छपाई मशीन बनाने और छपाई की शुरूआत कहां से हुई:-कागज और छपाई-कला का आविष्कार सबसे पहलेचीन में हुआ था। संसार की सबसे पहली पुस्तक लकडी के ठप्पो से छापी गई थी। पुस्तक का नाम था-‘हिराका सूत्र’। यह पुस्तक 838 ई में छपी थी। बाद में देखा गया कि लकडी के ठप्पे नर्म होने की वजह से जल्दी खराब हो जाते थे। अत लोगो का ध्यान धातु के ठप्पे बनाने की ओर गया, लेकिन ठोस ठप्पे विकसित करने में लगभग 400 वर्ष लग गए।तेरहवीं शताब्दी में चीन के एक व्यक्ति ने जिसका नाम पी शेग था- सबसे पहले सख्त मिट॒टी और धातु के टाइप बनाने मे सफलता प्राप्त की। 1314 ई में वांग चुंग नामक एक अन्य चीनी ने ठोस, सख्त लकडी के टाइपों का निर्माण किया। इसके बाद 1319 में कोरिया के एक राजा ने धातु के टाइप ढालने का एक कारखाना लगवाया। इस कारखाने में कांसे के टाइप बनाए गए। इन कांसे के टाइपो से 1409 ई मे एक पुस्तक प्रकाशित की गयी।
पद्रहवी शताब्दी के लगभग छपाई कला की यह विकसित पद्धति चीन से यूरोप के देशो मे फैलनी शुरू हुई। पद्रहवी शताब्दी के अंत तक यूरोप के अनेक देशो ने विभिन्न व्यक्तियो के प्रयासों से अपने-अपने ढंग के छपाई कारखानों की स्थापना की। इन व्यक्तियों मे हॉलैंड के लारेंस जेनसन कोस्टर और जर्मनी के गुटेनबर्ग का योगदान उल्लेखनीय है। यूरोप से छपाई उद्योग के सौ वर्ष के भीतर ही सन् 1556 में छपाई की मशीनें भारत में पहुंचने लगी। भारत में छपाई का पहला कारखाना संयोग से ही पहुंचा। हुआ यूं कि एक ईसाई पादरी एक छापाखाना अबीसीनिया ले जा रहा था, जब वह गोआ के तट पर पहुंचा तो वहा उसकी अकस्मात मृत्यु हो गयी और वह छापाखाना भारत मे ही रह गया। इस प्रकार भारत में पहले छापेखानें की स्थापना हुई।
वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर का अलग-अलग टाइप एक सी ऊंचाई का बनाना और उन्हें आपस में जोड़कर शब्दों और वाक्यों की पंक्तियां बनाने के सुदृढ तरीके का विचार जमनी के गुटनर्बग के दिमाग में ही आया और उसने इसे कार्यरूप में परिवर्तित करने के लिए छोटे-बडे़ अक्षरों के अलग-अलग सांचे बनाए। इसके लिए गुटनर्बग को एक विशेष वर्णमाला की रचना करनी पड़ी, जो ढलाई के लिए उपयुक्त हाने के साथ-साथ जोड़कर एक से आकार, अंतर और ऊंचाई में पंक्तिबद्ध की जा सके। कम्पोज किए गए मेटर पर एक समान स्याही पतन के लिए उन्होंने कई नयी युक्तियां निकाली। जरूरत के मुताबिक उचित दबाव डालने वाली हाथ से चालित एक प्रेस मशीन भी उन्होंने बनायी। अपने प्रेस में उन्होंने सबसे पहले बाइबिल की छपाई का काम संभाला। यह पुस्तक 1282 पृष्ठ की थी। उसे समय के साधना के अनुसार यह एक बहुत बड़ा कार्य था।
जर्मनी के बाद इटली और फ्रांस में छपाई उद्योग का विकास हुआ और बेहतर किस्म के प्रेसों की स्थापना हुई। इसके बाद इंग्लैंड ने भी इस और कदम बढ़ाया। इंग्लेंड के विलियम कैक्स्टन नामक व्यक्ति ने हामर के महाकाव्य ‘इलियड’ का अग्रेजी में अनुवाद छापने का का कार्य किया। अपने जीवन के 70 वर्ष पूरे हाने तक उसने 80 महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया। पुस्तक समाचार-पत्र और प्रचार-साम्रगी सभ्य जीवन के अभिन्न अंग बन गए। परतु गुटनबर्ग के समय से लेकर लगभग साढ़े तीन शताब्दी तक छपाई की तकनीक में कोई विशेष सुधार नहीं आया। टाइप के अक्षर हाथ से ही कम्पोज किए जाते थे ओर छपाई की मशीन भी हाथ से ही चलायी जाती थी।
सन् 1812 के लगभग जर्मनी के एक छपाई कर्ता फ्रेडरिक कोनिंग ने वाष्प चालित छपाई मशीन का आविष्कार किया। यह व्यक्ति जर्मनी से इंग्लैंड आकर बस गया था। यहां उसने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर दि टाइम्स’ तथा ‘इवनिंग मेल समाचार-पत्रों के लिए दो डबल मशीने बनान का अनुबंध किया और दो वर्ष में मशीन तैयार कर दी। कोनिंग ने इन मशीनों में छपाईकी तकनीक में काफी सुधार किया। उसने टाइप के फर्मे को इस तरह व्यवस्थित किया कि वह स्याही पोतन वाले एक सिलिंडर के नीचे आगे-पीछे आसानी से सरक सके। हाथ से अब केवल कागज की शीट को सरकाते रहने का कार्य रह गया था। स्याही-लेपन के लिए भी इन मशीनों मे अलग सिलिडरों की व्यवस्था थी। इस प्रकार काफी श्रम की बचत हो गयी ओर एक घंटे में हजार प्रतियां छापी जाने लगी। कोनिंग और उसके साथी बायर को इस नयी छपाई मशीन के आविष्कार के लिए सम्मान के साथ-साथ मुसीबत भी झेलनी पडी।

ऐसा समझा जाता है कि पहली भारतीय पुस्तक संन् 1557 में छपी थी, जिसका नाम था-दाउ त्रिनाक्रिस्टा। मलयालम और तमिल भाषा के टाइप पहली बार कोचीन में सन् 1577 में एक स्पेनी युवक ले ब्रदर द्वारा ढाले गए। भारत में हिन्दी और बंगला टाइप ढालने का श्रेय पचानन कमकार और एक भारतीय भाषा प्रेमी विदशी युवक विल्क्सि को है। पचानन लोहे का काम करता था। विल्क्सि न टाइप के आकार-प्रकार की योजना बनायी थी। हिन्दी में छपी प्रथम ग्रथ ‘मर्सिया, सिहासन बत्तीसी और ‘माधवानल’ है, जो 1802 में छपे।
Contents
छपाई मशीन का आविष्कार
ट्रेडिल प्रिंटिंग मशीन
ट्रेडिल प्रिंटिंग मशीन को सबसे पहले रगल्स नाम के व्यक्ति ने सन् 1830 में बनाया था। उन्होंने अपनी मशीन का नाम ‘रगल्स कार्ड प्रेस’ रखा। लेकिन इस मशीन में एक दोष था। वह चारो तरफ एक-सा दबाव नही डाल पाती थी, जिससे अक्षरों का उभार समान नही होता था। इसके कुछ समय बाद डेजेनर नामक व्यक्ति ने 1860 में अपेक्षाकृत सुधरी हुई ट्रेडिल मशीन का निर्माण किया। कुछ दोषों के कारण यह भी पूरी तरह सफल सिद्ध नही हुई।
1851 में जॉर्ज गार्डन ने एक ट्रेडिल मशीन बनायी, परन्तु वे इससे संतुष्ट नही थे। अत वे बराबर इसमे सुधार करते रहे। 1861 मे जाकर उन्होने ‘फ्रेकलिन गार्डन’ नामक एक ट्रेडिल मशीन बनायी, जो काफी सफल सिद्ध हुईं। इसमे सही दाब और स्याही छोडने की उचित व्यवस्था थी। अब कुछ साल पहले तक जिन ट्रेडिल मशीनों का प्रयोग हो रहा था या बहुत सी जगह अब भी होता है, वे सभी इसी मशीन का परिष्कृत रूप हैं।
ट्रेडिल मशीन मुख्य रूप से रसीदे, पर्चे, ग्रीटिंग कार्ड, वेडिंग कार्ड, इश्तहार आदि छापने के छोटे-मोटे कामो के लिए इस्तेमाल की जाती है। ट्रेडिल मशीने आमतोर पर दो तरह की होती है, हल्की
ट्रेडिल मशीन (लाइट ट्रेडिल) और भारी ट्रेडिल (हैवी आर्ट प्लेटन मशीन)। ये कई आकारों मे बनती हैं, उदाहरणार्थ- 8×12, 10×15, 12×18″ आदि। ट्रेडिल मशीन के निम्न भाग होते हैं –
स्याही का भाग:-मशीन के सबसे ऊपरी भाग मे स्याही एक आयताकार बॉक्स में भरी होती हैं, जहा से बेलन स्याही लेकर दूसरे बेलनों तक पहुंचाते हैं।
सिल:-यहां पर स्याही को बेलनों द्वारा अच्छी तरह पीसा जाता है।
प्लेटन:-इस पर कागज की गद्दी-सी बनी होती है। इसी पर छपने वाला कागज रखा जाता है।
ग्रिपर्स:-कागज को पकडने के लिए लम्बे चिमटे प्लेटन के साथ लगे रहते है। छाप लेते समय ये कागज से चिपके रहते हैं। प्लेटन के छाप लेकर लौटते समय ये चिमटे हट जाते है और कागज निकाल लिया जाता है।
बेलन:-स्याही के बॉक्स से स्याही निकालना, उसे सिल पर पीसना और फिर मैटर पर लगाने का कार्य बेलनों द्वारा होता है।
थ्री ऑफ रिवर:-दाहिनी ओर पहिए के पास यह लीवर लगा रहता है, जिसे यदि आगे की ओर कर दिया जाए तो मशीन तो चलती रहती है, लेकिन कागज पर छाप नही आती। इसका उपयोग तब किया जाता है, जब कागज किसी कारण से लग नहीं पाता या मशीन मेन की अपनी अन्य कोई समस्या होती है।
सिलिंडर मशीन
छपाई की पहली सिलिंडर मशीन को जर्मनी के एक मुद्रक फ्रैंडरिक कोनिंग ने 1812 में बनाया था। उनके द्वारा निर्मित मशीन में टाइप का फर्मा सामने रखने की व्यवस्था की गयी थी। स्याही लगाने के लिए इस मशीन में बेलनों का प्रयोग भी किया था। कोनिंग ने बहत सूझ-बूझ से छपाई की यह सरल विधि निकाली थी। दूसरी मशीन में उन्होने काफी कुछ सुधार किया। टाइप पर स्याही लगाने के लिए इस सुधरी मशीन में चमडे से बने बेलनों का इस्तेमाल किया था।
कुछ दिनो बाद कानिंग की भेट एक जर्मन इंजीनियर आंद्रे फैडरिक बॉवर से हुई। बाँवर ने उन्नत किस्म की सिलिंडर मशीन के निर्माण मे कोनिंग की बडी मदद की इस मशीन में छपने वाला कागज सिलिंडर की सहायता से मैटर के पास पहुंचता था। एक व्यक्ति कागज को मैटर पर खिसकाता और छपा हुआ कागज मैटर के ऊपर से उठाता जाता था। इस मशीन को भाप-यंत्र की सहायता से चलाया जाता था। कोनिंग लगातार अपनी मशीन में सुधार करने के प्रयास करते रहे। 1817 मे वे बॉवर के साथ जर्मनी चले गए ओर वहा उन्होंने ‘कोनिग एड बॉवर’ नाम से सिलिंडर मशीन बनाने का एक कारखाना स्थापित किया। छपाई जगत में उस समय कोनिंग की सिलिंडर मशीनों की धूम मच गई थी।
लगभग डेढ-पौने दो सो वर्ष पहले की और आज की सिलिंडर मशीनों में बहुत अंतर है। प्लेटन और सिलिंडर मशीन में काफी अंतर है। प्लेटन मशीन मे टाइप-बेड खडी स्थिति में होता है और दूसरी ओर के खडे प्लेटन पर कागज लगाया जाता है। यह कागज वाला प्लेटन फर्मे वाले प्लेटन के पास जाकर दब जाता है, परंतु सिलिंडर में टाइप-बेड लेटी हुई स्थिति में होता है। इस पर कागज लगाया जाता है और ऊपर से सिलिंडर घूमता हुआ इस पर दाब देता है। कागज एक दूसरे सिलिंडर के माध्यम से मेटर तक पहुंचता है। सिलिंडर मशीने कई तरह की होती है, जैसे-स्टॉप सिलिंडर मशीन, टू रिवोल्यूशन सिलिंडर मशीन, डाइरेक्ट इप्रेशन स्टॉप सिलिंडर मशीन और परफेक्ट डिलीवरी मशीन।
सिलिंडर मशीन का पूरा ढांचा मोटे तोर पर दो बाहरी ओर दो भीतरी फ्रेमों पर खडा होता है। इसमे बहुत छोटे-छोटे और जटिल पुर्जे नही होते। जो भीतरी फ्रेम होते हैं, उन पर दांतेदार चक्को का रैक लगा रहता है। इन्हे कॉग-रैक कहते हैं। रैक के जरिये दांतेदार चक्के आगे-पीछे चलते हैं, जिससे टाइप-बेड भी आगे-पीछे खिसकता रहता है। बाहरी फ्रेमों पर सिलिंडर लगे रहते हैं, जो कॉग-रैक के विपरीत होते हैं। इस बाहरी फ्रेम के साथ स्याही और कागज को डिलीवरी-बोर्ड तक ले जाने वाले फ्लायर का भी संबध रहता है। बाहरी सिलिंडर मे एक ग्रिपर की व्यवस्था भी होती है, जो कागज को उठाकर मैटर तक पहुचाने का कार्य करता है।
मशीन के एक ओर मशीन-मेन कागज लगाता रहता है। वहा फीड-बोर्ड भी लगा रहता है, जहा से स्याही वाला सिलिंडर स्याही प्राप्त कर अन्य बेलनों पर उसकी पिसाई करने के लिए पहुंचाता है। जब मशीन-मैन छपने वाले कागज को ‘फ्रंट ले’ के निकट लाता है, तो फ्रंट-बोर्ड जरा-सा ऊपर उठ जाता है और सिलिंडर में लगा ग्रिपर कागज को पकडकर खीच लेता है। ग्रिपर से खिचकर कागज दूसरे सिलिडर से सट कर मैटर तक पहुंच जाता है और छपाई कार्य पूरा हो जाता है।
लीथोग्राफी पद्धति
छपाई की लीथोग्राफी प्रणाली का आविष्कार जर्मनी के सेनेफेल्डर नामक व्यक्ति ने किया था। इसके आविष्कार के बारे मे एक रोचक घटना है। सेनेफेल्डर छपाई के लिए एक पत्थर को तैयार कर रहा था। तभी कपडे लेने के लिए धोबिन आ गयी। कपडे लिखने के लिए पास मे कुछ न देख जल्दी-जल्दी में सेनेफेल्डर ने छपाई के लिए बनायी हुई मोम, काजल और कास्टिक सोडे से बनी स्याही से उसे पत्थर पर ही कागज पर उतार लिया, लेकिन जब पत्थर पर लिखे हुए हिसाब को मिटाने का सवाल आया तो समस्या उत्पन्न हो गयी, क्योंकि पानी से वह लिखा हुआ साफ नही हो पाया। तब उन्होने अनायास ही इसके लिए नाइट्रिक एसिड ओर बबूल की गोद का इस्तेमाल किया। बस, इसी प्रयोग ने एक नयी छपाई प्रणाली को जन्म दिया। सेनेफेल्डर के मस्तिष्क मे जब यह विचार अचानक कौंधा तो उसने इस पर अनेक प्रयोग किए। कई महीनो के परिश्रम के बाद वह इस प्रणाली को व्यावहारिक रूप देने मे सफल हो पाया। सन् 1799 में उसने अपने इस आविष्कार का पेटेन्ट करा लिया।
उसके बाद फ्रांस के इगलमेन ने इस प्रणाली में समुचित सुधार कर इसका काफी प्रचार-प्रसार किया। लीथोग्राफी एक प्रकार से ‘रासायनिक छपाई” कहलाता है। इसमे पत्थर एक माध्यम या साधन के रूप मे लिया जाता है। इसके असली तत्त्व हें-ग्रीज और पानी। पत्थर की जगह वैसे आजकल धातु-पत्रों का इस्तेमाल
किया जाता है, लेकिन रासायनिक क्रिया वही है। जब स्याही को पत्थर या धातु-पत्र पर लगाया जाता है तो जितनी जगह मे स्याही लगती है, वह ऊपरी ही उभरी रहती है, जज्ब नही हो पाती। तेलीय स्याही में अम्लो की भी कुछ मात्रा होती है। रासायनिक तरीके से साफ किए हुए पत्थर के ऊपर अम्लो की प्रक्रिया से स्टियरेट बन जाता है। यह पानी मे घुलनशील नही होता, परंतु इसमे ग्रीज को आकर्षित करने के गुण होते हैं। वास्तव में लीथोग्राफी के पत्थर में पानी और ग्रीज दोनों को आकर्षित करने का गुण होता है, जबकि पानी आर ग्रीज दानों आपस में विरोधी स्वभाव के है।
जब पत्थर पर ग्रीज वाली स्याही से कुछ लिख कर उस पर पानी डाला जाता है, तो स्याही वाले भागों को छोडकर बाकी जगह पानी का प्रभाव रहता है। ग्रीज के आकर्षण को समाप्त करने के लिए इस पर बबूल के गोंद का इस्तेमाल किया जाता है। इस गोंद में एसिड की काफी मात्रा होती है। गोंद का यह एसिड पत्थर के चूने से सम्पर्क करता है। इस तरह पत्थर की सतह ऐसी बन जाती है कि न तो इसमें ग्रीज को आकर्षित करने की शक्ति रहती है और न ही पानी में घुलनशीलता की। गोंद के घोल को पत्थर पर लगाने के बाद और पत्थर को पानी से धोने पर घोल का घुलनशील पदार्थ पानी से धुल जाएगा परंतु सतह पर उसका कोई प्रभाव नही पडता। इसका कारण यह है कि इस पर लगा पदार्थ पानी में अघुलनशील है। जो मैटर छापना हाता है, उसे तैयार पत्थर पर जमा दिया जाता है। उसके बाद उसे बबूल के गोंद के घोल से धो दिया जाता है। स्याही लगा स्थान इससे प्रभावित नही होता। शेष भाग मे ग्रीज को आकर्षित करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। पत्थर जांचने के लिए उस पर गोंद का लेप पुन कर उसे पानी से धो दिया जाता है। तब उस पर बेलन से स्याही लगायी जाती है। पत्थर पर ग्रीज लगा भाग स्याही को आकर्षित करेगा, शेष भाग पर स्याही नही लगेगी। इस प्रकार तैयार हुए पत्थर के ऊपर कागज को रखकर छापा जा सकता है। छापने के लिए इस पत्थर को मशीन पर लगा दिया जाता है। लीथो ओर लेटर प्रेस की मुद्रण पद्धति में कोई फर्क नही है, परंतु लीथो ओर लेटर प्रेस की स्याही में जरूर फर्क होता है।
ऑफसेट छपाई मशीन
बुनियादी तौर पर लीथोग्राफी ओर ऑफसेट छपाई का सिद्धांत एक ही है, परंतु ऑफसेट प्रणाली काफी विकसित प्राणली है। लीथोग्राफी अथवा लेटर-प्रिटिंग में छपाइ के समय कागज पर काफी दबाव दने की आवश्यकता होती है। मोटे अथवा रूखे कागज पर तो ओर भी ज्यादा दबाव देना पडता है परंतु इसके विपरीत यदि रबड शीट पर छपाई करते हैं, तो थोडे से दबाव से ही छपाइ हो जाती है। हल्के स्पर्श से छपाई सुंदर स्वच्छ होती हैं और कागज पर दबाव के निशान भी नहीं उभरते ऑफसेट छपाई में हल्के स्पर्श वाली विधि का ही इस्तेमाल किया जाता है।
इसकी मशीन पर एक प्लेट सिलिंडर, दूसरा ब्लेंकेट सिलिंडर ओर तीसरा इम्प्रेशन सिलिंडर मुख्य होता है। प्लेट सिलिंडर से रबर पर इम्प्रेशन पडता है तथा रबर से कागज पर छपाई होती है। ऑफसेट प्रणाली में छपने वाले मेटर का फोटो लेकर उसे प्लेट पर उतारते हैं। प्लेट पर यह मेटर सीधा अंकित हो जाता है। इस सीधे मेटर की छाप रबर ब्लेंकेट पर जब पडती है, तो मेटर उल्टा हो जाता है ओर उस रबर ब्लेंकेट से जब कागज पर छपाई होती है, तो मेटर सीधा छप जाता है।
ऑफसेट प्रिंटिंग के लिए प्लेट तयार करने की विधि लगभग लीथोग्राफी की विधि की तरह ही है। इसमे भी प्लेट की ग्रेनिंग (घिसाई) की जाती हे तथा रासायनिक घोल की मदद से उसे संवेदनशील बनाया जाता है। प्लेट के तैयार होने पर उस पर प्रिंटिंग मैटर का फोटो उतार लिया जाता है। उसके बाद इस प्लेट को सिलिंडर पर व्यवस्थित कर दिया जाता है। इस प्लेट पर स्याही केवल उभरे हुए अक्षरों पर ही लगती है। ऑफसेट प्रिंटिंग में स्याही के साथ प्लेट को गीला बनाए रखने की भी आवश्यकता होती हे। यह व्यवस्था मशीन में ही रहती है। प्लेट को गीला रखने का कारण यह है कि मशीन के चलने से उत्पन्न हुई गर्मी से रासायनिक घोल से उभरे अक्षर कहीं विकृत या मेले न हो जाए। ऑफसेट प्रिंटिंग का सबसे बडा फायदा यह है कि इसकी छपाई साफ और दोष रहित होती है। इसमें चूंकि मैटर टाइप के रूप में उभरा नही होता, अत बहुत कम दबाव की जरूरत पडती है, जिससे कागज पर सिकुडन या दाब के निशान नहीं पडते।
रोटरी प्रिंटिंग मशीन
कोनिंग की छपाई मशीन के आविष्कार के 50 वर्ष बाद एक अन्य महत्त्वपूर्ण मशीन का आविष्कार हुआ। वह थी- रोटरी छपाई मशीन। इस ढंग की पहली मशीन अमेरीका के विलियम बुलक नामक व्यक्ति ने सन् 1864 मे निर्मित की, लेकिन दुर्भाग्यवश अपने प्रेस मे हुई एक दुर्घटना मे उसका निधन हो गया।
रोटरी मुद्रण मशीन मे कागज की अलग-अलग शीट लगाने का झझट नही रहता। इसमे कागज का रोल एक सिलिंडर पर लिपटा होता है। साथ ही टाइप का पटल भी समतल, सपाट न होकर बेलनाकार होता है। इस प्रकार कागज, स्याही तथा टाइप सभी घूमने वाले बेलनों (सिलिंडर) पर लगे होते है। इस पद्धति से एक घंटे मे हजारो प्रतियां छप जाती है। आज की आधुनिक रोटरी मशीन पर जिसमे 24 सिलिंडरो का समायोजन होता है, एक घटे में 12 लाख प्रतियां तक छप सकती हैं। रोटरी मशीन में कागज की शीट काटने, तह करने और क्रम मे लगाने, अलग-अलग प्रतियो के बंडल तैयार करने आदि की भी व्यवस्था रहती है।
इसके पटल पर टाइप और चित्रो के ब्लॉक एक सपाट फ्रेम में कम्पोज किए जाते हैं। उसके बाद सांचा एक पेपरमेशी (फ्लाग) मे तैयार किया जाता है और इससे एक निश्चित आकार-प्रकार की चंद्राकार प्लेटली जाती है। इस प्लेट को सिलिंडर में लगाया जाता है। इसी से छपाई का काम होता है।