जयमल फत्ता:-आज भी प्रत्येक पर्यटक की आंखें चित्तौड़ दर्शन की प्यासी रहती हैं। चित्तौड़ एक अनुपम पर्यटन व तीर्थ स्थान है। श्याम नारायण पांडेय के शब्दों में एक यात्री की हार्दिक अभिलाषा कितनी सुन्दर है–
सुझ न जाना गंगा सागर, मुझ न रामेश्वर काशी ।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को मेरी आंखें प्यासी।
इसटंमें कोई दो मत नहीं कि चित्तौड़राजस्थान में ही नहीं वरन् भारत का अद्वितीय पर्यटन व तीर्थ स्थान है। चित्तौड़ में स्थित कीर्ति-स्तम्भ एक गगन चुंबी स्मारक है। इसके दक्षिण में कुछ ओर आगे परम देशभक्त जयमल फत्ता की हवेलियों के खंडहर के पावन दर्शन होते हैं। इनके पास ही एक छोटा सा तालाब है जो जयमल तालाब के नाम से प्रसिद्ध है।
जयमल फत्ता की वीरता की कहानी
जयमल फत्ता की अनूठी वीरता व अद्वितीय रण कौशल से अकबर महान भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। वह केवल प्रभावित ही नहीं हुआ वरन् उसके हृदय पटल पर चिरस्थायी प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उसने दोनों की विशाल मूर्तियां बनाकर दिल्ली के किले के दरवाजे पर सम्मान के साथ प्रतिस्थापित की।
महाराणा विक्रमादित्य के बाद चित्तौड़ की गद्दी पर उदयसिह बैठे। इसके शासनकाल में दो बार चढ़ाइयां हुईं । सन् 1543 में जब शेरशाह सूरी मारवाड़ में राव मालवदेव पर विजय प्राप्त करके चित्तौड़ की तरफ आया तो महाराणा उदयसिंह ने उसे किले की चाबियां सौंप दी। शेरशाह सूरी अपने प्रतिनिधि को चित्तौड़ छोड़कर चला गया। लेकिन दूसरा आक्रमण बड़ा जबरदस्त हुआ । यह चढ़ाई सन् 1567 में अकबर ने की। महाराणा पर झूठा आरोप लगाया गया कि उसने उसके शत्रु मालवा के स्वामी बाजबहादुर को अपने यहां शरण दी। अकबर का यह आरोप केवल बहाना मात्र था। परन्तु सबल के समर्थक सभी होते हैं-कहा भी है:-
सब सहायक सबल के, कोऊू न निर्बल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥
वास्तव में अकबर अपनी वीरता व शक्ति के नशे में चूर था,
मदान्ध था। वह चाहता था कि सारे राजपूतों को हराकर उन्हें अपने अधीन कर ले। आक्रमण की खबर से संगठित योजना बनाने के लिये सारे सरदार एकत्रित हुए। परिस्थिति को देखते हुए, सभी के आपसी परामर्श से महाराणा उदयसिह को पहाड़ों में भेजने का निश्चय किया। राजपूत सरदारों ने सर्वसम्मति से जयमल और फत्ता को अपना नेता चुना तथा उसकी अध्यक्षता में ही युद्ध करने का निश्चय किया।
जयमल फत्ता काल्पनिक चित्रजयमल फत्ता अपने समय का माना हुआ योद्धा था। उसके हृदय में उत्साह व देश के लिए उमंग होने की पावन भावनायें कूट-कूट
कर भरी हुई थी। उसने अपने सभी साथियों तथा सरदारों को एकत्रित कर प्रेरणास्पद संदेश दिया उसने कहा “वीर सरदारों ! ” यह समय हमारी परीक्षा का है। मातृभूमि पर आपत्ति के बादल मंडरा रहे हैं। यवनों के अनावश्यक रूप से हौंसले बढ़ रहे हैं। वे लोग जोश में अपने होश-हवाश भी भूल गये हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में हमें विवेक से काम लेना है, एकता के सूत्र में बंधना है। मुझे आप लोगों की शक्ति व रणकौशल पर पूर्ण विश्वास है। हम दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि यवनों को ईंट का जवाब पत्थर से देगे-उनको बता देंगे कि चित्तौड़ की ओर आंखें करने का क्या परिणाम होता है तथा चट्टानों से टकराने का क्या अंजाम होता है।” “जय एकलिंग” व “हर हर महादेव” के साथ सभा विसर्जित हुई।
अकबर एक विशाल सेना के साथ भादों के काले बादलों के समान मेवाड़ भूमि पर मंडराने लगा। सेना ने स्थान स्थान पर अपने डेरे लगा दिये। युद्ध प्रारम्भ की तैयारियां होने लगीं। इधर राजपूत रण बांकुरे व वीर भीलगण भी मजबूत हाथों में धनुषबाण लिए पहाड़ी घाटियों में एकत्रित हो गये। भीषण युद्ध शुरू हुआ पहाड़ों से बड़े बड़े पत्थर बरसाये गये। यवन सेना चिल्लाती हुई भागने लगी। परन्तु यवन सेना बहुत विशाल थी उसके सामने राजपूत सेना बहुत ही अल्प थी। मारो मारो, अल्ला हो अकबर, जय एकलिंग, हर हर महादेव की आवाज से पर्वत श्रेणियां गूंज रही थीं। बहादुर राजपूत अपनी मातृभूमि के सच्चे पुत्र, एक के बाद एक बलिदान हो रहे थे, पर कई यवनो को यमलोकपुरी पहुंचा कर। युद्ध बहुत भीषण था।
वीरवर जयमल फत्ता अपने पूरे परिवार के साथ युद्धभूमि में अद्भत रण कौशल दिखा रहा था। उसकी तथा वीर माता वीर पत्नि भी वीर वेष में अपने कर्तव्य का पालन कर रही थी। धन्य हैं वे वीर स्त्रियां जिन्होंने पुरुषों को भी वीरता का पाठ सिखाया। अकबर ने किले में प्रवेश होने के लिए एक सुरंग भी बनवाना प्रारम्भ कर दी यद्यपि इस कार्य में कई वीर यवन काम आये, परन्तु अन्त में सफलता प्राप्त हुई। इस मार्ग के द्वारा यवन सेना किले में प्रवेश पाने लगी। ऐसी विषम परिस्थिति में वीर राजपूत सरदारों ने कुल-मर्यादा की रक्षा के लिए केसरिया वस्त्र धारण किये तथा वीर स्त्रियों ने जौहर व्रत का पालन करने को तैयारियां प्रारम्भ की। विजय की आशा छोड़ कर तमाम शूरवीर भूखे सिंह की भांति यवन सेवा पर टूट पड़े। यवन सेना में खलबली मच गई राजपूत सरदारों की संख्या अब बहुत ही अल्प थी। राजपूतों ने अपनी अनुपम वीरता व अद्वितीय रण-कौशल से बादशाह अकबर को भी पूर्ण रूप से प्रभावित कर दिया। वह वीरवर जयमल फत्ता की वीरता देख कर बहुत ही प्रभावित था और बार-बार विचारों में खो जाता था कि “काश ऐसे रणबांकुरे सरदार मेरे पास होते।
वीर जयमल अकबर के हाथों छल से मारा गया। अकबर को बहुत प्रसन्नता हुई। इस प्रकार अन्त में विजय का सेहरा बादशाह अकबर के सिर पर बांधा गया, परन्तु वीर राजपूतों ने भी अमिट छाप छोड़ दी, बादशाह के हृदय पर। इसलिये बादशाह हमेशा राजपूतों के साथ मंत्री व स्नेह का हाथ बढ़ाया करता था। धन्य है उन मेवाड़ वीरों को जिन्होंने कभी भी मुगलों की आधीनता स्वीकार नहीं की वरन् हमेशा यवनों से लोहा लेने को तत्पर रहे।
बादशाह ने प्रसन्न होकर वीरवर जयमल फत्ता की विशाल मूर्तियों को दिल्ली में किले के मुख्य द्वार पर दोनों ओर चबूतरे पर रखवाई। इस प्रकार दोनों वीरों जयमल और फत्ता की अनुपम वीरता व देश भक्ति जैसे महान गुणों से प्रभावित होकर अकबर ने भी श्रद्धा के पुष्प चढ़ाये।
मेवाड़ भूमि के परम लाडलों की आज याद ताजा हो जाती है जब उनके खण्डहरों के दर्शन करने का अवसर प्राप्त होता है। इन वीरों ने अपने राजा की अनुपस्थिति में जिस कर्तव्य परायणता का परिचय दिया स्मृति मात्र से सिर श्रद्धा से झुक जाता है। वीरों का जीवन-पथ सर्वदा कण्टकों से परिपूर्ण रहा है, परन्तु उन्होंने कभी भी कांटों की परवाह नहीं की वरन् हमेशा अपने कर्तव्य-पथ पर आगे से आगे बढ़ते रहे। उन्हें सबसे बड़ा ध्यान अपनी मात्र भूमि की ओर रहा है। जब जब भी अपनी मातृभूमि को आपत्ति में व दुश्मनों के हाथों में देखा बस मर मिटे, बलिदान हो गये और यही है शक्ति, देशभक्ति व देश प्रेम। फलस्वरूप आज भी जब उनका नाम स्मृति-पटल पर आता है, हम धन्य हो उठते उनके नामों व कार्यों को स्मरण करके।
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