गोगामेड़ी राजस्थान के लोक देवता गोगाजी चौहान की मान्यता राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, मध्यप्रदेश, गुजरात और दिल्ली जैसे राज्यों में बहुत समय चली आ रही है। लोगों में गोगाजी की मान्यता इसलिए है कि गोगाजी पंथ पीरों मे एक प्रसिद्ध पीर तथा सांपों के देवता माने जाते है। गोगामेड़ी धाम जिसकी चर्चा हम अपने इस लेख में विस्तार पूर्वक करेगें, यहां उनका सबसे बडा स्मारक, तथा धाम है। जहां उनकी स्मृति में हर साल भाद्रपद मास में दो बडे मेले भी लगते है। जिसे गोगामेड़ी मेला कहते है। बडी संख्या मे इस मेले में पशु व्यापारी भी आते है जिसके कारण यह गोगामेड़ी पशु मेला, या गोगामेड़ी ऊटों का मेला के नाम से भी प्रसिद्ध है। राजस्थान के लोक तीर्थों में गोगामेड़ी तीर्थ का विशिष्ट स्थान है। लाखों लोगों का यह श्रद्धा स्थल है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख सभी धर्मों के लोगों में इस स्थान बड़ा महत्व है।
सबसे पहले यह जानना जरुरी है कि गोगामेड़ी कहा है? गोगामेड़ी राजस्थान राज्य के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर है। यह स्थान राजस्थान के नोहर कस्बे से लगभग 32 किलोमीटर दक्षिण में है। तथा उत्तर रेलवे के सादुलपुर जंक्शन से हनुमानगढ़ जाने वाले रेल मार्ग का एक छोटा सा स्टेशन है। रेलवे स्टेशन से गोगामेड़ी मंदिर 1 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में है।
गोगामेड़ी का इतिहास, हिस्ट्री ऑफ गोगामेड़ी – History of Gogamedi – Gogamedi history in hindi
वास्तव में गोगामेड़ी का नाम गोगाजी की समाधि पर बने मंदिर का है। इसी मंदिर के नाम पर इस कस्बे का नाम भी गोगामैड़ी पड़ा। जिसमें गोगा शब्द प्रसिद्ध संत के नाम से लिया गया है और मेड़ी वास्तव में ऊंचे स्थान पर बने मकान को कहते है। जो छोलहारी के आकार का बना होता है। गांवों में आज भी इस प्रकार की छत के बने हुए मकानो को प्रायः मेडी कहा जाता है। गोगामैड़ी मंदिर भी समतल भूमि से ऊंचाई पर बना हुआ है। इसलिए गोगा+मेड़ी अर्थात गोगाजी जी का आवास।
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गोगामेड़ी का स्थापत्य
गोगामेड़ी की बनावट मकबरा नुमा है। जिसके चारों कोनों पर ऊंची दीवारें है। तथा सभा मंदिर के दरवाजे की ऊंचाई पर बिस्मिल्लाह अंकित एक पत्थर लगा हुआ है। मुंशी सोहनलाल ने भी इसे मकबरा अथवा एक छोटा मकान ही बताया है। आज जैसा कि गोगामेढ़ी का वर्तमान आकर्षक रूप दिखाई देता है। उसका श्रय महाराजा श्री गंगासिंह जी को जाता है। जिन्होंने सन् 1961 में इसका जीर्णोद्धार कर मैडी को वर्तमान रूप दिया था। गोगामैड़ी का मुख्य दरवाजा सूरजमुखी पोल के अनुसार पर्वाभिमुख है। जिसके दाहिनी ओर एक झाल का पेड़ लगा हुआ है। मुख्य दरवाजे से कुछ सीढियां ऊपर चढ़ने पर आगे चौड़ा आंगन आता है। आंगन के चारों ओर कमरें बने है तथा मुख्य दरवाजे पर सुंदर गवाक्ष खुलते है। इसी आंगन के बीच में एक आयताकार चौरस चौकी है। चौकी के बीच परिक्रमा मार्ग के लिए जगह छोडकर बीच में गोगाजी की मेड़ी एक बडे कमरे के आकार की बनी हुई हैं। बिल्कुल उसी प्रकार जैसा की अधिकतर दरगाहों मे देखा जाता है। कमरे को समाधि स्थल अथवा सभा मंदिर भी कहते है।
गोगामेड़ी धाम के सुंदर दृश्यसभा मंदिर के मध्य भाग में गोगाजी की संगमरमर की बनी समाधि है। समाधि पर सामने अश्वारोही गोगाजी की उत्कीर्ण देवली है। जिसके आगे पिछे चांवर तथा मोरपंखी लिए हुए परिचारकों का अंकन है। देवली के शीर्ष कोणों पर चंद्र तथा सूर्य के आकार उत्खनित है। जिस चौरस चौकी पर मेड़ी बनी हुई है। उसी पर बाहर दक्षिण की ओर नरसिंह कुंड है। जिसकी अधिष्ठाता एवं पुजारी ब्राह्मण है। मुंशी सोहनलाल ने भी मैढ़ी के कुछ हिस्से पर ब्राह्मणों के पूजा अधिकार का उल्लेख तवारीख राजश्री बीकानेर में भी किया है। मैढी के नीचले वाले आंगन में बाई ओर एक छोटा सा चबुतरा है। जिस पर चावरों ने एक पत्थर के ऊपर मूर्तियां उत्कीर्ण की हुई है सिन्दूर अर्चित कर खडा कर रखा है। जिसको वे नरसिंह का स्वरूप बताते है। जबकि वास्तव में नरसिंह यह प्रतिमा नहीं है।गोगामैडी के आसपास चारदीवारी के बाहर चौडी चौडी प्रचीन ईटों की बहुत सी कब्रें पायी जाती है। मैडी के चारों ओर दूर दूर तक जंगल है। जो गोगाजी की वरगी एवं जोड नाम से पुकारा जाता है।
राष्ट्रीय एकता व सांप्रदायिक सद़्भावना के प्रतीक
गोगामैडी में गोगाजी की पवित्र समाधि के दर्शन सेवा बंदगी तथा समाधि भवन में प्रवेश के संबंध में किसी प्रकार का जातीय भेदभाव नहीं है। ऊंच नीच का भेदभाव मिटाने में लोक देवता की सबसे बड़ी विशेषता रही है। जातीय कट्टरपंथी को दूर करने में इनकी योगदान महान है। यहां हिन्दू मुस्लिम पुजारी एक साथ पुजा करते है। इस हिन्दू मुस्लिम एकता झलक मैडी मे भी दिखाई पडती जो मस्जिदनुमा बनी हुई है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। मुख्य द्वार पर बिस्मिला अंकित है। मंदिर के मध्य में गोगाजी की समाधि, किसी मुस्लिम संत की मजार(कब्र) का आभास कराती है।
गोगामेड़ी का निर्माण, गोगामेड़ी की कथा, गोगामेड़ी की कहानी
सर्वप्रथम गोगामेड़ी का निर्माण किसने करवाया एवं यह महत्व इस स्थान का कब से आरम्भ हुआ, इसके श्रेय का अधिकारी कौन है, इस संबंध में निश्चित कुछ भी नही कहा जा सकता है। इस संबंध में कई किवदंतियां प्रचलित है। प्रथम किवदंती के अनुसार गोगामेड़ी का निर्माता मुहम्मद गौरी था। गौरी ने गोगाजी की मनोती कि कि यदि वह शत्रुओं से विजय हुआ तो यहां मैडी बनवायेगा। एक दूसरी धारणा के अनुसार मुहम्मद गौरी का यहाँ युद्ध हुआ था जिसमें उसके प्रमुख रिश्तेदार मारे गये थे। कहते है कि उन्हीं को यहां दफना कर उनकी याद में मुहम्मद गौरी ने यह स्थान बनवाया और गोगामैडी के नाम से प्रख्यात किया। एक ओर किवदंती के अनुसार मैडी के निर्माण का श्रेय एक ब्राह्मण को जाता है। कहते है कि वह ब्राह्मण मैडी के आसपास के जंगल में अपनी गायें चराया करता था। उनमें से एक गाय का प्रतिदिन एक नाग दूध पी जाता था। ब्राह्मण इस घटना से अज्ञान था तथा गाय के कम दूध देने पर आश्चर्य चकित था। इस समस्या के निदान हेतू उसने अपनी गायों पर नजर रखी तो एक दिन देखा कि गाय का दूध तो एक विशाल नागराज पी जाता है। ब्राह्मण ने नाग के आश्चर्यजनक कार्य को देखकर कहा– हे नागराज यह क्या माया है। नागराज गोगा ने उत्तर दिया:- हे ब्राह्मण मैं गोगाजी चौहान हूँ तुम्हें चेताने को ही मैने नाग के रूप में तुम्हारी गाय का दूध पिया है।नागराज गोगा ने आगे कहा तू यहां मेरी सेवा पूजा कर। कहते है कि ब्राह्मण ने नागराज की आज्ञा मानकर गोगामैडी के वर्तमान स्थान पर गोबर से लीप कर कच्ची मैडी बना ली और उसमें गोगाजी की पूजा करने लगा। तभी से वह मैडी देशान्तरों मे उजागर हुई।
गोगामेड़ी धाम के सुंदर दृश्यएक ओर किवदंती के अनुसार गोगाजी के मंदिर का निर्माण बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने कराया था। संवत 362 में फिरोजशाह तुगलक हिसार होते हुए सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हा-हाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान हस्ती आई हुई है। वो प्रकट होना चाहती है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया और पक्की मजार बन गई। तत्पश्चात मंदिर का जीर्णोद्धार बीकानेर के महाराज काल में 1887 व 1943 में करवाया गया।
गोगाजी कौन थे और गोगाजी का जन्म स्थान
गोगाजी गुरु गोरखनाथ के परमशिष्य थे। उनका जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था। सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको गोगामेड़ी जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है। मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजापृथ्वीराज चौहानके बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। गोगाजी के जन्म की कहानी भी बडी रोचक है। एक किवदंती के अनुसार गोगाजी की मां बाछल देवी नि:संतान थीं। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरु गोरखनाथ गोगामेडी के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरु गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और कहा कि वे अपनी तपस्या पूरी होने पर उन्हें ददरेवा आकर प्रसाद देंगे जिसे ग्रहण करने पर उन्हें संतान की प्राप्ति होगी। तपस्या पूरी होने पर गुरु गोरखनाथ बाछल देवी के महल पहुंचे। उन दिनों बाछल देवी की सगी बहन काछल देवी अपनी बहन के पास आई हुई थी। गुरु गोरखनाथ से काछल देवी ने प्रसाद ग्रहण कर लिया और दो दाने अनभिज्ञता से प्रसाद के रूप में खा गई। काछल देवी गर्भवती हो गई। बाछल देवी को जब यह पता चला तो वह पुन: गोरखनाथ की शरण में गईं। गुरु बोले, देवी ! मेरा आशीर्वाद खाली नहीं जायेगा तुम्हे पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य होगी। गुरु गोरखनाथ ने चमत्कार से एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गईं और तदुपरांत भादो माह की नवमी को गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।
गोगामेड़ी मेला, गोगामेड़ी ऊंटों का मेला, गोगामेड़ी पशु मेला
यहाँ भाद्रपद मास मे दो बड़े मेले लगते है। पहला कृष्णपक्ष में दूसरा शुक्लपक्ष में गोगामैडी में यह मेले गोगाजी की श्रद्धा में तो लगते ही है, साथ ही यह गोगामेड़ी पशु मेले के लिए भी प्रसिद्ध है। मेले का भण्डारोपण तो भाद्रपद लगते ही कर दिया जाता है। परंतु यात्रियों का आगमन सप्तमी से प्रारंभ होता है। कृष्णपक्ष मेले में अधिकांश यात्री उत्तर प्रदेश, मालवा, दिल्ली, गुडगांव, तथा गंगा पार के पूरबिये आते है। मेले के यात्री अधिकांश पीले वस्त्र पहने रहते है। इन पीले वस्त्रों में गरीब अमीर तथा जाति वर्ग का भेद अनायास ही तिरोहित हो जाता है। यात्रियों की अपनी टोलियाँ होती है। टोलियों के साथ निशान, ढ़ोल, तूर्रा, वांकिया एवं नागफनी आदि साज बाज होते है। टोली का मार्गदर्शक एक जोगी होता है। जिसको यात्री अपना गुरू मानते है। जोगी टोली को गोगाजी महाराज का भजन गाकर आनंद विभोर किये रहता है। यात्री गोगाजी के प्रति परम श्रृद्धालु होते है। उनकी अपने इष्ट के प्रति सच्ची श्रद्धा देखकर दर्शकों को आनंद का अनुभव होता है। किसी ने कहा है कि सच्ची श्रृद्धा जीवन को निष्कपट आशय प्रदान करती है। और शांति सामंजय का राग बोध देती है। यही भाव दशा इन यात्रियों में देखी जाती है। यात्री गाडी से उतरते ही जय घोष करते है। बागड़ के पीर गोगा की जय, जाहर पीर गोगा की जय, तथा गुरू गोरख माता बाछल की जय, नरसिंह बली की जय, आदि। यात्रियों का स्टेशन से उतरते ही पहला पड़ाव गोरख टीले पर होता है। गोरख टीला रेलवे स्टेशन से डेढ़ किमी उत्तर में है। गोरख टीला गुरू गोरखनाथ के धूमे के रूप में प्रसिद्ध है। कहते है कि गुरू गोरखनाथ ने यहाँ तप किया था। गोरख टीले के पास ही गोरख तालाब है। यात्री इसी गोरख तालाब के तट और झाल के पेड़ो और झाडियों के नीचे अपना डेरा डालते हैं। यात्री अपने साथ आये जोगी को अपना गुरू मानते है। और जोगी ही मेले की समस्त विधि सम्पन्न करवाता है। कहाँ धोक देनी है, कहाँ जोत करनी है तथा कहा चढ़ावा करना है। आदि का निर्देश जोगी ही करता है। जोगी को इसके बदले में दान दक्षिणा मिल जाती है। कुछ यात्री इस प्रकार के भी देखे जाते है। जो अपने गुरू जोगी को गाड़ी से उतरते ही कंधों पर बैठाकर गोरख टीले तक और गोरख टीले से मैडी तक मनौती के अनुसार ले जाते है।
गोगामेड़ी धाम के सुंदर दृश्यगोरख टीले पर यात्रियों का यह पडाव अष्टमी की रात्रि तक रहता है। नवमीं की प्रातः सारा मेला गोगामैडी की ओर चल पड़ता है। गोगामैडी आकर यात्रियों को गोगाजी की समाधि के दर्शन की उत्कंठा बढ़ जाती है। उनको गोगामैडी व समाधि के सुविधापूर्वक दर्शन हो सके इसलिए यात्रियों को पंक्तिबद्ध होकर खड़ा होना पड़ता है। यात्रियों की यह पंक्ति काफी लंबी हो जाती है। पंक्तिबद्ध व्यक्तियों की पंक्ति गोगामैडी के मुख्य दरवाजे से लेकर गोरखा टीले के मध्य तक सुनियोजित ढंग से लग जाती है। यात्रियों की यह लंबी पंक्ति ऐसी लगती है कि मानो ऊची नीची लम्बी दीवार को पिले रंग से पोत दिया हो। क्योंकि अधिकतर यात्री गोगामेड़ी मेले मे पीले वस्त्र धारण करके आते है। आगे पंक्ति मे खडे व्यक्ति को जब मैडी मे समाधि के दर्शनार्थ प्रवेश मिल जाता है तथा वे समाधि गोगामेड़ी के दर्शन पूजन एवं परिक्रमा कर लेते है तब दूसरे यात्रियों को प्रवेश की सुविधा मिल पाती है। इस व्यवस्था से यात्रियों का भीड़ के धक्के मुक्को से बचाव हो जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक की सारे यात्री समाधि के दर्शन नही कर लेते। यात्री मैडी मे प्रवेश पाकर गोगाजी की समाधि के सामने चौक मे भूमिष्ट होकर प्रणाम करते है। पास मे खडा जोगी जयकारे लगाता है जय जाहर पीर की, जय बागड के पीर की तथा सच्चे दरबार की जय करता रहता है। जोगी द्वारा पीठ ठोकने पर यात्री खड़ा होता है। तदुपरांत यात्री सभा मंदिर मे प्रवेश करता है तथा समाधि पर अपना माथा टेक अपनी मनौती व शक्ति के अनुसार नारियल, मोदक, नकदी एवं सोने चांदी के छत्र चढ़ाता है। इसके अतिरिक्त यात्रीगण गोगाजी की समाधि पर श्वेत चंदन का चूरा, इत्र, आदि सुगंधित पदार्थ मलते है। जिसको बंदगी करना कहते है। यात्री समाधि की तब तक बंदगी करते रहते है जब तक व्यस्थापक की ओर से उन्हें आगे बढ़ने का संकेत नहीं मिल जाता। बहुत से श्रृद्धालु यात्री पेट के बल सरक कर मैडी की परिक्रमा करते देखे गए हैं। यह गोगाजी के प्रति श्रृद्धा का ज्वलंत उदाहरण है।
मैडी के सभा मंदिर के बाहर दक्षिण की ओर छोटा सा नरसिंह कुंड है। जिसका अधिष्ठाता पुजारी ब्राह्मण है। नरसिंह कुंड के जल से प्रत्येक यात्री को छींटा तथा छाप लेना अनिवार्य है। पुजारी कुंड में हाथ भिगोकर यात्री की पीठ पर छाप देता है। जिसका आशय छींटे से पवित्र होना और ब्राह्मण से आशीर्वाद पाना है। यात्री यथाशक्ति कुंड तथा ब्राह्मण को भेंट चढाते है। गोगामेड़ी धाम में जो यात्री निशान, व अखाडा लेकर आते है। वे गोगाजी की समाधि के सामने तरतीब से खडे होकर ढोल, नगाडे आदि बजाकर अदब जाहिर करते है। इसी अदब से ये मैडी की परिक्रमा करते हैं। तथा इसी ढंग से नरसिंह कुंड का अदब जाहिर करते है। यह अदब जब तक अखाड़े वाले मैडी में निवास करते है, दिन मे तीन बार चलता है। गोगामैडी मे गोगाजी की समाधि पर भी सुबह शाम घृतज्योति से नगाड़ा, घडियाल तथा शंख ध्वनि के साथ गोगा जी के भजन के साथ गोगाजी की आरती होती है। यात्री भी अपनी अपनी श्रृद्धा व मनौती के अनुसार गोगाजी की धृत से ज्योति करते है। आरण्यक कंडों के अंगारों पर घृत ज्योति करना गोगाजी का प्रथम एवं मुख्य सेवा विधान है। इस प्रकार गोगामैडी के कृष्णपक्ष का प्रथम मेला नवमी की रात्रि तक गोगामैडी में मौजूद रहता है। नवमी की रात्रि में गोगाजी का जागरण किया जाता हैं। जिसमें जोगी जनों का प्रमुख भाग रहता है। और गोगामैडी के प्रसिद्ध भजन गाये जाते है। तदुपरांत मेला विसर्जित हो जाता है। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष का मेला गोगाजी की श्रृद्धा में लगता है। जिसमें राजस्थान, और पंजाब के यात्री अधिक आते है।