चित्तौड़ पर आक्रमण कब हुआ था – अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़ पर आक्रमण Naeem Ahmad, March 25, 2022March 11, 2023 तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के साथ, चित्तौड़ के राजा समरसिंह की भी मृत्यु हुई थी। समरसिंह के तीन पुत्र थे। बड़ा पुत्र कल्याण अपने पिता के साथ ही युद्ध में बलिदान हुआ था, दूसरा पुत्र पिता के राज्य को छोड़कर दक्षिण पर्वत के निकट जाकर किसी एक स्थान में रहने लगा था। इस दशा में चित्तौड़ के राज्य का अधिकारी तीसरा पुत्र कर्ण हुआ। कर्ण की अवस्था छोटी थी और वह राज्य का प्रबन्ध नहीं कर सकता था, इसलिए जब तक वह समर्थ नहीं हुआ इतने राज्य की देख-भाल उसकी विधवा माँ कर्मदेवी करती रही। कर्मदेवी पट्टन के राजा की लड़की थी। उसका पिता अपनी वीरता के लिए बहुत प्रसिद्ध था। कर्मदेवी की रगों और नसों में शुरबीर पिता का रक्त था। समरसिंह के मारे जाने पर चित्तौड़ का शासन-प्रबन्ध उसने बड़े साहस के साथ अपने हाथों में लिया और बड़ी सुन्दरता के साथ उसने उसे निभाया। मोहम्मद गौरी के मरने के बाद, भारतीय राजाओं की अवस्था लगातार गिरती गयी। वे जितने ही निर्बल होते जाते थे, उतनी ही उनमें आपस की ईर्षा बढ़ती जाती थी और देश की शासन-सत्ता छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित होती जाती थी। इसका परिणाम यह हुआ था कि इस देश में मुस्लिम आक्रमण का जो सिलसिला महमूद गजनवी के साथ आरम्भ हुआ था, वह बराबर चलता रहा और एक न एक मुस्लिम आक्रमणकारी इस देश में आकर भारतीय राज्यों के विनाश का कारण बनता रहा। Contents1 कुतुबुद्दीन ऐबक चित्तौड़ पर का हमला1.1 अलाउद्दीन खिलजी का इरादा1.2 चित्तौड़ में अलाउद्दीन खिलजी का घेरा1.3 अलाउद्दीन खिलजी की घोषणा1.4 अलाउद्दीन को प्रतारणा1.5 बन्दी अवस्था से छुटने की समस्या1.5.1 चित्तौड़ में खलबली1.5.2 मुस्लिम छावनी में भयानक मार-काट1.6 अलाउद्दीन खिलजी का फिर चित्तौड़ पर आक्रमण1.6.1 चित्तौड़ के सामने संकट1.6.1.1 चित्तौड़ में युद्ध की घोषणा1.6.1.2 चित्तौड़ की चिता1.6.2 अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़ पर आक्रमण का अन्त और परिणाम2 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- कुतुबुद्दीन ऐबक चित्तौड़ पर का हमला भारतीय राज्य जिन राज्यों में बंटा हुआ था, उनमें एक चित्तौड़ का राज्य भी था। मोहम्मद गौरी के समय तक चित्तौड़ बराबर सुरक्षित रहा ओर किसी आक्रमणाकारी से उस समय तक उसे आधात नहीं पहुँचा था। मोहम्मद गौरी के मारे जाने पर उसके एक प्रसिद्ध सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने जो अब दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर शासन कर रहा था, चित्तौड़ पर आक्रमण करने और उसे लूटने का साहस किया। उसे मालुम था कि चित्तौड़ का राजा समरसिंह युद्ध में मारा जा चुका है और उसके स्थान पर उसका छोटा लड़का कर्ण सिंह राज्य का अधिकारी हुआ है। उसे यह भी मालुम हुआ कि कर्ण सिंह की अवस्था अभी छोटी है और राज्य का प्रबन्ध उसकी विधवा माँ कर्मदेवी करती है। इस दशा में चित्तौड़ पर आक्रमण करना और उसका विध्वंस करना उसे सहज मालूम होने लगा। कुतुबुद्दीन एक सेना लेकर सन् 1207 ईसवीं में चित्तौड़ की हमला करने के लिए रवाना हुआ। इसका समाचार रानी कर्मदेवी को मिला। उसने मन ही मन सोचा कि कुतुबुद्दीन चित्तौड़ को इस समय निर्बल समझ रहा है। वह जानता है कि इस समय चित्तौड़ में कोई प्रबल और पराक्रमी राजा नहीं है और कर्ण सिंह अभी बालक है, इसीलिए उसने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का इरादा किया है। रानी कर्मदेवी ने आवेश के साथ निर्णय किया कि, चित्तौड़ आज भी निर्बल और अनाथ नहीं है। इस राज्य को पराजित और विध्वंस करना उस समय तक सम्भव नहीं है, जब तक चित्तौड़ का एक-एक शुरूवीर क्षत्रिय जीवित है। विरांगना कर्मदेवी ने कुतुबुद्दीन के होने वाले आक्रमण का समाचार सुनते ही अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा दी। चित्तौड़ की राजपूत सेना अपनी तैयारी में लग गयी। युद्ध के बाजे बजने लगे और राजपूत सरदार एवम सेनापति युद्ध के लिए अपूर्व उत्साह के साथ तैयारी में लग गये। चित्तौड़ की राजपूत सेना के तैयार होते ही वीर नारी कर्मदेवी युद्ध के वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने दाहिने हाथ में तलवार और बायें हाथ में ढाल लेकर महल के बाहर निकली और घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के सामने खडी हुई। उस समय राजपुत सैनिकों, सवारों और सरदारों का उत्साह और साहस कई गुना अधिक हो गया। जिस समय चित्तौड़ की राजपूत सेना युद्ध के लिए जोशीले बाजों के साथ रवाना हुई, उस समय उसके साथ क्षत्रिय सैनिकों, सवारों ओर सरदारों की एक बडी सेना थी और यवन सेना को पराजित करने के लिए उसमें कई एक हिन्दू राजा, बहादुर सामन्त और चतुर सेनापति शामिल थे। चित्तौड़ नगर से निकलकर राजपुत सेना उस तरफ रवाना हुई, जिस तरफ से कुतुबुद्दीन ऐबक अपनी विशाल यवन सेना के साथ, तेजी से चित्तौड़ की ओर आ रहा था। मार्ग में दोनों सेनाओं ने एक, दूसरे को देखा और एक विस्तृत मैदान में युद्ध के लिए उत्तेजित अवस्था में कुछ देर के लिए दोनों सेनायें रुकीं। रानी कर्मदेवी ने कुछ देर तक यवन सेना की ओर देखा और फिर अपनी सेना को आगे बढ़ाकर मुस्लिम सेना पर जोर के साथ आक्रमण करने की आज्ञा दी। आदेश के मिलते ही संग्राम के लिए प्रस्तुत राजपूत आगे की ओर बढ़े और उन्होंने तेजी के साथ आक्रमण किया। इसी समय दोनों और से सेनाओं की मार-मार की आवाज हुई और युद्ध आरम्भ हो गया। उस दिन सांयकाल तक भीषण मार-काट होती रही। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। रात होते ही दोनों ओर की सेनायें पीछे की शोर हट गयीं और युद्ध बन्द हो गया। इसके बाद दोनों सेनाओं ने अपने-अपने शिविर में जाकर विश्राम किया। दूसरे दिन प्रात:काल राजपुत सेना युद्ध के लिए तैयार हो गयी ओर उसी समय कर्मदेवी युद्ध के लिए तैयार हो कर घोड़े पर सामने आयी और अपने सनिकों, सरदारों और वीर सेनापतियों को सम्बोधन करते हुए उसने कहा “चित्तौड़ की रक्षा का भार आप सब के ऊपर है। भारत के बहुत से राज्यों का विध्वंस मुसलमान बादशाहों ने किया है, लेकिन चित्तौड़ पर हमला करने का उनका यह पहला साहस है। आज राजपुतों को शत्रुओं के सामने न केवल विजयी होना है, बल्कि उनके साहस को सदा के लिए मिटा देना है। आज शत्रुओं का इस प्रकार संहार करना है, जिससे वे फिर कभी चित्तौड़ पर आक्रमण करने का दुस्साहस न कर सके !” कर्मदेवी के इन उत्तेजना पूर्ण वाक्यों को सुनकर राजपूत सैनिकों के नेत्रों से चिंगारियां निकलने लगीं। इसके बाद ही युद्ध के बाजे बजे और राजपूत सेना संग्राम-भूमि की तरफ रवाना हो गयी। पहले दिन जिस स्थान पर युद्ध हो चुका था, वहाँ पहुँचकर राजपूत सेना ने देखा कि यवन सेना अभी तक मैदान में नहीं आयी। इसी समय कर्मदेवी ने राजपूत सेना को मुस्लिम सेना के शिविर में आक्रमण करने का आदेश दिया। मुस्लिम सेना अभी तक युद्ध के लिए तैयार न हो सकी थी। राजपूत सेना ने दौड़ते हुए उस पर आक्रमण किया। दोपहर तक भयानक नरसंहार हुआ। अन्त में कुतुबुद्दीन युद्ध में घायल हुआ और वह अपने प्राण बचाकर वहां से भागा। उसके भागते ही, मुस्लिम सेना भी पीछे की ओर भागने लगी और थोड़ी ही देर में युद्ध का मैदान शत्रुओं से बिल्कुल खाली हो गया। बहुत दूर तक राजपूत सेता ने शत्रुओं का पीछा किया, उसके बाद वह सिंहनाद करती हुई चित्तौड़ में लौट आयी। अलाउद्दीन खिलजी का इरादा समरसिंह की मृत्यु के बाद सन् 1193 ईसवी में राजकुमार कर्ण चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा और कई वर्ष तक उसकी मां कर्मदेवी ने उसकी तरफ से राज्य का प्रबन्ध किया। विवाह हो जाने के बाद कर्ण सिंह के दो पुत्र पैदा हुए, माहुप और राहुप। माहुप निकम्मा और अयोग्य निकला। वह अपने ननिहाल में पड़ा रहता था और जीवन के दिन किसी प्रकार व्यतीत किया करता था । कर्ण का शासन भी बहुत कमजोरी के साथ चला और उसकी मृत्यु के बाद, उसका दूसरा लड़का राहुप सिंहासन पर बैठा। इसके कुछ दिनों के बाद, यवन सेनापति शमसुद्दीन के साथ नगर कोट के मैदान में उसे संग्राम करना पड़ा। उस युद्ध में महाराज राहुप की विजय हुई और पराजित होने के बाद अपनी सेना को लेकर शमसुद्दीन को युद्धक्षेत्र से भागना पड़ा। महाराज कर्ण ने चित्तौड़ में लगभग अड़तीस वर्ष तक बड़ी बुद्धिमानी के साथ शासन किया। इस बीच में कोई बाहरी शक्ति के द्वारा राज्य में अ्शान्ति नहीं पैदा हुईं। उसके बाद कई राजा वहाँ की गद्दी पर बैठे। उनके बाद सन् 1265 में राणा लक्ष्मणसिंह के नाम से एक राजा चित्तौड़ के राज-सिहासन पर बैठा। परन्तु उस समय लक्ष्मणश सिंह की अवस्था बहुत कम थी, इसलिए उसकी तरफ से उसका चाचा भीमसिंह राज्य का प्रबन्ध करता रहा। भीमसिंह बहुत सरल और सीधा आदमी था। उसका विवाह पद्मिनी नामक एक राजकुमारी के साथ हुआ था, जो शारीरिक सौन्दर्य में भद्दितीय और अनुपम मानी जाती थी। पद्ममिनी में सौन्दर्य की और भीमसिंह में स्वाभाविक सरलता की सीमा थी। पद्मिनी चौहान राजपूत वंश में उत्पन्न हुई थी और उसका पिता सिंहल प्रदेश में रहा करता था। महाराज भीमसिंह में राजनीतिक चतुरता और दूदर्शिता न थी और न वह शासक होने के योग्य ही था। राज्य-प्रबन्ध उतने ही दिनों के लिए उसके हाथों में था जब तक लक्ष्मण की अवस्था बड़ी नहीं हो जाती। शासन की निर्बलता में राज्य की अवस्था, एक अनाथ स्त्री की तरह हो जाती है। आज फिर चित्तौड़ का राज्य उसी निर्बल परिस्थितियों में होकर गुजर रहा था, जिनमें उसके प्रति कोई भी आततायी और निर्दय आक्रमणकारी तृष्णा के साथ देख सकता है। दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के नेत्रों में चित्तौड़ का वैभव खटक रहा था। लक्ष्मण सिंह की आयु सम्बन्धी निर्बल अवस्था और भीमसिंह की राजनीतिक अयोग्यता ने अलाउद्दीन खिलजी को चित्तौड़ की ओर आकर्षित किया। उसने आसानी के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण करने का इरादा कर लिया और धीरे-धीरे उसने अपनी तैयारी शुरू कर दी। भारत के दूसरे अधिकांश सम्पन्न राज्य, तुर्क और पठान सैनिकों के अत्याचारों से लूटे जा चुके थे और मिट चुके थे। लेकिन चित्तौड़ का राज्य अभी तक सुरक्षित था। इन दिनों में कोई शक्तिशाली राजा न होने के कारण, चित्तौड़ की तरफ अत्याचारी और लुटेरे आक्रमणकारियों का बढ़ना स्वाभाविक ही था। दुबर्लता, सम्पन्न अवस्था की रक्षा नहीं कर सकती और इसीलिए वह प्रत्येक समय अपने आप विपदा की कारण होती है। चित्तौड़ में अलाउद्दीन खिलजी का घेरा अलाउद्दीन खिलजी सन् 1302 ईसवी में अपनी सेना को लेकर चित्तौड़ में पहुँच गया और नगर के आस-पास उसने अपनी सेना का घेरा डाल दिया। अलाउद्दीन के इस आक्रमण से चित्तौड़ की राजपूत सेना में बड़ी अशान्ति उत्पन्न हुई। वहाँ के समस्त राजपूत एक साथ युद्ध के लिए अधीर हो उठे। लेकिन उनके सामने एक बड़ी विवशता थी। राजा की अयोग्यता, प्रजा की अयोग्यता का कारण होती है। राजपुत सैनिक अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते थे, लेकिन वे अपने निर्बल और अयोग्य राजा की शक्ति न बन सकते थे। तीन बारों का प्रयोग धनुष के साथ किया जा सकता हैं। धनुष की अनुपयोगिता और असमर्थता, वाणों को असक्षम और असमर्थं बना देती है। चित्तौड़ में घेरा डालकर अलाउद्दीन खिलजी चुप ही रहा। उसके बाद उसने क्या सोचा और क्या निर्णय किया, इसका जल्दी समझ सकना कठिन हो गया। न तो चित्तौड़ की तरफ से उस घेरे को तोड़ने और युद्ध करने की स्थिति पैदा हो गयी और न अलाउद्दीन खिलजी की तरफ से ही आगे बढ़र कोई आक्रमण आरम्भ हुआ। चित्तौड़ पर आक्रमण अलाउद्दीन खिलजी की घोषणा चित्तौड़ में घेरा डाले हुए अलाउद्दीन को अनेक दिन बीत गये। उस समय दोनों ओर की अवस्थायें अस्पष्ट और संदिग्ध चल रही थीं। घेरा डालने के बाद भी अलाउद्दीन बहुत दिनों तक चुपचाप बना रहा। दोनों तरफ की कोई बात समझ में न आ रही थी। राणा लक्ष्मण सिंह की अभी तक बाल्यावस्था थी और भीमसिंह इस होने वाले अनर्थ की ओर अन्यमनस्क होकर देख रहा था। इसी अवसर पर अलाउद्दीन ने यह घोषणा की कि मैं पद्मिनी को पाकर अपनी सेना को लेकर वापस लौट जाऊंगा। इस घोषणा की आवाज चित्तौड़ में पहुँची। वहाँ के राजपूतों ने अलाउद्दीन की इस माँग को सुना। अकस्मात जैसे उनके शरीरों में आग का स्पर्श हुआ हो। उनके नेत्रों से चिनगारियाँ निकलने लगीं । स्वाभिमानी चित्तौड़ राज्य का एक भी राजपूत इन शब्दों को सुनने के लिए तैयार न था। फिर भी उनको निकट भविष्य में होने वाली घटनाओं की प्रतीक्षा करनी पड़ी। पद्मिनी सुन्दरता की सजीव मूर्ति थी। उसका अलौकिक स्वास्थ्य, अद्भुत शरीर गठन, अपूर्व रंग-रूप और सौंदर्य, न केवल पद्मिनी को भयानक विपदा का बल्कि समस्त चित्तौड़ की आपदाओं का कारण बन गया। अलाउद्दीन की घोषणा सभी के कानों में पहुँची। सभी ने अपने-अपने अन्तःकरणों में गम्भीर प्रस्तर रखकर उस मांग के शब्दों को सुना। भीमसिंह ने भी सुना और पद्मिनी के कोमल कानों में भी उस घोषणा के शब्दों का आधात हुआ उसने भी सुना, लेकिन किसी की तरफ से कोई निर्णय सुनायी नहीं पड़ा। चित्तौड़ के राजपुतों के सामने बड़े संकट का समय था। वे समझ नहीं सके कि इन परिस्थितियों के बाद भी कोई जीवित रहना पसन्द करेगा। उनका स्वाभिमानी सम्मान उत्तप्त बालू में जल की मछली की भांति क्षत-विक्षत हो रहा था। एक-एक करके अलाउद्दीन की घोषणा को बहुत-से दिन बीत गये।अलाउद्दीन खिलजी शूरवीर और लड़ाकू होने की अपेक्षा, चतुर, दुराचारी,लम्पट, कठोर और अभिमानी अधिक था। उसने अपने आक्रमण का सम्पूर्ण उद्देश्य, परम सुन्दरी पद्मिनी को हासिल करने में केन्द्रित कर दिया। रानी के रूप-लावश्य की अलौकिक छवि ने अलाउद्दीन की अटूट उत्कंठा को उन्माद में परिवर्तित कर दिया। महाराणा भीमसिंह की अस्वाभाविक दुर्बलता से वह अनभिज्ञ नहीं रहा। उसने अपने उद्देश्य की सफलता को सरल बनाने के लिए घोषणा को बदलने की कोशिश की और जाहिर किया कि रानी पद्मिनी के प्रतिबिम्ब को दर्पण में देखकर मैं चित्तौड़ से लौट जाऊँगा। राजपूत अपने अनेक स्वाभाविक गुणों के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी वीरता और विश्वास परायणता को सभी जानते थे। एक बार अपनी मंजूरी दे देने के बाद, राजपूत अपने शब्दों को बदल नहीं सकते, यह बात भी अलाउद्दीन खिलजी जानता था। उसने अपने कपट का जाल फैलाना आरम्भ किया। सरल स्वभाव भीमसिंह की दुबर्लता ने अलाउद्दीन खिलजी के सीधे-सादे शब्दों पर विश्वास किया। उसकी समझ में आ गया कि यदि दर्पण में प्रतिबिम्ब देखकर ही अलाउद्दीन खिलजी वापस जा सकता है और रक्तपात की समस्त भीषणता इस प्रकार अपने आप मिट जाती है तो ऐसा करने में कोई हानि नहीं है। भीमसिंह ने साफ-साफ उसे स्वीकार कर लिया। अलाउद्दीन को प्रतारणा चित्तौड़ के सरदारों और बुद्धिमान राजपूतों की समझ में भीमसिंह की स्वीकृति एक भयानक दुर्बलता थी। महलों से लेकर बाहर तक सभी ने महाराणा भीम सिंह की स्वीकृति को अशान्ति और आश्वर्य के साथ सुना। लेकिन भीम सिंह उन दिनों में चित्तौड़ राज्य अधिकारी था और दूसरे अर्थों में भी अलाउद्दीन के प्रस्ताव को स्वीकार करने का उसे अधिकार था। भीमसिंह की स्वीकृति का सन्देश, अलाउद्दीन को मिला। वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसने भीमसिंह के साथ मित्रता का सम्बन्ध जोड़ा और उसने अनेक प्रकार की झूठी प्रशंसाएं की। अलाउद्दीन और भीमसिंह के बीच शत्रुता के स्थान पर मित्रता कायम हुई। अलाउद्दीन को रानी पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखाने के लिए चित्तौड़ के राज-भवन में तैयारियां हुई और अपने उद्देश्य को लेकर अलाउद्दीन ने निर्भयता के साथ चित्तौड़ के भीतर प्रवेश किया। वह जानता था कि राजपूत दगाबाज नहीं होते। इसीलिए उसके साथ थोड़े-से शरीर रक्षक विश्वस्त मुस्लिम सैनिक और सवार थे। मित्रता और उदारता के साथ अलाउद्दीन ने पद्मिनी के प्रतिबिम्ब को दर्पण में देखा, प्रसन्नता के साथ उसने रानी के श्रपू्र्व सौंदर्य की प्रशंसा की और वहाँ से वह अपनी छावनी के लिए लौट पड़ा। भीमसिंह ने अपने कुछ राज दरबारियों के साथ अलाउद्दीन का स्वागत-सत्कार किया और कुछ दूर तक अलाउद्दीन को भेजने के आशय से वह साथ-साथ चला। अलाउद्दीन और भीमसिंह दोनों साथ-साथ चल रहे थे और भीमसिंह, अलाउद्दीन खिलजी के मुख से प्रशंसात्मक बातें सुन रहा था। बातें करते हुए दोनों ही चित्तौड़ नगर के बाहर निकल गये, लेकिन उन बातों का सिलसिला खतम न हुआ। कुछ दूर आगे बढ़कर जाने पर, मुस्लिम सेना की छावनी दिखायी पड़ी, वहीं पर अलाउद्दीतन खड़ा हो गया और अपने अपराधों की उसने भीमसिंह ने क्षमा मांगी। उसके मीठे शब्दों को सुनकर भीमसिंह ने उत्तर देना आरम्भ किया ही था कि इतने में बहुत-से अस्त्र-शत्र सुसज्जित यवन सैनिक अचानक बड़ी तेजी के साथ उस स्थान पर पहुँचे और दरबार के लोगों के साथ-साथ, उन्होंने महाराणा भीमसिंह को कैद कर लिया। दरबारियों के साथ, महाराणा भीमसिंह के बन्दी होने का समाचार समस्त चित्तौड़ नगर में फैल गया। महलों से लेकर बाहर तक सन्नाटा छा गया। मन्त्रियों और सरदारों ने बड़ी वेदना के साथ इस दुःखान्त समाचार को सुना। सभी की समझ में परिस्थिति और भी गम्भीर हो उठी। कैद से महाराणा और दूसरे राजपूत दरबारियों को कैसे छुटाया जाये, यह एक भीषण प्रश्न सब के सामने पैदा हो गया। बन्दी अवस्था से छुटने की समस्या महाराणा भीमसिंह को गिरफ्तार करने के बाद अलाउद्दीन को बड़ी प्रसन्ता हुई। अपनी समझ में वह सफलता की ओर जा रहा था। रानी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए उसने जो जाल बिछाया था, उसमें अब तक बराबर सफलता मिली। जिस भीमसिंह को कैद करने के लिए न जाने उसे कितना युद्ध करना पड़ता और इसके लिए न जाने कितने आदमियों का दोनों ओर से रक्तपात होता। इन समस्त दुर्घटनाओं से सुरक्षित रहकर उसने अपने उद्देश्य में सफलता पायी, इसीलिए उसके प्रसन्न होने का पूर्णरूप में कारण था। भीमसिंह के बन्दी होते ही सम्पूर्ण चित्तौड़ के लोग शोकाकुल हो उठे। राज दरबार के मंत्रियों, राज्य के समस्त सरदारों ओर राजपुतों के सामने बड़ी कठिन समस्या पैदा हो गयी। जिस युद्ध को बचाने के लिए आरम्भ से महाराणा भीमसिंह ने खामोशी अख्तयार की थी और अलाउद्दीन की मीठी-मीठी बातों को सुनकर उन पर विश्वास किया था, वह युद्ध अपने आप आकर सामने उपस्थित हुआ। अरब समस्त सरदारों, सेनापतियों और राजपूत सैनिकों के सामने युद्ध को छोड़कर भीम सिंह की मुक्ति का दूसरा कोई रास्ता ही न रह गया। प्रारम्भ से ले कर अब तक चित्तौड़ राज्य की सेना के राजपुत, युद्ध के लिये दाँत पीस रहे थे। लेकिन महाराणा भीम सिंह की अयोग्यता और असमर्थंता के परिणाम स्वरूप सभी लोग कर्त्तव्यमूढ़ हो रहे थे। संघर्ष से बचने की कोशिश कभी-कभी भयानक विपदा की कारण बन जाती है। जिन दुष्परिणामों से बचने और सुरक्षित रहने के लिए भीमसिंह ने कायरता स्वीकार की थी, उसने स्वयं उन दुष्परिणामों को लाकर सामने उपस्थित कर दिया। एक वीर आत्मा जीवन के संघर्षों का सामना करता है और उन पर विजयी हो कर लोक और परलोक में कीर्ति का अधिकारी होता है। लेकिन कायर और भीरू पुरुष संकटों का मुकाबला करने में घबरा कर अपने काल का स्वयं कारण बन जाता है। महाराणा भीमसिंह की यही अवस्था थी। किसी भी गुण और अवगुण की सही परिभाषा उसकी सफलता और असफलता पर निर्भर होती है। विश्वासघात करना अपराध है। लेकिन जो विश्वासघात कर सकता है, उसके प्रति विश्वासघात करना अपराध नहीं है। विश्वासी राजपूतों के अधिकार में आकर भी जो अलाउद्दीन इसलिए निर्भीक और निडर था कि राजपूत विश्वासघात नहीं कर सकते, उसी अलाउद्दीन ने प्रतिबिम्ब देख कर लौटने के बाद राजपूतों के साथ विश्वासघात किया और उनको कैदी बना कर अपनी सेना के बीच में रखा। यह दंड उन राजपुतों के लिए था, जो विश्वासघातक के साथ, विश्वासघात न कर सकते थे। यदि उन्होंने प्रतिबिम्ब देखने के समय एक दुराचारी और अत्याचारी को संसार से विदा कर दिया होता तो यह दन्ड उनको भोग ना न पड़ता। किसी भी गुण और अवगुण की परिभाषा करने में प्रायः लोग भूल करते हैं। शोकाकुल चित्तौड़ में भीमसिंह के छुटकारे की समस्या का हल करना जिस समय कठिन हो रहा था और विभिन्न परिणामों की लोग चिन्तनायें कर रहे थे, उसी संकटकाल में अलाउद्दीन ने फिर घोषणा की, मैं रानी पद्मिनी को पाकर तुरन्त महाराणा भीमसिंह और दूसरे कैदियों को छोड़ दूंगा और अपनी सेना के साथ चित्तौड़ से लौट जाऊँगा। चित्तौड़ में खलबली चित्तौड़ के मन्त्रियों और सरदारों को बादशाह अलाउद्दीन की यह घोषणा असह्य हो उठी। सभी ने मिल कर युद्ध करने और महाराणा को कैद से छुड़ाने का निर्णय किया, लेकिन इस निर्णय के साथ उन सब को रानी पद्यमिनी की आज्ञा ले लेना आवश्यक था। आरम्भ से लेकर अब तक सभी बातों कों रानी पद्मिनी जानती थी लेकिन किसी समय उसने अपने विचारों को प्रकट नहीं किया और न तो किसी ने उसके निर्णय को जानने की ही कोशिश की। चित्तौड़ के दरबार में रानी का एक भाई रहता था, उसका नाम बादल था और गोरा नाम का जो दूसरा आदमी था, वह रानी का चाचा था। दोनों ही युद्ध में वीर और राजनीति में कुशल थे। रानी पद्मिनी से परामर्श करने के लिए इन्हीं दोनों आदमियों को महल में भेजा गया। रानी ने उत्तर देते हुए कहा, मुसलमान बादशाह के साथ आरम्भ से लेकर जिस निर्बलता से काम लिया गया है, उसी का यह फल है कि आज चित्तौड़ के सामने महान संकट है। वह पहली भूल थी और मेरी समझ में यह दूसरी भूल होगी कि इस समय युद्ध की घोषणा की जाये इसलिए अच्छा यह होगा कि अलाउद्दीन ने जिस धुर्तता और प्रतारणा से काम लिया है, उसी का आश्रय अब इधर से भी लिया जाये। गोरा और बादल ने सावधानी के साथ रानी के शब्दों को सुना और उसके बाद भी दोनों आदमी कुछ देर तक चुप रहे। अन्त में पद्मिनी के परामर्श को जान कर गोरा और बादल महल से लौट आए। दरबार में आकर मन्त्रियों तथा सरदारों के साथ परामर्श किया। इसके पश्चात बादशाह अलाउद्दीन के पास एक दूत भेजा गया। उसने वहाँ जाकर कहा–“बादशाह सलामत, आपने आखीर में जो राय जाहिर की है, उसे सुनकर रानी साहिबा ने अपनी मंजूरी आपके पास भेजी है और उसी के लिए मैं आपकी खिदमत में हाजिर हुआ हूं। अपनी मंजूरी के साथ रानी साहिबा ने अपनी दो-चार बातें आप से अर्ज करने के लिए मुझे इजाजत दी है। उन बातों को कहने के लिए आप मुझे इजाजत देंगे, यही समझ कर मैं उन बातों को आपके सामने पेश करने की हिम्मत करता हूं। बादशाह अलाउद्दीन बड़ी तसल्ली के साथ उन बातों को सुन रहा था। दूत ने फिर कहना आरंभ किया:—“बादशाह सलामत खुद एक बड़े बादशाह हैं और राजमहलों के तौर तरीकों से वाकिफ हैं। रानी साहिबा के साथ उनकी सभी नौकरानियां, लौड़ियाँ और बाँदियाँ आवेंगी और सभी पहरेदार पालकियों में होंगी । उन सब की जो इज्जत और आबरू हमारे राज महलों में मानी जाती है, आपके यहाँ भी उनको वही इज्जत मिलनी चाहिए। रानी साहिबा के साथ सैकड़ों की तादाद में जो खादिमायें हैं, वे सब राजघराने की लड़कियाँ हैं और शादी के बाद, रानी साहिबा के साथ इस राज्य में आयी हैं। राज्य की तरफ से उनको भी वही इज्जत मिली है जो रानी को मिलती है। रानी के साथ समस्त पालकियाँ राज्य के सवारों के संरक्षण में आपके यहाँ आवेंगी और भेजकर वे सवार वापस चले आयंगे। उन सब के यहाँ आने पर यहाँ कोई भी आदमी ऐसा सुलूक न करे जो नामुनासिब मालूम हो। इन बातों को मंजूर करने के बाद आप किसी अच्छे दिन की तजबीज करें , उसी दिन रानी साहिबा आपके यहाँ आ जावेंगी। चित्तौड़ के मुतल्लिक आप जो मुनासिब समझे फैसला करें,उससे रानी साहिबा कोई दखल नहीं देना चाहती। वे जिस वक्त यहाँ के महलों से निकल कर आपकी तरफ चलेंगी, उसी वक्त से चित्तौड़ के साथ उनका कोई ताल्लुक ने रहेगा।” दूत की बातों को सुनकर अलाउद्दीन बहुत प्रसन्न हुआ। जिस समय दूत के मुंह से इन बातों को सुन रहा था, उसी समय उसने समझ लिया था कि रानी पद्मिनी खुशी से मेरे साथ चलना चाहती है और उसकी खुशी का सबब यह है कि मेरी बादशाहत के एक टुकड़े के मुकाबले में भी चित्तौड़ का राज्य नहीं है। ऐसा कौन बेवकूफ होगा जो इस छोटे-से राज्य के पीछे इतनी बड़ी बादशाहत का ख्याल छोड़ दे। अलाउद्दीन ने दूत की सभी बातों को मन्जूर कर लिया। वह रानी की इस बात से बहुत प्रसन्न हुआ कि उसने भीम सिंह और चित्तौड़ के सम्बन्ध में कोई माँग नहीं की। उसने समझ लिया कि रानी पद्मिनी की ईमानदारी का सबसे बड़ा सुबूृत यही है। बादशाह और दूत के बीच अच्छे दिन का निश्चय हो गया और दूत वहाँ से लौटकर चला आया। मुस्लिम छावनी में भयानक मार-काट चित्तौड़ में यह अफवाह फैल गयी कि रानी पद्मिनी ने बादशाह के साथ जाना मन्जूर कर लिया है। इस अफवाह को सुनकर सभी को विस्मय हुआ। लेकिन किसी का उसमें बस क्या था । दूत के लौट आने पर चित्तौड़ के राज दरबार में तरह-तरह की तैयारियाँ होने लगीं। बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने भी अपने आदम्मियों को इधर-उधर रवाना किया और उन आदमियों ने लौटकर बताया कि चारों तरफ रानी के इस फैसले पर लोग तरह तरह की बातें करते हैं और उसकी बड़ी बदनामी फैल रही है। अलाउद्दीन खिलजी के हृदय में अब किसी प्रकार का सन्देह न रहा। वह पहले भी समझता था कि राजपूत न झूठे होते हैं और न धोखेबाज होते हैं। बिना किसी सन्देह के उसने अपने वहाँ रानी के स्वागत को तैयारियाँ शुरू कर दी चित्तौड़ में घेरा डाले हुए जो सेना पड़ी थी, उसको उसने वापस बुला लिया और चित्तौड़ का घेरा तोड़ दिया गया। मुस्लिम सेना की छावनी में कई तिनों तक स्वागत की जोरदार तैयारियाँ होती रहीं। निश्चित समय पर चित्तौड़ के द्वार से 700 से अधिक पालकियाँ एक साथ निकलीं और 500 राजपूत सवारों के साथ वे मुस्लिम शिविर की तरफ रवाना हुईं। सवारों के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र न था। शिविर के निकट पहुँचकर सवारों ने बादशाह अलाउद्दीन को सलाम किया और हट कर वे एक तरफ खड़े हो गये। अलाउद्दीन ने रानी पद्मिनी और उसके साथ में आनें वाली स्त्रियों के लिए अगल तम्बू लगवा दिया था और उस तम्बू आस-पास मजबूत कनाते लगी हुई थीं। एक-एक करके सभी पालकियाँ उससे भीतर भेज दी गयीं। छावनी में मुस्लिम सैनिकों का पहरा लगा हुआ था और बहुत से सैनिक इस खुशी में तरह-तरह के इन्तजाम कर रहे थे। पालकियों के तम्बू में जाने के साथ-साथ बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को यह बता दिया गया था कि इन पालकियों में कुछ स्त्रियाँ महलों से ऐसी आयी हैं जो रानी को यहाँ तक पहुँचाकर और कुछ समय ठहर कर वापस चली जायेगी। बादशाह ने इसके लिए भी इंतजाम कर दिया कि जिस वक्त लौटने वाली पालकियाँ जाने लगें तो पहरे के सिपाहियों की तरफ से कोई दखल न दिया जाये। महाराणा भीमसिंह इस दृश्य का कोई अर्थ समझ न सका। जिनके पहरें में वह बन्दीं था, उन सिपाहियों ने उल्लास में विभोर होकर महाराणा से कंहा:– “तुम्हारी रानी पद्मिनी ने तुमको छोड़कर बादशाह के यहाँ जाना मन्जूर किया है और इसके लिए वह अपनी बहुत-सी खादिमाओं के साथ हमारी इस छावनी में आ गयी है? इसके बाद कुछ ही देर में अलाउद्दीन ने महाराज को बुलाकर कहा:– “रानी पद्मिनी अब मेरे साथ जायगी। आप उसके साथ आखरी मुलाकात कर सकते हैं। इसके लिए आपको आधे घंटे का समय मिलेगा” पहरे के सिपाहियों ने मुलाकात के लिए भीम सिंह को जाने की इजाजत दी और उसने विस्मय के साथ उस तम्बू के भीतर प्रवेश किया, जहाँ पर चित्तौड़ से आयी हुई बन्द पालकियाँ मौजूद थीं। महाराणा की आवाज सुनते ही एक पालकी के भीतर से किसी ने। सम्हाल कर परदा खोला और बड़ी सावधानी के साथ बुलाकर उसने भीमसिंह को उसी में बिठा लिया। तम्बू के बाहर मुस्लिम पहरा था और कुछ फासिले पर बाहर खड़े हुए सिपाही महाराणा के लौटने का रास्ता देख रहे थे। इसी समय तम्बू के भीतर से कुछ पालकियाँ बाहर की तरफ निकलीं, बादशाह को यह खबर दी गयी कि लौटने वाली पालकियाँ वापस जा रही है। बादशाह ने खुशी के साथ उनको लौटने की इजाजत दी। वे पालकियाँ वापस चली गयीं। रानी पद्मिनी से मुलाकात करने के लिए महाराणा को भेजकर बादशाह अलाउद्दीन तरह-तरह की कल्पनायें कर रहा था। वह सोच रहा था कि आज भीमसिंह के दिल पर यह जानकर क्या गुजरेगी कि रानी पद्मिनी खुशी के साथ चित्तौड़ को छोड़कर दिल्ली जा रही है। रानी पद्मिनी से मुलाकात करने का मौका देकर अलाउद्दीन, भीम सिंह के जख्मों’ में नमक छिड़कना चाहता था। इस मौके पर महाराणा को कितनी पीड़ा हो सकती है। इसका वह अन्दाज लगा रहा था। तम्बू से भीम सिंह के लौटने का समय समाप्त हो चुका था। फिर भी कुछ देर तक उसका रास्ता देखा गया। आधे घण्टे का समय दिया गया था, लेकिन तम्बू में महाराणा को गये हुए लगभग दो घंटे हो रहे थे, परन्तु इतना अधिक, समय हो जाने का पता बादशाह को स्वयं न था। जिन सिपाहियों के द्वारा महाराणा बन्दी था, वे बादशाह के हुक्म का रास्ता देख रहे थे और बादशाह के सामने आज एक दूसरी ही रंगीन दुनिया थी। अलाउद्दीन ने जब सुना कि तम्बू में गये हुए महाराणा को दो घंटे हो चुके हैं और वह अभी तक वहाँ से नहीं लौटा तो वह जोर के साथ तड़प उठा। उसके तड़पने की आवाज मुस्लिम छावनी के भीतर से बाहर तक गूँज उठी। सिपाहियों ने तम्बू के निकट जाकर महाराणा को पुकारा और फौरन लौटकर आने का हुक्म दिया। कुछ समय और बीत गया। बादशाह को खबर दी गयी कि तम्बू से अभी तक महाराणा नहीं लौटा। यह सुनकर बादशाह क्रोध में बिगड़ता हुआ, तम्बू की ओर चला। उसके साथ में अंगरक्षक मुस्लिम सैनिक थे। तम्बू के भीतर बादशाह के पहुँचते और गरजते ही, चित्तौड़ से आयी हुई 700 पालकियों के परदे एक साथ खुले और उनके भीतर बैठे हुए प्रत्येक पालकी से छः छः चुने हुए शूरवीर सैनिक युद्ध के लिए सुसज्जित बड़ी तेजी के साथ निकल पड़े और उन्होने अलाउद्दीन पर आक्रमण किया। मुस्लिम अंगरक्षक सैनिकों ने बादशाह के आगे होकर राजपूतों के आक्रमण का जवाब दिया, बादशाह भीतर से भागकर बाहर आया और मुस्लिम सेना को ललकारते हुए युद्ध करने की आज्ञा दी। मुस्लिम छावनी में हाहाकार मच गया और भीषण रूप से मार- काट आरम्भ हो गयी। बाहर खड़े हुए पाँच सौ राजपूत सवारों ने आगे बढ़कर युद्ध में भाग लिया। चित्तौड़ के पाँच हजार सैनिकों औरसवारों ने भयानक मार काट की और ढाई घंटे के भीतर कई हजार मुस्लिम सैनिकों को काटकर ढेर कर दिया। अलाउद्दीन की पूरी सेना तैयार होकर युद्ध में शामिल हो गयी। मुसलमानों का बढ़ता हुआ जोर देखकर राजपूत मार काट करते हुए चित्तौड़ की तरफ चलने लगे। बादशाह की सेना आगे बढ़ती हुई किले के करीब पहुँच गयी। वहां से सिंहद्वार की तरफ बढ़ना चाहती थी और महाराणा भीमसिंह को कैद करना चाहती थी। परंतु राजपूतों ने किले के करीब फिर जमकर युद्ध किया और मुस्लिम सेना को एक कदम भी आगे बढ़ने नहीं दिया। जिस समय के निकट बादशाह की सेना के साथ राजपूत युद्ध कर रहे थे चित्तौड़ की एक दूसरी राजपूत सेना तैयार होकर सिंहद्वार से बाहर निकली और किले से बाहर आकर मुस्लिम सेना पर उसने इतने जोर का आक्रमण किया कि बादशाह को विशाल सेना कुछ दूर तक पीछे हट गयी। इस समय किले और मुस्लिम छावनी के बीच के मैदान में भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। अलाउद्दीन के आक्रमण के प्रारम्भ से जो राजपूत सैनिक और सरदार युद्ध के लिए दाँत पीस रहे थे, वे आज चित्तौड़ की मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए मर मिटना चाहते थे। कई घण्टे तक उन शूरवीर राजपूतों ने भयानक मार-काट की और शत्रुओं का संहार करने में उन्होंने कुछ कमी न रखी। शत्रुओं के मुकाबले में राजपूत सैनिकों की संख्या बहुत थोड़ी थी फिर भी युद्ध की परिस्थिति दोनों ओर से बहुत गम्भीर चलती रही। कभी राजपूत पीछे हट जाते थे और कमी मुस्लिम सेना कुछ दूर तक पीछे हटकर फिर युद्ध करती हुई आगे की ओर बढ़ आती थी। संग्राम की यह अवस्था दो दिनों तक बराबर चलती रही।तीसरे दिन सांयकाल के पहले ही बादशाह की सेना युद्ध के मैदान से पीछे हट गयी और अपनी छावनी की तरफ चली गयी। राजपूत सैनिक अपने स्थान पर ज्यों के त्यों बने रहे। उन्होंने आगे बढ़ने की चेष्टा न की और मुस्लिम सेना के छावनी में लौट जाने के बाद, राजपूत सेना भी चित्तौड़ की तरफ लौट गयी। छावनी में लोट कर अलाउद्दीन खिलजी ने रात को विश्राम किया और सवेरा होते ही वह अपनी सेना के साथ चित्तौड़ से दिल्ली की और रवाना हो गया। मुस्लिम सेना के साथ राजपूृतों का जो युद्ध हुआ, उसमें रानी पद्मिनी के चाचा गोरा ने बड़ी बहादुरी के साथ युद्ध किया और अन्त में वह मारा गया। रानी के भाई बादल की अवस्था अभी चौदह वर्ष से अधिक न थीं, लेकिन युद्ध में उसका रणकौशल देखकर शत्रु के सैनिक भी विस्मित हो रहे थे, उसकी तलवार और भाले की मार से बहुत अधिक मुस्लिम सैनिक मारे गये थे। युद्ध से हटकर जब मुस्लिम सेना अपनी छावनी को चली गयी तो बादल अपनी राजपूत सेना के साथ लौटकर खून से नहाये हुए, महल में पहुँचा। उसके शरीर में बहुत से घाव थे और उसने अब भी रक्त बह रहा था। उसके समस्त कपड़े खून में भीगे हुए थे। उसने बहुत देर तक बिना वस्त्र बदले हुए, बहन पद्मिनी और गोरा की पत्नी अपनी चाची को बताया की बादशाह अलाउद्दीन की विशाल सेना के साथ किस प्रकार भयंकर युद्ध हुआ किस तरीके से अन्त में मुस्लिम सेना निराश हो कर पराजित अवस्था में युद्ध के मैदान से चली गयी। अलाउद्दीन खिलजी का फिर चित्तौड़ पर आक्रमण बादशाह अलाउद्दीन चित्तौड़ से लौट कर दिल्ली चला गया, लेकिन चित्तौड़ में होने वाली घटनायें उसे एक दिन भी भूली नहीं। अपनी जिन आशाओं को लेकर उसने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, वे सब की सब एक साथ अफसल हुई। चित्तौड़ के निरबल और असमर्थ समझने के बाद भी, उसने पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए जीवन का एक नाटक खेला था, उसमें वह बुरी तरह असफल हुआ। उस नाटक का अन्त इतना अपमानजनक होगा, इसकी कल्पना भी उसने न की थी। इस अपमान और पराजय से चिढ़कर अलाउद्दीन चित्तौड़ के सम्बन्ध में नयी-नयी कल्पनाओं पर विचार करने लगा। वह सोचने लगा, जिस चित्तौड़ ने विश्वासघात का यह कठोर पाठ पढ़ाया है, उसे मैं विध्वंश करके ही छोड़ूगा। एक-एक करके कितने ही वर्ष बीत गये। अलाउद्दीन खिलजी की आखें चित्तौड़ की तरफ लगी हुई थीं। उसे चित्तौड़ को पराजित करने का उतना ख्याल न था, जितना उसे अपने अपमान का बदला लेने का था। वह भयानक रूप से चिढ़ा हुआ था। जिस चित्तौड़ को युद्ध में उसने खिलौना समझा था, उसके मुकाबले उसे असफल होकर लौटना पड़ा, अलाउद्दीन बादशाह के सामने यह साधारण लज्जा की बात न थी। इसीलिए चित्तौड़ पर आक्रमण करने का उसने फिर से निश्चय किया और पहले की अपेक्षा उसने इस बार अधिक बड़ी सेना की तैयारी की और दिल्ली से चलकर सन् 1303 ईसवी में उसने चित्तौड़ को फिर घेर लिया। चित्तौड़ के सामने संकट चित्तौड़ की शक्तियां आज पहले से भी निर्बल हो चुकी थीं। अलाउद्दीन की विशाल सेना के साथ जिन राजपूत वीरों और सरदारों ने युद्ध करके उसे दिल्ली लौट जाने के लिए विवश किया था, आज चित्तौड़ के दुर्भाग्य से संसार में न थे। उनमें से अधिकांश पहले के युद्ध में ही चित्तौड़ की स्वाधीनता की रक्षा में अपने प्राणों का बलिदान दे चुके थे। इन दिनों में राणा लक्ष्मशसिंह चित्तौड़ के सिंहासन पर था, परंतु युद्ध में अधिक वीर और बहादुर न था। चित्तौड़ की मर्यादा और स्वाधीनता को सुरक्षित रखने के लिए जिस प्रकार के शक्तिशाली राजा की आवश्यकता थी, उसका आज भी चित्तौड़ में अभाव था। इतना सब होने पर भी जब मालुम हुआ कि दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने एक बहुत बड़ी सेना लेकर फिर चित्तौड़ पर आक्रमण किया है तो चित्तौड़ के राजपुतों का खून खौलने लगा। चित्तौड़ एक छोटा-सा राज्य था और उसी हिसाब से उसकी एक छोटी-सी सेना थी, परन्तु उस सेना के राजपूत सैंनिकों और सरदारों में उत्साह का प्रभाव न था। मुस्लिम सेना के आगमन और आक्रमण की बात सुनते ही राजपूत वीरों ने एक बार अपनी लटकती हुईं तलवारों की ओर देखा और युद्ध के भयानक दृश्यों का वे स्मरण करने लगे। पिछले युद्ध की समस्त घटनायें आज फिर उनके सामने ताजा हो उठीं। उनके मुख से एक बार निकल गया, हम युद्ध में बलिदान हो सकते हैं। दिल्ली का बादशाह अब हमें धोखा नहीं दे सकता। राणा लक्ष्मण सिंह के हृदय में साहस और उत्साह दोनों की कमी थी। मुस्लिम सेना के द्वारा चित्तौड़ के घेरे जाने पर उसका हृदय घबरा उठा। अनेक प्रकार की चिन्तनायें करने के बाद भी वह स्वयं कुछ निर्णय न कर सका। अपनी निर्बलता और अयोग्यता के कारण उसे चित्तौड़ का भविष्य भयानक संकटमय दिखायी देने लगा। चित्तौड़ में युद्ध की घोषणा किसी भी अवस्था में युद्ध करना पड़ेगा, राणा लक्ष्मण सिह की समझ में यह आ गया। उसने अपने मन्त्रियों, सरदारों और सेना के शूरवीरों के साथ बैठ कर परामर्श किया और अन्त में सभी ने उत्साह के साथ युद्ध करने का निर्णय किया। युद्ध का निर्णय करते ही चित्तौड़ में सेना की तैयारी आरम्भ हो गयी और युद्ध के बाजों के साथ चित्तौड़ की राजपूत सेना मुस्लिम सेना के साथ संग्राम करने फे लिए रवाना हुई। चित्तौड़ की सीमा पर दोनों ओर की फौज का आमना-सामना हुआ और युद्ध आरम्भ हो गया। कई दिनों के बाद राजपूत रण-स्थल पर कमजोर पड़ने लगे। उनकी संख्या लगातार कम होती जाती थी लेकिन उसके बाद राजपूत सेनिकों ने अपनी बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित किया और तुर्क सेना के साथ फिर जम कर उन्होंने युद्ध किया। राणा लक्ष्मण सिह के बारह पुत्र थे, इस लगातार युद्ध में उसके ग्यारह लड़के जान से मारे गये, बारहवें लड़के को युद्ध में भेजने के समय राणा लक्ष्मण सिंह स्वयं तैयार हुआ। उसने समझ लिया कि युद्ध का अब अन्तिम समय है। उसने यह भी समझ लिया कि बादशाह के मुकाबले में इस बार चित्तौड़ की पराजय होना निश्चित है। इसलिए अन्त में आने वाली परिरिथतियों के लिए हमें और समस्त चित्तौड़ के निवासियों को तैयार हो जाना चाहिये। चित्तौड़ की चिता राणा लक्ष्मण सिंह ने अपने मन्त्रियों और सरदारों को बुला कर परामर्श किया और निश्चय किया कि शत्रु के प्रचंड आक्रमण से चित्तौड़ की रक्षा का अब॒ कोई उपाय दिखायी नहीं देता। हमारी छोटी-सी राजपूत सेना, बादशाह की इस विशाल सेना को अब अधिक समय तक युद्ध में रोक न सकेगी। अतएवं हमें पहले से ही ऐसी व्यवस्था कर लेनी चाहिए जिससे मुसलमान बादशाह चित्तौड़ की मर्यादा भंग न कर सके। राणा लक्ष्मण सिंह ने अन्त:पुर में जाकर रानियों और राज-परिवार की स्त्रियों तथा लड़कियों को बताया कि चित्तौड़ के सामने आज वह भयंकर समय आ पहुँचा है, जिसमें उसकी स्वाधीनता सुरक्षित न रह सकेगी और अन्त में विजयी बादशाह के सैनिक जिस नृशंसता का यहाँ पर प्रदर्शन करेगे, उसे पहले से समझ लेना चाहिये। बाहर से लेकर भीतर तक, यह युद्ध हम लोगों की बलि चाहता है। अपनी बात को समाप्त करके लक्ष्मण सिह अन्तःपुर से विदा हुआ। राजनिवास के बीचो-बीच, प्रथ्वी के नीचे एक बड़ी सुरंग थी। उसे खोला गया दिन के समय भी उसमें घना अन्धकार रहता था। साल की लकड़ियों के द्वारा उस सुरंग के भीतर एक विस्तृत चिता बनायी गयी और जीवनोत्सग के ओजस्वी गाने गाती हुई अन्त:पुर की समस्त रानियां, राज-परिवार की स्रियों और लड़कियों ने उस सुरंग में प्रवेश किया। राजमहल से एक-एक स्त्री और लड़की के सुरंग में चले जाने के बाद, लोहे के वजनी कपाट से सुरंग का द्वारा बन्द कर दियाऔर चिता में आग दे दी गई। एक साथ आग की भयानक लपटें निकलीं और उन लपटों में चित्तौड़ की कई हजार ललनाओ ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दीं। चित्तौड़ के बाहर तुर्क सेना के साथ, वीर राजपूत भयंकर युद्ध करके अपनी स्वाधीनता के बलिदान हो रहे थे और चित्तौड़ के भीतर श्रन्तः:पुर के नीचे पृथ्वी में चित्तौड़ की अनगिनत ललनाओं की चिता प्रज्वलित हो रही थी। इसके बाद राणा लक्ष्मण सिह ने अपनी सेना के साथ युद्ध में जाने की तैयारी की। चित्तौड़ की स्वर्गीय विभूतियाँ भस्मीभूत हो चुकी थी। चित्तौड़ के किसी राजपूत के सामने अब अपने प्राणों का कोई मोह न रह गया था। राणा लक्ष्मणसिंह ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया। अलाउद्दीन खिलजी का चित्तौड़ पर आक्रमण का अन्त और परिणाम किले का फाटक खोलकर चित्तौड़ की आखिरी सेना बाहर निकली ओर अपने प्रचण्ड विक्रम के साथ वह शत्रु की विशाल सेना पर टूट पड़ी। दोनों शोर से भीषण मार आरम्भ हुई ओर रणोन्मत राजपूतों की भयंकर तलवारों से बहुत से तुर्क सैनिक मारे गये। युद्ध का यह अन्तिम समय था और राजपूतों को अब जीवित रहने की कोई अभिलाषा बाकी न रह गयी थी। युद्ध में शत्रु के साथ अपनी शक्तियों का अन्तिम प्रदर्शन करके और जी भर कर विशाल शत्रु सेना का संहार करके वे अब संसार से बिदा होना चाहते थे। इस समय उनकी भुजाओं में अपूर्व बल था और उनके अद्भुत साहस ने कुछ समय के लिए शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिये। राजपुतों की छोटी-सी सेना की भीषण मार के सामने बादशाह अलाउद्दीन की तुर्क सेना कई बार पीछे हट कर दूर तक चली गयी और एक बार तो अलाउद्दीन को अपनी पराजय के स्पष्ट लक्ष्मण दिखायी देने लगे। लेकिन उसके बाद तुर्क सेना ने फिर सम्हल कर युद्ध किया और राजपूत सैनिक जितना आगे बढ़ गये थे, फिर हट कर पीछे की तरफ आ गये। बहुत समय तक युद्ध की यही अवस्था चलती रही। इस भयानक संग्राम में दोनों ओर से बहुत-से सैनिक मारे गये। युद्ध क्षेत्र में रक्त प्रवाहित हो रहा था और वीर सैनिकों के कटे हुए शरीरों से जमीन पट गयी थी। सर्वत्र लाशों के ढेर दिखायी देते थे। राजपूत सेना अब कमजोर पड़ने लगी। उसमें अब सैनिकों की संख्या बहुत कम रह गयी थी। इसी समय तुर्क सेना ने जोर किया, राजपूत पीछे हटने लगे। तुर्क सेना ने राजपूतों को घेरना आरम्भ कर दिया। शूरवीर क्षत्रियों ने युद्ध के मैदान से भागने का इरादा नहीं किया। उन्होंने अपने जीवन का अन्तिम समय समझ लिया और आस-पास से घेरे हुए तुर्क सैनिकों पर उन्होंने अपनी तलवारों तथा भालों की एक बार फिर भयानक मार की।बहुत-से मुस्लिम सैनिक जख्मी हो कर जमीन पर गिर गये। इसके बाद ही बादशाह की सेना ने जोर का आक्रमण किया राजपूत सैनिक मारे गये। राणा लक्ष्मण सिह का शरीर भी धराशायी हुआ। बादशाह अलाउद्दीन की तुर्की सेना राजपूतों का नाश करके विजय का पताका फहराती हुई आगे बढ़ी। समस्त चित्तौड़ शमशान हो रहा था। अलाउद्दीन ने अपनी सेना के साथ चित्तौड़ में प्रवेश किया और वह जब राज भवन को को पार कर राजमहलों की तरफ आगे बढ़ा तो भयावक शमशान के सिवा वहाँ पर उसे कुछ दिखायी न पड़ा। उसने राजकुमारियों और रानियों के ऊँचे प्रसाद की ओर बढ़ कर देखा। शमशान की भीषणता में सुरंग के भीतर से चिता के निकलते हुए धुआँ के सिवा, वहाँ पर उसे और कुछ न मिला। निर्जन और नीरव चित्तौड़ की शमशान भूमि पर बड़ी देर तक घूमकर बादशाह अपनी सेना के साथ लौटा और अपनी छावनी में जाकर उसने मुकाम किया। रात को विश्राम करके दूसरे ही दिन अलाउद्दीन अपनी सेना लेकर दिल्ली की ओर रवाना हुआ। लौटने के समय उसके सामने प्रसन्नता न थी। ऐसा मालूम होता था, जैसे विजयी होने के बाद भी, वह पराजय की एक असहय अवस्था को लेकर दिल्ली वापस जा रहा है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- झेलम का युद्ध - सिंकदर और पोरस का युद्ध व इतिहास झेलम का युद्ध भारतीय इतिहास का बड़ा ही भीषण युद्ध रहा है। झेलम की यह लडा़ई इतिहास के महान सम्राट Read more चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध - सेल्यूकस और चंद्रगुप्त का युद्ध चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध ईसा से 303 वर्ष पूर्व हुआ था। दरासल यह युद्ध सिकंदर की मृत्यु के Read more शकों का आक्रमण - शकों का भारत पर आक्रमण, शकों का इतिहास शकों का आक्रमण भारत में प्रथम शताब्दी के आरंभ में हुआ था। शकों के भारत पर आक्रमण से भारत में Read more हूणों का आक्रमण - हूणों का इतिहास - भारत में हूणों का शासन देश की शक्ति निर्बल और छिन्न भिन्न होने पर ही बाहरी आक्रमण होते है। आपस की फूट और द्वेष से भारत Read more खैबर की जंग - खैबर की लड़ाई - महमूद गजनवी और अनंगपाल का युद्ध खैबर दर्रा नामक स्थान उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा और अफ़ग़ानिस्तान के काबुलिस्तान मैदान के बीच हिन्दुकुश के सफ़ेद कोह Read 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