जहां तक समय बतान वाले उपरकण के आविष्कार का प्रश्न है, उसका आविष्कार किसी वैज्ञानिक ने नहीं किया। यूरोप की ओद्यागिक क्रांति ने घड़ी के रूप में, निर्माण में परिवर्तन अवश्य किया था लेकिन उसका आविष्कार बहुत पहले ही हो चुका था।
विश्व की सबसे पहली घड़ी संभवतः सेंट आगस्टिन की पुस्तक घड़ी थी। आगस्टिन अपनी इस प्रार्थना पुस्तक के कुछ निश्चित पृष्ठ, निश्चित समय में पढ़ लेते थे ओर उसके बाद गिरजाघर का घंटा बजा दते थे। इस प्रकार वे पुस्तक का उपयोग घडी के रूप में करते थे। लेकिन एक दिन वे पढते-पढ़ते थककर ऐसे सोये कि सुबह का घंटा बजा न सके और सारा नगर सोता रहा। तब लोगों का ध्यान सूरज की तरफ गया। लोगा ने सूरज के उदय होने, अस्त होने और फिर निकलने के समय को चौबीस भागों में विभाजित किया फिर सूरज की परछाईं की लम्बाई को माप कर सूर्य घड़ी बनाने का प्रयास किया। यूनानियों ने सूर्य के आधार पर जो घड़ी बनायी उसमें सूईया नही थी। अंको पर सूर्य की छाया घड़ी के केन्द्र में लगे एक स्तम्भ के माध्यम से पडती थी।
घड़ी का आविष्कार किसने किया और कब हुआ
ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व बेबीलोन में अर्ध गोलाकार सूर्य घड़ी का निर्माण किया गया। इसका निर्माण बरासम नामक एक ज्यातिषी ने किया था। इसके बाद रात में समय थी जानकारी प्राप्त करने के लिए चंद्रमा को आधार बनाकर चंद्र-घड़ी का आविष्कार किया गया। आज भी आधुनिक घडियो का समय ठीक करने के लिए सूर्य और चंद्र का ही सहारा लिया जाता है।
समय की जानकारी पाने के लिए तीसरा साधन पानी बना। जल-घड़ी का आविष्कार भी सबसे पहले बेबीलोन में ही हुआ। एक बडे से बर्तन के पानी को चौबीस भागों में बांट कर तथा बर्तन मे चौबीस चिन्हों को अंकित किया गया। बर्तन के नीचे छोटा छेद किया गया, जिसमे से पानी बूंद-बूंद कर टपकता था ओर एक घटे के चिन्ह पर आते ही उतने समय का घंटा बजाकर समय की सूचना दे दी जाती थी। लगभग 1150 वर्ष पहले बगदाद के प्रसिद्ध सम्राट हारून अल रशीद द्वारा महान सम्राट शार्लेमेन को एक जल-घड़ी भेंट में दी गयी थी। जल-घडियों का उपयोग हर जगह पर किया जा सकता था। जबकि सूर्य और चंद्र-घडियां बादलों के छा जाने पर बेकार हो जाती थी। जल-घडी के समान ही दूध-घडी का भी कुछ समय तक प्रचलन रहा।

उसके बाद रेत-घड़ी का आविष्कार हुआ। एक चिन्हित बर्तन में रेत भरकर रखी जाती थी। यह बर्तन शकु-आकार का होता था। इसके नीचे एक छेद से धीरे-धीरे रेत निकलता रहता था। उसके बाद अग्नि-घड़ी का आविष्कार हुआ। अग्नि-घड़ी के रूप मे दीपक ओर मोमबत्ती का प्रयोग किया जाता था। इन घडियो को यूरोप मे जल-घडियो से ज्यादा प्रयोग होता था। चीन में अब भी कुछ स्थानों पर अग्नि-घडी का इस्तेमाल होता है।
आज से लगभग 2000 वष पहले रोम के एक प्रसिद्ध घड़ी-साज केसीवायस ने स्वय चलने वाली घड़ी का निर्माण किया था। वह जल-घड़ी निर्माता था। उसने विद्युत और भाप के अभाव में अपनी घड़ी के संचालन के लिए पानी ओर हवा का प्रयोग किया। इस घडी में सूई के स्थान पर एक छोटी छडी लगी थी, जिसे एक लडका पकड़े हुए दिखाया गया था। उसने इस घडी के कल-पुर्जे बडे परिश्रम से बनाए थे।
यूरोप मे सबसे पहले सम्राट एडवर्ड प्रथम ने लंदन के संसद-भवन पर घड़ी लगाने का आदेश दिया। इस घड़ी का नाम था-‘बिग टॉप’। अपने किस्म की यह विश्व की सबसे बडी कल-पुर्जों वाली घड़ी मानी जाती थी। इस घड़ी ने लगभग चार सा वर्षों तक लंदन वासियो को समय से अवगत कराया। उसके बाद इस घड़ी की जगह एक दूसरी घड़ी लगाई गई। जिसका नाम बिगबैन था। यह आज भी लगी हुई है। शुरुआत में मेकेनिकल घड़ियों में केवल घंटे वाली सूई हुआ करती थी। मिनट और सेकेंड वाली सूई नहीं होती थी।
करीब 500 वर्ष पहले छोटी घड़ियों का निर्माण शुरू हुआ और केवल 200 वर्ष पहले की बनी घड़ियां ही इस काबिल हो सकी की मिनट और सेकेंडों का सही समय बता सके। 500 वर्ष पहले जो पहली घड़ी बनाई गई थी उसमें बार के स्थान पर मैं स्प्रिंग का पहली बार इस्तेमाल किया गया। इससे पहले सूई घुमाने के लिए भारत पेंडुलम का उपयोग किया जाता था। इसी कारण छोटी घड़ियों को बनाना भी असंभव जान पड़ता था। न्यूरेमबर्ग के अंडे के आकार की घड़ियों का निर्माण हुआ, जो न्यूरेमबर्ग के अंडे के नाम से मशहूर हुई। परंतु ये घड़ियां ठीक समय बताने में असफल सिद्ध हुई। अन्य कई जगहों पर बहुत अच्छे किस्म की घड़ियां बनने लगी। फूल, तितली, क्रास, गोलाकार, तिकोनी आदि जाने कितने आकार प्रकार की घड़ियां बनने लगी।
सन् 1500 में एक जर्मन पीटर हेनलीन नामक ताला बनाने वाले ने इस्पात की पत्ती की स्प्रिंग का उपयोग कर छोटी घड़ी बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। भार के स्थान पर स्प्रिंग के उपयोग से घड़ी का भार और आकार बहुत घट गया। इसके बाद 1658 के लगभग हॉलैंड के एक महान वैज्ञानिक क्रिस्चियन ह्यूजेन्स ने एक पेंडुलम का उपयोग करते हुए यांत्रिक घड़ी बनाई, यह लोलक बार चालित ने होकर स्प्रिंग चालित था। इसी प्रकार धीरे धीरे अच्छे किस्म के स्प्रिंग बनने लगे। कलाई घड़ियों के लिए चपटे संतुलन पहिए (बैलेंस व्हील) से चालित कैश स्प्रिगों ने ले लिया। इस प्रकार कलाई घड़ीयों का विकास हुआ।
आजकल एक से एक बढ़िया घड़ियां बनने लगी है। इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों में यांत्रिक घड़ियों की तरह समय में परिवर्तन नहीं होता। वह एक छोटे से बटननुमा सेल से वर्ष भर तक निर्दोष समय देती है। अब घड़ियों में तारीख और वार जानने की भी व्यवस्था होती है। विद्युत घड़ी का भी आविष्कार हुआ। इन घड़ियों में विद्युत से उत्पन्न 50 साइकल प्रति सेकंड की स्थिर आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) इस्तेमाल की जाती है।
क्वार्ट्ज घड़ियां अत्यन्त सही समय देती है। इनका इस्तेमाल वैज्ञानिक प्रयोग शाला, रेलवे स्टेशन, अस्पतालों आदि स्थानों पर अधिकतर किया जाता है। जहां समय की परिशुद्धता का विशेष महत्व है। क्वार्ट्ज जैसे क्रिस्टलों में यह विशेषता होती है कि जब इन्हें किसी इलेक्ट्रोनिक परिपथ में रखा जाता है, तो ये रेडियो फ्रीक्वेंसी से उत्तेजित किए जाते हैं और एक सी विश्वसनीय गति से कम्पित होते हैं, परंतु काफी पुराने पड़ जाने पर क्वार्ट्ज की परिशुद्धता में भी कमी आ जाती थी।
अतः वैज्ञानिकों का ध्यान अणुओं और परमाणुओं की ओर गया और समय की परिशुद्धता के लिए इन पर परीक्षण शुरू हो गए।
परिणामस्वरूप 1949 में पहली परमाणु घडी का निर्माण हुआ। इस घडी में अमोनिया के अणु का इस्तेमाल किया गया था। अमोनिया के एक अणु के नाइट्रोजन परमाणु एक निश्चित दूरी के-बीच प्रति सेकेंड 2387 बार कम्पित होते हैं। इस प्रकार नाइट्रोजन परमाणु अतिविश्वसनीय गति वाला लोलक माना जाता है। यह अपने दाए-बाए कम्पनों द्वारा ऊर्जा भेजता है, जो क्वार्टज क्रिस्टल की ऊर्जा की तरह एक विद्युत घड़ी में भेजी जाती है। इस प्रकार यह पाया गया है कि अमोनिया परमाणु घडी 5 वर्ष में केवल एक सैकेंड का अंतर देती है।
अन्य प्रकार की परमाणु-घडियों मे सीजियम का गैसीय रूप मे इस्तेमाल किया जाता है। यह घडी अमोनिया घडी से अधिक परिशुद्ध होती है। समय नापने की विद्या में एक अन्य नया आविष्कार है- रेडियो कार्बन घड़ी। प्राचीन काल की वस्तुओ का काल निश्चय करने के लिए इस प्रणाली में नाभिकीय भौतिकी के सिद्धांतो का उपयोग किया जाता है। इस घड़ी की चालक ऊर्जा उस कार्बन- 14 से प्राप्त होती है, जो हजारों साल पूर्व पृथ्वी के वायु मंडल मे से गुजरती अंतरिक्ष किरणों द्वारा निर्मित किया गया था। जब पृथ्वी पर आने वाली अंतरिक्ष किरणें वायुमंडल के ऊपरी परत में स्थित नाइट्रोजन के परमाणुओं से टकराती हैं तो उनमें से कुछ रेडियो एक्टिव कार्बन-14 में बदल जाती है। कार्बन-14 वायुमंडल की आक्सीजन से संयोग कर कार्बन डाई आक्साइड मे बदल जाती है। पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड सोखते है। जीव-जंतु पौधो को खाते हैं तो। इस प्रकार फार्बन-14 उनके ऊतकों मे पहुच जाता है।
पोधें या जीव-जौतु के मरने या नष्ट होने के बाद शरीर मे मौजूद कार्बन-14 रेडियो एक्टिव कणों का उत्सर्जन करता रहता है। इसकी शक्ति को गीगरमूलर काउन्टर द्वारा ज्ञात कर लिया जाता है। समय बीतते जाने पर इसके विकिरण की दर में भी कमी होती जाती है। इस तरह ताजा कार्बन-14 के साथ इस कमजोर पड़ते जा रहे विकिरण की तुलना करके पौधे या जीव-जंतु की उम्र निश्चित की जाती है। रेडियो कार्बन घड़ी से करोड़ो वर्ष पुरानी वस्तुओ, जीव-जंतुओ, पेड़-पौधो आदि की उम्र ज्ञात की जा सकती है।
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