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गंगा - गोपाल जी मंदिर जयपुर

गोपाल जी मंदिर जयपुर – गंगा-गोपाल जी मंदिर का इतिहास

भक्ति-भावना से ओत-प्रोतराजस्थान की राजधानी जयपुर मे मंदिरों की भरमार है। यहां अनेक विशाल और भव्य मदिरों की वर्तमान दशा और शोचनीय अवस्था को देखकर जहां दुख होता है, वहा नगर-प्रासाद की सीमा मे गोविंद देव जी के मन्दिर के पिछवाडे गंगा जी- गोपाल जी के आमने-सामने बने लघु मदिरों को देखने से सचमुच आनन्द प्राप्त होता है। महकती हुई मेंहदी की भीनी गंध से सुवासित वातावरण मे सीढियां चढकर दर्शनार्थी उस गैलरी मे पहुंचता है जो दोनो मंदिरो के प्रवेश द्वारों को जोडती है। मंदिर क्या हैं, कुंज भवन हैं जो धर्म-कर्म के पक्के और कट्टर सनातनी महाराजा माधोसिह ने अपने इष्टदेव के प्रसन्‍नार्थ, बनवाये थे।

गंगा गोपाल जी मंदिर का इतिहास

प्रवेश करते ही दोनो मंदिरो में खुले चौक हैं, जिनमे गढे हुए पत्थरों का समतल आंगन और दूब के छोटे लॉन हैं। गोपाल जी मंदिर मे संगमरमर का बना एक तुलसी का बिरवा है तो गंगाजी के मंदिर मे दो बडे सुघड ओर सुन्दर बिरवे है जो देखने लायक। आगे संग मरमर के तराशे हुए कमनीय खम्भो पर बने हुए बरामदों के “जगमोहन’ है और उनके बीच में गर्भगृह या निज मन्दिर। गंगा मंदिर में तो जयपुर की कलम के दो-तीन चित्र भी लगे हैं, राधा- कृष्ण के और एक चित्र हरिद्वार की हर की पौडी का भी है जिससे पता चलता है कि महाराजा माधोसिंह के समय मे यह कैसी लगती थी।

अपनी आदत के अनुसार महाराजा माधोसिंह ने दोनो ही मंदिरों मे संगमरमर पर उत्कीर्ण लेख भी लगवाये थे। जयपुर में गंगाजी का मंदिर सम्व॒त्‌ 1971 (1914ई )मे बनकर तैयार हुआ और इस पर 24,000 रुपये की लागत आईं। बाद मे इसमे एक रसोई “मय गैस और टूटी” के और जोडी गई तो 11,444 रुपये और लगे। इस प्रकार कुल 35,444 रुपये इस पर व्यय हुए। छोटा होने पर भी मंदिर की निर्माण सामग्री मे संगमरमर और करौली के सुघड बलुआ पत्थर के प्रयोग की प्रचुरता को देखते हुए यह लागत कम ही मानी जायेगी।

जयपुर में गोपाल जी का मंदिर इसके बाद बनवाया गया था। उसके लेख मे निर्माण के साल का उल्लेख नही है। यह निश्चित है कि यह अगले तीन-चार सालो में ही बना होगा क्योकि 1922 ई मे तो माधोसिंह की मृत्यु हो गई।

मंदिरों की इस “जुगल-जोडी” से माधोसिंह की धर्मप्रियता और ऐसे कामों के लिये उदारता का अच्छा परिचय मिलता है। जयपुर का यह राजा गंगा माता के साथ राधा-गोपाल का भी अनन्य भक्त था। गंगाजल का प्रयोग और सवेरे जागने पर सबसे पहले राधा- गोपाल का दर्शन उसका नित्य-नियम था। जयपुर शहर बसाये जाने के समय से ही यहां मंदिरो की संख्या किस प्रकार बढती गई, इस प्रकिया के अध्ययन के लिये भी यह दोनो मन्दिर अच्छे उदाहरण है। गंगाजी की मूर्ति महाराजा माधोसिंह की पटरानी, जादूण जी की सेव्य मूर्ति थी और इसकी सेवा-पूजा जनानी ड्योढी मे महिलायें ही करती थी। जादूण जी के बाद भी इसकी सेवा-पूजा का मडान पू्र्ववत्‌ चलता रहे, इस दृष्टि से यह मंदिर बनवाकर वैशाख शुक्ला 10, सोमवार, संवत्‌ 1971 में गंगाजी को पाट बैठाया गया। अगले वर्ष, संवत्‌ 1972 मे अलवर राज सभा की कवि मण्डली के एक सिद्ध और सरस कवि पंडित रामप्रसाद के ब्रजभाषा मे रचित तीन छंदो को संगमरमर की फलक पर उत्कीर्ण करवाकर इस मंदिर मे लगाया गया। पडित रामप्रसाद उपनाम ‘परसाद’ के प्रसाद-गुण सम्पन्न इस काव्य को देखकर आजकल की स्मारिकाओं का विचार होता है तो लगता है कि उस जमाने मे यह स्मारिका का ही रूप था। इससे कुछ साहित्य-सेवा भी होती चलती थी, जबकि हजारों का विज्ञापन जुटकर आज की स्मारिकाओं से क्या बन पाता है।

गंगा - गोपाल जी मंदिर जयपुर
गंगा – गोपाल जी मंदिर जयपुर

पंडित रामप्रसाद सचमुच सफल कवि थे। अलवर के गौड ब्राहमण परिवार मे जन्म लेकर उन्होने सोलह वर्ष की आयु मे ही समस्त अलंकार ग्रंथ पढ़कर हिन्दी साहित्य का अच्छा ज्ञान पा लिया था और हिन्दी काव्य का कोई पठनीय ग्रंथ उनकी दृष्टि से नही बचा था। किन्तु, सुविज्ञ कवि से अधिक पंडित रामप्रसाद व्यवहार- कुशल व्यक्ति थे। अलवर जैसी छोटी-सी जगह मे जाये-जन्मे और बडे हुए, किन्तु तत्कालीन राजपूताना की सभी रियासतों के राजाओं से वह व्यक्तिश मिले ओर अपनी कविता से मुग्ध कर प्रत्येक से पुरस्कार प्राप्त किया। | इग्लैंड की मलिका विक्टोरिया की गोल्डन जुबली पर जयपुर से एक अभिनन्दन-पत्र लन्दन भेजा गया था। वह काव्यमय था और पंडित रामप्रसाद का ही रचा हुआ था। जब महाराजा माधोसिंह ने 1902 में इग्लैंड यात्रा की और जयपुर लौटे तो पंडित रामप्रसाद ने उनके स्वागत मे भी अपनी काव्य रचनाएं सुनाई। महाराजा बडे प्रसन्‍न हुए और इस प्रसन्नता का प्रमाण वह दो गांव हैं- यशोदा नन्दनपुरा और मुस्कीमपुरा जो जागीर मे इस कवि को बख्शे गये। इस प्रकार जयपुर रियासत मे सम्मानित होने पर पंडित रामप्रसाद की गणना जयपुर के राज- कवियों मे भी की जाने लगी। पंडित रामप्रसाद का देहान्त 1918 ई में हुआ। अपने जीवन मे उन्होने 48 ग्रथो की रचना की, जिनमे कई प्रकाशित हैं।

यहां उनकी कविता के नमूने के लिये उन तीन छंदों मे से एक दिया जाता है जो गंगाजी के मंदिर की शिला-फलक पर अंकित हैं। अलवर और जयपुर के इस कुशल कवि का नाम इस मंदिर के साथ अमर है

ब्रहमा के कमडल ब्रहममडली परयो नाम।
विष्णु-पद गये विष्णुपदी नाम पाई है।
शिव की जटा में विराजी जटाशकरी होय।
जन्ह के गये पै नाम जान्हवी सुहाई है।।
कहे ‘परसाद हो भागीरथी भगीरथ के।
याही भहिमा से तीन लोकन मे गाई है।
ऐसे कलिकाल में बहतर के साल बीच।
माधव ने राखी जासो माधवी कहाई है।

गंगा गोपाल जी का यह मंदिर जयपुर के अनेक बडे और नामी मंदिरो की तरह सुनसान वीरान नही आज भी जिन्दगी और भक्ति-भाव से भरा है। प्रात-सांय गोविंद देव जी के जाने वाले भक्तजन यहां भी पहुंचते हैं और “जय गया मैया” बोलते दर्शन- परिकमा करते हैं। कलिकाल मे भी मंदिर के निर्माता का उद्देश्य जैसे पूरा हो रहा है।

माधोसिंह की गंगा-भक्ति अगाध थी। जयपुर की गर्मियो की लू और तपन से बचने के लिए वह राजा न विलायत जाता था और न किसी हिल स्टेशन पर। हरिद्वार में गौगा का किनारा ही उसे दैहिक सुख और आत्मिक संतोष प्रदान कर देता था। उसका गंगाजल- प्रेम मुगल सम्राट अकबर की तरह था। यह सब जानते हुए ही महामना मदनमोहन मालवीय ने इस राजा को प्रमुख हिन्दू नरेशों के उस सम्मेलन में विशेष रूप से आमंत्रित किया था जो हर की पौडी से गंगा का प्रवाह न हटाने का पक्ष प्रबल करने के लिए भीमगोडा (हरिद्वार) मे हुआ था-दिसम्बर, 1916 मे। इस सम्मेलन में लम्बे विचार-विनिमय के बाद बताया गया कि भीमगोडा में गंगा पर नये बांध के निर्माण से गंगा की पवित्रता में किस प्रकार अन्तर आ जाएगा। अन्त में ”सात घण्टे के विचार-विनिमय के बाद इस बात पर समझौता हो गया कि सरकार पहले से बने हुए दस दरवाजों से ही पानी का प्रवाह जारी रखेगी आर दस रेगुलेटर बनाने की योजना पर अमल नही किया जाएगा। राजाओं ने यह मान लिया कि हर की पौडी पर छह हजार क्यूसेक पानी का प्रवाह पर्याप्त होगा और यह पानी पिछवाड़े के बांध तथा मायापुर रेगलेटर से आयेगा।

इस प्रकार हरिद्वार और हर की पौडी की यथा स्थिति रखने के साथ जयपुर के इस महाराजा का नाम भी जुडा है। गंगौत्री का गंगा मन्दिर भी माधोसिंह का ही बनवाया हुआ है। गंगाजी के इस माहात्म्य के साथ गोपाल जी या राधा- गोपालजी की बात ही कुछ ओर हे। रजवाडों के रजवाडें इस शहर में यह ‘इग्लैंड रिटनुड’ ठाकुरजी है।

राधा-गोपाल जी महाराजा माधोसिंह के इष्ट थे। सवेरे बिस्तर छोडते ही वे सबसे पहले इन्ही मूर्तियो के दर्शन करते ओर इसके बाद ही ओर किसी का मुंह देखते। इस सदी के आरम्भ में जब महाराजा को एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी में शामिल होने के लिये इग्लैंड जाना पड़ा तो अपने इष्टदेव को भी उन्होने साथ ले जाने का फैसला किया। ओलम्पिया नामक पूरा जहाज, जो महाराजा ने अपनी यात्रा के लिये किराये लिया था। गंगाजल से पवित्र किया गया और उसके एक कक्ष मे बाकायदा राधा-गोपाल जी का मन्दिर बनाया गया। जयपुर छोडने के बाद 3 जून, 1902 के दिन लन्दन पहुंचने तक पच्चीस दिन की समुद्री यात्रा मे महाराजा अपने नित्य नियम के अनुसार गोपालजी के दर्शन करते, तुलसी- चरणामृत लेते ओर प्रसाद पाते। जब यह लम्बा सफर पूरा कर महाराजा लन्दन के विक्टोरिया स्टेशन पर उतरे और कम्पडन हिल पर उनके प्रवास के लिये निश्चित “मोरेलाज” नामक कोठी जाने लगे तो सवा सौ आदमियों के उनके दल-बल का अच्छा-खासा जलूस बन गया जिसमे सबसे आगे एक गाडी पर राधा-गोपालजी की सवारी थी। आज तो हरे राम हरे कृष्ण” का प्रताप विश्व-व्यापी हो गया है, किन्तु 3 जून, 1902 को सूर्य अस्त न होने वाले का साम्राज्य की राजधानी में राधाकृष्ण की यह पहली रथ-यात्रा थी जो इस भारतीय राजा ने निकाली थी।

लन्दन के शहर मे यह अद्भुत ओर अभूतपूर्व नजारा था। अखबारो ने सुर्खिया लगाई “महाराजा और उनके देवता’ , ‘देवता सहित एक राजा लन्दन में , “देवता गाडी मे” आदि आदि। ”मार्निंग पोस्ट” ने लिखा आज समस्त हिन्द यह देखकर बडे प्रसन्न हैं कि इस यात्रा में महाराजा ने सारे भारत मे इस बात का उदाहरण रख दिया है कि हिन्दुस्तान के राजा-महाराजा चाहे तो किस प्रकार अपने धर्म का पालन कर सकते हैं।

कानिकल ने टिप्पणी की “इस देश मे हजारों हिन्दू आ चुके हैं, किंतु ऐसा अब तक कोई न आया जो अपने धर्म का इतना पालन करने वाला हो। अच्छे हिन्दू का धर्म है कि वह अपनी धार्मिक मर्यादा का पालन करे। अखबारो की ऐसी अनुकूल टिप्पणियों के साथ-साथ कुछ प्रतिकूल ओर आलोचनात्मक टिप्पणियां भी थी जिनमे मूर्ति पूजा को ढकोसला और अंधविश्वास करार दिया गया था। ऐसे हिन्दू-विरोधी कट्टर ईसाई आलोचकों को स्वामी प्रेमानन्द भारती नामक एक सन्यासी ने ”वैस्ट-मिनिस्टर” मे एक तीखा लेख लिखकर मुंह-तोड जवाब दिया। उसने लिखा “द्रोही ईसाइयो और उनके मिशनरियोऔ को यह याद रखना चाहिए कि पानी से बैतिस्मा की रस्म अदा करना, लकडी के क्रास के सामने घुटने टेक कर आराधना करना और बादशाह की ताजपोशी मे जैतून का रोगन लगाना भी ठीक वैसा ही है जैसा जयपुर महाराजा का प्रतिदिन श्री गोपाल जी के पूजन मे फल व गंगाजल काम मे लाना।

इसमे सन्देह नही कि महाराजा माधोसिंह की इग्लैंड यात्रा ने तब जो धूम मचाई थी, उसके पीछे सबसे बडा कारण उनका अपने रंग और अपनी मर्यादाओं को न छोडना ही था। राधा-गोपाल जी का इष्ट इसका मूलाधार था। जयपुर के इस छोटे से गंगा गोपाल जी मंदिर का यह महत्त्व क्या कम हैं।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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