You are currently viewing जीजाबाई की जीवनी – जीजाबाई बायोग्राफी इन हिन्दी
जीजाबाई के काल्पनिक चित्र

जीजाबाई की जीवनी – जीजाबाई बायोग्राफी इन हिन्दी

अंग्रेजों के अत्याचार से सारा देश आक्रांत था । अन्याय और अधर्म की काली छाया समाज की पवित्रता को ढक चुकी थी। यह देखकर जीजाबाई का हृदय रो उठता था । उन्होंने अनुभव किया कि जब तक स्वराज्य स्थापित नहीं होगा , ये काले चित्र बनते ही रहेगे । उन्होंने स्वराज्य की स्थापना के लिए महाराष्ट्र की जनता का आह्ववान किया। उनके आह्लवान का ही परिणाम था कि महाराष्ट्र की धरती दासता से मुक्त हुई और उनके वीर पुत्र शिवजी स्वराज्य को स्थापित करने में सफल हो सके। जीजाबाई महान देशभक्त थीं।

जीजाबाई की वीरता की गाथा

देश और देश की संस्कृति के लिय उनके हृदय में अखंड प्रेम था। यद्यपि उन्होंने स्वराज्य को स्थापित करने के लिए शस्त्र धारण नहीं किए थे, परंतु वीर शिवाजी को वीरता का संस्कार देने का श्रेय उन्हें ही है।

जो मुगल सम्राट औरंगजेब से लोहा लेकर महाराष्ट्र को स्वतंत्र करने मे सफल हुए थे। शिवाजी को शिवाजी बनाने वाली जीजाबाई ही थी। उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने स्वराज के लिए प्रयत्न किए, संकटो की खाइयां पार की और महाराष्ट्र किया जनता को उनके जन्मजात अधिकार दिलाने मे सफलता पाई। जीजाबाई की देशभक्ति और उनके शौर्य कि जितनी प्रशंसा की जाए कम है।

जीजाबाई अपने ढंग की अकेली नारी थी, जो शिवा भवानी के सामने आंचल फैलाकर साश्रुनयन कहा करती थी– मां! तुम कैसी मां हो! मां! तुम्हारी पुत्रियों के आंचल खींचे जा रहे है। उनकी चूडिय़ां तोडी जा रही है। और उनकी मस्तक रेखाओं का सिंदुर मिटाया जा रहा है। फिर भी तुम चुप हो! मां! तुम्हारा वह पराक्रम कहा गया, जिससे तुमने महिषासुर का वध किया था। और जिससे तुमने कालिका रूप धारण करके दैत्यों का संहार किया था। मां! तुम मुझे ऐसा पुत्र दो! जो डूबती हुई धर्म की तरणी का उद्धार कर सके, और जो स्त्रियों के आंचल खीचनें वालो के हाथ काट सके।

कहा जाता है कि जीजाबाई की सकरुण पुकार पर द्रवित होकर शिवा भवानी प्रकट हो उठीं और उन्होंने उनकी इच्छा के अनुसार ही वर प्रदान किया था । उसी वरदान के फलस्वरूप ही 10 अप्रैल, 1627 को शिवजी का जन्म हुआ था। शिवजी जब कुछ बड़े हुए तो जीजाबाई की प्रेरणा से वे भी शिवा भवानी के चरणों मे अपनी श्रधदा के पुष्प चढ़ाया करते थे। वे भी शिवा भवानी की मूर्ति के सामने बैठकर भरी हुई आंखो से सकरुण स्वर में कहा करते थे — “मां ! धर्म की नाव डूब रही है, संस्कृति का गला घुट रहा है और देश की स्त्रियों को अपमानित किया जा रहा है । माताएं रो रही हैं, बहनें सिसकियां भर रही हैं। चारों ओर अन्याय और अत्याचार का चक्र चल रहा है। मां! तुम मुझे शक्ति दो, जिससे मैं धर्म की रक्षा कर सकूं और माताओं और बहनों की आंखों के आंसुओं को पोंछ सकूं।

शिवाजी की करुण प्रार्थना से मां भवानी द्रवित हो उठीं और उन्होंने प्रकट होकर उन्हें एक तलवार प्रदान की। उस तलवार का नाम भवानी था। उसी तलवार से शिवजी ने युद्ध में शत्रुओं के दांत खट्टे किए थे।

शिवजी ने मां भवानी के आशीर्वाद और जिजाबाई की प्रेरणा से अफजल के सामने जाकर उसका वध किया था, शाइस्ता खां की उंगलियां काटी थीं और औरंगजेब के फंदों को काटकर आगरा के दुर्ग से बाहर निकलने में सफलता प्राप्त की थी। जिजाबाई की प्रेरणा से ही शिवजी ने सिंहगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्त की थी। सिंहगढ़ का दुर्ग बड़ा अभेद्य समझा जाता था। उसकी रक्षा के लिए मचगलों की बहुत बडी़ सेना रखी गई थी। उसके ऊपर सदा मुगलों का झंडा फहराया करता था।

जीजाबाई के काल्पनिक चित्र
जीजाबाई के काल्पनिक चित्र

जिजाबाई जब भी उस झंडे की ओर देखती थीं। उनके कलेजे में हूक–सी उठती थी। एक दिन उन्होंने शिवजी से कहा—“शिवा !यदि तुमने सिंहगढ़ के ऊपर फहराते हुए विदेशी झंडे को उतारकर फेंक नहीं दिया तो कुछ नहीं किया। मैं तुम्हें उसी समय अपना पुत्र समझूंगी, जब तुम सिंहगढ़ पर आक्रमण करके विदेशी झंडे को उसके ऊपर से उतार दोगे।”शिवजी ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया –“माता! सिंहगढ़ का दुर्ग बड़ा अभेद्य है। मुगलों की बहुत बडी़ सेना उसकी रक्षा करती है। उस पर विजय प्राप्त करना लोहे के चने चबाना है।”

जीजाबाई आवेश में आ गईं । उनके नेत्र लाल हो उठे, उनके अधर फड़कने लगे कुछ क्रोध -भरे स्वर में कहा–“धिक्कार है तुम्हें! तुम्हें अपने -आपको शिवा भवानी का पुत्र कहना छोड़ देना चाहिए। तुम चूड़ियां पहनकर घर में बैठो । मैं स्वयं फौज के साथ सिंहगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण करूंगी और विदेशी झंडे को उसके ऊपर से उतारकर फेंक दूंगी।”

शिवजी लज्जित हो उठे उन्होंने जीजाबाई के चरणों में गिरकर कहा–“क्षमा करो माता !मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा। और शिवजी ने उसी समय तानाजी को बुलवाकर कहा–“तानाजी !फौज लेकर सिंहगढ़ पर आक्रमण कीजिए । चाहे जैसे भी हो, सिंहगढ़ पर अधिकार होना ही चाहिए!”

तानाजी ने शिवाजी की आज्ञा का पालन किया।उन्होंने बडी वीरता के साथ युद्ध करके सिंहगढ़ पर अधिकार तो कर लिया, पर व स्वंय नही रहे। शिवाजी ने जब सिंहगढ़ विजय और उसके साथ ही साथ तानाजी की मृत्यु की खबर सुनी, तो उनकी आंखें सजल हो उठी। उनके मुख से अपने आप ही निकल पडा— “गढ़ तो आया पर सिंह चला गया”।

जौहर सिद्दी ने शिवाजी को पन्हालगढ़ के दुर्ग के भीतर चारो ओर से घेर लिया था। दुर्ग के भीतर शिवाजी के साथ थोडे से सैनिक थे। शिवाजी का बाहर निकलना कठिन हो गया।

जीजाबाई ने प्रधान सेनापति नेताजी को बुलाकर कहा — “फौज लेकर जौहर सिद्दी की सेना पर आक्रमण करो और दुर्ग से बाहर निकलने के लिए शिवाजी का रास्ता साफ करो।”

नेताजी ने वानय के साथ उत्तर दिया — राजमाता” जौहर सिद्दी की सेना मे अधिक सैनिक है। हम अपने थोडे से सैनिकों द्वारा उस पर विजय प्राप्त नही कर सकेंगे।

जीजाबाई क्रोधित हो उठी— उन्होंने नेताजी को फटकारते हुर क्रोध भरे स्वर में कहा— “धिक्कार है तुम्हें! शिवाजी दुर्ग में बंद है और तुम हार जीत पर विचार कर रहे हो? तुम कायर हो। तुम घर में बैठो, मैं स्वंय फौज लेकर जौहर सिद्दी की सेना पर आक्रमण करूगी।”

नेताजी का मस्तक झुक गया। उन्होंने सिद्दी की सेना पर आक्रमण कर के शिवाजी के लिए रास्ता बनाया।

जीजाबाई की प्रेरणा से ही शिवाजी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए थे। जिस समय जीजाबाई की मृत्यु हुई, उस समय उनकी अवस्था 70 वर्ष के लगभग थी। उन्होंने जिस स्वराज्य का संकल्प किया था। वह अब पूरा हो गया था। महाराष्ट्र की धरती अब दासता से मुक्त हो गई थी। रायगढ़ दुर्ग के नीचे पांचाल गांव में अब भी जीजाबाई की समाधि बनी हुई है। आसपास की जनता बडी़ श्रद्धा से उनकी समाधि पर दीपक जलाती है। और अक्षत तथा पुष्प अर्पित कर उनकी पूजा करती है।

हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—

झांसी की रानी की जीवनी

रानी पद्मावती की जीवनी

रानी चेन्नम्मा की जीवनी

रानी भवानी की जीवनी

रानी दुर्गावती की जीवनी

जीजाबाई का जन्म

जीजाबाई का जन्म सन् 1603 में सिंधखेड के राजा लखुजी के घर में हुआ था। वे थे तो बहुत बडे जमींदार, पर उन्हें अहमदनगर के सुल्तान की ओर से राजा की उपाधि प्राप्त थी। सुल्तान के दरबार में उनका बडा आदर सम्मान था।

जीजाबाई बाल्यकाल से ही बडे चंचल स्वभाव की और निडर थी। वे मां भवानी की मट्टी की मूर्तियां बनाकर उनके साथ खेला करती थी। जीजाबाई का विवाह मालोजी भोंसले के पुत्र शाहजी के साथ हुआ था। विवाह के संबंध में एक रोचक कहानी कही जाती है—

जीजाबाई का विवाह

होली का दिन था। लखुजी के घर पर उत्सव था। मालोजी भी अपने पांच- छः वर्षीय पुत्र शाहजी के साथ उत्सव में सम्मिलित हुए। जीजाबाई की आयु उस समय चार वर्ष थी।

इधर बडे लोग उत्सव मनाने लगे और उधर शाहजी और जीजाबाई दोनों एक साथ मिलकर उनका नृत्य देखने लगे। सहसा लखुजी की दृष्टि उन पर जा पडी। उनके मुख से निकल पडा —- वाह वाह! कैसी सुंदर जोडी हैं।

मालोजी भोंसले ने लखुजी की बात पकड ली। उन्होंने सबके सामने कहा, फिर तो मंगनी पक्की हो गई”।

मालोजी भोंसले लखुजी के अधीन काम करते थे। लखुजी अपने कर्मचारी के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करें। यह कैसे हो सकता था? उन्होंने मालोजी की बात काटकर कहा— “यह नही हो सकता। मैने तो मनोरंजन के लिए वह बात कही थी।

परंतु मालोजी अड़ गए। उन्होंने कहा– आपको मेरी बात माननी पडेगी। और अंत मे लखुजी को मालोजी की बात माननी पडी। उन्होंने सुल्तान की अनुमति से जीजाबाई का विवाह शाहजी के साथ कर दिया। विवाह के समय दोनों की आयु बहुत कम थी। धीरे धीरे दोनों बडे हुए।

शाहजी बीजापुर के दरबार में नौकर हो गए। वे बडे शूरवीर और सहासी थे। उन्होंने बीजापुर के दरबार की ओर से कई लडाईयां लडी थी, और विजय प्राप्त की थी। जिसके फलस्वरूप बीजापुर के दरबार ने उन्हे बहुत बडी जागीर प्रदान की। शिवनेरी का दुर्ग भी उन्हे जागीर में मिला था।

जीजाबाई ने पुत्र को जन्म दिया

शाहजी बीजापुर के नवाब के बडे शुभचिंतक थे। वे उनकी प्रसन्नाता के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे।जीजाबाई को उनकी चाटुकारिता पसंद नही थी। वे उनकी आलोचना किया करती थी। अतः शाहजी उन्हें अपने से पृथक शिवनेरी के दुर्ग में रखते थे। उनकी देखरख दादा कोणदेव जी किया करते थे।

शिवनेरी के किले में सन् 1627 में शिवाजी का जन्म हुआ। उनके जन्मोत्सव मे शाहजी सम्मिलित नही हुए थे। उन्होंने अपना दूसरा विवाह कर लिया था। कुछ वर्षों के पश्चात शाहजी की बीजापुर के नवाब से अनबन हो गई। वे अहमदनगर के सुल्तान के दरबार में चले गए। बीजापुर के नवाब ने उनसे अपनी सारी जागीर छीन ली।

शिवनेरी के किले पर भी नवाब का अधिकार हो गया। जीजाबाई शिवाजी को लेकर पूना चली गईं। दादा कोणदेव भी उनके साथ थे। दोनों ने बडे प्यार से शिवाजी का पालन पोषण किया। और उन्हे योग्य और प्रकार से समर्थ बनाया। उनके भीतर धर्म और देश के प्रति प्रेम पैदा किया। वे जब सत्रह अठारह वर्ष के हुए तो अपनी सेना बनाकर छापे मारने लगे। तथा बीजापुर के किलो पर अपना अधिकार जमाने लगे।

शिवाजी को आगे बढने में बडे बडे संकट उठाने पडे। बडी बडी गहरी खाइयां पार करनी पडी। पर वे कभी थके नही, कभी हारे नही। जीजाबाई की प्ररेणा और अपने गुरू समर्थ स्वामी रामदास के आशिर्वाद से वे आगे बढते गए। उन्नति के शिखर पर चढते हुए, अंत में वे मराठो का स्वतंत्र राज्य स्थापित करने मे सफल हुए। सन् 1674 उनका राज्याभिषेक हुआ। वे छत्रपति शिवाजी के नाम से राज्य सिहासन पर बैठकर राज्य करने लगे।

शिवाजी की उन्नति और स्वराज्य की स्थापना के मूल में जीजाबाई की प्ररेणा थी। उन्होंने जिस प्रकार संकट सहे। और विपत्तियों का सामना किया, और विध्न बाधाओं से संघर्ष किया, वह उन्ही के योग्य था। वे सत्तर वर्ष की अवस्था तक जुझती रही। जब स्वराज्य का सूर्य उदित हो गया तो 27 जून सन् 1674 को वे स्वर्ण सिधार गई। वीर माता के रूप मे उनका नाम युगो युगो तक भारतीयों के होंठों पर रहेगा।

Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

Leave a Reply