गोपाल कृष्ण गोखले का जीवन परिचय

गोपाल कृष्ण गोखले

गांधी जी के राजनैतिक गुरु श्री गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म भारतीय इतिहास के एक ऐसे युग में हुआ जिसने उनका निर्माण किया, और जिसका अपने जीवन काल में, स्वयं उन्होंने भी बहुत सीमा तक निर्माण किया। उनका जन्म1857 की उस महानक्रांति के नौ वर्ष बाद हुआ, जिसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम भी कहा जाता है। गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 की भूतपूर्व बंबई प्रेसीडेंसी के रत्नागिरी जिले के कोतलुक नामक ग्राम में हुआ था। गोपाल कृष्ण गोखले कापरिवार मूलतः उसी जिले के बेलणेश्वर नामक गांव में रहता था।गोपाल कृष्ण गोखले के पिता अधिक समृद्ध व संपत्तिशाली न थे, किंतु वे बड़े ही धार्मिक, गुणवान और निष्ठावान थे। धनाभाव होने पर भी बालक गोखले की शिक्षा-दीक्षा के संबंध में उन्होंने किसी प्रकार की कमी न आने दी। गोखले बाल्यावस्था से ही अत्यंत प्रतिभा-सम्पन्न और बड़े परिश्रमी थे। इनकी स्मरण-शक्ति भी बड़ी तीव्र थी। दयालुता, सरलता और सत्यवादिता उनमें स्वाभाविक गुण थे।

गोपाल कृष्ण गोखले की जीवनी

गोपाल कृष्ण गोखले ने 15 वर्ष की आयु मे मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। विवाह के बंधन मे उन्हे इससे भी पहले बंध जाना पड़ा। किसी निर्धन परिवार में विवाह-समारोह की बात उस समय तक भली प्रकार समझ में नहीं आती, जब तक यह ध्यान मे न रखा जाए कि उन दिनों बाल-विवाह करना सामान्य प्रथा थी। समाज का इतना विकास उस समय तक नहीं हो पाया था कि कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की प्रथा का विरोध कर पाता। गोखले ने पहली ही वार मे ऐंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उन्हें कोई छात्रवृत्ति नही मिली और न उनकी गणना परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पाने वाले विद्यार्थियों मे ही हुई, किंतु उनके संबंध में एक मात्र उल्लेखनीय बात यह रही कि उन्होंने वह परीक्षा अपेक्षाकृत शीघ्र ही उत्तीर्ण कर ली। उनके हृदय में उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा-आकांक्षा थी। वह इस योग्य भी थे, परंतु उन्होंने सोचा कि उच्चतर शिक्षा के लिए बराबर अपने परिवार को तंगी की अवस्था मे रखना स्वार्थपूर्ण बात है। उन्होंने कुछ अर्जन करके परिवार का भार हल्का करने की इच्छा व्यक्त की। परंतु परिवार के सदस्यों ने इस प्रकार का त्याग कराना स्वीकार नही किया।गोपाल कृष्ण गोखले की शिक्षा के लिए उन्होंने अनेक त्याग किये और उन्हें कालेज में प्रविष्ट कराया। देश जिस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए गोखले की बाट जोह रहा था उसकी तैयारी का समुचित अवसर देने वाले उसके परिवार के अनेक सदस्य थे। उनकी योग्यता को देखकर उन्हें छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। उन्हें सन्‌ 1884 में केवल 18 वर्ष की अवस्था मे बी०ए० की डिग्री मिल गई। उन्होंने पुणे के डेक्कन कालेज में कानून की शिक्षा में प्रवेश ले लिया पर आर्थिक समस्या के कारण बीच में छोड़ना पडा। इसके बाद वह एक स्कूल में अध्यापन का कार्य करने लग गये। अध्यापन कार्य के साथ-साथ वह कानून के अध्ययन में भी लगे रहे। उन्होने कानून की एक परीक्षा उत्तीर्ण भी कर ली। लेकिन वह कानून का इससे अधिक अध्ययन न कर सके। उनका जीवन परिवेश अब उन पर जबर्दस्त प्रभाव डालने लगा। उन्हें तिलक और आगरकर जैसे महापुरुषों का संपर्क प्राप्त हुआ जिनमे देश-प्रेम कूट-छूट कर भरा हुआ था।

गोपाल कृष्ण गोखले ने 1885 में कोल्हापुर की उस सभा में अपना प्रथम सार्वजनिक भाषण दिया जिसकी अध्यक्षता कोल्हापुर के रेजीडेंट विलियम ली वार्नर ने की। उनके भाषण का विषय था–“अंग्रेज़ी शासन के अधीन भारत तथ्यों की क्रम योजना ओर अंग्रेज़ी भाषा की अपनी पटुता से उन्होंने श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया। वार्नर ने उस भाषण की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। गोखले ने ‘मराठा’ में कुछ लेख लिखे। ‘केसरी’ के लिए समाचारों के संग्रह और सार संक्षेपण का कार्य भी उन्होंने किया। जब आगरकर ने ‘सुधारक’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया, उस समय गोखले पर उसके अंग्रेजी भाग का कार्यभार था। गोपाल कृष्ण गोखले के कई लेखों की प्रशंसा की गई। 1886-87 में उन्होंने जनरल वार इन यूरोप शीर्षक से एक लेखमाला लिखी जिसकी बहुत प्रशंसा हुई। बंबई के गर्वनर वार्ड रेई के पक्षपोषण के लिये उन्होने एक लेख ‘शेम, शेम, भाई लार्ड शेम’ लिखा। कहा जाता है कि गर्वनर को वह लेख इतना पसंद आया कि वह पत्रिका के ग्राहक बन गए।

गोखले जी बंबई विश्वविद्यालय की सिनेट के कई वर्षों तक सदस्य रहे और उन्होंने उक्त सिनेट के कार्यों में बहुत रुचि दिखायी। उनका कहना था कि सिनेट में होने वाले विचार-विमर्श राजनैतिक प्रभावों से मुक्त रहने चाहिए। सरकार ने सिद्धांन्ततः तो यह बात मानी पर वह शिक्षा को राजनीति के अधीन करने से नही चुकी। गोखले को सीनेट में सरकार के मनोनीत सदस्यों से अनेक अवसरों पर कहना पड़ा कि उन्हें राजनीति और शिक्षा को एक दूसरे से नहीं मिलाना चाहिए। ऐसा ही एक अवसर उस समय आया जब बंबई सरकार ‘बंग-भंग के पश्चात, इतिहास को अनिवार्य विषय के रूप में नहीं रखना चाहती थी। सरकार का कहना था कि डिग्री पाठ्यक्रम के लिए इंग्लैंड में वहां के इतिहास की एक अनिवार्य विषय का स्थान नहीं दिया गया था, अतः भारत में भी ऐसा करना आवश्यक नही है। गोखले ने बडी योग्यता और विद्वता से इन तर्कों का खंडन किया।

गोपाल कृष्ण गोखले
गोपाल कृष्ण गोखले

गोपाल कृष्ण गोखले जब डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी में अध्यापक बने उस समय वह केवल 19 बर्ष के थे। जब उनके सार्वजनिक सभा का मंत्रिपद स्वीकार करने का प्रश्न उठा, वह केवल 22 वर्ष के थे। दोनों अवसरों के बीच के वर्षो की संख्या तो अधिक नही थी, परंतु इस अवधि में गोखले में कही अधिक परिपक्वता आ गई थी। इसका श्रेय महामानव न्यायमूर्ति रानडे को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने उन्हें वही बना दिया जो उन्हें बनना था। गोपाल कृष्ण गोखले ने अपना राजनैतिक जीवन सार्वजनिक सभा के मंत्री के रूप में आरंभ किया। डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी के कुछ सदस्य उन्हें मंत्री बनाने का जबरदस्त विरोध कर रहे थे, क्योंकि वे समझते थे कि इस प्रकार ‘कालेज’ में उनके काम में बाधा पड़ेगी। यह एक निर्वाचित पद था और उसका वेतन चालीस रुपये प्रतिमास था। गोखले ने यह वेतन नहीं लिया और इस तरह कठिनाई दूर हो गई। सभा के मंत्री के रूप मे इन्होंने जनता की आवश्यकताओं तथा भावनाओं की ओर, सरकार का ध्यान आकृष्ट किया। सरकार द्वारा प्रतिबंधित होने पर
भी यह सभा शासक और शासितों के बीच की कड़ी बनी रही।

गोखले की प्रथम महत्त्वपूर्ण सफलता वेल्वी आयोग से संबंधित है। उन्होंने वेल्वी की अमर बना दिया । यदि गोखले वेल्दी आयोग से संबद्ध न होते तो वेल्वी और उनका आयोग, दोनो ही पुरालेखों की काल-कोठरी में बंद पड़े रहते। गोखले को आयोग के समक्ष दिए जाने वाले साक्ष्य का नेतृत्व करने और अपने आपको एक अर्थशास्त्री, राजनीतिक तथा देश भक्त सिद्ध करने का अवसर देकर आयोग ने भारत के इतिहास में अपने लिए एक निश्चित स्थान बना लिया है। इस आयोग की नियुक्ति भारत सरकार के प्राधिकार के अंतर्गत किए गए सैनिक तथा असैनिक व्ययो के प्रशासन और प्रबंध के संबंध में जांच-पड़ताल करने और ऐसे कामों के लिए प्रभारों का आवंटन करने के लिए की गई, जिनमे इन दोनो की दिलचस्पी हो। आयोग के सामने साक्ष्य देने के लिए कुछ भारतीयों को इंग्लैंड बुलाया गया। वे थे सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, डी० ई० वाचा, जी० सुब्रह्मण्य अय्यर और गोपाल कृष्ण गोखले। भारतीय दल में गोखले सबसे छोटी आयु के थे। उस समय उनकी आयु लगभग 37 वर्ष की थी। लेकिन उन्होंने आश्चर्जनक रूप से अच्छा कार्य किया । परिणामतः वह एक ही छलांग में राजनैतिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में अखिल भारतीय स्तर के व्यक्ति बन गए।

गोपाल कृष्ण गोखले ने वहां एक मौलिक सुझाव दिया कि मद्रास, बंबई, बंगाल, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, पंजाब और बर्मा की विधान परिषदों को यह अधिकार दे दिया जाए कि वे अपने निर्वाचित सदस्यों मे से चुनकर एक-एक प्रतिनिधि ब्रिटिश पार्लियामेंट मे भेज दें। अपने इस सुझाव पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा– 670 सदस्यों वाले इस सदन के लिए उन विशिष्ट प्रश्नों के संबंध मे भारतीय जनता के विचार जान लेना संभव हो जाएगा, जो पार्लियामेंट के विचाराधीन होंगे। उन्होंने आगे कहा–“भारत में फ्रांसीसी और पुर्तगाली बस्तियों को पहले से ही यह विशेषाधिकार प्राप्त है। कांग्रेस के जन्म के समय गोखले वहां नही थे। रानाडे कांग्रेस के संस्थापकों में से थे और उन्ही की प्रेरणा से गोखले भी 1889 में उसमे शामिल हुए थे। ए० ओ० ह्यूम ऐसे पचास सज्जन एकत्र कराना चाहते थे, जो सही अर्थों मे निःस्वार्थ हो, नैतिक उत्साह और आत्म संयम सम्पन्न हों और जो भारत में एक लोकतन्त्र शासक की स्थापना के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने की सक्रिय सेवा भावना में ओतप्रोत हों। इन लोगों में गोखले को स्थान दिया जा सकता था। राष्ट्रीय लक्ष्य-सिद्धि के इस कार्य की ओर बसे तो आगे चलकर सैकडों-हजारों युवक आकृष्ट हुए, परंतु उनमें गोखले जैसे होनहार युवकों की संख्या अधिक नही
रही।

देश-सेवा करने का मुख्य उपाय यही है कि हम अपना जीवन निष्पाप बनावें। समाज में जो दुःख हम देखते हैं, उनमे आधे से भी अधिक दुःख तो स्वयं हमारे ही उत्पन्न किए हुए होते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन सुधारने का प्रयत्न करे, तो समाज सेवक का बहुत-कुछ काम हल्का हो जाये। जब तक हम स्वयं निष्पाप नही बनते, हमे समाज-सेवा का अधिकार या सामर्थ्य प्राप्त ही नहीं हो सकता। इस बात का अनुभव करके ही गोखले जो ने भारत-सेवक-समाज (सर्वेंटस ऑफ इंडिया सोसाइटी) की योजना से कार्य प्रणाली में सादगी, निर्धनता, आज्ञाकारिता आदि बातों को विशेष रूप से स्थान दिया है। देशवासियों के हृदय में देश-प्रेम, दीन-दुखियों की सेवा और निःस्वार्थ पवित्र जीवन व्यतीत करने का भाव जाग्रत करना ही इसका मुख्य ध्येय है। इस संबंध में सर्वेंटस आफ इंडिया सोसाइटी के संविधान की प्रस्तावना का एक अंश अवलोकनीय है।

सार्वजनिक जीवन का अध्यात्मीकरण अनिवार्य है। हृदय स्वदेशानुराग से इतना ओतप्रोत हो जाना चाहिए कि उसकी तुलना में और सभी कुछ तुच्छ जान पड़ने लगे। ऐसी उत्कट देश भक्ति, जो मातृभूमि के लिए त्याग करने के प्रत्येक अवसर पर प्रफुल्लित हो उठे, ऐसा निर्भीक हृदय जो कठिनाई अथवा संकट की उपस्थिति में अपने लक्ष्य से विमुख हो जाना अस्वीकार कर दे, विधि के विधान के प्रति ऐसी बद्धमुल आस्था जिसे कोई भी वस्तु डिगा न पाए। सनसाधनों से सुसज्जित होकर कार्यकर्त्ता को अपने साधना पथ पर अग्रसर हो भक्तिभाव से उस आनद का संधान करना चाहिए जो स्वदेश सेवा में अपने को मिटा देने में प्राप्त होता है। गोखले जी एक स्वतंत्रता-सेनानी ही नहीं अपितु बढ़े उदारचेता भी थे। न केवल बाह्य वेशभूषा उनकी सीधी-सादी थी, हृदय से भी सच्चे साधु और सन्यासी थे। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी उन्हें राजनैतिक ऋषि कहा करते थे। वे बढ़े ही मृदुभाषी और निर्भिमानी थे। उन्हें अपनी प्रशंसा से अत्यधिक घृणा थी।

सन्‌ 1890 में गोखले बंबई प्रांत की धारा सभा के सदस्य चुने गए। वहां उन्होंने जो भाषण दिये उनसे वह सारे देश में विख्यात हो गए। उन्होंने कृषकों, के हित के लिए सहयोगी ऋण संस्थाएं खोलने का प्रस्ताव किया, जो स्वीकार कर लिया गया। ये संस्थाएं बड़ी सफल हुईं और उनसे कृषकों को पर्याप्त लाभ हुआ। अपनी पहली इंग्लैंड-यात्रा के समय गोखले लगभग पांच महीने तक मार्च से जुलाई 1897 के अन्त तक भारत से बाहर रहे। डी ए वाचा ने, जो वेल्वी आयोग के संबध में इंग्लैड में गोखले के साथ रहे थे, इंग्लैंड में गोखले के अनुभवों का बडा सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। अंग्रेजी सामाजिक जीवन गोखले के लिए बिल्कुल नई बात थी । फिर भी बहुत सावधानी के साथ शिष्टाचार का परिचय पा लिया, जिसका पालन भद्र समाज से किया जाता था। आरंभ में अवश्य कुछ डगमगाए परंतु शीघ्र ही उन्होंने सब कुछ सीख लिया।

गोखले को जव यह पता चला कि 1899 के बंबई विधान परिषद के चुनावों में वह जीत गए हैं तो उन्हें बहुत प्रसन्‍नता हुई। उन्होंने तीन महत्त्वपूर्ण समस्याओं में विशेष रुचि दिखाई– अकाल संहिता, भुमि अंतरण विधेयक और नगर पालिकाओं की कार्य व्यवस्था। 30 मई, 1901 को बंबई सरकार ने विधान परिषद में भूमि अन्तरण विधेयक रखा। गैरसरकारी सदस्यों ने उसका इतना तीव्र विरोध किया कि पास हो जाने पर भी वह विधेयक काम में नहीं लाया गया। पत्रों, राजनैतिक संगठनों औरसामान्यतः कृषकों ने भी उसकी पर्याप्त निंदा की। गोखले का इस संबंध में कार्य कम महत्त्वपूर्ण नही है। इस प्रकार गोखले एक असामान्य विधायक सिद्ध हुए, क्योकि उनमें तीन असाधारण गुणों का समन्वय था। वे गुण थे–सुक्ष्म विश्लेषण, आनंदप्रद अभिव्यक्तित और एक ऐसा जो आत्म प्रदर्शन से सवर्था मुक्त था।

1907 और उसके बाद के वर्ष भारत के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहें। गोखले ने यह आवश्यक समझा कि वह इंग्लैंड जाएं और अपने मधुर तर्क-संगत ढंग से मार्ले को इस बात के लिए तैयार कर लें कि वह भारत मे जो घटनाएं हो चुकी हैं या हो रही है उनके वावजूद सुधारों से संबंधित अपनी योजनाओं का काम आगे बढाएं। गांधी जी की तरह गोपाल कृष्ण गोखले भी हृदय-परिवर्तन के लिए समझाने-बुझाने के तरीकों पर आस्था रखते थे। कितु गांधी जी की तरह प्रत्यक्ष कार्यवाही का अवलम्ब उन्होने कभी नही लिया। गोखले यदि सरकारी कार्यों में सहयोग देते तो वह सरकार में किसी भी उच्च पद पर आसीन हो सकते थे। अपने एक वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस उन्हें अधिकतम गौरव प्रदान कर चुकी थी। सरकार का भी उनके बिना काम नही चलता था, क्योंकि वे धीर और गंभीर थे। उस समय देश मे गरम और नरम दल की दो शक्तियां काम कर रही थी। कुछ कांग्रेसी उन्हें अपनी भांति अतिवादी बनाना चाहते थे। दूसरी ओर सरकार यह चाहती थी कि वह धैर्य पूर्वक तथा सतत उसके साथ बने रहें। उन्होंने इन दोनों में से किसी के हाथों मे अपने को न छोड़ा। वह तो उसी मे संतुष्ट रहे कि स्वयं अपने प्रति तथा उस लक्ष्य के प्रति सच्चे बने रहें, जिसका उन्होंने हार्दिक रूप से पक्षपोषण किया।

1908 में चोथी बार गोपाल कृष्ण गोखले जी को बंबई प्रेसीडेंसी एसोसिएशन की ओर से सुधार लागू किए जाने से पहले मार्ले से बातचीत और बहस करने तथा उन्हें समझाने-बुझाने के लिए इंग्लैंड जाना पडा। अपने देश के लिए गोखले जी ने अनथक परिश्रम किया, परंतु उस समय उस काम में सफलता पाना मानों उनके भाग्य मे नहीं लिखा था। रचनात्मक लक्ष्यों के प्रति गोखले की दिलचस्पी में न तो देश मे व्याप्त उथल-पुथल के कारण कमी आई, न कांग्रेस में व्याप्त निष्कर्यता के कारण। वह चाहते थे कि उनका प्रारंभिक शिक्षा विधेयक पास हो जाएं और दक्षिण अफ्रीका के भारतीयो का प्रश्न हल कर दिया जाए। उन्होंने अन्य कामों की भी उपेक्षा तो नही की, परंतु अधिक बल स्थगित न की जा सकने वाली ठोस तथा वैध बातो पर ही दिया। एक लोक सेवा आयोग की नियुक्ति और उसमें उनकी सदस्यता ऐसे ही उदाहरण है।

गांधी जी गोपाल कृष्ण गोखले जी को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। 1912 ई० मे गांधी जी के निमंत्रण पर ही वह दक्षिण अफ्रीका गए । वहां तीन सप्ताह रहकर इन्होंने भारतीयों की समस्याओं के समाधान का प्रयत्न किया। वहां जहां भी वह जाते, गांधी जी साथ रहते। उस समय जरनल स्मट्स और गांधी जी के मध्य की बातचीत के संबध में गलतफहमी उत्पन्न हुई, तो विलायत के पत्रों ने गोखले जी को ही अधिक प्रामाणिक माना। यह देखकर सबका हृदय अभिमान से फूल उठा, और विश्वास हो गया कि यह गोखले जी के निर्मल चरित्र का ही प्रभाव है। फलत: दक्षिण अफ्रीका का काम बढ़ा महात्मा जी ने वहां युद्ध की घोषणा की और भारतवर्ष मे देशभक्त गोखले जी ने उस यज्ञ के लिए ब्राह्मणोचित भिक्षा मांगना शुरू किया। साथ ही दक्षिण अफ्रीका में भारतवासियों के साथ रंगभेद के कारण जो दुर्व्यवहार किया जाता था उसे दूर कराने के लिए होने वाले सत्याग्रह संग्राम में भी आपने विशेष योग दिया था। इसी प्रकार जब इन्होंने देखा कि विदेशों मे भारतीय श्रमजीवियों को नाना प्रकार के कष्टों द्वारा पीड़ित किया जाता है तो इन्होंने कौंसिल में यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि विदेशों में यहां से मज़दूर न भेजे जाएं।

गोपाल कृष्ण गोखले की मृत्यु और उनके प्रति महान आत्माओं के विचार

19 फरवरी, 1915 को इस महान नेता का अल्पायु में ही देहान्त हो गया श। मृत्यु पर्यन्त वह अपने सिद्धांतों पर अटल रहे और तन, मन, धन से देश- सेवा में संलग्न रहे। वह कितने महान थे, गांधी जी के निम्नोकत कथन से स्पष्ट है:- “राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जितने गुण होने चाहिए, वह सब मैंने उनमें पाये। उनमें बिल्लौर की-सी स्वच्छता, मेमने की-सी नम्नता, शेर की सी वीरता और दया तो इतनी थी कि वह एक प्रकार का दोष हो गई थी। गोखले राजनैतिक क्षेत्र में मेरे सबसे ऊचें आदर्श थे और अब तक हैं।”

गोपाल कृष्ण गोखले की मृत्यु के पश्चात्‌ लोकमान्य तिलक ने केसरी में 23 जनवरी, 1916 को प्रकाशित एक लेख मे लिखा था :- गोखले मे अनेक गुण थे। उनमें से प्रधान गुण यह था कि बहुत ही छोटी उम्र में उन्होंने निःस्वार्थ-निष्ठापूर्वक अपने-आपको देश सेवा के लिएसमर्पित कर दिया– प्रत्येक व्यक्ति की परख उन लक्ष्यों के आधार पर ही होती है जिनसे वह प्रेरित-स्पन्दित होता है। गोखले स्वभाव से ही मृदु थे अतः उनकी प्रवृत्ति यही थी कि नरम तरीकों से ही काम निकाल लिया जाए। हमारे सरीखे व्यक्तियों को वे तरीके अनुपयुक्त जान पड़ते थे। रोग के यथार्थ उपचार पथ्यापथ्य के संबंध में दो चिकित्सकों मे मतभेद होने पर भी हम चिकित्सक के रूप में गोखले का महत्त्व स्वीकार करते हैं।

प० मोतीलाल नेहरू ने कहा था :- गोखले को देशभक्ति से आप्लावित एक ऐसी भव्य आत्मा प्राप्त थी, जिसने और सभी भावों को पराभूत कर लिया था। जन्मजात नेता होकर भी उन्होंने
मातृभूमि के विनम्रतम सेवक से अधिक बनने की आकांक्षा कभी नहीं की उस स्वदेश सेवा मे उन्होंने जिस निष्ठा से काम किया वह अब इतिहास की वह बन चुकी है। उन्होने अपना जीवन उसी आदर के प्रति समर्पित किया जो उन्होंने अपने तथा अपने देशवासियों के सामने रखा।

लार्ड कर्जन ने निम्नलिखित उद्गार प्रकट किए थे:- “वास्तव में वह विरोधी दल के नेता थे और इस नाते मुझे प्रायः गोखले के प्रहारों को सहना पड़ता था। मैंने किसी दृष्टि का ऐसा कोई भी और व्यक्ति नही देखा है जिसे उनसे अधिक संसदीय क्षमताएं स्वभावतः प्राप्त हो। गोखले विश्व की किसी भी संसद, यहां तक कि ब्रिटिश हाउस आफ कामन्स में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकते थे। हमारे बीच अत्यधिक मतभेद रहने पर भी मैंने उनकी योग्यता और उच्च चरित्रता को कभी अस्वीकार नही किया।

मुस्लिम नेता एम० ए० जिन्‍ना ने कहा था :– गोखले सरकार के कामों और देश के प्रशासन के निर्भीक आलोचक और विरोधी थे परंतु अपने सभी कथनों ओर कार्यों मे वह तर्क और सच्चे संयताचार का पल्ला बराबर पकड़े रहे। इस प्रकार वह सरकार के सहायक रहे और जनता के लक्ष्यसाधन के लिए शक्ति के स्रोत भी बन सके। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से मिलने वाली अनेक महानतम शिक्षाओं मे से एक यह है कि उनका जीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अकेला व्यक्ति कितना अधिक काम करके दिखा सकता है, अपने देश तथा देशवासियों के भाग्य निर्माण में कितना अधिक और सारभूत योगदान कर सकता है और उसके जीवन से लाखों लोगों को कैसी सच्ची प्रेरणा और नेतृत्व की उपलब्धि हो सकती है।

वस्तुत: गोपाल कृष्ण गोखले जी आधुनिक भारत के महान निर्माताओं में से एक हैं। वह अपने सिद्धांतों पर आजीवन अटल रहे। उनका अपना यह कथन ही उनके जीवन-दर्शन का सार है, “सार्वजनिक जीवन का अध्यात्मीकरण अनिवार्य है। हृदय
स्वेशानुराग से इतना ओतप्रोत हो जाना चाहिए कि उसकी तुलना में और सभी कुछ तुच्छ जान पड़ने लगे।

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