चन्द्रवाड़ अतिशय क्षेत्र प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर – चन्दवार का प्रसिद्ध युद्ध, इतिहास Naeem Ahmad, April 18, 2020March 11, 2023 चन्द्रवाड़ प्राचीन जैन मंदिर फिरोजाबाद से चार मील दूर दक्षिण में यमुना नदी के बांये किनारे पर आगरा जिले में अवस्थित है। यह एक ऐतिहासिक नगर रहा है। आज भी इसके चारों ओर मिलों तक खंडहर दिखाई पडते है। यह एक जैन अतिशय क्षेत्र है। तथा प्राचीन समय में जैन धर्म का मुख्य केंद्र भी रहा है। Contents1 चन्द्रवाड़ का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ चंदावर2 चंदावर का युद्ध इन हिंदी – चन्दवार का प्रसिद्ध युद्ध – चन्दवार का इतिहास2.0.1 प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर2.0.2 जैन धार्मिक स्थलों पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—- चन्द्रवाड़ का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ चंदावर वि.स. 1042 में यहां का शासक चंद्रपाल नामक दिगंबर जैन पल्लीवाल राजा था। कहते है कि उस राजा के नाम पर ही इस स्थान का नाम चन्द्रवाड़ या चन्दवार या चंदावर पड़ गया। इससे पहले इस स्थान का नाम असाई खेड़ा था। इस नरेश ने अपने जीवन में कई प्रतिष्ठिता कराई। वि.स. 1053 में इसने एक फुट आवगाहना की भगवान चन्द्रप्रभ की स्फटिक मणि की पदमासन प्रतिमा की प्रतिष्ठता करायी। इस राजा के मंत्री का नाम रामसिंह हारूल था, जो लम्बकचुक था। इसने भी वि.स. 1053 — 1056 में कई प्रतिष्ठाएं करायी थी। इसके द्वारा प्रतिष्ठित कतिपय प्रतिमाएं चन्द्रवाड़ के जैन मंदिर में अब भी विद्यमान है। ऐसे भी उल्लेख प्राप्त होते है। कि चंदावर में 51 प्रतिष्ठाएं हुई थी। इतिहास ग्रंथों से ज्ञात होता है कि चन्द्रवाड़ में 10वी शताब्दी से लेकर 15-16वी शताब्दी तक जैन नरेशों का ही शासन रहा है। इन राजाओं के मंत्री प्रायः लम्बकचुक या जैसवाल होते थे। इन मंत्रियों ने भी अनेक जैन मंदिरों का निर्माण और मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करायी। इन राजाओं के शासन काल में यह नगर जैन और धन धान्य से परिपूर्ण था। नगर में अनेक जैन मंदिर थे। राजा सम्भरी राय के समय यदुवंशी साहू जसरथ या दशरथ उनके मंत्री थे। जो जैन धर्म के प्रतिपालक थे। सम्भरी राय के पुत्र सारंग नरेन्द्र के समय जसरथ के पुत्र गोकुल और कर्णदेव मंत्री बने। बाद में वसाधर मंत्री बनाए गये। कविवर धनपाल कृत ने अपने चरित्र “बाहुबली” (1454) में लिखा है कि उस समय चन्द्रवाड़ में चौहान वंशी सारंग नरेश राज्य कर रहे थे। यहां के कुछ राजाओं के नाम इस प्रकार मिलते है जो चौहान वंशी थे— सम्भरी राय, सारंग नरेन्द्र, अभय चंद्र, जयचन्द, रामचन्द्र। इनके लम्बकचुक मंत्रियों के नाम इस प्रकार मिलते है। साहू हल्लण, अमृतपाल, साहू सेढू, कृष्णादित्य। ये सब जैन थे। अमृतपाल ने एक सुंदर जैन मंदिर बनवाया था। कृष्णादित्य ने रायवद्दिय के जैन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। वि.स. 1230 में कविवर श्रीधर ने “भविसयत्त कहा” की रचना इसी नगर में की थी। उन्होंने इस ग्रंथ की रचना चन्दवार नगर निवासी माथुरवंशी साहू नारायण की पत्नी रूप्पिणी देवी के अनुरोध से की थी। चन्द्रवाड़ दिगंबर जैन मंदिर चन्द्रवाड़ के निकट ही रपरी नामक एक स्थान है। यहाँ भी जैन राजा राज्य करते थे। जैसवाल कवि लक्ष्मण ने रायवद्दिय (रपरी) का वर्णन किया है। यह कवि त्रिभुवनगीरि का रहने वाला था। यह स्थान बयाना से 14 मील है। सूरसेन वंशी राजा तहनपाल ने सन् 1043 में विजयगढ़ (बयाना) या श्रीपथ बसाया था। और उसके पुत्र त्रिभुवन पाल ने त्रिभुवनगीरि बसाया। इसी का नाम बिगड़ कर तहनगढ़ बन गया। जब सन् 1196 में मुहम्मद गौरी ने इस पर आक्रमण करके अधिकार कर लिया और अत्याचार किये तो कवि लक्ष्मण वहां से भागकर बिलराम (एटा जिला) में पहुंचे। यहां कुछ समय ठहर कर वे रपरी आ गये। उस समय यहां का राजा आहवमल्ल था, जो चन्द्रवाड़ नगर के चौहान वंश से संबंधित था। इसी ने सर्वप्रथम रपरी को अपनी राजधानी बनाया था। इसी राजा के मंत्री कृष्णादित्य की प्रेरणा से कवि ने 1313 में “अणुवय रयण पईव” ग्रंथ की रचना की। जब मुहम्मद गौरी ने यहां आक्रमण किया, उस समय यहां का राजा रपरसेन था। वह गौरी के साथ युद्ध करखा नामक स्थान पर मारा गया। यहां उस काल में जैनों की आबादी बहुत थी। चंदावर का युद्ध इन हिंदी – चन्दवार का प्रसिद्ध युद्ध – चन्दवार का इतिहास इस नगर का अपना ऐतिहासिक महत्व भी रहा है। और यहां के मैदानों तथा खारों में कई बार इस देश की भाग्य लिपि लिखी गई है। यहां कई बार तो ऐसे इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुए है। जो भारत पर शासन सत्ता और आधिपत्य के लिए भी निर्णायक हुए। चन्दवार का युद्ध भी उसी में से एक है। इतिहास ग्रंथों से ज्ञात होता है कि चन्दवार मे एक अभेद्य किला था। सन् 1194 में मुहम्मद सहाबुद्दीन गौरी कन्नौज और बनारस की ओर बढ़ रहा था। कन्नौज नरेश जयचन्द, गौरी के उद्देश्य को समझ गया और उसे कन्नौज पर आक्रमण करने से रोकने के लिए भारी सैन्य दल लेकर चंदावर के मैदानों में आ डटा। यहां दोनों सेनाओं के बीच ऐतिहासिक विध्वंसक चन्द्रवाड़ का युद्ध हुआ। जयचन्द हाथी पर बैठा हुआ सैन्य संचालन कर रहा था। तभी शत्रु का एक तीर आकर जयचन्द को लगा और वह मारा गया। जयचन्द की सेना भाग खडी हुई। गौरी की सेना चन्द्रवाड़ नगर पर टूट पड़ी। खूब लूटपाट हुई मंदिर देवालयों को खंडित किया गया। कहते है कि यहां से गौरी लूट का सामान पन्द्रह सौ ऊंटों पर लादकर ले गया था। इसी से चन्दवार की उस समय वैभवता का अंदाजा लगाया जा सकता है। दिगंबर जैन मंदिर चन्दवार प्रतिमाएं सन् 1389 में सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने चन्द्रवाड़ के निकटस्थ आधिकांश नगर चंदावर और रपरी पर अधिकार कर लिया। उसके पोते तुगलक शाह ने चन्दवार को बिल्कुल नष्ट भ्रष्ट कर दिया। जो मूर्तियां बचायी जा सकी वे यमुना की धारा में छिपाकर बचा ली गई, जो रह गई वह नष्ट कर दी गई। लोदी वंश के शासन काल में चन्द्रवाड़ और रपरी कई जागीरदारों ने शासन किया। सन् 1487 में बहलोल लोदी से रपरी में जौनपुर के नवाब हुसैन खाकी से करारी मुठभेड़ हुई, जिसमें नवाब बुरी तरह हारा। सन् 1489 में सिकंदर लोदी ने चन्द्रवाड़ इटावा की जागीर अपने भाई आलम खां को प्रदान कर दी। उसने रूष्ट होकर बाबर को बुला भेजा। बाद में चंदावर में हुमायूं ने सिकंदर लोधी को हरा दिया। शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर चन्द्रवाड़ पर अधिकार कर लिया। प्रजा में विद्रोह होने पर शेरशाह ने हातिकान्त में रहकर विद्रोह को दबा दिया। धीरे धीरे चन्दवार और उसके आसपास रपरी, हतिकांत आदि स्थान जहाँ कभी जैनों का वर्चस्व और प्रभाव था वे अपना प्रभाव खोते गये। उनकी समृद्धि नष्ट हो गयीं। ये विशाल नगर दुर्भाग्य चक्र में फंसकर आज मामूली गांव रह गया है। जहां थोडे कच्चे पक्के घर और चारों ओर प्राचीन खंडहर बिखरे पड़े है। जो इसके प्राचीन वैभव और स्मारक के साक्षी है। प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर यह क्षेत्र फिरोजाबाद से चार मील की दूरी पर है। कच्चा मार्ग है। केवल एक मंदिर ही अवशिष्ट है। जो गांव के एक कोने में खड़ा है। निकट ही यमुना नदी बहती है। यहां चारो ओर खादर और खार बने हुए है। यहां बस्ती में कोई जैन घर नहीं है। मंदिर में दो चार सेवक ही रहते है। यहां का प्रबंध फिरोजाबाद की दिगंबर जैन पंचायत करती है। यहां वर्ष में कुछ गिने चुने जैन भक्त ही आते है। अन्यथा तो यह नितांत उपेक्षित पड़ा हुआ है। कुछ वर्षों पहले मंदिर की स्थिति काफी दयनीय थी हालांकि भक्तों के प्रयासों से निरंतर बदलाव होता जा रहा है। इस प्राचीन मंदिर को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि इस मंदिर और यहां की मूर्तियों ने समृद्धि के उस काल का भोग किया है जहां भक्तों की पूजा और स्तुति गानो ,उत्सव और विधानों से यह सदा गुंजरित और मुखरित रहता था, मंदिर में प्रवेश करते ही सहन पड़ता है। जिसके दो ओर दलान बने है। उसके आगे एक विशाल गर्भालय है। गर्भालय में प्रवेश करते ही मुख्य वेदी मिलती है। वेदी चार फुट ऊंची एक एक चौकी पर बनी है। वेदी पाषाण की है। और उसके आगे पक्का चबुतरा बना हुआ है। प्राप्त खंडित प्रतिमाएं इस वेदि के अतिरिक्त दाये और बाये दालान में तथा दो वेदियां मुख्य वेदि के पिछे दीवाल में बनी हुई है। बायी ओर के दालान की वेदी में बलुआ भूरे पाषाण की एक पदमासन प्रतिमा विराजमान है। आवगाहना तीन फुट है। सिंहासन पीठ पर सामने दो सिंह बने है। सिर के ऊपर पाषाण का छत्र सुशोभित है। लांछन और लेख अस्पष्ट है। मुख्य वेदि के पृष्ठ भाग में स्थित बायी वेदी में बलुआ भूरे पाषाण की ढाई फुट ऊंची पदमासन प्रतिमा है। नीचे सिंहासन फलक पर दो सिंहों के साथ बीच वृषमका अंकन है। जिससे स्पष्ट है कि यह आदिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा है। दोनों ओर चमरवाहक इंद्र है। सिर के ऊपर छत्र और पुष्प वर्षीणी देवियाँ अंकित है। पृष्ठ भाग की दायी वेदी में कतथई पाषाण की की ढाई फुट अवगाहन वाली पदमासन ऋषभदेव की प्रतिमा है। दोनों ओर कंधों पर जटाएँ पडी है। सिर के ऊपर छत्र है। छत्र के दोनों ओर गजराज अपनी सूंड से कलश उठाये हुए भगवान का अभिषेक करते दिख रहे है। उपयुक्त सभी मूर्तियाँ प्रायः वि.स. 1043 और 1056 की है। और यहां के राजा चन्द्रपाल के मंत्री रामसिंह हारूल द्वारा प्रतिष्ठित जान पड़ती है। इस पुरातन क्षेत्र का उसके मंदिरों और मूर्तियों का विध्वंस कुछ धर्मोन्त शासकों द्वारा बहुत बुरी तरह किया गया। उनके भग्नावशेष नगर के चारो ओर अब भी बिखरे हुए मिल जाते है। इन अवशेषों के नीचे और मल्लाहों की बस्ती के आसपास अब भी कभी कभी जैन प्रतिमाएं निकलती है। फिरोजाबाद के मंदिरों में यहां से निकली हुई कई प्रतिमाएं विराजमान है। जैन धार्मिक स्थलों पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—- श्रवणबेलगोला कर्नाटक मे स्थित प्रमुख जैन तीर्थ स्थल बैंगलोर से 140 कि.मी. की दूरी पर, हसन से 50 किमी और मैसूर से 83 किलोमीटर दूर, श्रवणबेलगोला दक्षिण भारत पावापुरी जल मंदिर का इतिहास – पावापुरी जैन तीर्थ हिस्ट्री इन हिन्दी राजगीर और बौद्ध गया के पास पावापुरी भारत के बिहार राज्य के नालंदा जिले मे स्थित एक शहर है। यह नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास – Nalanda university history in hindi बिहार राज्य की राजधानी पटना से 88 किमी तथा बिहार के प्रमुख तीर्थ स्थान राजगीर से 13 किमी की दूरी पारसनाथ का किला बढ़ापुर का ऐतिहासिक जैन तीर्थ स्थल माना जाता है उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में नगीना रेलवे स्टेशन से उत्तर पूर्व की ओर बढ़ापुर नामक एक कस्बा है। वहां त्रिलोक तीर्थ धाम बड़ागांव – बड़ा गांव जैन मंदिर खेडका का इतिहास त्रिलोक तीर्थ धाम बड़ागांव या बड़ा गांव जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। यह स्थान दिल्ली सहारनपुर सड़क शौरीपुर बटेश्वर श्री दिगंबर जैन मंदिर – शौरीपुर का इतिहास शौरीपुर नेमिनाथ जैन मंदिर जैन धर्म का एक पवित्र सिद्ध पीठ तीर्थ है। और जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर भगवान आगरा जैन मंदिर – आगरा के टॉप 3 जैन मंदिर की जानकारी इन हिन्दी आगरा एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर है। मुख्य रूप से यह दुनिया के सातवें अजूबे ताजमहल के लिए जाना जाता है। आगरा धर्म मरसलगंज प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर आतिशय क्षेत्र तीर्थ श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र मरसलगंज (ऋषभनगर) उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में फिरोजाबाद से 22 किलोमीटर दूर है। यहां अब कम्पिल का इतिहास – कंपिल का मंदिर – कम्पिल फेयर इन उत्तर प्रदेश कम्पिला या कम्पिल उत्तर प्रदेश के फरूखाबाद जिले की कायमगंज तहसील में एक छोटा सा गांव है। यह उत्तर रेलवे की अहिच्छत्र जैन मंदिर – जैन तीर्थ अहिच्छत्र का इतिहास अहिच्छत्र उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित है। आंवला स्टेशन से अहिच्छत्र क्षेत्र सडक मार्ग द्वारा 18 देवगढ़ का इतिहास – दशावतार मंदिर, जैन मंदिर, किला कि जानकारी हिन्दी में देवगढ़ उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में बेतवा नदी के किनारे स्थित है। यह ललितपुर से दक्षिण पश्चिम में 31 किलोमीटर दिल्ली के जैन मंदिर – श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर, नया मंदिर, बड़ा मंदिर दिल्ली दिल्ली भारत की राजधानी है। भारत का राजनीतिक केंद्र होने के साथ साथ समाजिक, आर्थिक व धार्मिक रूप से इसका भारत के प्रमुख धार्मिक स्थल उत्तर प्रदेश तीर्थ स्थलजैन तीर्थ स्थल