राजस्थान की राजधानी और गुलाबी नगरी जयपुर के सैंकडो मंदिरो मे गोविंद देव जी मंदिर का नाम दूर-दूर तक श्रृद्धालुओं में प्रसिद्ध है। जो भी हिन्दू यात्री या पर्यटक इस शहर में आता है, वह यहां के अन्य दर्शनीय स्थानों के साथ गोविंद देव जी की झांकी करने के लिए भी अवश्य जाता है। जयपुर के राजा भी अपने जमाने मे गोविंद देव जी को राजा और अपने को उनका दीवान मानते थे। गोविंद आज भी राजा हैं। उनके दरबार में हजारों भक्त हाजिर होते है और राधा-कृष्ण की लीलाओं के भजन-कीर्तन से सारे जय निवास उद्यान को निनादित करते रहते है। वृन्दावन की सी धूम अनेक अवसरों पर तो उससे भी अधिक गोविंद देव जी के मंदिर मे मची रहती है। इत्र और फलों की महक यहां की हवा मे तैरती है। बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने चार सदियों पहिले भक्ति भाव और कीर्तन का जो रास्ता सांसारिक लोगो को बताया था, उसका जादू अब भी बरकरार है। गोविंद देव जी के मंदिर मे यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
गोविंद देव जी मंदिर का इतिहास
यह विख्यात गोविंद देव जी मंदिर उस बारहदरी में है जो ”सूरज महल” के नाम से जय निवास बाग मे चंद्रमहल और बादल महल के मध्य में बनी थी। किंवदन्ती है कि सवाई जयसिंह जब यह शहर बसा रहा था तो सबसे पहले इसी बारहदरी मे रहने लगा था। उसे रात मे स्वप्न आया कि यह स्थान तो भगवान का है और उसे छोड देना चाहिए। अगले ही दिन वह चंद्रमहल मे रहने लगा और यहां गोविंद देव जी पाट बैठाये गये।मंगल बारहदरी को बीच मे बन्द कर किस आसानी से मंदिर मे परिणत किया गया, यह गोविंद देव जी के मंदिर में भली भांति समझा जा सकता है।जयपुर में इसके बाद तो प्राय वैष्णव और जैन, दोनो ही मंदिर इसी शैली पर बनने लगे। यहां के संगमरमर के अत्यंत कलात्मक दोहरे स्तम्भ ओर ‘“लदाव की छत” जिसमे पट्टियां नही होती, जयपुर के इमारती काम का कमाल है। मध्यकालीन राज-दरबारो की भव्यता और देवालय की शचिता की यहा एक साथ प्रतीति होती है।
गोविंद देव जी की झांकी सचमुच मनोहारी है। भावुक भक्तों का मानना है कि भगवान कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने यह विग्रह बनवाया था। वज्रनाभ की दादी ने कृष्ण को देखा था, इसलिये सबसे पहले वज्रनाभ ने जो विग्रह तैयार कराया उसे देखकर वह बोली कि भगवान के पांव और चरण तो बिल्कुल उन जैसे बन गये पर अन्य अवयव कृष्ण से नही मिलते। वह विग्रह मदनमोहन के नाम से जाना गया, जो अब करौली मे विराजमान है। वज्रनाभ ने दूसरी मूर्ति बनाई जिसमे भगवान का वक्षस्थल और बांह सही बने। इसे गोपीनाथ का स्वरूप कहा गया। फिर तीसरी मूर्ति बनाई गई जिसे देखकर वज्रनाभ की दादी कह उठी ”अहा, भगवान का अरविन्द नयनों वाला मखार बिन्द ठीक ऐसा ही था।” यही गोविंद देव जी की मूर्ति थी।
चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज-भूमि के उद्धार और वहां के विलुप्त लीला- स्थलो को खोज निकालने के लिये अपने दो शिष्यो, रूप और सनातन गोस्वामी, को वृन्दावन भेजा था। ये दोनो भाई थे और गौड राज्य के मसाहिब थे, लेकिन चैतन्य से दीक्षित होकर संसार- त्यागी बने थे। रूप गोस्वामी ने गोविंद देव की मूर्ति को जो गोमा टीला नामक स्थान पर वृन्दावन में भूमिगत थी, निकालकर 1525 मे प्राण-प्रतिष्ठा की। अकबर के सेनापति और आमेर के प्रतापी राजा मानसिंह ने इस पवित्र मूर्ति की आराधना की। वृन्दावन मे 1590 ई में उसने लाल पत्थर का जो विशाल और भव्य देवालय गोविंद देव जी के लिये बनाया वह उत्तरी भारत के सर्वोत्कृष्ट मंदिरो मे गिना जाता है। भीतर से यह क्रास के आकार का है- पूर्व से पश्चिम 117 फूट लम्बा तो उत्तर से दक्षिण 105 फट। मुगल साम्राज्य मे इससे बडा और भव्य देवालय कदाचित ही बना हो। स्वयं बादशाह अकबर ने गोविंद देव जी की गायों के चरने के लिये 135 बीघा भूमि का पट्टा प्रदान किया था।
गोविंद देव जी मंदिर जयपुरवृन्दावन के गोविंद देव मन्दिर मे चार नागरी लेख सुरक्षित है, जिनसे इसके निर्माण-काल के साथ इसे बनाने वाले अधिकारियों व कारीगरो का भी पता चलता है, जो अधिकांश मे आमेर राज्य के ही थे। अकबर के 34 वे राज्य-वर्ष (1590 ई ) का लेख इस प्रकार है-
“सवत् 34 श्री शकबन्ध अकबर शाह राज श्री कूर्मकूल श्री पृथ्वीराजाधिराज वंश श्री महाराज श्री भगवतदास सुत श्री महाराजाधिराज श्री मानसिंह देव श्री वृन्दावन जोग पीठ स्थान मदिर कराजो श्री गोविंद देव को काम उपरि श्री कल्याणदास आज्ञाकारि माणिकचन्द चोपाडु शिल्पकारि गोविददास बाल
करिगरु गोरखदास वीमवल।”
जब इस मंदिर का मडान पूरा हुआ तो चैतन्य महाप्रभु की अपनी निजी सेवा की गौर-गोविन्द की लघु प्रतिमा भी किसी काशीश्वर पंडित के साथ वृन्दावन आ गईं और गोविन्द के विग्रह के बराबर ही इस पावन प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया। गोविंद देव जी के साथ राधा का विग्रह तो बाद मे प्रतिष्ठित हुआ। यह विग्रह उडीसा के किसी प्रतापरुद्र नामक शासक ने बनवा कर भेट किया था।
अप्रेल, 1669 मे जब औरंगजेब ने शाही फरमान जारी कर ब्रज भूमि के देव-मंदिरों को गिराने और उनकी मूर्त्तियों को तोडने का हुक्म दिया तो इसके कुछ आगे-पीछे वहा की सभी प्रधान मूर्तिया सुरक्षा के लिये अन्यत्र ले जायी गईं। माध्व-गौड या गौडिया सम्प्रदाय के गोविंद देव, गोपीनाथ और मदनमोहन, ये तीनो स्वरूप जयपुर आये। इनमे गोविंद देव पहिले आमेर की घाटी के नीचे बिराजे और जयपुर बसने पर जयनिवास की इस बारहदरी मे पाट बैठे।
जयपुर नगर के इतिहास मे ए के राय ने वृन्दावन से जयपुर तक गोविन्ददेव की यात्रा का क्रम इस प्रकार निर्धारित किया है:–
- 1590 ई से 1667-1670 ई के बीच -वृन्दावन के गोविंद मंदिर मे।
- 1670 ई से 1714 ई तक कामा या वृन्दावन मे ही विग्रह को छिपा रखा गया।
- 1714 से 1715 ई आमेर के निकट वृन्दावन मे इसे कनक वृन्दावन कहते थे।
- 1715 से 1735 ई जयनिवास बाग मे (राय के अनुसार यह जयनिवास बाग आमेर के नीचे ही था)।
- 1735 ई से आज तक सिटी पैलेस के वर्तमान मंदिर में।
आगे चलकर गोविंद देव जी के भोग-राग तथा गोस्वामी के निर्वाह के लिये जयपुर के महाराजा ने जागीर दी और स्वतन्त्रता के बाद जागीर उन्मूलन हो जाने पर 32,063 93 रुपये का वार्षिक अनुदान जयपुर के इस सर्व प्रमुख मन्दिर को दिया जाने लगा। गोविंद देव जी की सेवा पूजा गोडिया वेष्णवों की पद्धति से की जाती है। सात झांकिया होती है और प्रत्येक झांकी के समय गाये जाने वाले भजन ओर कीर्तन निधारित हैं।
गोविंद देव जी के भजन और झांकियां
गोविंद देव जी की झांकी में दोनो ओर दो सखियां खडी है। इनमे एक “राधा ठकुरानी की सेवा के लिए सवाई जयसिंह ने चढ़ाई थी। प्रतापसिंह की कोई पातुर या सेविका भगवान की पान-सेवा किया करती थी। जब उसकी मृत्यु हो गई तो प्रतापसिंह ने उसकी प्रतिमा बनाकर दूसरी सखि चढाई, जिससे इस झांकी की शोभा ओर सुन्दरता में ओर वृद्धि हुई। सवाई प्रतापसिंह के काल मे राधा-गोविन्द का भक्तिभाव बहुत बढ़ गया था। गोविंद देव जी को यह राजा अपना इष्टदेव मानता था। अपनी कविताओं में उसने कहा है:–
हमारे इष्ट है गोविन्द।
राधिका सुख-साधिका संग
रमत बन स्वच्छन्द।।
प्रतापसिंह सारी जिंदगी समस्याओं में उलझा रहा था ओर उसे बार-बार मरहठों से टक्कर लेनी पडती थी। ऐसी ही किसी नाजुक घडी में उसने गोविन्द के सामने यह कातर पुकार भी की
विपति विदारन विरद तिहारो।
है गोविन्दचद ‘ ब्रजनिधि’” अब
करिके कृपा विधन सब ठारो।।
प्रतापसिंह अपने उपनाम ”ब्रजनिधि” को गोविन्द का इनायत किया हुआ भी कहता है। उसका एक रेखता हैं
दिल तडपता है हुस्न तेरे को
कब मिलेगा मुझे सलौना स्याम।
अब तो जल्दी से आ दरस दीजे
जो इनायत किया है ब्रजनिधि’ नाम।।
गोविंद देव जी के इस विग्रह के सामने राजा मानसिंह जैसे वीर योद्धा का सिर झुका और अकबर जैसे बादशाह ने भी इसका सम्मान किया। माध्व-गोड वेष्णव सम्प्रदाय की इस सर्वोच्च और शिरोमणि मूर्ति को जयपुर वाले तो इष्ट मानते ही है, चैतन्य के हजारों अनुयायी बंगाल, बिहार, मणिपुर और असम तक से दर्शनो के लिये आते है। जयपुर इसी विभूति के कारण इन भावुक भक्तो के लिये वृन्दावन बना हुआ है।
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