जाड़ प्रदेशभारत के उत्तर में टिहरी गढ़वाल तथा तिब्बत के मध्य में से बहने वाली जाड़़ गंगा का प्रदेश है। ऊंचाई की दृष्टि में यह प्रदेश लगभग 11000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसलिये शीत काल में कुछ महीनों के लिये बर्फ़ भी पड़ जाती है। इस प्रदेश में हर और पत्थरीली चट्टानें ही दीख पड़ती हैं। जलवायु भी यहां का शुष्क है। इस लिये मनुष्य का गुजारा बड़ी कठिनाई से हो पाता है। कहीं कहीं ही थोड़ी बहुत भूमि कृषि के योग्य है। अन्यथा सभी जगह पत्थर ही पत्थर दिखाई पड़ते हैं। मार्ग भी इतने कर हैं, कि चलते हुए मारे ठोकरों के पगों का बुरा हाल हो जाता है। क्योंकि राहों में हर ओर पत्थर ही पत्थर पड़े रहते हैं। इस प्रदेश में वैसे तो राजपूत आदि अनेक जातियों के लोग रहते हैं, परन्तु अधिकता केवल राजपूत, जाड़़ जनजाति तथा कोलियों की ही पाई जाती है। जाड़ प्रदेश में श्रेष्ठ जाति केवल राजपूतों की ही समभी जाती है। यह लोग अन्य किसी भी जाति के लोगों के हाथ का बना भोजन नहीं खाते, और न ही अपने विवाह आदि सम्बन्ध कहीं किसी दूसरी जाति में करते हैं। राजपूतों को ही इस प्रदेश में अधिक सामाजिक आदर प्राप्त होता हैं। कोली लोग अधिकतर कपड़ा बुनने का कार्य करते हैं।
जाड़ जनजाति कौन है
किन्तु फिर भी जाड़़ जनजाति लोगों का जो महत्व इस प्रदेश में है, वह किसी अन्य जनजाति का नहीं है। कहते हैं कि पहले जाड़़ लोग तिब्बत के निवासी थे। किन्तु उस से भी पहले यह लोग भारत के ही किसी खण्ड के रहने वाले थे। परिस्थिति वश इन्हें अपनी जन्म भूमि छोड़नी पड़ी, और ये लोग घुमते घुमते अपने जीवन की रक्षा के लिये, तिब्बत राज्य में जा बसे। पर एक समय ऐसा आया, कि तिब्बतियों ने इन पर बड़े बड़े अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिये। विवश हो कर इन्हें उस देश को छोड़ कर फिर भारतीय सीमा में लौट आना पड़ा, तथा ये लोग टिहरी गढ़वाल की सीमा के साथ साथ घाटियों में बस गये। इसीलिये यहां से निकलने वाली नदी जो कि गंगा में आ कर मिल जाती है,जाड़ गंगा के नाम से प्रसिद्ध है।
जाड़ जनजाति का जनजीवन
जाड़ लोगों का अपना कोई घर नहीं होता। घरों की अपेक्षा यह लोग पहाडी गुफाओं अथवा भद्दे तथा अस्थायी प्रकार के झोपड़ों में ही रहना अधिक पसन्द करते हैं। वास्तव में ये लोग खानाबदोश हैं। कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते। वर्ष के लगभग आठ महीने ये लोग इस प्रदेश से बाहर ही बिताते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय तो व्यापार है परन्तु इन में से बहुत से लोग ग़रीबी वश भीख भी माँगते हैं। भेड़ बकरियों के सहारे भी यह लोग अपने जीवन की गाड़ी चलाते हैं। यही इन लोगों का एक प्रकार से श्रेष्ट धन होता है। जाड़ लोगों में जो लोग भीख मांगने का काम करते हैं। उन्हे भेर जाड़ कहते हैं। भेर जाड़ों के पास केवल धन रूप में एक आध गाय ही होती है। जिसे जाड़ी भाषा में ‘जोई’ कहते हैं। इस से अधिक उन के पास कुछ नहीं होता। भीख मांगते हुए ये लोग दूर दूर तक अनेक प्रदेशों में निकल जाते हैं। और ग्रीष्म ऋतु होने पर इसी क्रम से पुनः जन्म-भूमि को लौट आते हैं। यही इन भेर जाड़ों की जीवन चर्चा है। इसी प्रकार ये लोग अपना तथा अपने बाल बच्चों का पेट भरते, हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि ये लोग प्ररिश्रम से जी चुराते हैं, अपितु ये लोग तो इतना घोर परिश्रम करते हैं। कि कहा नहीं जा सकता। मेहनत करने में इनके घर की स्त्रियां भी अपना खून पसीना एक कर देती हैं। किन्तु फिर भी इन्हें भर पेट रोटी नहीं मिलती इसी लिये वर्ष के कुछ महीनों में जब चारों ओर बर्फ़ की सफ़ेद चादर बिछ जाती हैं और पेट की भड़कती हुई आग बुझाने के लिये इन्हें कोई साधन दिखाई नहीं पड़ता, तो ये लोग भीख मांगने पर विवश हो जाते हैं। और भीख मांगते हुए मैदानी क्षेत्रों की ओर चले आते हैं। जाड़ा समाप्त होते ही यह लोग फिर अपने देश को लौट जाते हैं। यही इन भेर जाड़ जनजाति के जीवन का विशेष क्रम है।
जाड़ जनजातिभेर जाडों के अतिरिक्त शेष सभी जाड़ जनजाति लोग व्यापार आदि का कार्य करते हैं। ग्रीष्म-ऋतु में ये लोग तिब्बत की ओर चले जाते हैं। यहां से ये लोग ऊन, नमक, घोड़े, खच्चरें, चाय आदि खरीद लेते हैं, तथा जाड़ प्रदेश में चले आते हैं। यह खेती करने योग्य ऋतु होती है। ऐसे समय में ये लोग यहीं टिक कर खेती करते हैं, और जब फ़सल समाप्त होती है, तो एक दम शीत-ऋतु का प्रारम्भ हो जाता है। ऐसे समय में यह लोग फिर अपने घर बार को छोड़ कर मैदानी क्षेत्रों की ओर चलते हैं। यहां पहुंच कर ये लोग धीरे धीरे तिब्बत से खरीद कर लाये हुये माल को हरिद्वार, देहरादून आदि नगरों की मण्डियों में बेच देते हें। जब सर्दी कुछ कम होने लगती हैं तो ये लोग फिर अगले वर्ष के लिये माल खरीद लाने को तिब्बत की मण्डियों के लिये कूच कर देते हैं, और फिर पहले की ही तरह खेती करते हुए अपने व्यापार के लिये मैदानी क्षेत्रों में चले आते हैं। इसी प्रकार वर्ष पर वर्ष बिताते हुये ये लोग अपना जीवन पूरा करते हैं। मैदानी मण्डियों से भी ये लोग तिब्बत में बेचने के लिये गुड, कपड़ा, तथा अनाज आदि ले जाते हैं।
व्यापारी हो कर भी यह लोग निर्धनता की चक्की में पिस रहे हैं। हजारों रुपयों का व्यापार करते हुए भी, ये लोग अपने भूखे पेट के लिये मनचाही रोटी प्राप्त नहीं कर पाते। कारण यह है कि इन लोगों का खर्च इतना ज्यादा होता है, जिसे सहन करना हर आदमी का काम नहीं। जो कुछ भी लाभ इन्हें होता है, उस से केवल वर्ष भर के लिये रोटी, कपड़ा, चारा, तथा जीवन की कुछ अन्य आवश्यकताएं ही पूरी हो पाती हैं। बचाने के लिये इन के पास कुछ नहीं होता। जितनी रकम इन लोगों के पास व्यापार में लगी होती है, चाहे कितनी भी कड़ी आपत्ति क्यों न आ पड़े, पर ये लोग उसे कभी खर्च नहीं करते। उसी के सहारे इन का जीवन चलता है यदि ये उसे अन्य आवश्यकताओं पर खर्च कर दें तो निस्संदेह भूखे मर जायें।
ये लोग अधिकतर सामान आदि ढोने का कार्य अपनी भेड़ बकरीयों से ही लेते हैं। भेड़ बकरियों की पीठों पर छोटे छोटे मज़बूत थैलों में सामान बाँध कर लटका देते हैं। हां, खच्चरों पर दो तीन मन तक बोझा लाद दिया जाता है। इसी प्रकार ये लोग अपने बाल बच्चों के सहित एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचते रहते है। जब शाम हो जाती है, तो राह के निकट पड़ने वाले किसी गांव के पास डेरे डाल कर विश्राम करते हैं, और प्रात: काल होने पर भोजन आदि खा पी कर फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते है।
जाड़ जनजाति लोग अधिकतर ऊनी कपड़ों का ही प्रयोग करते हैं परन्तु मेले दशहरों के अवसर पर यह लोग, मखमल तथा रेशम के भड़कीले वस्त्रों का भी उपयोग करते हैं। ऐसे अवसरों पर इन की शोभा देखने योग्य होती है। सुन्दर तथा मनोहर वस्त्रों से अलंकृत होकर जब ये लोग अपनी सजाई हुई दुकानों पर बैठते है, तो मेजों की शोभा बिखर उठती हैं। उस समय ये लोग काफ़ी धनवान व्यापारी से प्रतीत होते है। वास्तव में जाड़ लोगों को अपना जीवन बड़े कष्ट से बिताना पड़ता है, अन्न के दाने तो इन्हें इतने प्राप्त हो नहीं पाते, जिन से भली प्रकार गुजारा हो सके, इसलिये ज़िन्दा रहने के लिये इन्हें जी तोड़ परिश्रम करना पड़ता हैं। यही कारण है, कि व्यापार इन के जीवन का एक आवश्यक आधार हो गया है।
जाड़ जनजाति का भोजन भी बड़ा सरल है। दाल चावल खाने में इन्हें बड़ी रुचि होती है, पर फिर भी ये लोग अधिकतर मांस ही खाते है। कारण यह है कि उसके बिना इनके भोजन की पूर्ति नहीं हो पाती। ठण्डा प्रदेश होने के कारण ये लोग मदिरा पान भी करते है। स्त्रियां भी इसका पान करने में संकोच नहीं करतीं, अपितु बड़े चाव से इसका सेवन करती हैं। मदिरा को जाड़ी भाषा में “सूर” कहते है। चाय पीने का भी इन्हें बड़ा शौक होता है। पर इनका चाय बनाने का ढंग बड़ा अनोखा है । प्रात: काल होते ही चाय बनाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी जाती हैं। चाय का पानी उबाल कर उसमें कई गरम तासीर के वृक्षों की छालें तथा चाय आदि छोड देते हैं। जब पानी खूब औट कर चाय तथा अन्य डाले हुये पदार्थों का रस निचोड़ लेता है, तब उसे एक अलग बर्तन में छान लिया जाता हैं। इसके बाद उस में मक्खन तथा नमक छोड़ कर लस्सी की भांति उसे बिलोया जाता है। ऐसा होने पर ही उसे पीने के योग्य समझा जाता हैं। सारा दिन यह लोग चाय ही पीते रहते हैं, चूल्हे की आग कभी ठण्डी नहीं होती। हर समय पतीली चढ़ी ही दिखाई पड़ती है।
जाड़ समुदाय के लोग ठण्डे प्रदेश के वासी होने के कारण सुन्दर, स्वस्थ, गौर वर्ण तथा कुछ छोटे आकार के होते हैं। स्त्रियों की सुन्दरता बड़ी अपूर्व है। अपनी साधारण वेशभूषा में भी यह नारियां विशेष आकर्षक प्रतीत होती है। राहों में चलते हुये तथा खेतों अथवा वनों में काम करते हुए जब ये अपने बारीक मधुर कण्ठ से गीत गा उठती हैं तो लोग सुनते ही रह जाते हैं। जाड़ लोगों की स्त्रियां इतनी परिश्रमी होती हैं, कि सूर्य निकलने से पहले ही उठ कर घर के काम काज में लग जाती हैं। अधिक देर तक सोना इनका स्वभाव नहीं है। यदि ये सोते ही रहें तो शायद इन्हें भोजन का भी संशय पड़ जाये। इसीलिये ये लोग आलस्य को दूर रखते हैं। चाहे कुछ हो अंधेरे ही में उठ कर काम में लग जाना इनका नित्य कर्म है।
यहां की स्त्रियाँ, व्यर्थ की बातों में रुचि नहीं रखतीं। घर के कार्य से अवकाश पा कर भी वे कुछ न कुछ कार्य अवश्य ही करती रहती हैं। जैसे ऊन कातना, ऊन साफ़ करना तथा उसे बुनना आदि। इन कामों को यह इतनी सफ़ाई से करती हैं, कि अच्छे अच्छे कारीगर भी चकित हो जाते हैं। स्त्रियां ही नहीं अपितु इन के बच्चे भी इन कामों में पूर्ण रूप सिद्ध-हस्त होते हैं। मैदानी प्रदेशों के बच्चों की तरह वह गली कूचों में गुल्ली-डण्डा बजाते नहीं फिरते, बल्कि माँ बाप के साथ उन के कार्यों में सामर्थ्य अनुसार पूरा हाथ बटाते हैं। यही उनका खेल है ओर यही उनका मनोरंजन है।
ये लोग कम्बल, पश्मीने की चादर, बरमोल तथा अन्य कई ऊनी वस्तुएं बनाते हैं। पहाड़ी लोगों को इनकी बड़ी आवश्यकता होती है, और इसलिये इन्हें इन चीज़ों को बेचने के लिये ग्राहकों की खोज नहीं करनी पड़ती, बल्कि ग्राहक स्वयं ही इनके डेरों पर चले आते हैं। कम्बल आदि बेचने के लिये ये लोग दूसरे देशों में भी जाते हैं। दूर दूर के देशों से सम्बन्ध रहने के कारण इनकी भाषा भी कई प्रकार की हो जाती है, अथवा ये कई प्रकार की भाषायें बोलना सीख जाते हैं। पर इनकी मुख्य भाषाएं तिब्बती, जाड़ी, तथा हिन्दुस्तानी ही हैं। इन तीन भाषाओं को बोलने में ये लोग बड़े दक्ष होते है। इन तीनों भाषाओं को ये लोग शुद्ध रूप से बोलते है। जाड़ लोगों के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रशिक्षित जाति ऐसी नहीं दिखाई पड़ती, जो कि इतनी भाषाओं को जानती हो।
शिक्षा प्राप्त करना इन लोगों के लिये असम्भव सा है। क्योंकि ये लोग कभी एक- स्थान पर टिक कर नहीं रहते इनके चलते फिरते जीवन को शिक्षित करना बड़ा कठिन कार्य है। पर हमारी सरकार ने किसी भी प्रकार इन लोगों को शिक्षित करने का निश्चय किया है। पर यह अभी कहा नहीं जा सकता, कि इसमें कितनी सफलता प्राप्त होगी। यदि ये लोग शिक्षित हो गये तो निकट भविष्य में ये बहुत अच्छे व्यापारी बन सकेंगे। परन्तु आने वाला युग इनके लिए कौनसी नवीन देन लाता है, यह तो समय ही बतायेगा।
जाड़ लोगों का पहनावा भी इन के कठोर जीवन की भांति ही बड़ा कठोर होता है। ऊनी कपड़े के बने हुए लम्बे लम्बे चोगे पहनने का रिवाज स्त्री तथा पुरुषों में बहुत है। परदे का रिवाज स्त्रियों में जरा भी देखने को नहीं मिलता। हां लज्जा के वशीभूत यहां की स्त्रियां शीश को ढकने के लिये एक चादर सर पर अवश्य लपेट लेती हैं। पांव में ऊन के जूते पहनने का इधर बड़ा चलन है। चमड़े के जूते पहनने को इन का जी नहीं चाहता। जिन लोगों की हालत जरा पतली होती है, वे बेचारे, पटसन के ही जूते बना कर पहन लेते हैं।
आज के उन्नत-युग के प्रभाव की छापें इन के जीवन पर भी हैं, क्योंकि बहुत से जाड़-पुरुष अब कोट पाजामा, तथा स्त्रियां सलवार कमीज का उपयोग करने लगी हैं । कढ़ाई दार कपड़े पहनने का स्त्रियों को बड़ा चाव होता है। सोने चांदी के आभूषणों का भी इन्हें काफ़ी शोक होता है। साज श्रृंगार इनका बड़ा ही सरल है। स्त्रियों में प्रायः एक से अधिक वेणियां गूथने की रीति प्रचलित है, सभी औरतों में चाहे वे निर्धन हों अथवा धनवती, बाल सवारते समय चोटियों के साथ कौड़ी लगाने की प्रथा है। यह सुहाग की एक आवश्यक निशानी समझी जाती है। इन स्त्रियों का विश्वास है, कि इसे लगाये बिना, नारी का श्रृंगार सदा अधूरा रहता है। वास्तव में यहां की स्त्रियां प्रशिक्षित तथा बड़े पुराने विचारों की और असभ्य होती हैं, किन्तु इन के अंग प्रत्यंग से प्राकृतिक सौन्दर्य टपकता है।
जाड़ जनजाति की नारियां शराब तथा तम्बाकू पीने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं। बस यही इन में एक चरित्र की त्रुटि है। पर यदि शिक्षा का तेज इन तक पहुंचाया जाये, तो हो सकता है, कि ये अपने जीवन को सुधारने के साथ साथ, चरित्र की इस तुर्टि को निकाल कर आने वाले भारतीय वीरों की सच्ची जननियां कहला सकें, और भारत देश के मस्तक को जगत के समक्ष ऊंचा कर सकें।
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