ग्रेगर जॉन मेंडल का जीवन परिचय और ग्रेगर जॉन मेंडल का नियम? Naeem Ahmad, June 6, 2022June 6, 2022 “सचाई तुम्हें बड़ी मामूली चीज़ों से ही मिल जाएगी।” सालों-साल ग्रेगर जॉन मेंडल अपनी नन्हीं-सी बगीची में बड़े ही धैर्य के साथ, ओर बड़ी सावधानी के साथ, मटर की फलियां उगाता रहा। आठ साल गुजर गए ओर तब आकर कहीं 1866 में उसने अपने अनुसंधान को प्रकाशित किया। खेती देखभाल ओर सारी चीज़ का अन्त में विश्लेषण, सभी कुछ वैज्ञानिक ढंग से किया गया था। किन्तु इस प्रकाशन का कोई असर नहीं हुआ। विश्व-भर में कोई भी वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाया कि इन गवेषणाओं का कुछ स्थायी वैज्ञानिक महत्त्व है। फिर भी ‘वंशानुगम’ ()(हेरिडीटी) के अध्ययन का प्रवर्तन वह कर गया। 31 साल बाद सन् 1900 में और ग्रेगर जॉन मेंडल की मृत्यु के भी 16 वर्ष पश्चात् तीन देशों में तीन वैज्ञानिकों ने अलग अलग काम करते हुए मेंडल के भूले काम को हाथ में लिया और उसके महत्त्व को कुछ समझा। और विश्व के सम्मुख तब विज्ञान का एक और दिग्गज आया, जो अपने युग से वर्षो आगे था। ग्रेगर जॉन मेंडल का जीवन परिचय ग्रेगर जॉन मेंडल का जन्म खेतिहरों और मालियों के एक परिवार में जुलाई 1822 में हुआ था। उसकी जन्मभूमि मोराविया थी जो उन दिनों आस्ट्रिया का एक अंग थी किन्तु आजकल चेकोस्लोवाकिया का एक भाग है। बालक का काम था खेतों पर पिता की सहायता करते रहना, किन्तु इसी से उसमें सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति और उसकी गतिविधि के प्रति एक प्रेम-सा जग उठा। कृषिमय यह उसका जीवन संभवत: यह उसकी आनुवंशिक परम्परा उसमें ध्येय के प्रति एक अविचल निष्ठा-सी, कहने को उसे एक जिद भी कहा जा सकता है, प्रेरित कर गई जो आगे चलकर उसके जीवन भर में कभी सहायक, तो कभी बाधक बनकर भी, सदा उपस्थित होती रही। प्रारंभिक शिक्षा के लिए ग्रेगर हाइन्त्सेनदोर्फ गांव के स्थानीय स्कूल में दाखिल हु । हाइन्त्सेनदोर्फ की लेडी के आग्रह पर ही स्कूल में कुछ विशेष शिक्षा का भी समावेश था। स्कूल इन्स्पेक्टर देखकर तंग आ गया कि यहां तो प्रकृति के अध्ययन की व्यवस्था भी है। निहायत बेशरमी की बात है, उसका कहना था। किन्तु इस दुर्व्यवस्था का ही यह एक परिणाम था कि मेंडल को अनुभव हुआ कि प्रकृति भी अध्ययन और विश्लेषण का विषय बन सकती है। हाइन्त्सेनदोर्फ में शिक्षा समाप्त करके योहान पडोस के त्रोपाव कस्बे से जिस्नेजयिम (सेकेण्डरी स्कूल) में दाखिल हो गया। परिवार को गरीब तो नहीं कहा जा सकता था, किन्तु आगे शिक्षा देने के लिए उनके पास पैसा नहीं था। स्कूल की पढाई मेंडल ने समाप्त कर ली। किंतु सात साल के एक बालक की जिज्ञासा वहां पूरी नही हो सकी। खाना भी ठीक नही मिलता था। परिणाम यह हुआ कि बीमारी, मेंडल की पढाई-लिखाई एकदम से बन्द। और इन्ही विकट परिस्थितियो मे पिता एण्टन मेंडल भी एक दुर्घटना का शिकार हो गया और फार्म बेचने के लिए तैयार हो गया। वसूली की कुछ रसीदें एण्टन ने जॉन मेंडलऔर उसकी बहिन थेरीसिया मे बाट दी। बहिन ने अपना हिस्सा भी भाई को दे दिया कि उसकी पढाई-लिखाई और अन्य काम चल सके। चार साल जैसे-तैसे भूखे रहकर ओल्यूत्श में मेंडल ने गुजारे। बहिन के प्रति यह ऋण मेंडल ने उसके बच्चो की शिक्षा का प्रबन्ध करते हुए आगे चलकर कुछ उतार दिया। अब मेंडल नौकरी के लायक हो चुका था। जीवन में इस आर्थिक संघर्ष ने उसके सम्पूर्ण चिन्तन को पर्याप्त प्रभावित किया। एक अध्यापक के परामर्श से आल्तब्रुएन की आगस्टीनियन मॉनेस्टरी में प्रविष्ट हो गया कि उसकी यह आजीविका की समस्या कही स्थायी ही न बन जाए। 21 वे वर्ष में पहुंचकर मेंडल सचमुच इस धार्मिक जीवन को अपना सब कुछ अर्पित कर बैठा और अब उसका दीक्षा-नाम था–ग्रेगर। अगले ही दिन से ग्रेगर जॉन मेंडल के जीवन में शान्ति आ गई। उसके भोजन की अब उचित व्यवस्था हो चुकी थी और जो कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। एक भरा पुरा बगीचा भी वनस्पति सम्बन्धी अध्ययनों के लिए मॉनेस्टरी के पास अपना था। एक वृद्ध पादरी मरने से पहले भूमि का यह टुकडा वैज्ञानिक ढंग से उसमें फूल-पौधे उगाकर विकसित कर गया था। ग्रेगर को इस प्रकार अपनी ही प्रकृति के कुछ व्यक्ति मिल गए जिन्हें धर्मशास्त्र, दर्शन, विज्ञान तथा साहित्य में रुचि थी। और वैज्ञानिक ढंग से उपवन को विकसित करने का शौक भी था। इसी बीच में पादरियों की उचित शिक्षा-दीक्षा की भी उसने उपेक्षा नही की। 1847 में उसका नियमानुसार दीक्षान्त हो गया। कुछ समय ग्रेगर को मॉनेस्टरी छोडकर गांव के एक गिरजे मे नौकरी पर जाना पड़ा। किन्तु दुःख के स्वागीकरण की प्रवृत्ति उसमे इतनी पनप चुकी थी कि किसी मरीज को देखकर, या किसी ऐसे परिवार को सात्वना देते हुए जहां कि कोई मृत्यु हो गई हो, उसकी अपनी तबियत ही बड़ी खराब हो जाया करती थी। परिणाम हुआ कि अधिकारियों ने उसे इस कार्य से मुक्त कराकर फिर मॉनेस्टरी में और बगीची में वापस बुला लिया। स्थानीय सेकेण्डरी स्कूल में पढ़ाने के लिए उसने दरख्वास्त दी। बोर्ड के परीक्षकों ने निश्चय किया कि नियमित रूप से क्लासें लेने की योग्यता इसमें है नहीं, सो एक स्थानापन्न अध्यापक के तौर पर कुछ कम तनख्वाह पाकर वह चाहे तो पढ़ाने आ सकता है। मेंडल ने बोर्ड के सम्मुख फिर इम्तिहान दिया, लेकिन इस दफा फतवा यह दिया गया कि वह तो एलिमेंटरी कक्षाओं को पढ़ाने के लायक भी नहीं है। वह अपने विषय में सिद्धहस्त था,किन्तु उसके दिए उत्तरों को स्वयं स्कूल बोर्ड के लोग समझ सकने में असमर्थ थे। मेंडल का भी आग्रह था अपनी ही परिभाषाओं पर उसे जिद थी कि प्रचलित परिभाषाएं अशुद्ध हैं और अवैज्ञानिक हैं। ग्रेगर जॉन मेंडल एक स्थानापन्न अध्यापक की हैसियत से ही वह सारी उम्र पढ़ाते रहा। स्थायी पद उसे कभी मिला नहीं। क्लासरूम एक सुखद स्थान था, विद्यार्थी उसकी मौजी प्रकृति की ओर आकृष्ट हो गए थे यहां उसे खाना भी अच्छा मिल रहा था। क्लास के वातावरण में वैसे भी कुछ शुष्कता और कठोरता आम तौर से आ जाया करती है। मेंडल आसपास के पशुओं और अरण्यों के निजी पर्यवेक्षणों की कथाएं सुना-सुना कर इसमें कुछ मृदुता लाने की कोशिश करता। अपने विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते रहना भी उसके धर्म का एक अंग था, और विद्यार्थी भी गुरु की नम्रता पर बलि जाते। उसे किसी को भी फेल करना नामंजूर था। कमज़ोर लड़कों को वह अलग वक्त देकर भी कभी पढ़ाने से न कतराता। किन्तु यह सब होते हुए भी मॉनेस्टरी के बगीचे में पौधों के सम्बन्ध में उसके परीक्षणों में विध्न नहीं पड़ना चाहिए, और व्यक्तिगत स्वाध्याय में भी नहीं। इसी बीच में उसका वह प्रसिद्ध निबन्ध भी छप चुका था, किन्तु जरा भी उथल-पुथल उससे तब पैदा नही हुई थी। बाहर की दुनिया उसके बारे में बिलकुल अज्ञान, किन्तु अपने ही साथी पादरियों में सर्वप्रिय जॉन मेंडल को आखिर 47 वर्ष की आयु में मॉनेस्टरी का प्रधान नियुक्त कर दिया गया। महा उपदेशक की इस स्थिति में उसका समय बहुत इधर उधर व्यतीत होने लगा, इसलिए उसने अपनी अध्यापन की नौकरी अनिच्छापूर्वक त्याग दी। विहार का यह नया महन्त बडा ही लोकप्रिय था। खाने-पीने को उसे बहुत अच्छा सामान मुफ्त मे मिलता था, जिसका प्रयोग वह मित्रो के स्वागत में ही कर देता। उत्सव के दिनो मे घर के दरवाज़े खोल दिए जाते और सारे के सारे गांव को ही’श न्योता दे दिया जाता। क्रिसमस की तो बात ही बिलकुल दूसरी थी खूब खाओ और खूब पियो। मेंडल बडा ही दानशील व्यक्ति था, किन्तु गांव की दुखी जनता ने कभी भी उसके मुंह से इसके बारे मे एक भी शब्द नही सुना। इतना विनम्र होते हुए भी उसके जीवन का अन्तिम भाग प्राय सरकार के साथ एक झगड़ा मोल लेने मे ही नष्ट हो गया। विधान-सभा ने एक विधेयक पास कर दिया था कि चर्च की सम्पत्ति पर टैक्स लगाकर गांव के पादरियों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए। मेंडल ने भी माना कि सरकार को इसके लिए पैसे की जरूरत है, और उसने स्वेच्छा से ही कुछ सहायता देना स्वीकार कर लिया, किन्तु उसका विचार था कि कानून में कुछ अनुचित दबाव-सा आ गया है। उसने सरकार के इस कर थोपने के अधिकार का बडे जोर के साथ विरोध किया। सरकार ने भी स्वेच्छादान को अस्वीकृत करते हुए अपने आग्रह को दोहराया। मेंडल के इस संघर्ष का कुछ नतीजा नही निकल सका। कुछ कटुता अवश्य इससे जॉन मेंडल के जीवन में आ गईं, क्योंकि जो भी कोई आकर उसे यह बताने की कोशिश करता कि कानून का पालन तो हर किसी को करना ही चाहिए, उसी पर वह बरस पडता। ग्रेगर जॉन मेंडल की खोज वह परीक्षण जिसकी बदौलत मेंडल की गणना आज इतिहास के प्रमुख वैज्ञानिकों में होती है। उसकी योजना बडे ही मनोयोग पूर्वक की गई थी। हम कभी हैरान नही होते यह देखकर, कि मा-बाप मे एक के भी सिर के बाल अगर लाल रंग के हैं तो बच्चे के भी बाल उसी रंग के है। सम्बन्धी लोग बच्चे को घेरकर खडे हो जाते है और कहते भी है कि “देखो, बिलकुल अपने बाप पर गया है।” इतिहास में जॉन मेंडल ही पहला व्यक्ति था जिसने बताया कि बच्चे में बाप की विशेषताएं किस तरह आ जाती है, पितृ परम्परा के अनुगमन के नियम क्या है। कभी ध्यानपूर्वक आपने अपने माता-पिता को और भाई बहिनों को देखा हो तो नोट किया होगा कि सबका रंग-रूप कुछ-कुछ अलग होते हुए भी सब में कुछ समानताएं भी हैं। सभी कुछ न कुछ एक-से भी लगते है। सदियों से यह एक प्रश्न था जो कि प्राणि-वैज्ञानिकों के लिए एक सिरदर्द बना चला आ रहा था। उन्हे समझ ही नही आया कि विभिन्न प्रवृत्तियो का विभाजन वे किस प्रकार करें। ग्रेगर जॉन मेंडल ने चिन्तन करके इसकी कुछ विधि निकाली और जो अब कितनी सरल प्रतीत होती है कि एक समय में केवल एक ही प्रवृत्ति की परीक्षा करके देखो। ग्रेगर जॉन मेंडल ने अपना सारा ध्यान बगीची में और मटर की फलियों मे प्रवृत्ति-अनुगमन के इस प्रश्न पर केन्द्रित कर दिया। उसने देखा कि कुछ पौधे लम्बे कद के है, कुछ छोटे कद के कुछ फलियां जहां फूटने को थी, वहां कुछ दूसरी फलियां जैसे बढने से इन्कार कर रही हो, बिलकुल पेट के साथ चिपटी हुई। कुछ फीकी पीली तो कुछ चमकदार, और कुछ हरी भी। कुल मिलाकर सात भिन्न भिन्न प्रवृत्तियो को स्पष्ट पृथक किया जा सकता था और कुछ नाम भी दिया जा सकता था। मटरों का चुनाव उसने इसलिए किया था कि इस किस्म की फलियों में उसी फूल की धूल ही उसके रंग को गर्भित करती है। अर्थात, नये पौधे की माता और पिता भी वस्तुत एक ही है। मेंडल को मालूम था कि अगर पौधे के माता-पिता एक ही हो, दो नहीं, तो नया पौधा बिलकुल खालिस (नस्ल का) पैदा किया जा सकता है। उदाहरणतया एक ऊंचे कद का पौधा जब पीढी दर पीढी ऊंचे कद के पौधे ही पैदा करता चलता है, तो उसका मतलब होता है उसके लम्बे कद मे वह खून की पवित्रता बाकायदा कायम है। उसी प्रकार एक नाटे कद का पौधा भी एक शुद्ध नस्ल को सालो कायम रख सकता है। ग्रेगर जॉन मेंडल ने इन सातों प्रवृत्तियो में हरेक में ‘पवित्रता’ मे दोष न आने देने के सफलता पूर्वक परीक्षण किए। और यही कुछ उसकी परीक्षा का ध्येय भी था। परीक्षण में अगला कदम था, अब एक पौधे का गर्भाधान दूसरे पौधे की पुष्पधूलि से करके देखा जाए, पौधो की शुद्धता दूषित न करते हुए, मसलन एक लम्बे कद वाले बाप का एक छोटे कद की मां के साथ सम्पर्क। सैकडो पौधे इस प्रकार उगाकर देखा गया कि सभी पौधें ऊंचे कद के ही है। यह एक गोरख-धन्धा ही बन गया। वह छोटे कद की मां क्या हुई? सन्तान पर उसका कुछ भी असर नही पडा। और गवेषणा इस बार अनेकों पौधों मे फिर विवाह किए गए ऊंचे कद के बाप, और छोटे कद की माएं। फिर वही सबका कद लम्बा। अब इस नई नस्ल के लम्बे कद के पौधों को सयुक्त किया गया, तो तीन पौधे लम्बे, एक छोटा। छोटे कद का असर, एक पीढी प्रसुप्तावस्था में जाकर, फिर उठ खड़ा हुआ। बच्चे की शक्ल कई बार बाप से न मिलकर, दादा से अधिक मिलती देखी जाती भी है। मेंडल की युक्ति अब इस प्रकार थी कि शुद्ध ऊंचा कद और शुद्ध नाटा कद जब मिलते हैं तो सन्तान ऊंचे कद की पैदा होती है, क्योंकि ऊंचे कद की (संभोग) में आभिमुख्यता आ जाती है। नाटा कद नष्ट नहीं हो जाता, दब जाता है। ग्रेगर जॉन मेंडल ने इस नियम को नाम दिया आभिमुख्यता का नियम। परीक्षणों द्वारा उसने यह भी सिद्ध कर दिखाया कि अशुद्ध खून की कुछ औलाद भी शुद्ध हो सकती है। मटर की फलियों में ही देखिए, शुद्ध ऊंचाई और शुद्ध लघुता का परिणाम होता तो एक मिश्रण ही है। अब इन मिश्र-उत्पत्तियों को यदि इकट्ठा कर दिया जाए तो उनकी आधी सन्तति व्यामिश्र होगी, और शेष आधी, और फिर एक-चौथाई, शुद्ध-प्रांशुओं में और शुद्ध-वामतों में बंट जाएगी। यह नियम था मेंडल के शब्दों में विभाजन का नियम। वंशानुगम के प्रश्न का पूर्ण समाधान ग्रेगर जॉन मेंडल नहीं कर गया। आज भी वैज्ञानिक उस पर लगे हुए हैं। किन्तु सभ्य जगत के लिए ग्रेगर जॉन मेंडल के नियमों की उपयोगिता कुछ कम सिद्ध नहीं हुई। इस सदी के शुरू-शुरू में स्वीडन में गेहूं की पैदाइश लगभग चौपट ही हो चली थी। स्वीडन की जलवायु में गेहूं की कुछ किसमें तो खूब फलती-फूलती है, किन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो वहां सर्दी को बरदाश्त नहीं कर सकतीं। और कुछ और किसमें ऐसी भी थीं जो सर्दी में ठिठुरती तो नहीं किन्तु बड़ी ही थोड़ी मात्रा में उनकी उपज हो पाती। मेंडल की गवेषणाओं के एक स्वीडिश अनु रागी निस्सोन-एले ने ऐसी किसमें उसी गेहूं से पैदा करके दिखा दीं जो हमेशा जल्दी ही पकने वाला भी हो और खूब फलने वाला भी हो। जल्दी और खूब, दोनों तरह से, फलने में शुद्ध। एले के एक परीक्षण ने ही सभी ठंडे देशों की गेहूं की समस्या को रातों-रात सुलझा दिया। प्रवृत्तियों के वंशानुगम के नियम मनुष्यों पर भी उसी तरह लागू होते हैं, जिनकी एक सफलता यह भी हो सकती है कि कुछ एक बीमारियों के संक्रमण को हम रोकने में कृतार्थ हो जाएं 1884 में जब ग्रेगर जॉन मेंडल की मृत्यु हुई, किसी ने भी तब अनुभव नहीं किया था कि विज्ञान का एक दिग्गज उठ गया है। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े—- [post_grid id=”9237″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक जीवनी