्राट ने इस विजय से प्रसन्न होकर एक नौबत और धार का राज्य इन्हें दे दिया था। सन् 1620 में वीरवर शुरसिंह जी ने दक्षिण में अपने प्राण त्याग किये।

राजा गजसिंह राठौड़ जोधपुर राज्य

शूरसिंह जी के बाद आपके सुयोग्य पुत्र गजसिंह जी जोधपुर राज्य की गद्दी पर बिराजे। बादशाह के प्रतिनिधी दारब खाँ ने आपका राज्याभिषेक किया। गद्दी पर बैठते समय सम्राट की ओर से गुजरात का सदत विभाग, ढूंढार के अन्तर्गत मिलाप और अजमेर के निकटवर्ती मसूदा नामक नगर जागीर में मिला था। इसके अतिरिक्त सम्राट ने आपको दक्षिण के सूबेदार के पद पर नियुक्त किया था। आपके राज्यकाल में कोई विशेष उल्लेखनीय घटना नहीं हुईं। सन् 1639 में गुजरात के एक युद्ध में आपका प्राणान्त हुआ। आपके बाद आपके पुत्र अमरसिंह गद्दी के वारिस थे पर ये अत्यंत उद्धत एवम युद्ध-प्रिय थे। अतएव आपने अपने जीते जी ही उनका गद्दी का अधिकार छीन लिया था। इतना ही नहीं, अमर सिंहजी को एकान्तवास के लिये भी कहीं भेज दिया था। आपकी इस इच्छा के अनुसार आपके बाद गद्दी का अधिकार अमर सिंहजी के छोटे,भाई जसवन्त सिंह जी को मिला।

महाराजा जसवंत सिंह जी जोधपुर राज्य

सन् 1638 में महाराजा जसवंत सिंह जी जोधपुर राज्य की गददी पर
विराजे। आपका जन्म सन् 1626 में बुरहानपुर नामक नगर में हुआ था। राज्य-गद्दी पर बैठने के समय आपकी उम्र 12 वर्ष की थी। सम्राट आप पर बड़ा अनुग्रह करते थे। गद्दी पर बैठ जाने के बाद पांच हजारी मनसबदार की इज्जत आपको मिली। काबुल के युद्ध में सम्राट आपको साथ ले गये थे। जसवन्त सिंहजी की अनुपस्थिति में सम्राट ने राजसिंह नामक कुमावत सरदार को मारवाड़ का राज्य-प्रबंध चलाने के लिये भेज दिया था। राजसिंह जी बड़े बुद्धिमान और स्वामिभक्त थे। उन्‍होंने जसवन्त सिंह जी को अनुपस्थिति में जोधपुर राज्य का अच्छा प्रबंध किया।

सन् 1645 में सम्राट शाहजहाँ ने जसवन्त सिंह जी को 6 हजारी
मनसबदार बना दिया। इतना ही नहीं, सम्राट द्वारा एक भारी रकम पर्सनल अलाउन्स के बतौर आपको मिलने लगी। इसी साल आपको महाराजा का महत्वपूर्ण खिताब भी मिला। इनके पहले किसी भी राजपूत नरेश को यह खिताब प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। सन् 1649 में पोकरन के शासक रावल महेशदास जी का स्वर्गवास हो गया। इसलिये पोकरन की जागीर सम्राट ने महाराजा को प्रदान कर दी। जसवन्त सिंह जी ने अपनी सेना भेजकर पोकर पर अपना अधिकार जमा लिया।

महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ मारवाड़
महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ मारवाड़

सन् 1657 में सम्राट शाहजहाँ के बीमार हो जाने के कारण उसके पुत्रों में साम्राज्य के लिये झगड़े शुरू हुए। इन झगड़ों में महाराजा
जसवन्त सिंह जी ने सम्राट के ज्येष्ठ पुत्र दारा का पक्ष लिया था क्‍यों कि राज्य का वास्तविक अधिकारी यही था। अपने पिता की बीमारी का हाल सुनकर औरंगज़ेब ओर मुराद-जोकि दक्षिण की सूबेदारी पर नियुक्त थे अपनी सेना सहित दिल्‍ली पर अधिकार करने के लिये रवाना हो गये। ऐसे समय में सम्राट ने महाराजा जसवन्त सिंह जी को कई मुगल सरदारों के साथ उक्त शाहजादों का दमन करने के लिये भेजा। इस अवसर पर सम्राट ने महाराजा को 7000 हजारी मनसबदार बनाकर मालवे का सूबेदार नियुक्त किया। इतना ही नहीं, सम्राट ने आपको एक लाख रुपया इनाम में दिया और मुगल सेना का प्रधान सेनापति भी बनाया। इस समय महाराजा जसवन्त सिंह जी के हाथ के नीचे 22 उमराव थे जिनमें से 15 मुसलमान ओर बाकी 7 हिन्दू थे।

धूर्त औरंगजेब ने मुसलमान सरदारों को चालाकी से अपनी तरफ़ मिला लिया। उज्जैन के समीप फतेहाबाद नामक ग्राम के पास से ऊऊछूऊमहाराजा जसवन्त सिंह जी और बागी शाहजादों का मुकाबला हुआ। 6 घंटे तक लड़ाई होती रही। अन्त में विजयलक्ष्मी ने औरंगजेब और मुराद को अपनाया। कारण और कुछ नहीं सिर्फ मुगल उमरावों का शाहजादा की तरफ़ मिल जाना था। फिर भी
महाराजा जसवन्त सिंह जी अपने राठौड़ सिपाहियों को ही लेकर बड़ी बहादुरी के साथ लड़े। राठौड़ों ने बात की बात में 10000 मुगलों को धराशायी कर दिया। महाराजा साहब अपने प्रिय घोड़े महबूब सहित खून से शराबोर हो गये। वे भूखे बाघ की तांई जिधर जाते थे उधर ही का रास्ता साफ़ हो जाता था। पर कहाँ तो अथाह मुगल सेना ओर कहाँ मुट्ठी भर राजपूत। जब बहुत कम राजपूत बच रहे और महाराजा जसवन्त सिंह जी के जीवन के धोखे में पड जाने का भय प्रतीत होने लगा, तब राजपूत सरदारों ने उनसे मारवाड़ लौट जाने का अनुरोध किया। महाराजा साहब मारवाड़ की ओर रवाना कर दिये गये। इतना हो जाने पर भी राजपूत समरक्षेत्र त्यागने को तेयार नहीं हुए। उन्होंने रत्नसिंह जी राठौड़ को महाराजा के स्थान पर नियुक्त करके फिर युद्ध शुरू कर दिया। रत्नसिंह जी ने तत्कालीन शाहपुरा-नरेश सुजान सिंहजी की सहायता से शत्रु के तोपखाने पर धावा बोल दिया ओर उसके जनरल मुर्शिदकुली खां तथा उसके सहायकों को कत्ल कर दिया। इस समय यदि औरंगजेब स्वयं उस स्थान पर नहीं पहुँचता तो शत्रुओं के तोपखाने पर रतनसिंहजी का अधिकार हो ही गया होता। इतने ही में मुराद ने जोकि अभी तक दाहिनी बाजू पर नियुक्त था बायी बाजू पर आकर राजपूतों पर ज़ोर का हमला किया। यद्यपि राजपूतों की संख्या मुगलों के सामने कुछ भी नहीं थी तथापि रत्नसिंहजी ओर सुजानसिंह जी मरते दम तक लड़ते रहे। मुगलों के पैर उखड़ गये ओर वे भाग खड़े हुए। कासीसखाँ
आदि विश्वास घातक मुगल सेनापति भी आगरे की तरफ़ चले गये।

इधर महाराजा जसवंतसिंह जी सोजत होते हुए मारवाड़ जा पहुँचे। इस हार से महाराजा को बड़ा सदमा पहुँचा। जब यह खबर आगरे पहुँची तो शाहजहाँ को भी बड़ा दुःख हुआ। उसे यह भी मालूम हो गया कि इस हार का कारण कासीस खाँ आदि मुगल सेनापतियों की विश्वास घातकता है। सम्राट ने तुरन्त एक नया फरमान महाराजा के नाम जारी किया। उसमें लिखा था कि 50 लाख रुपया सांभर के खजाने से ले लो ओर अपनी सेना एकत्रित करके तुरन्त आगरे चले आओ।” शाही फरमान के अनुसार महाराजा जसवन्त सिंहजी जोधपुर का शासन मुहणोत नेणसी के सुपुर्द कर आगरे की तरफ रवाना हुए। एक महीने तक आगरे में ठहर कर वे आगरा के पास दारा शिकोह से जा मिले। धौलपुर के पास औरंगजेब से दूसरी लड़ाई हुईं। इसमें सम्राट की सेना हार गई और उसके रुस्तम खां, शत्रूसाल ( बूंदी-राजा ) और रूपसिंह ( रूप नगर के राजा ) आदि सेना-नायक भी वीरगति को प्राप्त हुए। विजय-माला औरंगजेब के गले में पड़ी। जसवन्त सिंह जी मारवाड़ लौट गये। धौलपुर की विजय के बाद औरंगजेब ने अपने पिता सम्राट शाहजहाँ को कैद में डाल दिया और आप तख्त पर बैठ गया। इतना ही नहीं, जिस मुराद की सहायता से वह इतने बढ़े विशाल साम्राज्य का अधिपति हुआ था वह भी उसकी आँखों में खटकने लग गया। मौका पाते ही मुराद को भी जेल में ही नहीं,वरन जुहन्नुम में भिजवा दिया।

उन तमाम आदमियों में से जो कि औरंगजेब के खिलाफ लड़े थे,
सिर्फ जसवन्त सिंह जी ही एक ऐसे थे जो बचे हुए थे। पाठक इसका कारण यह न समझ लें कि जसवंत सिंह जी पर सम्राट की कृपा थी अथवा उन्हें माफ़ी प्रदान कर दी थी। बात दर असल में यह थी कि औरंगजेब उनकी शक्ति से परिचित था और इसी लिये वह उनसे डरता था। वह शान्तिमय उपायों से जसवन्त सिंह जी को अपनी ओर मिला लेना चाहता था। उसने आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह जी को भेज कर सम्मान पूर्वंक जसवन्त सिंह जी को दिल्‍ली बुलवा लिये और उनके साथ समझौता कर लिया।

इसी समय शाहशुजा साम्राज्य प्राप्ति की आशा से या मृत्यु की प्ररेणा से बंगाल से रवाना होकर दिल्ली की तरफ आ रहा था। औरंगजेब ने उसका सामना करने के लिये अपने पुत्र सुल्तान महमद और महाराजा जसवन्त सिंह जी को भेजे। औरंगजेब भी स्वयं साथ गया। खजुआ नामक स्थान पर महाराजा जसवन्त सिंह जी ओर शुजा का मुकाबला हुआ। इस अवसर पर जसवन्त सिंह जी ने अपने गुप्त दूत द्वारा शुजा से कहलवा भेजा कि मेंने युद्ध में भाग न लेने का निश्चय कर लिया है अतएव महमद के साथ तुम जो चाहो कर सकते हो। रात्रि के समय महाराजा जसवन्त सिंह जी ने केम्प को लूट लिया और जो कुछ मिला उसे लेकर वे मारवाड़ की तरफ रवाना हो गये। औरंगजेब ने भी शुजा पर हमला कर दिया। शुजा हार गया।

अब दारा शिकोह-जो सिन्ध की तरफ भाग गया था- अजमेर पहुँचा। उसका खयाल था कि जसवंत सिंह जी की सहायता से वह फिर औरंगजेब का सामना कर सकेगा। पर औरंगजेब ने पहले ही जसवंत सिंह जी को मिला लिया था। वह बखूबी जानता था कि अगर दारा और जसवन्त सिंह जी मिल गये तो अपनी स्थिति संकटापन्न हो जायगी। इसी विचार से उसने मिर्जा राजा जयसिंहजी को जसवन्त सिंह जी के पास भेजा और कहला भेजा कि यदि जसवंत सिंह जी दारा को सहयोग न देंगे तो उनको मुगल सेना में फिर से अच्छा पद प्रदान कर दिया जायेगा। जसवंत सिंह जी दारा से मिलने के लिये मेड़ता तक आ गये थे पर आखिर औरंगजेब की कूट-नीति-पूर्ण चाल काम कर गई। जसवन्त सिंह जी का विचार बदल गया। वे औरंगजब द्वारा दिखलाये गये प्रलोभनों में फँस गये। वे उस समय शत्रु, मित्र की पहचान न कर सके। दारा से बिना मिले ही वे वापस जोधपुर चले गये।

सन् 1659 में औरंगजेब ने जसवंत सिंह जी की फिर से 7000
हज़ारी मनसबदार का खिताब देकर गुजरात के सूबेदार नियुक्त कर दिये। इसके दो वर्ष बाद इन्हें शाईस्तखाँ के साथ प्रसिद्ध महाराष्ट्र वीर छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध युद्ध में जाना पड़ा था। औरंगजेब की इच्छा शिवाजी को समूल नष्ट कर डालने की थी पर यह बात महाराजा जसवन्त सिंह जी को न रुचती थी। वे नहीं चाहते थे कि शिवाजी का बाल भी बांका हो। उनको मराठों का भविष्य उज्जवल प्रतीत होता था। उन्हें विश्वास था कि मराठों द्वारा फिर से हिन्दुओं का सितारा चमकेगा ओर हिन्दुस्थान में हिन्दुओं का साम्राज्य स्थापित होगा। अतएव महाराजा जसवन्त सिंह जी ने रणछोड दास नामक अपने एक विश्वासपात्र नौकर को शिवाजी के पुत्र के पास भेजा। शिवाजी का पुत्र जसवन्त सिंह जी के पास आया तो उन्होंने सम्राट की तमाम कूट-नीति-पूर्ण चालें उसके सामने खोल दीं। यह खबर शाइस्ताखाँ को लग गई। उसने सम्राट को लिख भेजा कि जसवन्त सिंह जी शिवाजी से मिले हुए हैं। इधर शिवाजी भी चुपचाप नहीं बेठे थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि जसवंत सिंह जी मेरे पक्ष पर हैं तो उन्होंने एक रात को शाईस्त खाँ पर छापा मारा। शाईस्तखाँ प्राण लेकर बेतहाशा भागा। अन्त में औरंगजेब ने शाइस्तखाँ ओर जसवंत सिंह जी को वापस बुला लिये। वहाँ आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह जी और शाहज़ादा मुअज्जम को भेजा।

महाराजा जसवंत सिंह जी को एक बार और शाहाज़ादा मुअज्जम के साथ दक्षिण में जाना पड़ा था। इस समय आप चार वर्ष तक लगातार यहाँ रहे। इस अर्से में शाहज़ादा मुअज्जम को अपने पिता औरंगजेब के खिलाफ उभारा, पर इस स्क्रीम के कार्यरूप में परिणत होने के पहले ही सम्राट ने मुअज्जम की जगह महावत खाँ को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेज दिया। यह देख जसवन्त सिंह जी वापस मारवाड़ लौट आये। कुछ समय यहाँ रहकर फिर आप अपने पुत्र पृथ्वी सिंह जी के साथ शाही दरबार में जा शामिल हुए। सन् 1670 में महाराजा जसवन्त सिंह जी तीसरी बार गुजरात के सूबेदार हुए। यहाँ तीन वर्ष रहने के बाद आप पठानों का दमन करने के लिये काबुल भेजे गये। काबुल जाकर महाराजा ने अपनी रण-कुशलता से पठानों को परास्त कर दिया। आपके हमलों से पठान पीछे हट गये। इस प्रकार अपने कर्तव्य का पालन कर महाराजा सीमान्त प्रदेश के जमरोज नामक स्टेशन पर रहने लगे। अपने जीवन के शेष दिन आपने इसी स्थान पर व्यतीत किये।

काबुल जान के पहले महाराजा जसवंत सिंह जी अपने राज्य की
तमाम शासन-व्यवस्था अपने पुत्र पृथ्वीसिंह जी को सौंप गये थे। एक दिन सम्राट ने बड़ी क्षुद्गता का बर्ताव किया। उसने भरे दरबार में पृथ्वीसिंह जी के दोनों हाथ पकड़ लिये और उनसे कहा कि “अब तुम क्या कर सकते हो पृथ्वीसिंह जी ने जबाब दिया “ईश्वर आपकी रक्षा करे। जब प्राणि-मात्र का शासक ( ईश्वर ) अपनी गरीब से गरीब प्रजा पर रक्षा का एक हाथ फैला देता है तो उसकी सम्पूर्ण कामनाएँ सफल हो जाती हैं। आपने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये हैं। अब मुझे किस बात की चिन्ता है। अब तो मुझे विश्वास होता है कि में समस्त संसार को पराजित कर सकता हूँ।” इस पर सम्राट ने कहा कि “यह दूसरा कुट्टन है” कुट्टन शब्द का प्रयोग बादशाह जसवंत सिंह जी के लिये किया करता था। जो कि हमेशा उसकी (सम्राट की) जाल से छूटकारा करने की कोशीश में लगे रहते थे, और थप्पड़ का बदला घूंसे से देने में तनिक भा नहीं हिंचकते थे। औरंगजेब, पृथ्वीसिंह के उक्त जबाव से प्रसन्न हो गया और उसने उन्हें एक बढ़िया सिरोपाव पहिनने के लिये प्रदान किया। इस घटना के थोड़े ही दिन बाद पृथ्वीसिंह जी का देहान्त हो गया। कहा जाता है कि उनकी मृत्यु का कारण उक्त सिरोपाव था जोकि बादशाह की तरफ से उन्हें मिला था। इसी सरोपाव में जहर मिला हुआ था। पर कुछ इतिहास लेखकों का मत है कि पृथ्वीसिंह जी छोटी माता की बीमारी के कारण परलोकवासी हुए।

जब पृथ्वी सिंह जी को मृत्यु का समाचार उनके पिता जसवन्त सिंह जी के पास पहुँचा तो उन पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। वे दुःख-सागर में गोते मारने लगे। वे इतने अधीर हो उठें कि पृथ्वी सिंह जी की स्वरगस आत्मा को तर्पण देत समय वे कह उठे “हे पुत्र पृथ्वीसिंह यह अंजली तुम्हें ही नहीं, वरन मारवाड़ को भी देता हूँ” इसका अर्थ यह था कि में अब मारवाड़ के राज्य-शासन में हाथ न डालूंगा। काबुल का सूबेदार हमेशा पठानों के साथ युद्ध करने में लगा रहता था। इसका कारण यह था कि मुगलों द्वारा बार बार हराये जाने पर भी पठान लोग लूट-खसोट किया करते थे । इसी प्रकार की एक लड़ाई में एक शाही मनसबदार शत्रुओं द्वारा मार डाला गया। उसकी सेना भाग खड़ी हुईं। जब यह खबर महाराजा को लगी तो वे खुद उस सेना की सहायता पर जा पहुँचे। फिर से युद्ध हुआ और पठान लोग भाग खड़े हुए। इस घटना से पठानों पर इतना आतंक छा गया था कि जसवंत सिंह जी का नाम सुनते ही वे कांपने लग जाते थे। महाराजा जसवंत सिंह जी ने पाँच वर्ष काबुल में रह कर वहाँ पूर्ण शांति स्थापित कर दी।

सन् 1678 में जमरोज ( काबुल ) नामक स्थान पर महाराजा
जसवंत सिंह जी का स्वर्गवास हो गया। आप दुरदर्शी, बुद्धिमान एवं राजनीतिज्ञ थे। साहित्य के तो आप बड़े प्रेमी थे। वेदान्त में भी आप अपना दखल रखते थे। आपने ‘भाषा-भूषण’ ओर ‘स्वात्यानुभव नामक पुस्तकें भी लिखी थीं। आपके अन्तिम दिन हिन्दुस्थान के उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में ही बीते। कूटनीतिज्ञ औरंगजब द्वारा महाराजा जसवंत सिंह जी को इतनी दूर भेजे जाने के कई कारण थे। औरंगजेब एक ही गोली में कई शिकार मारना चाहता था। उन दिनों सीमान्त प्रदेश पर पठान लोगों ने वैसा ही ऊधम मचा रखा था जैसा कि आज कल। अतएव जसवन्त सिंह जी के समान शक्तिशाली नरेश का वहां रहना मुगल साम्राज्य की रक्षा के लिये बड़ा आवश्यक था। दुसरे अगर इस कार्य में जसवन्त सिंह जी को अपने प्राणों से हाथ भी धोने पड़ते तो सम्राट को कोई नुकसान न था बल्कि इस बात का फायदा ही था कि वह अपने साम्राज्य के एक शक्तिशाली सरदार से जो कि अवसर पाते ही बगावत शुरू कर सकता है-मुक्त हो जाता। तीसरे इतनी दूर रहने के कारण जसवन्त सिंह जी के लिये बगावत करना नितान्त असंभव हो गया था। यदि वे चाहते तो भी बगावत नहीं कर सकते थे कारण कि अपने राजपूत भाइयों से वे बहुत दूर जा पडे थे।

महाराजा जसवंत सिंह जी भी औरंगजेब की कूट-नीति से भली भाँति परिचित थे। वे हमेशा अपने आपको औरंगजेब से दूर रखते थे। वे अपने धर्म को हृदय से चाहते थे। एक समय ओरंगजेब ने घमंडी होकर बहुत से मन्दिर तुड़वा डाले थे और उनके स्थान पर मस्ज़िदें बनवा दी थीं। इस समय महाराजा जसवंत सिंह जी पेशावर में थे। जब उन्होंने यह समाचार सुने तो उन से न रहा गया । उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों की एक सभा बुलवा कर, घोषणा की कि “यदि सम्राट अपनी नीति से बाज न आयेगा और हिन्दुओं के मन्दिरों को फिर भी नष्ट करेगा तो मजबूर होकर मुझे मस्जिदों को तोड़ने का काम शुरू करना पड़ेगा। इस पर महाराजा के किसी शुभाकामी ने उनसे कहा कि यदि यह बात सम्राट के पास पहुँच गई तो वह आप से बहुत नाखुश होगा। महाराजा ने जबाव दिया “ मेरा आम सभा में यह बात प्रकाशित करने का उद्देश्य ही यह था कि सम्राट तक यह बात पहुँच जाये।

महाराजा अजीत सिंह जी

महाराजा जसवंत सिंह जी की मृत्यु के समय उनकी जादमजी ओर नारुकीजी नामक दो रानियाँ गर्भवती थीं। अतएव कुछ समय
बाद उक्त दोनों रानियों से क्रमशः अजीत सिंह जी और दलथम्भन सिंह जी नामक पुत्रों का जन्म हुआ। पर औरंगजेब ने यह कहकर कि उक्त राजपुत्र राज्य के वास्तविक अधिकारी नहीं हैं। जोधपुर की रियासत को जब्त कर इसके प्रतिवाद-स्वरूप राठौड़ सरदारों ने काबुल से एक पत्र भेजा। पर औरंगजेब ने उनकी एक न सुनी। सिर्फ यह कहकर कि वह अभी तीन मास का है, राज्य देने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अजित सिंह जी को बुलवा लिया जिससे कि राठौड़ सरदार उन्हें मारवाड़ न ले जा सकें। जब राठौड़ सरदारों ने जान लिया कि औरंगजेब जोधपुर राज्य को किसी भी प्रकार से लौटाने में सहमत नहीं है तब वे दिल्‍ली पहुँचे। वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि निःसहाय राजकुमार कड़े पहरे में रखे जाते हैं। यह हालत देख उन्होंने किसी प्रकार राजकुमार को भगा ले जाने की युक्तियां
ढूंढना शुरू किया। इस समय बोर वाड़ के सरदार की स्त्री गंगा स्नान करके लौटकर दिल्‍ली आई हुई थीं। अतएवं अपने विचारों को कार्यरूप में परिणित करने का यह अच्छा अवसर पाया। राठौड़ सरदार दुर्गादास के आदेशानुसार दोनों राजकुमार उक्त सरदारजी के साथ मारवाड़ रवाना कर दिये गये। राजकुमार दलथम्भन सिंह का रास्ते ही में स्वर्गवास हो गया। अजीत सिंह जी को सुरक्षितता से बलंदा नामक स्थान पर पहुँचा दिया। यहाँ से ये सिरोही भेज दिये गये। मुकुन्दास नामक खीची सरदार भी साधु के वेष में आप के साथ आये थे। उक्त सरदार और जग्गू नामक एक ब्राह्मण पुरोहित की आधीनता में वे यहाँ रखे जाने लगे। जब सम्राट को महाराज कुमार के ले जाने की खबर मालूम हुई तो उसने उन्हें वापस लाने का हुक्म दिया। पर राठौड़ों ने इस बात को बिलकुल नामंजूर किया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने राजकुमार की रक्षा के लिये सम्राट के खिलाफ़ लड़ने तक के लिये कमर कस ली। जब सम्राट ने राठौड़ों को किसी भी प्रकार हाथ में आते नहीं देखा तो उसने उनके खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। उसने स्वर्गीय महाराजा जसवंत सिंह जी की दोनों रानियों को मरवाकर उनकी लाशें जमुना में फिंकवा दीं।

सन् 1679 में दिल्‍ली में राठौड़ों और मुगलों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में राठौड़ों की तरफ से जोधा रणछोड़दास और भाटी रघुनाथदास नामक सरदार काम आये। प्रसिद्ध राठौड़ वीर दुर्गादास भी इस युद्ध में जख़्मी हुए। पर हाँ, किसी तरह उनके प्राण बच गये। इतना हो जाने पर जोधपुर की रियासत स्वर्गीय महाराज अमर सिंह जी के पौत्र इन्द्र सिंह जी को दे दी। इन्द्र सिंह जी ने सम्राट की सहायता मिल जाने के कारण जोधपुर राज्य पर अधिकार कर लिया। दुर्गादास और सोनाग नामक चंपावत सरदारों ने अजीत सिंह जी का पक्ष लेकर इन्द्र सिंह जी का विरोध किया। पर आखिर उनकी एक न चली। वे जोधपुर छोड़कर मेवाड़ चले गये जहाँ महाराजा राजसिंह जी ने उनको आश्रय दिया। इसी बीच औरंगजेब दक्षिण विजय करने को गया। इस सुअवसर का फायदा उठा राठौड़ सरदारों ने मारवाड़ से शाही अधिकारियों की भगा दिया और उस पर पुनः अपना अधिकार कर लिया। जब औरंगज़ेब के पास यह खबर पहुँची तो उसने अपने पुत्र अकबर को जोधपुर पर भेजा। दुर्गादास जी ने देखा कि शाही-सेना का मुकाबला नहीं किया जा सकेगा। अतएव उन्होंने कूट-नीति का सहारा लिया। उन्होंने अकबर को दिल्ली का सम्राट बनाने का प्रलोभन दिया। राठौड़ वीर केशरी दुर्गादास ने जो सोचा था वही हुआ। अकबर प्रलोभन में आ गया ओर दुर्गादासजी की तरफ मिल गया। अब दुर्गादासजी और अकबर ने मिलकर एक लाख सेना के साथ औरंगजेब पर हमला कर दिया। इस समय औरंगजेब अजमेर में था। उसके पास केवल 10000 सेना थी। अतएव वह बड़ा असमंजस में पड़ गया। पर औरंगजेब भी ऐसा वैसा आदमी नहीं था। उसने तुरन्त अपने दूसरे लड़के मुअज्जम को–जोकि इस समय उदयपुर था–अपनी सहायतार्थ बुलवा लिया वह इतना ही करके नहीं रह गया। उसने अकबर की तरफ के कई सरदारों को प्रलोभन देकर अपनी तरफ़ मिला लिये। यहाँ तक कि अकबर का प्रधान सेनापति ताहिर खाँ तक सम्राट की तरफ आ मिला। पर औरंगजेब ने उसे मार डाला। अब शाहजादा अकबर के पास बहुत थोड़ी सेना रह गई। उसकी हिम्मत टूट गई। पर औरंगजेब इतना करके ही नहीं रह गया, उसने अकबर की सेना में निम्नलिखित अफ़वाह फैला दी।

महाराजा अजीत सिंह राठौड़ मारवाड़
महाराजा अजीत सिंह राठौड़ मारवाड़

“अकबर बड़ी बुद्धिमानी के साथ राजपूतों को फांस लाया है, अब
उसे चाहिये कि वह युद्ध के समय राजपूतों को सामने रखे और खुद पीछे रहे। युद्ध शुरू होते ही दोनों ओर से राजपूतों पर गोले बरसाना शुरू हो जाँयगे और इस प्रकार बहुत शीघ्र ही शत्रुओं का नाश किया जा सकेगा। ”

यह बात विद्युत-वेग से राजपूत-सेना में फेल गई। औरंगजेब
की कूटनीति काम कर गई। राजपू्तों को विश्वास हो गया कि शाहज़ादा अकबर अपने पिता औरंगजेब से मिला हुआ है। अतएव राजपूत सैनिक अकबर का साथ छोड़ चले गये। अब अकबर के लिये युद्ध क्षेत्र से भाग निकल ने के सिवा कोई उपाय नहीं रह गया। सम्राट ने शाहजादा मुअज्जम और अबुलकासिम को अकबर के पीछे भेजा। अकबर का तमाम सामान लूट लिया गया। उसके शरीर-रक्षक तक काम आये। इस भयंकर संकट के समय में अकबर को अपने बाल बच्चों की फिक्र पड़ी। वह बड़े असमंजस में पड़ा कि अब बालकों की रक्षा किस प्रकार की जाये । किस सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देने से उनके प्राण बचेगें। ऐसे समय में दुर्गादास जी ने उनकी रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। इन्होंने उन बालकों की अपने कुटुम्बीजनों की संरक्षता में रख दिया। अकबर को भी अपने साथ चलने के लिये कहा। अकबर को दुर्गादास जी में असीम विश्वास था अतएवं वह उनके साथ हो लिया। ये दोनों राजपीपला के मार्ग से दक्षिण पहुँचे। यहाँ दुर्गादास जी ने संभाजी के साथ अकबर की मित्रता करवा दी। अब औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ झुका।

इधर सोनाग और उसके अनुयायी अशरफ़र खाँ के पुत्र एतिकाद खाँ द्वारा रा मार डाले गये। दूसरे राठौड़ सरदारों ने पूर और मांडल नामक स्थानों को लूटना शुरू किया। यहां शाही-सेना का संचालन किशनगढ़ के राजा मानसिंह जी कर रहे थे। अंत में ये लोग सिरोही जा पहुँचे जहां पर कि अजित सिंह जी अज्ञातवास में थे। सन् 1685 में राठौडो ने सिबना के किले पर डेरा डाल दिया। किले का रक्षक पुरदिल खाँ मेवाती मार डाला गया। दो वर्ष बाद दुर्जन सिंह जी-जोकि बूंदी की गद्दी से उतार दिये गये थे- मार डाले गये। सन् 1688 में राठौड़ सरदारों के हृदयों में उनके बाल महाराजा के दर्शन करने की अभिलाषा उत्पन्न हुईं। जिस स्वामी के हित के लिये वे प्राणों पर बाजी खेलकर लड़ रहे थे उनके दर्शन के लिये वे उत्सुक हो उठे। चंपावत उदयसिंह और सुर्जनसिंहजी के पुत्र मुकुन्द दास जी इस कार्य के लिये नियुक्त किये गये। इन दोनों सरदारों ने खीची मुकुन्ददास से महाराज कुमार अजीत सिंह जी के विषय में बतलाने के लिये कहा। इतना ही नहीं इसने उसे बहुत कुछ डराया धमकाया पर उसने एक न सुनी। इससे कुछ राठौड़ सरदारों को अपने स्वामी के आस्तित्व में शक होने लग गया। उनका यह खयाल होने लग गया कि शायद जिनके लिये हम इतने लड़ रहे हैं वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। इधर खीची मुकुन्ददास को दुर्गादास जी ने कह रखा था कि वह महाराज कुमार को बिलकुल अज्ञात स्थान में रखे और किसी को उनका पता न लगने दे। अतएव उसने उक्त राठौड़ सरदारों को दुर्गादास जी की अनुमति के लिये पूछा। पर चूंकि दुर्गादास जी सुदूर दक्षिण देश में थे और इधर सरदारगण महाराज कुमार को देखना चाहते थे अतएव खीची मुकुन्ददास को लाचार होकर राजकुमार को प्रगट में लाना पड़ा। उनके दर्शन करते ही सब राठौड़ सरदारों में स्फूर्ति आ गई। उनमें फिर से नव-जीवन का संचार हो उठा। इस प्रकार अपने स्वामी वो प्राप्त कर फिर से राठौड़ों ने मुगलों के विरुद्ध युद्ध शुरू किया। लगातार 18 वर्ष तक वे बराबर मुगलों का मुकाबला करते रहे।

सन् 1694 में उदयपुर के राणाजी की पुत्री के साथ महाराजा
अजित सिंह जी का शुभ विवाह संपन्न हुआ। अब तक औरंगजेब को अजित सिंह जी के अतित्व में सन्देह था। उसका खयाल था कि अजित सिंह जी जीवित नहीं है। राठौर सरदार झूठमूठ उनके नाम से लड़ रहे हैं। पर अब उसका यह भ्रम जाता रहा। अब उसे विश्वास हो गया क