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जयपुर राज्य का इतिहास

जयपुर राज्य का इतिहास – History of Jaipur state

जयपुर राज्य राजपूताने के उत्तर-पूर्व में है। उत्तर में बीकानेर , लोहारु औरपटियाला की रियासतें, पश्चिम में बीकानेर, जोधपुर, किशनगढ़ की रियासतें तथाअजमेर ताल्लुका, दक्षिण में उदयपुर, बूँदी, टोंक, कोटा तथा ग्वालियर राज्य और पूर्व में करौली,भरतपुर औरअलवर के राज्य थे। जयपुर राज्य का दूसरा नाम ढूँढार भी है। वेदिक-काल में यह ‘मत्स्य’ देश के नाम से प्रसिद्ध था। मत्स्य एक जाति के योद्धा थे। ऋग्वेद में लिखा है कि मत्स्य लोग एक समय सुदास नामक राजा से लड़े थे। शतपथ ब्राह्मण में भी इनका वर्णन मिलता है। उसमें लिखा हे—“इन मत्स्य लोगों का ध्वसन-द्वैतवन नामक एक राजा था। इस राजा ने एक समय अश्वमेघ यज्ञ किया था। मनु महाराज के मतानुसार यह प्रदेश ब्रह्मर्षि देश के अंतर्गत था। इसके अतिरिक्त महाभारत में भी कई जगह मत्स्य देश का वर्णन मिलता है। जयपुर राज्य के अन्तर्गत बेरार नामक एक स्थान है जहाँ पांडवों ने अपने वनवास के दिन बिताये थे। बेरार स्थान अत्यन्त प्राचीन है। यहाँ पर अशोक ( ईसा सन्‌ के 150 वर्ष पूर्व ) और उससे भी पहले के सिक्के पाये गये है। पुरातत्ववेत्ताओं ने अनुसंधान द्वारा यह निश्चिय किया है कि यह नगर प्राचीन मत्स्य देश की राजधानी था। ईस्वी सन्‌ 634 में जब प्रसिद्ध ‘चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था तो उसे यहाँ 8 बौद्ध मठ मिले थे। यहीं पर सम्राट अशोक ने बौद्ध साधुओं के लिये आज्ञा-पत्र निकाला था। यह शिलालेख अभी भी बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के दफतर में मौजूद है। ईस्वी सन्‌ की 11 वीं शताब्दी में महमूद गज़नवी ने बेरार पर आक्रमण किया जिसका वर्णन आईन अकबरी में लिखा हुआ है। जयपुर राज्य के महाराज का वंश अत्यन्त प्राचीन और प्रसिद्ध है। आप सूर्यवंशी कछवाह राजपूत हैं और अयोध्या के महान प्रतापी महाराजा रामचन्द्र के बड़े पुत्र कुश के वंशज हैं। महाराज कुश के पुत्र का नाम कूर्म अथवा कछवा था। इसी से ये कछवाह राजपूत कहलाये जाने लगे। ई० सन्‌ की 10 वीं शताब्दी में इस वंश में राजा नल हुए। इन्होंने नरवर शहर बसाकर वहां राज्य किया। इनके बाद आपके वंशज ग्वालियर चले गये जहां उन्होंने कई वर्ष तक राज्य किया। ग्वालियर में इस राज्य-वंश के किन किन राजाओं ने राज्य किया उनका उल्लेख नीचे किया जाता है।

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जयपुर राज्य का इतिहास – History of Jaipur kingdom

ग्वालियर में सन्‌ 977 का एक शिलालेख मिला है, जिससे मालूम होता है कि उस समय वहां पर वज़दामा नामक राजा राज्य करता था। वज़दामा ने कन्‍नौज के राजा विजयपाल परिहार से ग्वालियर का राज्य प्राप्त किया था। वजदामा के बाद उनके पुत्र मंगलराज ग्वालियर की गद्दी पर बिराजे। जयपुर और अलवर के कछवाह राजवंश की उत्पत्ति आपके छोटे पुत्र सुमित्र से है। मंगलराज के बाद उनके पुत्र कीर्तिराज गद्दीनशीन हुए। इन्होंने मालवा के राजा को परास्त किया था। इस समय मालवे की राज्यगद्दी पर शायद भोजराज बिराजमान थे। सन्‌ 1021 में महमूद गज़नवी ने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी। यह चढ़ाई कीर्तिराज ही के राज्य-काल के लगभग हुई थी। कीर्तिराज के बाद क्रमशः मूलदेव, देवपाल, पद्मपाल और महीपाल ग्वालियर की गद्दी पर बिराजे। महीपाल को पृथ्वीपाल और भुवनेक मल्ल भी कहा करते थे। ग्वालियर के किले पर जो सास बहू का सुन्दर मन्दिर बना हुआ है उसे पद्मपाल ने बनवाना शुरू किया था। महीपाल ने उसे पूरा करवाया ओर उसका नाम पद्मनाथ मन्दिर रखा। महीपाल के पश्चात्‌ क्रमात त्रिभुवनपाल, विजयपाल, सूरपाल और अंनगपाल ग्वालियर की गद्दी पर बेठे। अनंगपाल तक की कछवाहों की श्रृंखलाबद्ध वंशावली शिलालेखों में मिलती है। सन्‌ 1196 में शहाबुद्दीन गोरी ने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी। उस समय वहां सोलंखपाल नामक राजा राज्य करता था। शायद यही अनंगपाल का उत्तराधिकारी हो। ताजुलम आसिर नामक फारसी तवारीख में लिखा है कि “ जब सुलतान शहाबुद्दीन की सेना ने ग्वालियर पर चढ़ाई की तो वहां के राजा सोलंखपाल ने खिराज देना मंजूर किया और 10 हाथी देकर सुलह कर ली।” पर
तनकातिनासिरी में कुछ ओर ही लिखा है। उसमें लिखा है कि- बहाउद्दीन तुग़लक को ग्वालियर फतह करने के लिये नियत कर सुल्तान स्वयं गज़नी लौट गया। एक साल तक बहाउद्दीन लड़ता रहा, पर किला फ़तह नहीं हुआ। अन्त में रसद चुक जाने के कारण राजा ने कुतुबुद्दीन ऐबक को किला सौंप दिया। इस पर से मालूम होता है कि ग्वालियर पर सन् 1196 तक कछवाहों का राज्य रहा। ‘कछवाहों की ख्याति’ को पढ़ने से मालूम होता है कि कछ॒वाहा राजा ईसासिंह जी ने वहां का राज्य अपने भतीजे साजी तंवर को दे दिया था। पर यह बात विशेष प्रामाणिक प्रतीत नहीं होती। हम ऊपर कह आये हैं कि जयपुर राज्य के कछवाहे मंगलराज के छोटे पुत्र सुमित्र के वंशज हैं। सुमित्र के बाद उसके वंश में क्रमशः मधुब्रह्म कहान, देवानीक और ईश्वरी सिंह हुए। ईश्वरीसिंह के बाद सोढ़देव हुए। सोढ़देव के पुत्र दूलहराय का विवाह मोरन के चौहान राजा की कन्या के साथ हुआ था। अपने ससुर की सहायता से दूलहराय ने दोसा नामक प्रान्त बड़गूजरों से जीत लिया और इस प्रकार एक नवीन राज्य की स्थापना की। यही राज्य आगे चल कर जयपुर का राज्य कहलाया। दूलहराय ने अपने पिताजी को दोसा बुला लिया और राज्य का भार उन्हीं के हाथों में सौंप दिया। दौसा बहुत ही छोटा था, अतएवं सोढ़देव और उनके पुत्र दूलहराय ने और कुछ प्रदेश भी जीतना चाहा। दौसा के आस पास जो मुल्क था, वह उस समय ढूँढार कहलाता था। इस मुल्क पर मीणा ओर राजपूत सरदारों का अधिकार था। दुलहराय ने पहले पहल मीण लोगों के माच नामक स्थान पर हमला किया और उसे जीत कर उसका रामगढ़ नाम रख दिया। इस समय जिस स्थान पर लड़ाई हुईं थी उसी के पास सोढदेव ने एक मन्दिर बनवाया और अपनी कुजदेवी जामवा माता की स्थापना उसमें कर दी। दूलहराय ने थोड़े ही समय में मीणा लोगों के खोह, गेरोर और झोटबाड़ा नामक तीन मजबूत स्थान ओर जीत लिये। दूलहराय ने सन्‌ 1006 से 1036 तक राज्य किया। अपने राज्य-काल के आरंभ में तो आपको मीणा लोगों से बहुत तंग होना पड़ा, पर धीरे धीरे आपने उन्हें पूर्ण रूप से पराजित कर दिया। एक समय दक्षिण के किसी राजा ने आपके रिश्तेदार को ग्वालियर में घेर लिया था। अतएव उसने आपसे सहायता माँगी। आपने तुरन्त ग्वालियर जाकर शत्रु को हरा दिया ओर घेरा हटा लेने के लिये बाध्य किया। पर इस लड़ाई में आप बड़ी बुरी तरह घायल हो गये। लौटते समय रास्ते में खोह नामक स्थान में आपका स्व॒र्गवास हो गया। दूलहराय जी के बाद काकिल हुए। इन्होंने सन 1037 में मीना लोगों से जयपुर राज्य जीत लिया और इसको अपनी राजधानी बनाया। आपने एक अम्बिकेश्वर महादेव का मन्दिर भी यहां बनवाया था।

जयपुर राज्य का इतिहास
जयपुर राज्य का इतिहास

काकिल जी के बाद जयपुर राज्य की गद्दी के जितने उत्तराधिकारी हुए उन में पंजुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। चन्दबरदाई कृत पृध्वीराज रासों नामक पुस्तक में आपका अच्छा वर्णन है। दिल्‍ली के सम्राट पृथ्वीराज की सेना के आप नायक थे। आपने शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी को खेबर के दर्रे में बड़ी बुरी तरह हराया। इतना ही नहीं, वरन गज़नी तक उसका पीछा भी किया था। आपने पृथ्वीराज के सेनानायक की हैसियत से बुन्देलखंड के चन्देल राजा से महोबा भी जीत लिया था। सन्‌ 1192 में आप पृथ्वीराज के साथ लड़ते हुए कन्नौज के रणक्षेत्र में वीर-गति को प्राप्त हुए। आपका व्याह सम्राट पृथ्वीराज चौहान की बहिन के साथ हुआ था। इसी से आपके महाबल का परिचय मिल जाता है। पंजुन से सातवीं पीढ़ी में उदयकरन हुए। इनके पाँच पुत्र थे जिनमें से एक गद्दी पर बेठे। चौथे का नाम बालोजी था। जिनके पौत्र को शेखावटी नामक प्रान्त मिला। इसके नाम पर से कछवाह राजपूतों में शेखावत नामक एक उपशाखा कायम हुई। पाँचवें का नाम बरसिंह था। ये बरसिंह चरु नामक चपशाखा के संस्थापक हुए। उदयकरन से पाँचवीं पीढ़ी में पृथ्वीराज हुए। आपके बहुत से पुत्र हुए जिनमें से केवल 12 ही जीवित रहे। इन बारहों पुत्रों के बारह घराने हुए और इनकों अलग अलग जागीरें मिली।

बिहारीमल जी

पृथ्वीराज के बाद बिहारीमल जी को गद्दी मिली। कछवाह वंश के
आप प्रथम नरेश थे जिन्होंने मुसलमानों का आधिपत्य स्वीकार
किया। आरम्भ में तो आपने मुसलमानों का तिरस्कार किया, पर पश्चात्‌ उनके लगातार होने वाले हमलों से तंग आकर आपको शाही आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा। आपने अपने छोटे पुत्र की लड़की का विवाह शाहज़ादा हुमायूँ के साथ कर दिया। कहा जाता है कि सन्‌ 1567 में जब कि सम्राट अकबर कुतुब ओलिया की यात्रा करने निकले हुए थे तब बिहारीमल जी ने अजमेर आकर सम्राट का स्वागत किया। अकबर ने इससे प्रसन्‍न होकर इन्हें अपने मुख्य सरदारों में भरती कर लिया और इनकी पुत्री के साथ अपना विवाह कर लिया। बिहारीमल जी को भगवान दास जी, जगन्नाथ जी भूपत जी और सलहदी नामक चार पुत्र थे। उन्हें भी बादशाह की ओर से अच्छी अच्छी पदवियां प्रदान की गई।

भगवान दास जी

बिहारीमल जी के बाद उनके पुत्र भगवान दास जी आमेर की गद्दी पर बिराजे। आपने दिल्ली सम्राट के साथ खूब ही मित्रता बढ़ा ली। सम्राट अकबर के आप दिली दोस्त हो गये थे। आपने काबुल और गुजरात को जीत कर मुगल साम्राज्य में मिलाया। पंजाब प्रान्त के तो आप सूबेदार भी रहे थे।

महाराजा मानसिंह जी जयपुर राज्य

भगवानदास जी के कोई पुत्र नहीं था अतएव उन्होंने अपने भाई के लड़के मानसिंह को दत्तक ले लिया। सन्‌ 1619 में मानसिंह जी अपने पिता के साथ आगरा गये थे। तभी से सम्राट अकबर का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया था। उसने उनकी वीरता पर प्रसन्न होकर उन्हें सेनाध्यक्ष की पदवी प्रदान की। मानसिंह जी इस पदवी के संभव योग्य थे। थोड़े ही समय में उन्होंने मुग़ल साम्राज्य के प्रधान स्तम्भों की सूची के सिरे पर अपना नाम लिखवा लिया। सचमुच मानसिंह जी का सेनापतित्व और उनकी योग्यता इतनी बढ़ी चढ़ी हुईं थी कि वे अकबरी नव रत्नों में परमोज्वल हीरक समझे जाते थे। उस समय मुगल-साम्राज्य में उनके समान रण-कुशल सेनापति कोई नहीं था। राजा मानसिंह जी की तलवार की चमक से अफ़गानिस्तान के कट्टर अफ़गानों की भी आँखें झप जाती थीं। उनकी विजय वाहिनी की लौह झन्कार हिरात से ब्रह्मपुत्र तक और काश्मीर से नर्मदा तक सुनाई पड़ती थी।

संवत्‌ 1629 में जब सम्राट अकबर गुजरात विजय करने के लिये गये थे तब वे राजा भगवानदास जी और मानसिंह जी को भी साथ लेते गये थे। सम्राट जब सिरोही से आगे डीसा दुर्ग पहुँचे, तब समाचार मिला कि शेरखां फौलादी अपनी सेना और परिवार के साथ ईडर जा रहा है। बादशाह ने सेना सहित कुँवर मानसिंह जी को उसका पीछा करने के लिये भेजा। बादशाह डीसा दुर्ग से पाटन पहुँचे होंगे कि ये भी अफ़गानों को परास्त कर बहुत से लूट के माल के साथ वहां पहुँच गये। इसी वर्ष के अन्त में गुजरात के सुल्तान मुजप्फर शाह ने पाटन में अपना राज्य बादशाह को सौंप दिया। गुजरात प्रान्त के कुछ मिर्जे थोड़े से सैनिकों के साथ सूरत दुर्ग से निकल कर अपनी सेना से मिलने आ रहे थे जिन्हें पकड़ने की इच्छा से बादशाह ने उनका पीछा किया। सनोल ग्राम में मुठभेड़ हो गई। बादशाह के पास केवल डेढ़ सौ सैनिक थे और शत्रु एक सहस्त्र के लगभग थे। दोनों सेनाओं के बीच महीन्द्री नदी थी, इसलिये बादशाह ने मानसिंह जी को हरावल नियत करके पार उतरने की आज्ञा दी। कुल शाही सवार नदी पार हो गये, जिन पर गुजराती मिर्जों के मुखिया मिजो इब्राहीम ने धावा किया। शाही सेना पीछे हट गई, पर दोनों ओर नागफनी के झंखाड़ होने के कारण शत्रु के तीन ही सवार आगे बढ़ सकते थे। इधर स्वयं बादशाह, राजा भगवानदास ओर कुँवर मानसिंह जी सब के आगे थे। इस समय मानसिंह जी ने अदूभुत वीरता के साथ बादशाह की प्राण रक्षा करते हुए शत्रु को मार भगाया।

18 वें वर्ष में बादशाह ने कुँवर मानसिंह जी को सैन्य ईडर के रास्ते
से डूंगरपुर भेजा। यहाँ के तथा आस पास के राजाओं ने विद्रोह किया था जिनका दमन करने के लिये ही यह सेना भेजी गई थी। इन्होंने वहां पहुँच कर उन लोगों को पूर्णतया पराजित किया। और उन लोगों से बादशाह की आधीनता स्वीकार करा लेने पर ये आज्ञानुसार उदयपुर होते हुए आगरा चले। जब ये रास्ते में उदयपुर की सीमा पर पहुँचे तब इन्होंने महाराणा प्रतापसिंह जी को अपना आतिथ्य करने के लिये कहलाया। वे उस समय कुम्भलमेर दुर्ग में थे पर मानसिंह जी के स्वागत के लिये उदयसागर झील तक आकर उन्होंने वहां भोजन का प्रबन्ध किया। राणा भोजन के समय स्वयं नहीं आये और अपने पुत्र को अतिथि-सत्कार करने के लिये भेज दिया। मानसिंह जी इसका अर्थ समझ गये थे तब भी एक बार और कहलाया, पर सब निष्फल हुआ। अन्त में इन्होंने भोजन नहीं किया और मेवाड़ पर चढ़ाई करने की धमकी देकर चले गये। बादशाह के पास पहुँचते ही इन्होंने सब बातें कुछ नमक मिर्च लगाकर कह दीं। इस पर बादशाह बड़े क्रोेधित हुए और चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी श। सुल्तान सलीम, कुँवर महाराणा मानसिंहजी और महावत ख़ां के आधीन एक भारी-सेना मेवाड़ पर भेजी गई। प्रसिद्ध हल्दीघाटी के मैदान में युद्ध हुआ। महाराणा की बड़ी इच्छा थी कि मानसिंह जी से इन्द्व युद्ध करें, पर उस घमासान में ऐसा अनुकूल अवसर प्राप्त न हो सका। युद्ध के धक्कम धक्का में महारणा प्रताप, शहजादा सलीम के हाथी के पास पहुँच गये और उस पर उन्होंने अपना बर्छा चलाया। यदि महावत खां और अम्बारी का लोह स्तंभ बीच में न होता तो अकबर बादशाह को अवश्य पुत्र-शोक उठाना पड़ता। सलीम का हाथी भाग निकला। दोनों ओर के वीर जी तोड़कर लड़ने लगे। इस अवसर पर राजा रामशाह ग्वालियरी ने स्वामी-भक्ति का उच्च आदर्श दिखलाया।
जब उनने देखा कि मुसलमान सेना बड़े वेग से राणा पर टूट पड़ी है, तब उन्होंने राणा के छत्रादि राज-चिन्हों को बलातू छीन कर दूसरी ओर का रास्ता लिया। मुसलमानी सेना महाराणा को उस ओर भागता देखकर उधर ही टूट पड़ी जिससे अत्यन्त घायल राणा प्रताप सिंह जी को युद्ध स्थल से निकल जाने का अवसर मिल गया। रामशाह अपने पुत्रों सहित वीर गति को प्राप्त हुए। अन्त में महाराणा की सेना को अगणित मुग़ल सैन्य के आगे पराजित होना पड़ा। यह युद्ध श्रावण कृष्ण 7 संवत्‌ 1632 को हुआ था।

राजा मानसिंह जी
राजा मानसिंह जी

वर्षा के कारण मेवाड़ का युद्ध रूक गया था पर उसके व्यतीत होते ही वह फिर आरंभ हो गया। बादशाह स्वयं ससैन्य अजमेर पहुँचे और कुंवर मानसिंह जी को सेना देकर मेवाड़ भेजा।महाराणा फिर परास्त होकर कुम्भलमेर दुर्ग में जा बेठे। शाहबाज खाँ ने इस दुर्ग को भी घेर लिया। शाहबाज खाँ के साथ राजा भगवानदास, कुँवर मानसिंह आदि सरदार भी गये थे। देवात् दुर्ग की एक बड़ी तोप के फट पड़ने से मेगज़ीन में आग लग गई। बादशाही सेना घबरा कर पहाड़ी पर चढ़ गई। फाटक पर राजपूतों ने बड़ी वीरता से उन्हें रोका पर घमासान युद्ध के पश्चात्‌ वे वीर गति को प्राप्त हुए। दुर्ग पर इनका अधिकार हो गया और गाजी खाँ वहां नियुक्त कर दिया गया। कुम्भलमेर दुर्ग के टूटने पर मानसिंह जी ने मांडलगढ़ और गोघूंदा दुर्गों को जा घेरा। यहां महाराणा रहते थे। वे तीन सहसत्र राजपूतों के साथ इन पर इस तरह टूट पढ़े कि मुगल-हारावत नष्ट भ्रष्ट हो गया। हाथियों से युद्ध होने लगा, जिसमें मानसिंह जी का हाथीवान मारा गया। पर मानसिंह जी विचलित नहीं हुए। हाथी को सँभालते हुए वे युद्ध करते रहे। इतने पर भी युद्ध बिगड़ता ही जा रहा था कि इतने ही में एक मुगल सरदार यह कहता हुआ आया कि बादशाह आ गये हैं। इससे मुग़ल सेना का उत्साह बढ़ गया और महाराणा परास्त हो गये। गोघुँदा विजय हो गया और उदयपुर पर भी इन्होंने अधिकार कर लिया। बादशाह की आज्ञा आ जाने पर कुँवर मानसिंह जी लौट आये।

बिहार और बंगाल के कुछ मुग़ल सरदारों ने इन प्रांन्तों में विद्रोह
मचा रखा था। उन्होंने अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम को, जो कि काबुल में स्वतंत्रता पूर्वक रहता था, लिख भेजा कि यदि आप भारत पर चढ़ाई करें तो हम लोग आपका साथ देने को तैयार हैं। मिर्जा के सरदारों ने भी जब उन्हें उकसाया तो उसकी मुगल सम्राट बनने की इच्छा प्रबल हो उठी। उसने एक सरदार को सेना सहित आगे भेजा। यह सेना अटक तक आ पहुँची पर वहां के जागीरदार यूसुफ खाँ कोका ने उसे रोकने की बिलकुल चेष्टा न की। बादशाह ने यूसुफ खां को बुला लिया और उसके स्थान पर कुँवर मानसिंह जी भैजे गये। इन्होंने सियालकोट पहुँच कर युद्ध की तैयारी की और एक सरदार को अटक दुर्ग दृढ़ करने के लिय भेजा। मिर्जा हकीम ने भी अपने भाई मिर्जा शादमान को एक सहस्त्र सेना के साथ भेजा, जिसमे अटक दुर्ग घेर लिया। कुँवर मानसिंह जी इस समय सिन्ध नदी पार करने में कुछ हिचकिचा रहे थे तभी अकबर ने शायद यह दोहा उन्हें लिख भेजा था।

सबे भूमि गोपाल की यामें अटक कहां।
जाके मन में अटक है सोईं भटक रहा ॥

अटक के घेरे का समाचार सिलते ही मानसिंह जी वहां जा पहुँचे। घोर युद्ध हुआ। मानसिंह जी के भाई सूर्यसिंह जी के हाथ से शादमान मारा गया। इसी समय मिर्जा हकीम भी सेना सहित घटना स्थल पर आ पहुँचा, पर शाही आज्ञा आ चुकी थी अतएव मिर्जा आगे बढ़ने से नहीं रोका गया। मानसिंह जी लाहौर लौट आये पर मिर्जा ने वहां भी दुर्ग को घेर कर युद्ध आरंभ किया। बादशाह सेना सहित ज्यों ज्यों लाहौर की ओर बढ़ने लगे त्यों त्यों मिर्जा पीछे हटने लगा। इस कार्य में मिर्जा के बहुत से सैनिक रास्ते में आने वाली नदियों में बह गये। बादशाह की आज्ञा पाकर मानसिंह जी पेशावर ओर सुल्तान मुराद काबुल पहुँचा। मानसिंह जी जब खुद काबुल पहुँचे तो मिर्जा हक़ीम का सामा फरेदू्खाँ सेना के पिछले भाग पर छापा मार कर बहुत सा सामान लूट ले गया। मानसिंह जी वहीं ठहर गये। सामने ही पर्वत की ऊँचाई पर मिर्जा हकीम सेना सहित मोर्चा बांधे डटा हुआ था। घोर युद्ध के उपरान्त मानसिंह जी ने उसे परास्त कर दिया। दूसरे दिन उसी स्थान पर फरेदू्खाँ भी परास्त कर दिया गया और काबुल पर मानसिंह जी ने अधिकार कर लिया। पीछे से बादशाह ने आकर मिर्जा हक़ीम को काबुल का अध्यक्ष और मानसिंह जी को सीमान्त प्रदेश पर नियुक्त कर दिया। मानसिंह जी मे बड़ी ही योग्यता के साथ सीमान्त प्रदेश की लड़ाकू जातियों का दमन किया।

सन्‌ 1585 में मानसिंह जी की धर्म बहिन का विवाह सुल्तान
सलीम के साथ हुआ। इसी समय काबुल से मिर्जा मुहम्मद हकीम की मृत्यु का समाचार आया अतएव मानसिंह जी काबुल भेज दिये गये। इन्होंने अपने सुप्रबन्ध से वहां की प्रजा को ऐसा प्रसन्न कर लिया कि फरेदूखाँ आदि विद्रोहियों की दाल न गल सकी। मानसिंह जी काबुल में एक वर्ष तक रहे। पर इतने ही समय में आपने वहां शान्ति स्थापित कर दी। इसके बाद आप अफ़रीदी अफ़गानों का दमन करने के लिये भेजे गये। इस कार्य में भी आपको अच्छी सफलता मिली। सन्‌ 1588 में बादशाह ने मानसिंह जी को बिहार के सूबेदार के पद पर नियुक्त किया। बिहार के मुगल सरदारों का विद्रोेह यद्यपि दमन किया जा चुका था तथापि उसका कुछ अंश कहीं कहीं सुलग रहा था। मानसिंह जी ने वहां पहुँचते ही बिलकुल शान्ति फैला दी। हाजीपुर के जमींदार राजा पूर्णमल का दमन करके आपने उसकी पुत्री का विवाह अपने भाई के के साथ करवा दिया। बिहार में शान्ति स्थापित कर लेने पर आपकी इच्छा उड़ीसा विजय करने की हुईं। बिहार प्रान्त के अन्दर आपने रोहतासगढ़़ नामक शहर का जीर्णोद्धार करवाया। वहां का अम्बर निर्मित सिंहद्वार और बड़ा तालाब आज भी आपकी कीर्ति के स्मारक हो रहे हैं।

उड़ीसा प्रान्त के राजा प्रतापदेव को उसके पुत्र वीर सिंह देव ने विष देकर मार डाला। प्रताप देव के एक सरदार मुकुन्द देव ने इस अवसर पर स्वामि-भक्ति का ढोंग रचकर अपना अधिकार कर लिया। उड़ीसा राज्य को इस गड़बड़ी की खबर जब बंगाल के सुल्तान सुलेमान किरानी को मिली तो उसने सेना सहित आकर उस प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया। बंगाल से निकाले जाने पर अफगान इसी प्रान्त में आकर बसे थे। इनका सरदार कतलू खाँ था। राजा मानसिंह जी ने उड़ीसा विजय करने के लिये जो सेना भेजी थी उसने जहानाबाद नामक ग्राम में आकर छावनी डाल दी। इसी समय कतलू खाँ ने अपनी सेना धारपुर आदि स्थानों को लूटने के लिये भेजी। मानसिंह जी ने अपने पुत्र जगत सिंह जी को सेना सहित कतलू खां पर भेजा। पहले तो अफगान परास्त होकर दुर्ग में जा बेठे और सन्धि का प्रस्ताव करने लगे, पर तुरन्त ही नई अफगान सेना के आ जाने के कारण उन्होंने रात्रि में मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। जगत सिंह जी कैद कर लिये गये। पर इसी समय कतलू खाँ की मृत्यु हो गई। अफगान सरदार ख्वाज़ा इसा खां ने जगत सिंह जी को मुक्त करके उन्हीं से सन्धि की प्रार्थना की। राजा मानसिंह जी ने कतलू खां के पुत्रों को उनके पिता का राज्य दे दिया। राजा साहब के सदय व्यवहार से कृतज्ञ होकर अफगानों ने पवित्र तीर्थ जगन्नाथपुरी को उन्हें सौंप दिया।

इस सन्धि के दी वर्ष उपरान्त इसा खाँ की मृत्यु हो गई। नये अफगान सरदारों में मुगल सेना से युद्ध करने की इच्छा प्रबल हो उठी। उन्होंने जगन्नाथपुरी लूट ली और बादशाह के राज्य में उप द्रव मचाना शुरू किया। इस अत्याचार का विरोध करने के लिये राजा मानसिंह जी सेना सहित चढ़ दौड़े। एक ही युद्ध में आपने अफगानों को पूर्णतया परास्त कर दिया और सारे उड़ीसा पर अपना अधिकार कर लिया। पराजित अफगानों ने भाग कर कटक के राजा रामचन्द्र के प्रसिद्ध दुर्ग सारंगगढ़़ में आश्रय लिया। मान सिंह जी की शक्ति से चौंथिया कर राजा रामचन्द्र ने आत्मसमर्पण कर दिया। उड़ीसा मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। कूच विहार के राजा लक्ष्मीनारायण ने मुगल स्वाधीनता स्वीकार्यथ राजा मानसिंह जी से भेंट की। इस कारण उसके आत्मीय दूसरे नरेशों ने चिढ़कर उस पर चढ़ाई कर दी। लक्ष्मीनारायण ने मानसिंह जी से सहायता माँगी। मानसिंह जी ने सहायता पहुँचा कर वहाँ शान्ति स्थापित करवा दी। इस उपकार के बदले में राजा लक्ष्मीनारायण ने अपनी बहिन का विवाह राजा मानसिंह जी के साथ कर दिया। कुछ ही समय बाद कूच विहार में पुनः झगड़ा उत्पन्न हुआ। इस बार भी हिजाज खाँ नामक सेनापति को भेजकर मानसिंह जी ने शान्ति स्थापित करवा दी।

सन्‌ 1598 में जब बादशाह ने दक्षिण जाने की तैयारी की तब
मेवाड़ पर सेना भेजने की इच्छा से राजा मानसिंह जी को बंगाल से बुला लिया। मानसिंह जी के स्थान पर उनके ज्येष्ठ पुत्र जगतसिंह जी नियुक्त किये गये। पर आगरा पहुँचते ही जगत सिंह जी की मृत्यु हो गई अतएव उनके पुत्र मोहन सिंह जी उनके स्थान पर नियुक्त कर दिये गये। सन्‌ 1602 में मानसिंह जी रोहतासगढ़़ पहुँचे। यहां पर शरीफाबाद सरकार के अन्तर्गत शेरपुर नामक स्थान के पास आपने अफगानों को पूर्ण पराजय दी। आपने सेना भेजकर अफगानों के आधिनस्त नगरों पर अधिकार कर लिया। बचे बचाये अफ़गान उड़ीसा के दक्षिण में भाग गये। मानसिंह जी ढाका पहुँच कर सूबेदारी करने लगे। सुल्तान सलीम के स्वभाव में कुछ विद्रोह के भाव प्रकट हो चुके थे। विद्रोही पुत्र के पास के प्रान्त में मानसिंह जी का रहना अकबर को अच्छा न लगता था। उसने तुर्किस्तान पर हमला करने के कार्य में मंत्रणा लेने के बहाने मानसिंह जी को आगरा बुला लिया। अकबर ने उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर उन्हें सात हज़ारी सवार का मन्सब प्रदान किया। इसके पहले किसी हिन्दू या मुसलमान सरदार को ऐसा सम्मान सूचक मन्सब प्राप्त नहीं हुआ था। कुछ दिन दरबार में रहकर मानसिंह जी बंगाल लौट गये। वहां सन्‌ 1604 तक आपने न्यायपरता और नीति कुशलता के साथ शासन किया। इसी बीच उसमान ने फिर विद्रोह कर ब्रह्मपुत्र नदी पार की। शाही थानेदार बाजबहादुर ने उसे रोकना चाहा, पर न रोक सका। राजा मानसिंह जी यह सुनते ही रातों रात कूचकर वहां पहुँचे और शत्रु को परास्त कर भगा दिया। बाजबहादुर को फिर नियुक्त करके आप ढाका लौट आये। जब उसने नदी पार कर अफगानों के राज्य पर अधिकार करने का विचार किया तब अफगानों ने तोप आदि से रास्ता रोका। मानसिंह जी ने सहायतार्थ चुनी हुई सेना भेजी पर जब शाही सेना फिर भी नदी पार न कर सकी तब ये स्वयं गये और हाथी पर सवार हो नदी पार करने लगे। अफ़गान यह साहस देखकर भागे और मानसिंह जी सारीपुर तथा विक्रमपुर विजय कर लौट आये।

सन्‌ 1605 में जहांगीर बादशाह हुए। इन्होंने मानसिंह जी को
द्वितीय बार बंगाल के सूबेदार बनाये। परन्तु एक वर्ष भी नहीं होने पाया था कि वे वापस बुला लिये गये। बंगाल से लौटने पर मानसिंह जी ने रोहतासगढ़ के विद्रोह का दमन किया। सन्‌ 1608 में आपने स्वदेश जाने की छुट्टी मांगी। छुट्टी मिल जाने पर आपने कुछ दिन अपने राज्य में जाकर शान्ति सुख भोग किया। खाँनजहां आदि बादशाही सरदार दक्षिण में अपनी वीरता का परिचय दे रहे थे, पर उससे कुछ लाभ नहीं हो रहा था। यह, देख जहांगीर ने नवाब अबुर रहीम खानखाना और राजा मानसिंह जी को दक्षिण भेजा। यहां पर सन्‌ 1614 में मानसिंह जी ने संसार त्याग किया। जहांगीर लिखता है कि “ यद्यपि मानसिंह के सब से बड़े पुत्र जगतसिंह का पुत्र मोहनसिंह राज्य का वास्तविक अधिकारी था तथापि मैंने उस बात का विचार न कर के मानसिंह के पुत्र भाऊसिंह को, जिसने मेरी शाहज़ादगी में बड़ी सेवा की थी, मिर्जाराजा की पदवी और चार हज़ारी सवार का मन्सब देकर जयपुर राज्य का राजा बनाया। जयपुर राज्य के राजा मानसिंह जी बड़े मिलनसार और अच्छे स्वभाव के पुरुष थे। बातचीत में भी आप कुशल थे। आप प्रसिद्ध दानी भी थे। आपने एक लाख गायों का दान दिया था। आपके दान पर हरनाथ कवि ने यह दोहा कहा है:—

बलि बोह कीरति लता, कर्ण कियो द्वैपात ।
सींच्यों मान महीप ने, जब देखी कुम्हलात ॥

इस दोहे पर जयपुर राज्य के राजा मानसिंह जी ने उन्हें हाथी खिलअत आदि बहुत कुछ इनाम दिया था। मानसिंह जी स्वयं कवि थे और कवियों का मान करते थे। आपने कवियों द्वारा “मान चरित्र” नामक एक ग्रंथ बनवाया है जिसमें आपके जीवन का विवरण दिया गया है। राजा मानसिंह जी कई बार काशी में आये ओर प्रत्येक बार एक एक कीर्ति स्थापित कर गये। इन में मान मंदिर और मान सरोवर घाट आदि प्रसिद्ध हैं। सन्‌ 1590 में महाराजा मानसिंह जी ने वृन्दावन में गोविन्देव का विशाल मन्दिर बनवाया और गिरिराज के पास मानसी गंगा के घाटों और सीढ़ियों का निर्माण भी कराया था।
मानसिंह जी उत्तर देने में भी बड़े पटु थे। आपका रंग सांवला और
और शरीर बड़ा बेडौल था। जब आप प्रथम बार दरबार में आये तब बादशाह ने हँसी में आपसे पूछा कि “जिस समय खुदा के यहां रुप-रंग बंट रहा था उस समय तुम कहां थे !” मानसिंह जी ने उत्तर दिया कि मैं उस समय वहां नहीं था, पर जिस समय वीरता और दानशीलता बँटने लगी, तब मैं आ पहुँचा और उसके बदले में इसी को मांग लिया।

महाराजा भावसिंह जी

महाराजा मानसिंह जी के बाद उनके पुत्र भावसिंहजी जयपुर राज्य के सिंहासन पर बेठे। स्वयं यवन सम्राट ने उनका राज्याभिषेक करके उन्हें सम्मान सूचक पंच हज़ारी मन्सब की उपाधि प्रदान की
थी। इतिहास से यह जाना जाता है कि ये अत्यन्त निर्बोध थे ओर दिन रात मद्यपान में रत रहते थे। कई वर्ष राज्य करने के बाद अधिक मदिरापान करने के कारण उनका देहावसान हुआ। उनके राज्य-काल में कोई सहज पूर्ण घटना नहीं हुई।

महाराजा महासिंह जी

भावसिंह जी की मृत्य के पीछे उनके भतीजे महासिंह जी राज्य गद्दी पर विराजे। परन्तु ये श्री अपने पिता की तरह अत्यन्त हन्द्रिय-लोलुप और मदिरा-भक्त थे। राजा मानसिंह जी जैसे महावीर, नीतिज्ञ और असीम साहसी थे वैसे ही उनके पुत्र और पौत्र उनके सम्पूर्ण गुणों से विपरीत हुए। इस समय आमेर राज्य की प्रभुता और प्रताप क्षीण हो रहा था।

महाराजा जयसिंह जी

महासिंह जी के बाद महाराजा जयसिंह जी जयपुर राज्य के सिंहासन पर बिराजे। इन्होंने जयपुर राज्य के लुप्त गौरव को फिर प्रकाशमान किया। जिस प्रकार महाराजा मानसिंह जी ने अकबर के शासन-काल में राज्य का विस्तार, सामर्थ्य और सम्मान बढ़ाया था, ठीक उसी प्रकार राजा जयसिंहजी ने दुर्दान्त औरंगजेब के शासन में अपने अपूर्व बाहुबल और अद्वितीय राजनीतिज्ञता का परिचय दिया। हाँ, यहाँ यह बात अवश्य कहनी पड़ती है कि राजा जयसिंह जी की सारी शक्तियां सम्राट औरंगजेब की सेवाओं में तथा उनके राज्य विस्तार में लगी थीं। इन्होंने सम्राट औरंगजेब के लिये बड़े बड़े युद्ध किये और उनमें विजय-लक्ष्मी प्राप्त की। इन महाराजा जयसिंह जी के असीम पराक्रम और अपूर्व-शौर्य की महिमा का वर्णन करते हुए सुप्रख्यात्‌ इतिहास बेचा यदुनाथ सरकार अपने (औरंगजेब) नामक ग्रंथ के चौथे भाग के 60वें पृष्ठ में लिखते हैं “बारह वर्ष की उम्र में जब जयसिंह पहले पहल मुगल फौज़ में दाखिल हुए, तभी से उन्होंने अपनी ज्वल्यमान-प्रभा का परिचय देना शुरू किया। मुगल-सम्राट के झंडे के नीचे रहते हुए उन्होंने मध्य- एशिया के बलख प्रान्त से लगाकर दक्षिण भारत के बीजापुर प्रान्त तक तथा कंधार से मुंगेर तक अनेक युद्धों में भाग लिया था। सम्राट शाहजहाँ के सुदीर्घ शासन-काल में कोई वर्ष ऐसा नहीं गया, जिसमें उन्होने कहीं न कहीं अपने शौर्य का परिचय न दिया हो तथा अपने अपूर्व गुणों के कारण तरक्की न पाई हो। वे इसी बुद्धिमता और प्रतिभा के कारण मुगल सेना में एक टुकड़ी के सेनापति हो गये थे; ओर उन्होंने हिन्दुस्तान के बाहर भी अपने लोहे का परिचय दिया था। रणक्षेत्र में उन्‍हें जैसी मार्के की सफलताएँ मिलीं उनसे भी कहीं अधिक राजनेतिक क्षेत्र में उन्होंने पारदर्शिता का परिचय दिया था। जब कभी सम्राट के सामने किसी कठिन समय में कोई नाजुक प्रश्न उपस्थित होता तो वे महाराजा जयसिंह जी की तरफ सदृष्ण दृष्टि से ताकते थे। महाराजा जयसिंह जी वास्तव में असीम व्यवहार कुशल ओर नम्र थे। वे तुर्की, फारसी, उर्दू, संस्कृत और राजपूताना की भाषा पर पूरा आधिपत्य रखते थे वे अफगान, तुर्क, राजपूत और हिन्दुस्तानी सिपाहियों की संयुक्त सेवा के आदर्श सेनानायक थे।

सैनिक और राजनीतिक सफलताएं

पाठक जानते हैं कि दुर्दांत औरंगजेब के विरुद्ध महाराष्ट्र देश में एक प्रबल शक्ति का उदय हो रहा था। स्वामी रामदास जैसे हिन्दू धर्म-रक्षक महापुरुषों की प्रेरणा से इस शक्ति में अपूर्व बल और देवी स्फूर्ति का संचार होता जा रहा था। इस शक्ति ने सम्राट औरंगजेब के शासन को बुरी तरह कम्पायमान कर दिया था यह शक्ति शिवाजी नामक एक महाराष्ट्र युवक के शरीर में अवतीर्ण हुई थी। इसके प्रकाश ने भारत के राजनैतिक गगन-मण्डल को आलोकित कर दिया था। मुगल सम्राट औरंगजेब इस तेजस्वी प्रकाश के सामने चकाचोंध और भयभीत हो गया था। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस वीर शिवाजी के साथ युद्ध करके मुगल सेना बारम्बार परास्त हुई थी। सम्राट औरंगजेब ने इस बढ़ती हुई शक्ति को क्षीण करने के लिये महाराजा जयसिंह जी को नियुक्त किया।

महाराजा जयसिंह जी
महाराजा जयसिंह जी

हम पहले कह चुके हैं कि महाराजा जयसिंह जी जैसे अपूर्व रणनीतिज्ञ कुशल थे वैसे ही असाधारण राजनीतिज्ञ भी थे। जब उनके ऊपर छत्रपति शिवाजी जैसे प्रबल पराक्रमी तथा शक्ति शाली पुरुष का मुकाबला करने का भार आ पड़ा तब उन्होंने अपनी सारा बौद्धिक शक्तियों को शिवाजी को कुचलने के लिये लगाना शुरू किया। वे ऐसे उपाय सोचने लगे कि जिससे शिवाजी की केन्द्रगत शक्ति को ऐसा मार्के का धक्का पहुँचाया जावे कि वह छिन्न भिन्न हो जाये। उन्होंने सब के पहले सम्राट द्वारा बीजापुर से सुल्तान की खिराज को घटाया, जिससे वह शिवाजी से नाता तोड़कर सम्राट से आ मिले। इसके अतिरिक्त उन्होंने छत्रपति शिवाजी के तमाम शत्रुओं का गुट करके उनकी संयुक्त शक्ति में मिलाकर छत्रपति शिवाजी के खिलाफ लगाने का निश्चय किया। उन्होंने फ्रान्सिस माइल और डी० के० माइल नामक दो युरोपियनों को तत्कालीन युरोपियन कोठियों के मालिकों के पास भेजकर उनसे यह अनुरोध किया कि वे शिवाजी के खिलाफ सम्राट की सहायता करें। इतने ही से महाराजा जयसिंह जी को सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने दक्षिण के कई राजाओं के पास ब्राह्मण राजदूत भेजकर उन्हें शिवाजी के खिलाफ भड़काना शुरू किया। जो दाक्षिणात्य राजागण भोंसला के आकस्मिक उदय से खिन्न हो उठे थे उन सब के पास इन प्रतापी मुगल सेनापति के गुप्त दूत पहुँचे और इन्हें सफलताएँ भी हुईं। बाजी, चन्द्रराव और उनका भाई गोविन्दराव मोरे-जिनसे कि शिवाजी ने जावली का परगना ले लिया था, महाराजा जयसिंह जी की सेवा में उपस्थित हुए। इनके अतिरिक्त मनकोजी धनगर भी मुगल फौज में सम्मिलित हो गये। अफ़जल खाँ का लड॒का फ़जुल खाँ अपने बाप के खून का बदला निकालने के लिये महाराजा शिवाजी के खिलाफ जयसिंह जी से आ मिला। जयसिंह जी ने इसकी पीठ ठोक कर सेना में इसे एक अग्रणय पद प्रदान किया। जयपुर राज्य के महाराजा जयसिंहजी ने अपने युरोपियन तोपखाने के अफसर निकोलाओ मनसीके द्वारा कल्याण के उत्तरवर्त्ती कोली देश के छोटे छोटे राजाओं का भी सहयोग प्राप्त कर लिया। इन सब के अतिरिक्त शिवाजी के अफसरों को ऊँचे ऊंचे पदों का तथा विपुल द्रव्य का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिलाने के भी खूब प्रयत्न किये गये और इसमें उन्हें कुछ सफलता भी हुई। महाराजा जयसिंह जी ने इस समय सारी सत्ता को अपने हाथ में केन्द्रीभूत कर लिया। शुरू शुरू में सम्राट ने उन्हें रणक्षेत्र में सेना संचालन का कार्य दिया था और शासन सम्बन्धी सारा कार्य-जैसे, अफसरों और फौज की तरक्की, सजा और बदली आदि- औरंगजेब के वायसराय के आधीन था।

युद्ध का आरम्भ (1665)

जुनार से दक्षिण की तरफ जब हम प्राचीन मुग़ल राज्य की सीमा के आगे बढ़ते हैं, तो पहले पहल इन्द्रायनी की घाटी रास्ते में आती है। इसके किनारों पर की पर्वतमाला पर पश्चिम की तरफ लोहागढ़ और तिकोना नामक किले ओर मध्य में चाकन दुर्ग स्थित है।इसके बाद भीसा नदी की घाटी आती है जिसमें कि पूना नगर बसा हुआ है। इससे और भी दक्षिण की तरफ कार्हा की घाटी है। इसके पश्चिम के पहाड़ पर सिंहगढ़ ओर दक्षिण की पहाड़ियों पर पुरन्दर का किला स्थित है। इसी घाटी के मैदान में ससबद ओर सूपा नामक गाँव हैं। इन पहाड़ों के दक्षिण में नीरा नदी की घाटी है। इस घाटी के किनारे पर शिरवाल नामक गांव, पश्चिम में राजगढ़ और तोरना नामक किले और दक्षिण पश्चिम में रोहिरा का किला है। पूना, उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित लोहागढ़ और दक्षिण दिशा में स्थित सिंहगढ़ से समान अन्तर पर है। ससबद नामक स्थान ऐसे मौके पर बसा हुआ है कि वहां से पुरन्दर, राजगढ़, सिंहगढ़ और पूना आदि स्थानों पर सुगमता से चढ़ाई की जा सकती है। इतना ही नहीं, परन्तु इस स्थान के दक्षिण में मैदान होने के कारण यहां से बीजापुर पर भी हमला किया जा सकता है तथा उधर से आने वाली शत्रु की मदद को भी रोका जा सकता है। इस समय भी ससबद में पाँच मुख्य मुख्य रास्ते मिलते हैं। इस प्रकार युद्ध की दृष्टि से ससबद एक अत्यन्त महत्त्व पूर्ण स्थान है।

महाराजा जयसिंहजी एक कुशल सेनानायक थे। उन्होंने सूक्ष्म सैनिक दृष्टि से इन सब स्थानों पर हमला करने के लिये ससबद नामक स्थान पर अपनी छावनी डाल दी। पूना पर बड़ी ही मज़बूत सैनिक किले बंदी की गई थी। लोहागढ़ के सामने एक सैनिक थाना स्थापित किया गया। जिसका काय लोहागढ़ पर दृष्टि रखना तथा उस रास्ते की रक्षा करता था जो कि उत्तर की ओर जुनार के पास मुगल सीमा से जा मिलता था। इतना हो जाने पर एक ऐसी फौजी टुकड़ी बनाई गई जो इधर उधर घूम फिरकर ससबद से पश्चिम ओर दक्षिण पश्चिम में स्थित मरहठे के गाँवों को नष्ट करे। पूर्व की ओर से आक्रमण होने की कोई सम्भावना नहीं थी क्योंकि एक तो उस ओर बीजापुर-राज्य की सीमा आ गई थी, ओर दूसरे मुगल सेना की एक टुकड़ी भी उस ओर गई हुई थी। तीसरे वहाँ की प्राकृतिक स्थिति ही कुछ ऐसी थी कि जिसके कारण दुश्मन उस ओर से आक्रमण नहीं कर सकते थे।

तीसरी मार्च के दिन जयसिंह जी पूना पहुँचे। यहां पर जयसिंह जी
ने कुछ दिन प्रजा को शान्त करने तथा ऐसे सैनिक स्थान कायम करने में बिताये जो कि उनके ख़्याल से इस युद्ध की सफलता के खास स्तंभ थे। 10 वीं मार्च के दिन पुरन्दर के किले पर घेरा डालने का निश्चय कर वे ससबद के लिये रवाना हो गये। 29 वीं तारीख को वे एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचे जहां से एक दिन में ससबद पहुँच सकें यहाँ से ससबद जाते समय एक दर्रा पार करना पड़ता था। जयसिंहजी ने पहले दिलेर खां को अपने सवारों और तोपखाने के साथ उस दर्रे को पार करने ओर चार मील आगे चल कर ठहरने का हुक्म दिया। दूसरे दिन राजा जयसिंह जी पहाड़ को लाँध कर दिलेर खाँ के खेमे में जा पहुँचे और दाऊद खाँ को इस लिये दर्रे के नीचे छोड़ गये कि बह दुपहर तक फौज को सकुशल दरें में प्रवेश करते हुए देखता रहे। सब से पीछे वाली फौज की टुकड़ी को भूले भटके सिपाहियों को मार्ग बतलाने का कार्य सौंपा गया था। इसी दिन ( 30 मार्च ) सुबह दिलेरखाँ अपनी टुकड़ी के साथ पड़ाव के लिये योग्य स्थान की तलाश में निकला। ढूंढ़ते ढूंढते वह पुरन्दर के किले के पास जा पहुँचा। यहाँ पर मराठे बन्दूकचियों के एक बड़े भारी झुन्ड ने, जो कि एक बाड़ी में ठहरा हुआ था, शाही फौज़ पर हमला कर दिया। परन्तु शाही सेना ने उनको परास्त कर बाडी पर अधिकार कर लिया । इसके बाद दिलेर खां की सेना ने आस पास के मकानों को जला दिये और वह पुरन्दर के किले के जितने नज़दीक जा सकी, चली गई। वहाँ पहुँच कर इस सेना ने किले से इतनी दूरी पर जहाँ कि गोला नहीं आ सके, पड़ाव डाला और अपनी रक्षा के लिये अपने आस पास खाइयाँ खोद लीं। जब यह ख़बर जयसिंहजी ने सुनी तो उन्होंने तुरन्त किरत सिंह जी, रायसिंह जी चौहान, कुबदख खाँ, मित्रसेन, इन्द्रभान बुन्देला और दूसरे अधिकारियों की आधीनता में अपने 3000 सैनिक भेजे। उन्होंने दाऊद खाँ के नाम एक ज़रूरी हुक्म इस आशय का भेजा कि वह आकर पड़ाव का चार्ज ले ले; जिससे कि वे खुद घेरे की निगरानी के लिये जा सकें। परन्तु यह समाचार सुनकर दाऊद खाँ जयसिंहजी के पास न आते हुए स्वयं दिलेर खां के पास चला गया। यह दिन इसी प्रकार बीता। छावनी की रक्षा के लिये कोई उच्च अधिकारी मौजूद नहीं था इस वजह से जयसिंह जी को मजबूरन वहीं ठहरना पड़ा। परन्तु उन्होंने दिलेर खाँ की मदद के लिये बहुत से रास्ता साफ करने वाले, भिस्ती, निशाने बाज और लड़ाई का सामान पहले ही रवाना कर दिया था। दूसरे दिन सुबह (31 मार्च ) जयसिंह जी ने बड़ी सावधानी के साथ तम्बू आदि फौज का तमाम सामान स्थायी पड़ाव पर भेज दिया जो कि ससबद और पुरन्दर के बीच मे निश्चित किया गया था। यह स्‍थान पुरन्दर से सिर्फ चार मील के अन्तर पर था। जब जयसिंहजी ने दाऊद खां और किरत सिंह जी जहाँ थे वहाँ से किले की स्थिति पर दृष्टि डाली तब उन्हें मालूम हुआ कि पुरन्दर का किला कोई एक किला नहीं है परन्तु पहाड़ियों के एक समूह की मजबूत दीवारों से घिरा है। इसलिये उसको चारों ओर से घेर लेना असम्भव है।

पुरंदर का किला घेर लिया गया

ससबद से छः मील दक्षिण में पुरन्दर की पर्वतमाला है। इसकी सबसे ऊँची चोटी समुद्र की सतह से 4564 फीट और अपने आसपास के मैदान से 25000 फीट से भी ज्यादा ऊँचाई पर है। यह एक दुहरा किला है और इसके पास ही पूर्व दिशा में एक और स्वतंत्र और बहुत ही मजबूत किला है जिसका नाम वज्रगढ़ है। पुरंदर का किला इस प्रकार बना हुआ है:–एक पहाड़ी की चोटी पर एक किला है जहाँ से गोलाबारी की जा सके। इसके चारों तरफ की जमीन ढालू है। इसके 300 फीट नीचे एक और छोटा किला है जिसको माची कहते हैं। यह माची चट्टानों की एक लाइन है जो कि पहाड़ के मध्य भाग के चारों तरफ फैली हुई है। यह माची उत्तर की तरफ कुछ और फेल गई है जिससे वहाँ इसका आकार एक झरोखे के समान हो गया है। इस जगह किले के रक्षक सिपाहियों की कचहरियाँ एवं मकान बने हुए हैं। इस झरोखे की आकृति वाले स्थान के पूर्व में भैरवखिड नामक पहाड़ी स्थित है। यह पहाड़ी पुरन्दर की पहाड़ी के ढाल की सतह से उठी हुई है ओर किले के ऊपरी भाग के उत्तर पूर्वीय हिस्से पर झुकी हुई है। यह भैरवखिंड नामक पहाड़ी इसी प्रकार एक मील तक पूर्व की तरफ फैली हुई है जहाँ जाकर एक टेबुल लेन्ड में इसका अन्त होता है। यह Table land समुद्र की सतह से 3618 फीट ऊँचा है और इसी पर रुद्रमाला का किला ( वर्तमान वज्रगढ़ ) बना हुआ है।यह वज्रगढ़ पुरन्दर के नीचे के किले (माची) के उस अत्यन्त महत्वपूर्ण उत्तरीय विभाग की रक्षा करता था जहाँ कि किले के रक्षक सैनिक रहते थे। इसी वज्रगढ़ के हस्तगत कर लेने के कारण इ० सन्‌ 1665 में जयसिंह जी ने और सन्‌ 1817 में अंग्रेजों ने मराठों को पुरन्दर की रक्षा करने में असमर्थ बना दिया था। एक दूरदर्शी सेना नायक की तरह जयसिंहजी ने पहले वज्रगढ़ पर धावा करने का निश्चय किया। दिलेर खाँ ने अपने भतीजे, अफगान सेना, हरिभान और उदयभान गौर आदि के साथ पुरन्दर और रुद्रमंडल के बीच अपना मोर्चा कायम किया। दिलेरखाँ के आगे तोपखाने का अफसर तरकताजखाँ और जयसिंहजी के द्वारा भेजी गई टुकड़ी थी। किरतसिंह जी ने 3000 सवारों और कुछ दूसरे मन्सबदारों के साथ पुरन्दर के उत्तरीय दरवाजे के सामने मोर्चा बन्दी की। दाहिनी बाजू पर राजा नरसिंह गौर, कर्ण राठोर, नरवर के राजा जगत सिंह जी और सैयद माकूल आलम ने अपनी मोर्च बन्दी की। पुरन्दर के पीछे की तरफ खिड़की के सामने दाऊद खाँ, राजा रायसिंह राठोड़, मोहम्मद सालेह तरखान, रामसिंह हाड़ा, शेरसिंह राठोर, राजसिंह गौर और दूसरे सरदार कायम किये गये थे। इस स्थान से दाहिनी बाजू पर रसूल बेग रोजभानी और उसके आधीनस्थ सेना नियुक्त थी। रुद्रमाला के सामन दिलेर खां के कुछ सिपाहियों के साथ, चर्तुभुज चौहान ने मोर्च बन्दी की ओर इनके पीछे मित्रसेन, इन्द्रभान बुन्देला और कुछ दूसरे अधिकारी गण रहे।

जयसिंह जी अपने सिपाहियों को किले के नजदीक पहाड़ी की
सतह में ले गये। इन सिपाहियों ने पहाड़ी की बाजू पर अपने डेरे गाड़ दिये। जयसिंहजी प्रति दिन खाइयों को देखने जाते, अपने आदमियों को उत्साहित करते और इस प्रकार इस घेरे का निरीक्षण करते रहते थे। पहले पहल उन्होंने अपनी सारी शक्तियाँ तोपों को ढालू और मुश्किल पहाड़ियों पर चढ़ाने की तरफ लगा दीं। अब्दुल्ला खां नामक एक तोप को रुद्रमाल के सामने के मोर्चे पर चढ़ाने में तीन दिन लग गये। इसके बाद फतेहलश्कर नामक तोप चढ़ाई गई जिसमें साढ़े तीन दिन लगे। तीसरी तोप भी जिसका नाम हाहेली था, बड़ी मुश्किल से वहाँ तक चढ़ाई गई। इसके बाद मुगल सेना ने लगातार गोलाबारी शुरू की जिससे कि किले के सामने की दीवारों का नीचे का हिस्सा नष्ट भ्रष्ट हो गया। इसके बाद रास्ता साफ करने वाले ( Pioneers) उन दीवारों की सतह में छेद करने के लिये भेजे गये। 13वीं अप्रैल अर्ध रात्रि के समय दिलेर खाँ की टुकड़ी ने किले पर भयंकर गोलाबारी करके नष्ट भ्रष्ट कर डाला और शत्रु की उसके पीछे के अहाते में हटा दिया। इस कार्य में सात आदमी काम आये और चार घायल हुए। इधर जयसिंह जी ने दिलेर खाँ की मदद के लिये अपने कुछ और आदमी भेज दिये। दूसरे दिन विजयी मुगल सेना और भी अन्दर के भाग में बढ़ी और सीढ़ियों द्वारा अन्दर जाने का प्रयत्न करने लगी। इस दिन सायंकाल के समय मुगलों के गोलाबारी से तंग आकर मराठा सैनिकों ने किले के बाहर आकर अस्त्र-शस्त्र रख दिये और आत्मसमपर्ण कर दिया । इस समय जयसिंहजी ने बड़ी बुद्धिमानी का कार्य किया। उन्होंने इन मराठा सैनिकों को सकुशल अपने अपने घर लौट जाने दिया। इतना ही नहीं, वरन इनके खास खासनेताओं को उनकी बहादुरी के उपलक्ष में बढियाँ कई बहुमूल्य राजसी पोशाकें इनाम में दीं। शत्रु के साथ यह नम्रता का बर्ताव इसलिये किया गया था कि जिस से दूसरे मराठा सरदार व सैनिक भी लड़ मरने के बजाय जल्दी ही आत्मसमर्पण कर दें। आज की लड़ाई में मुगल सेना के 80 आदमी मारे गये और 109 घायल हुए।वज्रगढ़ पर अधिकार करना ही पुरन्दर के किले पर विजय प्राप्ति करने के मार्ग की पहली सीढ़ी थी अथवा स्वयं महाराजा जयसिंह जी के शब्दों में यों कह लीजिये कि “ वह पुरन्दर के किले की कुंजी थी। अब दिलेर खां पुरन्दर के किले की तरफ अग्रसर हुआ । इधर जयसिंह जी ने छत्रपति शिवाजी के राज्य में लूट खसोट करना शुरू कर दिया। इसका कारण जैसा कि उन्होंने औरंगजेब को लिख भेजा था वह यह था “इससे शिवाजी और बीजापुर के सुल्तान को यह विश्वास हो जायगा कि मुग़लों के पास इतनी विशाल सेना है कि घेरा डालने के अतिरिक्त भी फौज बच जाती है। दूसरा फ़ायदा इस से यह होगा कि शिवाजी के राज्य में लगातार धूम मचाये रखने के कारण उनकी सेनाएँ किसी एक स्थान पर इकट्ठी नहीं होने पायेगी। इस प्रकार अपने कुछ जनरलों को इधर उधर भेज देने में उनका एक मतलब यह भी था कि उनके कुछ सेना नायक आज्ञा-पालक नहीं थे, ओर इसलिये उनके वहां रहने से नहीं रहना ही अच्छा था। दाऊद खाँ कुरेशी किले की खिड़की पर दृष्टि रखने के लिये नियुक्त किया गया था, परन्तु कुछ ही दिन बाद यह मालूम हुआ कि मराठा लोगों का एक दल दाऊद खां की आंखों में धूल झोंक कर उस खिड़की द्वारा किले में प्रविष्ट हो गया है। इस पर दिलेर खां ने दाऊद खां को खूब लानत-मलामत की, जिससे दोनों में तनाज़ा हो गया। जब यह बात जयसिंह जी को मालूम हुई तो उन्होंने दाऊद खाँ को अपने पहले के स्थान पर वापस भेज दिया और खिड़की के सामने पुरदिलखांओर शुभकरण बुन्देला को नियुक्त किया। परन्तु इससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ। शुभकरण ने इस कार्य में बिलकुल दिलचस्पी नहीं दिखाई। दिलचस्पी दिखाना तो दूर रहा, वह तो शिवाजी के साथ सहानुभूति दिखलाने लगा। उधर दाऊद खाँ भी अपने स्थान पर उधम मचाने लगा। वह बार बार यह अफ़वाह फेलाने लगा कि पुरन्दर के किले पर अधिकार कर लेना बिलकुल असंभव है इसलिये इस पर घेरा डालना सेना और द्रव्य का दुरुपयोग करना है। जयसिंहजी के मतानुसार यह अफवाह फलाने में दाऊद खाँ का आशय यह था कि इससे खास सेना नायक निराश हो जाये और वह दिलेर खाँ को हृदय से मदद न दे ताकि दिलेर खाँ पर घेरे का तमाम भार पड़ जाये और अन्त में वह अपने कार्य में असफल मनोरथ होकर लज्जा के साथ वापस लौट जाये।

जयसिंह जी दाऊद खां के हृदयगत भावों को ताड़ गये। इसलिये उन्होंने तुरन्त एक युक्ति ढूंढ़ निकाली। एक इधर उधर घूमती रहने वाली सेना की टुकड़ी बनाई गई ओर दाऊद खाँ को उसका नायक
नियुक्त करके आसपास के भिन्न भिन्न मराठों के गाँवों पर लगातार हमले करते रहने के लिये भेज दिया। 25 वीं अप्रेल को दाऊद खां की अधीनता में 6000 मज़बूत सिपाहियों की उक्त टुकड़ी, जिसमें कि राजा रायसिंह, शरजाखाँ ( बीजापुरी जनरल ) अमरसिंह चन्दावत, अचलसिंह कछवा और खुद जयसिंहजी के 400 सिपाही भी थे। दोनों बाजुओं से उनकी सेना राजगढ़, सिंहगढ़ और रोहिरा की सीमा में लूट खसोट मचाने के लिये रवाना हुईं। इस सेना को रवाना होते समय यह हुक्म दिया गया था कि “उक्त प्रदेश में एक भी खेत व गाँव का निशान तक न रहने पाये तमाम बर्बाद कर दिये जाये”। फौज़ की एक दुसरी टुकड़ी कुतुबुद्दीनखाँ और लूदीखाँ की आधीनता में उत्तरीय ज़िलों को बर्बाद करने के लिये भी भेज दी गई कि जिससे शिवाजी सब तरह से बर्बाद होकर घबरा जांये। 27 वीं तारीख को दाऊद खाँ की सेना रोहिरा के किले के पास पहूँची। उसने क़रीब क़रीब 50 गाँवों को जलाकर बिलकुल तहस-नहस कर डाले। कुछ मुगल सैनिक चार ऐसे आबाद गाँवों में जा पहुँचे जहाँ कि मुगल-सेना पहले कभी नहीं पहुँची थी। फिर कया था। उन सैनिकों ने तमाम सेना को वहाँ बुलाली। जिन जिन ने सामना किया वे धराशायी कर दिये गये, गाँवों पर अधिकार कर लिया गया, वे लूट लिये गये और अन्त में जला दिये गये। यहां एक दिन ठहर कर मुग़ल सेना 30वीं तारीख को राजगढ़ की तरफ अग्रसर हुई। रास्ते में जो जो गाँव आये, वे सब के सब जला दिये गये। किले पर अधिकार नहीं करते हुए, जिसके लिये कि वे तेयार भी नहीं थे— उन्होंने आसपास के गांवों को लूटना और नष्ट भ्रष्ट करना शुरू किया। यह सब भयंकर कार्य राजगढ़ के किले के रक्षक सैनिक, तौपों की आड़ में बैठे बैठे देख रहे थे परन्तु मुगल सेना पर आक्रमण करने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। इस जिले के आस पास की ज़मीन विषम और पहाड़ी थी। इस लिये मुग़ल सेना चार मील पीछे हटकर गुंजनखोरा के दर्रें के पास की सम भूमि में ठहरी। आज रात को इस सेना ने यहीं विश्राम किया। दूसरे दिन यह सेना शिवापुर पहुँची। यहाँ से दाऊद खाँ ने सिंहगढ़ की तरफ जाकर उसके आसपास के मुल्क को बर्बाद किया। अन्त में 3 मई को महाराजा जयसिंह जी के हुक्म से वह पूना जा हाज़िर हुआ। इस समय कुतुबुद्दीन खाँ, कुनारी के किले के पास के पुरखौरा और तासीखोरा नामक दर्रों में स्थित गांवों को बर्बाद करने में लगा हुआ था। जयसिंह जी ने इसे भी एक दम पूने बुला लिया। इस नये हुक्म का कारण यह था कि शिवाजी ने इस समय लोहगढ़ के पास एक बड़ी भारी सेना एकत्रित कर ली थी जिसको कि नष्ठ करना जयसिह जी ने ज्यादा जरूरी समझा। उक्त निश्चय के अनुसार जयसिंह जी ने दाऊद खां और कुतुबुद्दीन खां को अपनी 4 टुकड़ियों के साथ लोहगढ़ की तरफ रवाना किया। पूना से प्रस्थान करके यह सेना 4 मई तारीख को चिंचचाड़ ठहरी और 5 वीं तारीख को लोहगढ़ जा पहुँची। ज्योंही मुगल सेना के कुछ सिपाही किले के पास पहुँचे त्योंही मराठी सेना के 500 सवारों और 1000 पैदल सिपाहियों ने उन पर आक्रमण कर दिया।परन्तु शाही सिपाहियों ने उन का अच्छा मुकाबिला किया। इतने ही में और शाही सेना आ गई। भयंकर युद्ध होने के बाद मराठे हार गये और उनका नुकसान भी बहुत हुआ। विजयी मुग़ल सेना ने पहाड़ी की तलहटी में स्थित कई गाँवों को जला दिया। जाते समय वे कई जानवर भी पकड़ ले गये। मराठों के कई आदमी मुगलों के कैदी बने। इसके बाद मुगल सेना ने लोहगढ़, तिकोना, बिसापुर और तांगाई के किलों के आसपास के प्रदेश और बालाघाट तथा मैनघाट के प्रदेशों पर हाथ साफ किया। इतना हो जाने पर मुगल सेना वापस लौट गई। कुतुबुद्दीन खाँ पूने के पास के थाने पर चला गया और दाऊद खाँ अपने साथियों सहित 15 दिन की गेरहाज़िरी के बाद 19 वीं मई को फिर से मुग़ल सेना में जा मिला।

पुरंदर का युद्ध
पुरंदर का युद्ध

घेरे को विफल करने के लिये मराठों के प्रयत्न

इधर जयसिंह जी शिवाजी को कुचल डालने के प्रयत्न कर रहे थे।
उधर मराठा सेना नायक भी चुप नहीं बेठे हुए थे। वे मुगल सेना को त्रस्त करके घेरे को उठा देने के लिये जी तोड़ परिश्रम कर रहे थे। अप्रेल के आरंभ में नेताजी पालकर ने–जो कि शिवाजी के रिश्तेदार ओर घुड़ सवारों के नायक थे, परेन्दा के किले पर भयंकर आक्रमण किया; परन्तु सूपा नामक स्थान से मुगल सेना के आने के समाचार सुनकर मराठी सेना इधर उधर बिखर गई। इससे शत्रु का मुकाबला न हो सका। इसके बाद मई के अन्त में उरोदा नामक स्थान पर मराठे एकत्रित हुए थे, पर कुतुबुद्दीन को यह खबर लग गई। उसने वहाँ जाकर उन्हें इधर उधर बिखेर दिया । रास्ते में जो जो गाँव आये, कुतुबुद्दीन ने सबको लूट लिया। उसने जहाँ कहीं मराठों को अपने किलों के पास एकत्रित होते देखा कि तुरन्त उनको तितर बितर कर दिया। लोहगढ़ के किले पर हमला कर दिया गया और वहाँ पर स्थित मराठे सैनिक कत्ल कर दिये गये तथा भगा दिये गये। दाऊद खाँ 300 कैदियों और 3000 चौपायों के साथ वापस लौट आया। इसके पश्चात्‌ नारकोट में 3000 मराठे घुड सवार एकत्रित हुए पर पूना के नवीन थानेदार कुबदखाँ ने उनको वहाँ से भी भगा दिया। लौटते समय उक्त थानेदार कई किसानों और चौपायों को पकड़ लाया। पाठक ? उपरोक्त बातों से यह खयाल न कर लें कि मराठे जगह जगह हारते ही गये। उन्होंने भी कई जगह मुगल-सेना को बड़ी बुरी तरह झकाया था। स्वयं जयसिंहजी ने कहा था कि “कहीं कहीं हमें शत्रुओं द्वारा चली हुई चालों को रोकने में विफल मनोरथ भी होना पड़ा है।” सफीखाँ ने तो ओर भी साफ साफ कहा है कि “शत्रुओं ने कई बार अँधेरी रात में अचानक हमले करके, रास्तों तथा मुश्किल दर्रों की नाके बंदी करके और जंगलों में आग लगाकर शाही सैनिकों की गतिविधि को एकदम बन्द कर दी थी। मराठों द्वारा उपस्थित की गई उपरोक्त बाधाओं के कारण मुगलों को कई आदमी तथा चौपायों से हाथ धोना पड़ा था।अप्रैल मास के मध्य में जब वज्रगढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया तब दिलेरखाँ ने आगे बढ़कर माची (पुरन्दर के नीचे के किले) पर घेरा डाल दिया। उसने किले के उत्तर पूर्वीय कोण तक अर्थात् खण्डकाला के किले तक खाइयाँ खुदवा दीं। किले की रक्षक सेना ने घेरा डालने वालो का विरोध किया। एक दिन रात्रि के समय उन्होंने किरत सिंह पर हमला किया, पर किरत सिंह लड़ने के लिये बिलकुल तैयार था इसलिए उसने उन्हें वापस हटा दिया। इस हमले में मराठों के बहुत से आदमी काम आये। इसके बाद एक दिन अंधेरी रात में मराठों ने रसूलबेग रोजभानी के मोर्चो पर अचानक हमला कर दिया। रसूलबेग के 15 सिपाही घायल हुए और उसकी तोपों में कीले ठोक दिये गये। पर हल्ले-गुल्ले के कारण आसपास के मोर्चों के मुगल सैनिक रसूलबेग की सहायतार्थ आ गये जिससे मराठों को वापस हट जाना पड़ा। दूसरे दिन फिर एक छोटी सी लड़ाई हुईं जिसमें मुगलों के 8 आदमी मारे गये। पर दिलेर खाँ इससे तनिक भी विचलित नहीं हुआ ओर कृतान्त के समान पुरन्दर के सामने डटा ही रहा। उसके सिपाही भी बड़े उत्साह से काम करते थे। जिस कार्य को करने में दूसरा आदमी एक मास लगा देता उसी को वे एक दिन में कर डालते थे।

पुरन्दर की बाहरी दीवार पर गोलाबारी

दिलेरखाँ ने भयानक गोलाबारी करके दोनों किलों की बाहरी दीवारों को बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर डाला मई के मध्य तक मुगल- सेना के मोर्चे उक्त किलों की सतह तक जा पहुँचे। अब किलों की रक्षक सेना ने शत्रुओं पर जलता हुआ तेल, बारूद की थेलियाँ, बम तथा भारी भारी पत्थर बरसाने शुरू किये। इससे मुगल सेना की गति रुक गई। यह देख जयसिंहजी ने लक्कड़ों और पटियों द्वारा एक ऊँचा मचान बनवाने तथा इस मचान पर दुश्मन का मुकाबला करने के लिये तोपें चढ़ाई जाने और साथ ही कुछ बन्दुकची भी यहाँ खड़े किये जाने का हुक्म दिया। दो वक्त मचान खड़ा किया गया, पर दोनों ही बार वह शत्रुओं द्वारा जला दिया गया। इसके लिये भी जयसिंहजी ने युक्ति ढूँढ़ निकाली। उन्होंने रूपसिंह राठोर और गिरिधर पुरोहित को हुक्म देकर पहले किले के सामने एक दीवार खड़ी करवा दी। साथ ही उन्होंने कुछ राजपूत तीरंदाजों को अपने तीरों के निशाने किले की तरफ करके खड़े कर दिये। इन्होंने मराठों को किले के ऊपर चढ़ने न दिया। इस प्रकार का बन्दोबस्त कर लेने पर मचान निर्विष्नता पूर्वक बनाया जाने लगा। इस समय सूर्यास्त होने में दो घंटे शेष रह गये थे। अभी तोपें मचान पर चढ़ाई भी नहीं गईं थीं कि कुछ रोहिले सिपाहियों ने बिना दिलेर खाँ को सूचित किये ही सफ़ेद किले पर गोले बरसाना शुरू कर दिया। मराठे सैनिकों के झुन्ड के झुन्ड दीवार पर इकट्ठे हो गये ओर उन्होंने मुगलों की गोलाबारी बन्द कर दी। पर मुगल सेना की सहायतार्थ और भी बहुत सी सेना आ गई और साथ ही दोनों तरफ के मोर्चों पर सैनिक सीढ़ियों द्वारा चढ़ चढ कर मराठों की तरफ झपटने लगे। जयपुर राज्य के राजा जयसिंहजी की तरफ का भूपतसिंह पवार जो कि 500 सैनिकों का नायक था सफ़ेद किले की दाहिनी बाजू पर कई राजपूतों के साथ काम आया। बाई बाजू पर बालकृष्ण सम्बावल ओर दिलेरखाँ के कुछ अफगान सिपाही लड़ रहे थे। इसी समय किरत सिंह और अचलसिंह भी, जो कि अभी तक लकड़ी के मचान का आश्रय लिये बेठे थे, लडाई के मैदान में आ धमके। भयंकर मारकाट चलने लगी। मराठों का बहुत नुकसान हुआ और उन्होंने पीछे हटकर काले किले में जाकर आश्रय लिया। यहाँ से इन्होंने फिर मुगल-सेना पर बम गोले, बारूद, पत्थर और जलनेवाले पदार्थ फेंकना शुरू किया। आगे बढ़ना असम्भव समझ महाराजा जयसिंह जी को आज तीन ही बुर्जों पर अधिकार कर सन्तोष मानना पड़ा। उन्होंने अपनी सेना को वहीं ( जहाँ तक कि वे पहुँच गये थे ) अपने मोर्चे क़ायम करने का हुक्म दिया। और सफेद किले को अधिकृत कर उस दिन आगे बढ़ने के कार्य को उन्होंने स्थगित रखा।इसके बाद दो दिन उक्त लकड़ी के मचान को सम्पूर्ण करने में लगे। सम्पूर्ण कर लेने पर दो हलकी तोपें भी उस पर चढ़ा दी गई। अब मुगल सेना ने यहाँ से शत्रु की काली बुर्जे पर गोलाबारी करना शुरू किया। इस गोलाबारी से तंग आकर मराठे सैनिक काली बुर्ज एवं उसके पास की दूसरी बुर्ज़ से भी पीछे हट गये। उन्होंने किले की दीवार से लगे हुए मोर्चों में जाकर शरण ली, पर अब वे अपने सिरो को ऊपर नहीं निकाल सकते थे। निदान उक्त मोर्चा में भी उनकी रक्षा नहा सकी। और आखिरकार वे उसके पीछे की खाइयों के पास चले गये। इस प्रकार पुरन्दर के नीचे के किले की 5 बुर्जो’ और किले के एक मोर्चे पर मुगलों का अधिकार हो गया। अब मराठों के हाथों में पुरन्दर के रह जाने की कोई आशा नहीं रह गई थी ‘ वह तो पहिले ही करीब करीब मुगलों के अधिकार में आ सा गया था कि इधर जयसिंह जी की माँग के मुवाफिक़ बादशाह ने एक भारी तोपखाना और भी रवाना कर दिया। किले के रक्षक सिपाही गिनती में कुल 2000 थे जिनमें से कई तो लगातार दो महीने की लड़ाई में काम आ गये थे। घेरे के आरंभ में ही उनका बहादुर सेनानायक मुरार बाजीराव वीरगति को प्राप्त हो गया था। इधर मुगल सेना की संख्या मराठों की सेना से क़रीब करीब दस गुनी थी। मुरार बाजीराव ने अपने 700 चुने हुए वीर सिपाहियों के साथ दिलेर खां पर उस समय हमला किया था जब कि वह अपने 5000 अफ़गान सैनिकों व कुछ दूसरे सिपाहियों के साथ पहाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था। इस समय मराठे सैनिक एक दम शत्रु पर टूट पढ़े। वे शत्रु-सेना में मिश्रित हो गये। भयंकर मार-काट चलने लगी। मुरार बाजीराव ने बात की बात में अपने सैनिकों की सहायता से 500 पठानों व दूसरे सैनिकों को धराशायी कर दिया। अब वह अपने 60 मजबूत साथियों के साथ दिलेरखां के खेमे की तरफ झपटा। उसके कई साथी मुग़लों की अगणित सेना के हाथों मारे गये। परन्तु इससे मुरार बाजीराव की गति रुकी नहीं। वह दिलेरखाँ की तरफ बढ़ता ही गया। दिलेरखाँ भी मरार बाजीराव के अद्वितीय साहस को सराहने लगा। उसने उन्हें कहला भेजा कि अगर आत्मसमर्पण कर दोगे तो हम तुम्हारे प्राणों की रक्षा करेंगे और साथ ही तुम्हें अपनी सेना में एक उच्च स्थान भी प्रदान करेंगे। पर वीर मुरार ने शत्रु के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इतना ही नहीं, वह दिलेर खाँ पर वार करने के लिये झपटा कि इतने ही में दिलेर खाँ ने एक तीर में उसका काम तमाम कर दिया। इस प्रकार मराठा सेना-नायक वीर मुरारबाजी अपने स्वामी की सेवा करते करते परलोक सिधारा। इस लड़ाई में मराठी सेना के 300 आदमी कास आये और बाकी बचे हुए वापस किले में लोट गये। मुरारबाजी के अधीनस्थ सैनिकों की बहादुरी एवं साहस को देखकर ग्रीस के स्पार्टंन लोगों की बात याद आ जाती है। अपने सेना-नायक के वीर-गति को प्राप्त हो जाने पर भी उक्त महाराष्ट्र वीर बहादुरी के साथ मुग़लों का सामना करते रहे। वे कहते रहे कि “मुरारबाजी के मर जाने से क्‍या हुआ ? प्रत्येक सैनिक मुरारबाजी है। इसलिये हम उसी साहस और उत्साह के साथ लड़ते रहेंगे। पर जयसिंहजी भी मज़बूती और सफलता के साथ आगे बढ़ते ही गये। पुरन्दर चारों तरफ से बिलकुल घेर लिया गया। दो मास की लगातार लड़ाई के कारण उसके रक्षक सैनिकों की संख्या बहुत कम रह गईं थी। इधर नीचे के किले की पाँच बुर्जो ‘ पर मुगलों का अधिकार हो ही गया था। उक्त कारणों से अब पुरन्दर की रक्षा करना मराठों के लिये दुस्साध्य हो गया।

मालूम नहीं होता था कि किस समय पुरन्दर पर मुगलों का अधिकार हो जाये। छत्रपति शिवाजी को महसूस होने लग गया था कि अब किले की रक्षा करते रहना निर्थक होगा। इसके अतिरिक्त उनको यह भी ख्याल हुआ कि अगर इस दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया तो इसमें रक्षित समस्त मराठे सरदारों के कुटुम्बी जन मुग़ल सेना के हाथ पड़ जायेगे। मुगल सेना उनका निरादर करेगी। इधर उधर घूमकर देश को नष्ट भ्रष्ट करने वाली मुग़ल सेना को वे रोकने में असमर्थ हुए। इस प्रकार इस समय शिवाजी जिधर दृष्टि डालते, उधर ही उन्हें असफलता और विनाश का दृश्य दिखाई पड़ता था। मुगलों द्वारा 2 जून को प्राप्त की गई विजय तथा पुरन्दर के नीचे वाले किले के अपने हाथों से निकल जाने की संभावना, आदि आदि कुछ ऐसी घटनाएँ उपस्थित हो गई थीं जिनके कारण शिवाजी ने महाराजा जयसिंह जी से मिलकर मुगलों के साथ सुलह करने का निश्चय कर लिया अपने उक्त निश्चय के अनुसार शिवाजी ने जयसिंह जी से कहला भेजा कि अगर आप शपथ के साथ मेरी प्राण-रक्षा और सकुशल वापस घर लौट आने का जिम्मा लें तो में आप से मिल सकता हूँ। यह बात दूसरी है कि मेरी शर्तें आपको मंजूर हों या न हों।

शिवाजी और जयसिंह जी जयपुर राज्य के राजा

मिर्जाराजा जयसिंहजी ने पुरन्दर में शिवाजी पर विजय प्राप्त की।
पुरन्दर के किले एक एक करके जयसिंह जी के हाथ में आ गये। अब शिवाजी ने जयसिंहजी से मिलकर सुलह की नई शर्तें पेश करने का निश्चय किया। पर साथ ही में शिवाजी ने जयसिंह जी से प्रतिज्ञा पुर्वक इस बात का आश्वासन ले लिया कि चाहे सुलह की शर्तें मंजूर हों, या न हों, पर उनकी सुरक्षिता में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न होने पावेगी। तारीख 11 जून को शिवाजी पालकी में बैठकर जयसिंह जी से मिलने के लिये डेरे पर गये। जयसिंहजी ने अपने मंत्री उदयराज और उग्रसेन कछवा को बहुत दूर तक उनकी अगवानी के लिये भेजा, साथ ही यह भी कहलवाया कि अगर आप सब किले हमारे सुपुर्द कर देने को तैयार हों तो आवे वरना लौट जायें। शिवाजी ने यह बात स्वीकार कर ली ओर वे अपने दो आदमियों के साथ जयसिंह जी के डेरे पर आ गये। जयसिंहजी ने कुछ आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। उन्हें अपने गले लगाया तथा अपने पास बैठाया। इतना होते हुए भी जयसिंह जी ने कुछ खतरा समझकर सहस्त्र आदमियों का पहरा रखा। आधी रात तक महाराजा जयसिंह जी और शिवाजी में बातचीत होती रही। सुलह की शर्तों के सम्बन्ध में बहुत बहस हुई। जयसिंह जी को अपनी सुदृढ़ स्थिति का पूरा पूरा विश्वास था। उनके पीछे हिन्दुस्तान के बादशाह की ताक़त का पूरा पूरा ज़ोर था। अतएव इस समय उन्‍होंने शिवाजी पर दबाव डालकर अपने अनुकुल शर्तें तय करवाई। वे इस प्रकार हैं:—

छत्रपति शिवाजी के किलों में से 23 किले जिनकी जमीन की आय 4 लाख है, मुगल साम्राज्य में मिला लिये जावें, शेष 12 किले जिनकी जमीन की आमदनी 1 लाख है– शिवाजी के आधीन इस शर्ते पर रहें कि वे शाही तख्त के खेरख्वाह बने रहें। इसके दूसरे दिन (12 जून को) मुगल सेना ने पुरन्दर में प्रवेश कर उस पर अधिकार कर लिया। तमाम फौजी सामान मुगल अफसरों के हाथ लगा। शिवाजी ने सुलह के अनुसार 23 किले जयसिंहजी के सुपुर्द कर दिये। इतना होने के पश्चात्‌ जयसिंहजी शिवाजी को मुगल दरबार में उपस्थित करने का प्रयत्न करने लगे। यह काम बड़ा ही मुश्किल था। क्योंकि सुलह की बातचीत के समय शिवाजी ने मुगल दरबार में हाजिर न होने के लिये साफ साफ कह दिया था। हाँ, उन्होंने अपने पुत्र को मुगल दरबार में भेजना स्वीकार कर लिया था। इसके कई कारण थे। पहली बात तो यह थी कि, शिवाजी को धूर्त औरंगजेब पर बिलकुल विश्वास न था। वे उसे पक्का विश्वासघाती और दुष्ट-स्वभाव का समझते थे। दूसरी बात यह थी कि उन्हें मुसलमान बादशाह के सामने सिर झुकाना बहुत बुरा मालूम होता था। वे बादशाह से दिली नफरत करते थे। महाराज शिवाजी स्वतंत्रता के पवित्र वायु-मंडल में पले थे। उनकी नस नस में स्वतंत्रता का पवित्र रक्त प्रवाहित हो रहा था। ऐसी दशा में उन्हें शाही तख्त के सामने हाथ जोड़े हुए खड़ा रहना कब पसन्द हो सकता था। जयसिंहजी ने शिवाजी को बहुत कुछ प्रलोभन दिया और कहा कि बादशाह आपको दक्षिण का वायसराय (सूबेदार) बनाकर भेज देंगे। साथ ही साथ इसी प्रकार के ओर भी कई प्रलोभन दिये गये। जयसिंहजी ने शपथ पूर्वक इस बात की प्रतिज्ञा की कि दिल्ली में आपको किसी प्रकार का धोखा न होगा। तब शिवाजी ने अपने कई मराठा सहयोगियों की सलाह से दिल्ली जाना निश्चय किया। सन्‌ 1666 के तीसरे सप्ताह में वे अपने बड़े पुत्र सम्भाजी, 7 विश्वासपात्र अधिकारी और 4 हज़ार सेना के सहित आगरा के लिये रवाना हुए। उन्हें मुगल सम्राट की आज्ञा से दक्षिण के खजाने से 1 लाख रुपया मार्ग-व्यय के लिये दिया गया। जयपुर राज्य के राजा जयसिंहजी ने गाजीबैग नामक एक फौजी अधिकारी को शिवाजी के साथ भेजा। 9 मई को शिवाजी आगरा पहुँचे। 12 मई का दिन सम्राट से आपकी मुलाकात के लिये निश्चित किया गया। इस दिन सम्राट औरंगजेब की 50 वीं वर्षगाँठ थी। आगरा का किला खूब सजाया गया था। बड़े बड़े राजा महाराजा तथा अन्य दरबारी सम्राट का अभिवादन करने के लिये उपस्थित हो रहे थे। ये सब लोग शाही तख्त के सामने बढ़े अदब के साथ खड़े थे। जब शिवाजी वहाँ पहुँचे तो कुंवर रामसिंह जी ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया। शिवाजी ने सम्राट को 1500 सोने की मुहरें नज़र की और 6000 उन पर न्योछावर किये। ओरंगजेब जोर से बोला “आवो राजा शिवाजी” पर थोड़ी ही देर के बाद सम्राट के संकेत से वे पीछे ले जाये गये और वे वहाँ खड़े किये गये जहाँ तीसरे दर्जे के सरदार खड़े थे। यह व्यवहार शिवाजी को बहुत बुरा मालूम हुआ। इस अपमान से उनका अन्तःकरण जलने लगा, उनकी आँखों से मानों चिंगारियाँ निकलने लगीं। वे कुंवर रामसिंह जी से गुस्सा होकर जोर से बोलने लगे। इस समय बादशाह और सब दरबारियों का ध्यान इस घटना की ओर गया। रामसिंह जी ने शिवाजी को शान्त करने का बहुत यत्न किया, पर कोई फल नहीं हुआ।शिवाजी गुस्से से इतने बेकाबू हो गये कि वे नीचे गिर पड़े। इस पर बादशाह ने पूछा, क्या बात है ? रामसिंह जी ने उत्तर दिया “यह सिंह जंगल का जानवर है, यहाँ की गर्मी इसके लिये असहय है, इसीलिये यह बीमार हो गया है।” इसके बाद कुँवर रामसिंह जी ने मज़लिसे ए आम में शिवाजी के इस व्यवहार के लिये क्षमा प्राथना करते हुए कहा कि–“थे दक्षिणी है ओर दरबार तथा शिष्टाचार की पद्धवियों से अपरिचित हैं।” औरंगजेब ने शिवाजी को वहाँ से हटा कर एक अलग कमरे में ले जाने की आज्ञा दी, साथ ही साथ उन पर गुलाब जल छिड़कने के लिये भी कहा। दरबार से लौट जाने पर शिवाजी ने औरंगजेब पर विश्वास घात का आरोप लगाया और उसे कहलवाया कि इससे तो बेहतर है कि तुम मेरी जान ले लो। यह बात औरंगजेब के कानों तक पहुँची। वह बहुत नाराज हुआ, उसने कुँवर रामसिंह जी को आज्ञा दी कि वह शिवाजी को शहरपनाह के बाहर जयपुर हाऊस में रख दे और उसकी निगरानी के लिये जिम्मेवार बने। बस, फिर क्या था, शिवाजी बंदीगृह में पड़ गये। वे इस व्यवहार से महादुखी हुए। उन्होंने अपनी मुक्ति के लिये कई ज़रियों से बड़ी कोशिश की पर असफल हुए। आखिर में शिवाजी ने किस युक्ति से अपनी मुक्ति की, यह बात इतनी जनश्रुत है कि यहाँ इस पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं। हाँ, यहाँ हम एक बात पर अवश्य पाठकों का ध्यान आकर्षित करेंगे। राजा जयसिंहजी ओर उनके पुत्र रामसिंह जी ने शिवाजी की सुरक्षिता के लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसका यथाशक्ति पालन किया। जयपुर राज्य के राजा जयसिंहजी ने जब शिवाजी की इस अवस्था का समाचार सुना तो वे दुःखी हुए । उन्होंने सम्राट से यह अनुरोध किया कि शिवाजी को कैद करने या मारने से ये किसी प्रकार का लाभ न उठा सकेंगे। शिवाजी को मित्र बनाने ही से सम्राट दक्षिण में अपनी सल्तनत को मज़बूत कर सकते हैं, और इसी से वे लोगों का विश्वास भी ग्रहण कर सकते हैं। उस समय राजा जयसिंह जी ने अपने पुत्र रामसिंह जी को जो अनेक पत्र लिखे थे, उसमें शिवाजी की सुरक्षिता के लिये बड़ा अनुरोध किया गया था। कुछ फ़ारसी इतिहास वेत्ताओं का मत है कि शिवाजी के निकल भागने के षड्यंत्र में जयपुर राज्य के राजा जयसिंह जी ओर उनके कुँवर रामसिंह जी का भी अप्रत्यक्ष हाथ था।

बीजापुर पर जयसिंह जी (1665-66 )

महाराजा जयसिंह जी को दक्षिण भेजते समय औरंगजेब ने उनसे कह दिया था कि शिवाजी और बीजापुर के शासक दोनों ही को सजा दी जाये। पर जयसिंह जी ने यह कह कर कि “दोनों ही मूर्खों पर एक साथ हमला करना बुद्धिमानी का कार्य न होगा। इसलिये पहले अपनी सारी शक्तियों को शिवाजी के खिलाफ़ लगा देना चाहिये। इसी अनुसार जयसिंह जी ने अपनी सारी शक्ति का प्रयोग शिवाजी के विरुद्ध किया था। पुरन्दर की सन्धि के अनुसार महाराजा शिवाजी को अपने दो-तिहाई राज्य से हाथ धोकर मुगल साम्राज्य के आज्ञाकारी सरदारों की गिनती में अपना नाम लिख- वाना पड़ा। अतएव अब मुगल सेना की वक्र दृष्टि बीजापुर की आदिल शाही पर पड़ी। बीजापुर वालों के अपराध भी बहुत थे। सन्‌ 1657 के अगस्त की सन्धि के अनुसार उसने ( बीजापुर के शासक ने ) 1 करोड़ रुपये बतौर हर्जाने के और साथ ही साथ परेन्दा का किला उसके आस पास का प्रदेश ओर निजामशाही कोकन, सम्राट को दे देना मंजूर किया था। पर इसके बाद शाहजहाँ की बीमारी एवं तख्तनशीनी के लिये होने वाले झगड़ों से फायदा उठाकर उसने अपनी शक्ति प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया। हाँ, औरंगजेब की तख्तनशीनी के समय उसने 86 लाख रुपये अवश्य सम्राट को नज़र किये थे। इसके अतिरिक्त सन्‌ 1665 के जनवरी मास में भी उसने अपने कोर्ट में स्थित मुगल राजदूत द्वारा सम्राट के पास 7 लाख रुपये नकद और 6 जवाहिरात से भरी हुई छोटी छोटी सन्दूकें भेजी थीं। पर यह रकम हर्जाने की कुल रकम के सामने कुछ भी नहीं थी। इसके सिवा अभी तक उसने सन्धि की शर्तों के अनुसार उक्त किला और उसके आसपास का प्रदेश भी सम्राट के सुपुर्द नहीं किया था। इसमें कोई शक नहीं कि सन्‌ 1660 के सितंबर सास में परेन्दा के किले पर मुगलों ने अधिकार कर लिया था। पर यह कार्य आदिलशाह की मर्जी से नहीं, बल्कि उक्त किले के सूबेदार को घूस देकर किया गया था। आदिलशाह की यह इच्छा नहीं थी कि किला मुगल सम्राट फो सौंप दिया जाये। सन्‌ 1660 में बीजापुर के शासक ने शिवाजी पर आक्रमण किया था। इस समय उसने मुगल सम्राट को कुछ और खिराज देने का अभिवचन देकर उसके साथ सहयोग कर लिया था। सम्राट ने भी इस बात को मंजूर कर लिया था। इस समय शाइस्ताखाँ द्वारा शिवाजी के किलों पर आक्रमण किये जाने का आदिलशाह ने बड़ा फायदा उठाया। मराठों का ध्यान शाइस्ताखाँ के आक्रमणों की तरफ बट जाने के कारण इस समय आदिलशाह अपने पन्हाला, पवनगढ़़ और दूसरे कई किलों को मराठों से मुक्त करने में समर्थ हुआ। पर अली आदिलशाह यह द्वितीय खिराज़ भी सम्राट को न दे सका। इतना ही नहीं, बल्कि वह यह कहने लगा कि मैंने तों अपनी मद॒द भेज कर शाइस्ताखाँ की सहायता की है। इस सहायता के लिये शाइस्ताखाँ ने भी मुझे यह अभिवचन दिया था कि वह सम्राट द्वारा मेरी खिराज की रकम में 10 लाख रुपये की कमी करवा देगा।

बीजापुर का युद्ध
बीजापुर का युद्ध

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जब जयसिंहजी ने शिवाजी पर
चढ़ाई की थी तब बीजापुर के सुलतान ने खवासखाँ की आधीनता में फौज की एक टुकड़ी मुगलों के सहायतार्थ भेजी थी। पर मदद मिलना तो दूर रहा, उल्टा जयसिंह जी को इस सेना से धोखा बना रहता था। मालूम नहीं होता था कि किस समय यह सेना बदल जाये। जयसिंह जी ने बीजापुरी जनरल पर इस बात का दोषा रोपण किया था कि वह जी लगा कर नहीं लड़ता था। उन्होंने इस सेना के लिये निम्न लिखित उद्गार प्रगट किये थे। “आदिलशाह ने मूर्खतावश मेरे साथ दगा किया है। बाहर से दिखाने के लिये उसने शिवाजी के राज्य पर सेना तो भेज दी, पर वह यह समझता है कि शिवाजी के बिलकुल नाश में मेरा भी अहित है। वह शिवाजी
को अपने और मुगलों के बीच की दीवार समझ कर उसके गिरा दिये जाने में सहमत नहीं है। इसीलिये उसने शिवाजी से एक गुप्त सन्धि की है ओर उसी की तन, मन, धन से सहायता भी की है। उसने गोलकुंडा वाले को भी इस नीति में सहमत होने और शिवाजी को आर्थिक सहायता पहुँचाने के लिये समझाया है। एक तरफ तो वह यह कार्यवाहीयाँ कर रहा है, दूसरी तरफ सम्राट के पास ऐसे पत्र भेज रहा है कि जिनसे राज भक्ति टपकी पड़ती है।

असल बात यह थी कि सम्राट अकबर से लेकर औरंगजेब तक
जितने भी मुगल सम्राट हुए, उन सबकी लोलुप दृष्टि बीजापुर पर लगी रहती थी। वे मौका पाते ही बीजापुर को हज॒म कर जाने की ताक में लगे रहते थे। यह बात बीजापुर के सुल्तान को भली भाँति विदित थी। वह जानता था कि मुगल सम्राट के साथ अपनी मित्रता बहुत समय तक नहीं टिक सकेगी। यही कारण था कि सुलतान ऊपरी दिल से तो सम्राट के प्रति मित्रता के भाव प्रदर्शित करता रहता था पर आन्तरिक हृदय से शिवाजी के साथ मेत्री कायम किये हुए था। शिवाजी की शक्ति को बिलकुल विनाश कर देने वाले किसी भी षड़यन्त्र में शामिल हो जाना उसके लिये नितान्त असंभव था। इस समय जयसिंह जी ने सम्राट को जो पत्र भेजा था इसकी एक पंक्ति हम यहाँ उद्धृत करते हैं। इस पंक्ति को पढ़ने से पाठकों को मालूम हो जायेगा कि मुगलों की बीजापुर के प्रति इस समय क्या नीति थी। वह पंक्ति ओर कुछ नहीं, यह थी कि “बीजापुर पर विजय प्राप्त कर लेना मानो दक्षिण विजय की प्रस्तावना है। शिवाजी के साथ होने वाले युद्ध के शान्त हो जाने पर जयसिंह जी के पास की विशाल मुगल सेना बेकार पड़ी हुई थी। अतएव बीजापुर के साथ युद्ध छेड़ देना ही इस सेना को उपयोग में लाने का अच्छा साधन समझा गया।

जयपुर राज्य के राजा जयसिंह जी की विशाल नीति-मत्ता

अब महाराजा जयसिंहजी ने अपनी बुद्धिमत्ता से सुलतान के साथ युद्ध छेड़ने का क्षेत्र तैयार करना शुरू किया। उन्होंने ऐसे उपायों का अवलम्बन किया, जिनसे कि बीजापुर सुल्तान त्रस्त हो जाये। इस सम्बन्ध में जयसिंह जी का पहला कार्य शिवाजी और सुल्तान के बीच वेमनम्य पैदा करा देना था। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए पुरन्दर की सन्धि के समय उन्होंने बीजापुर वालों का समुद्र के किनारे का प्रान्त और साथ ही पश्चिमीय घाट का कुछ प्रदेश शिवाजी को हमेशा के लिये दे डाला था। इस भूभाग के बदले में उन्होंने शिवाजी से 40 लाख हन अर्थात 2 करोड़ रुपया प्रति वर्ष लेना निश्चित किया। जयसिंहजी के इस बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य से मुगल-साम्राज्य का तीन तरह से फायदा हुआ। एक तो यह कि 2 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष सम्राट के खजाने में जमा होने लगा। दूसरा शिवाजी और बीजापुर के सुल्तान के बीच झगड़ा शुरू हो गया और तीसरे यह कि मुगल सेना की उक्त जंगली प्रान्तों में जाकर युद्ध करने की तकलीफ बच गई। इतना ही नहीं, वरन इस समझौते के अनुसार शिवाजी ने जयसिंह जी को बीजापुर सुल्तान के खिलाफ 9000 सेना के साथ मदद देने का भी वचन दे दिया। महाराजा जयसिंह जी इतना ही करके चुप नहीं रह गये। उन्होंने बीजापुर के कई जमींदारों से भी मुगलों के आश्रय में आ जाने के लिये पत्र-व्यवहार शुरू कर दिया। उक्त ज़मीदारों को इस बात का प्रलोभन दिखाया गया कि अगर वे शाही आधीनता स्वीकार कर लेंगे तो उनको मुगल सेना में अच्छे अच्छे पद प्रदान किये जावेंगे। जब आदिलशाह ने इस बात का विरोध किया तो उससे कहा गया कि मुगल सम्राट के प्रतिनिधि हमेशा से ऐसा करते आये हैं। शरणागत की आश्रय देना उनका कर्तव्य है। कर्नाटक के जमीदार और कर्नूल तथा जंजीरा प्रान्त स्थित अबीसीनियन लोग भी जयसिंह जी द्वारा अपने पक्ष में मिला लिये गये। यहाँ तक कि बीजापुर के जनरल और,मंत्री तक मुग़लों के पक्ष में कर लिये गये। इन कार्यों में जयसिंह जी को रुपया भी बहुत खर्च करना पडा।

मुल्ला अहमद नामक एक अरब बीजापुर दरबार में अच्छे पद पर
नियुक्त था। वहाँ के प्रधान अधिकारियों में प्रधान मंत्री अबुल महमद को छोड़ कर दूसरा नंबर उसी का था। जयसिंहजी ने इसको भी अपने चंगुल में ले लिया। औरंगजेब से कह कर उसे अपनी सेना में 6000 सैनिकों का संचालक नियुक्त कर दिया। इसके अतिरिक्त 22 लाख रुपये उसे खर्च के लिये भी दिये गये। इसमें कोई शक नहीं कि जयसिंहजी युद्ध-नीति के प्रकाण्ड परिणत थे। उन्होंने बीजापुर के सुल्तान को शान्ति कायम रखने का वचन दे दिया जिससे कि वह युद्ध की तैयारी भी न कर सका। अपनी कोटे में स्थित बीजापुर के राजदूत को उन्होंने यह कह कर समझा दिया कि “सम्राट की तरफ से बीजापुर पर आक्रमण करने का हमको कोई हुक्म नहीं मिला है। हां, खिराज के एक लम्बे अर्से से चले आये हुए झगड़े को सुलझाने का हुक्म जरूर मिला है। इधर तो बीजापुर राजदूत को इस प्रकार समझा दिया ओर उधर अपने रामा और गोविन्द नामक दो पडितों को आदिलशाह के पास इसलिये भेज दिये कि वे वहां जाकर सुल्तान के हृदय में इस बात का विश्वास जमा दें कि जयसिंह जी की इच्छा बिलकुल युद्ध करने की नहीं है। पर सच पूछा जाय तो जयपुर राज्य के राजा जयसिंह जी की इच्छा शान्ति कायम रखने की कदापि नहीं थी। उन्होंने अपने एक गुप्त-पत्र में सम्राट को लिखा था कि “अगर आदिलशाह मेरे पास खिराज़ का झगड़ा तय करने के लिये अपना दूत भेजेगा तो में उसके सामने ऐसी ऐसी कठिन शर्तें पेश करूगां जिनको संभव है कि वह मंजूर ही न कर सके। इधर गोलकुंडा के सुल्तान कुतुब शाह से भी जयसिंह जी ने अपनी तरफ मिल जाने का अनुरोध किया। इस सम्बन्ध में जयसिंह जी ने औरंगजेब को जो पत्र लिखा था उसकी कुछ पंक्तियों का सारांश नीचे दिया जाता है। “अब कुतुबशाह को बीजापुर सुल्तान से विमुख करके सम्राट की तरफ मिलाना अत्यन्त अनिवार्य है। अतएव मेंने उसको आश्वासन देकर उसके साथ मेत्री स्थापित कर ली है। अगर पर्दा खुल गया और उसको (कुतुब शाह को) असली बात का पता चल गया तो वह आदिलशाह की तरफ मिल सकता है।’

जयपुर के राजा जयसिंह जी की फौजी तैयारियां

इस प्रकार चारों तरफ अपनी राजनीति का जाल बिछा कर जय सिंह जी अपनी सैनिक तैयारियों करने लगे। उनकी आधीनता में इस समय 40 हजार थल सेना थी। यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि उक्त 40 हजार सेना में वह सहायक-सेना शामिल नहीं है, जो कि शिवाजी तथा दूसरे सहायकों द्वारा मुगलों की मदद पर आई हुई थी। शिवाजी ने 7000 बहादुर मराठा सैनिक नेताजी परलकर की आधीनता में तथा 2000 सैनिक अपने पुत्र के साथ जयसिंह जी की मदद के लिये भेजे। पाठकों को मालूम होगा कि उक्त नेताजी परलकर अपनी बहादुरी एवं रण-पटुता के कारण महाराष्ट्र भर में “दूसरे शिवाजी” के नास से सम्बोधित होते थे। इस समय शिवाजी बीजापुर-राज्य के दूसरे प्रान्तों में स्थित किलों पर अधिकार करने तथा आसपास के मुल्कों में गड़बड़ मचाने में लगे हुए थे। इस कार्य को जयसिंह जी ने अपने लिये हितकर समझा और यही कारण था कि उन्होंने इस समय शिवाजी से मुगल सेना में सम्मिलित होने के लिये आग्रह नहीं किया। जयसिंह जी छत्रपति शिवाजी को एक चतुर सेना नायक समझते थे। इसके लिये उन्होंने एक समय अपने पत्र में बादशाह को भी लिख भेजा था। उन्होंने लिखा था कि “ इस युद्ध में शिवाजी अत्यन्त बहुमूल्य सहायक हो सकते हैं। अतएव इसमें उनकी उपस्थिति एकान्त अनिवार्य है। अब खफीखाँ शिवाजी की उपयोगिता के सम्बन्ध में क्‍या उद्धार प्रगट करते हैं, वह भी सुन लीजिये। उन्होंने कहा था कि “शिवाजी और नेताजी किलों पर अधिकार करने के कार्य में प्रकाण्ड पंडित और सिद्धहस्त हैं। चूंकि बीजापुर वालों के साथ प्रसिद्ध ‘मालिक-सेदान’ नामक तोप मौजूद थी इसलिये जयसिंह जी ने भी युद्ध शुरू करने के पहले 40-50 तोपें दक्षिण के किलों से अपने पास मंगवा लीं। इस प्रकार युद्ध सम्बन्धी तमाम तैयारियाँ कर लेने पर जयसिंह जी ने सम्राट औरंगजेब को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने लिखा कि “हमारी सेना बिलकुल तैयार है। अब युद्ध छेड़ने में एक दिन की भी देर करना मानो एक वर्ष का नुक्सान करना होगा क्योंकि शत्रु भी अपनी तैयारी करने में लग गया है। जयसिंहजी की इच्छा थी कि आदिलशाह को सावधान होने का मौका ही न दिया जाय और अचानक उस पर हमला कर दिया जाये। इसी समय उनको अपने बीजापुर स्थित संवाददाता से खबर लगी कि शत्रु की सेना इस समय बिलकुल अव्यवस्थित दशा में है और आपस में लड़ाई झगडू करने में लगी हुईं है। यहाँ की सेना अपने शत्रु का मुक़ाबला करने के लिये बिलकुल तैयार नहीं है। अतएव ज्योंही सम्राट की सेना यहां आ धमकेगी त्योंही आदिलशाह के बहुत से सरदार इसमें आ मिलेंगे। इस प्रकार बिना किसी कठिन प्रयास के ही बीजापुर सुल्तान हरा दिया जा सकेगा।

अब तो जयसिंहजी युद्ध छेड़ने के लिये बड़े उत्सुक हो गये। पर मन मसोस कर रह जाने के सिवाय वे कुछ नहीं कर सके। इस सुवर्ण अवसर का वे सदुपयोग नहीं कर सके। इसका कारण और कुछ नहीं, सिर्फ रुपयों की कमी थी। शिवाजी के साथ के युद्ध में वे 22 लाख रुपये खर्च कर चुके थे इसलिये अब उनके पास कुछ नहीं रह गया था। सिपाहियों की छः छः महीनों की तनख्वाहें चढ़ गई थीं और वे भूखों मरने लग गये थे। अतएव जयसिंह जी ने युद्ध न छेड़कर पहले सम्राट को रुपयों के लिये लिखा। जयसिंह जी ने 20 नवम्बर को ही बीजापुर पर आक्रमण करने का निश्चय किया था परन्तु रुपये समय पर न आने के कारण उनको रुकना पड़ा। निदान 12 नवम्बर को सम्राट के पास से 20 लाख रुपये आये और साथ ही 10 लाख रुपये दक्षिण के दीवान ने भी भिजवा दिये। रुपयों के आते ही जयसिंह जी ने अपने सैनिकों की तनख्वाहें चुका दीं और 19 वीं तारीख को पुरन्दर से प्रस्थान कर दिया। रास्ते में बीजापुर का अब्दुल महमद मियाना नामक सरदार अपने अफगान सिपाहियों सहित मुगल सेना में आ मिला। पर आदिलशाही सेना के अफगानों का खास जत्था जो कि अब्दुल करीम बहलोल की आधीनता में था स्वामिभक्त बना रहा। युद्ध के पहले महीने में तो जयसिंह जी को विजय पर विजय प्राप्त होती गई। किसी ने उनका विरोध तक नहीं किया। पुरन्दर से मंगल वारिया तक के तमाम बीजापुरी किलों पर मुग़लों का आधिपत्य हो गया। निदान 24वीं दिसंबर को बीजापुरी सेना से मुगल सेना का मुक़ाबिला हुआ।

पहली लड़ाई

25 दिसम्बर के दिन दिलेर खाँ और शिवाजी अपने कैम्प से 10
मील आगे बढ़कर बीजापुरी सेना पर आक्रमण करने के लिये भेजे गये। बीजापुर सुल्तान की तरफ से शारजाखाँ ओर खबासखाँ नामक बहादुर जनरल 12000 सेना के साथ इनका मुकाबला करने के लिये आ डटे। कल्याण के सरदार यदुराव और शिवाजी के सौतेले माई बेंकोजी भी बीजापुरी सेना की तरफ से इस लड़ाई में शामिल थे। इस युद्ध में बीजापुरी