श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद आपने जब देखा कि मात्र शांति के साथ कठिन समय ठीक नहीं हो सकता तो दुष्ट हाकिमों के साथ लोहा लेने के लिए तथा जुल्म को नष्ट करने के लिए गुरूगददी से बिराजते समय दो तलवारें एक मीरी की तथा दूसरी पीरी की सजाई, जिसका अर्थ था कि मीरी तेग धर्म की रक्षा के चमकेगी तथा पीरी शांति व भक्ति को प्रकट करेगी। गुरू हरगोबिंद साहिब जी महाराज सिक्खों के छठे गुरू है। पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज द्वारा इन्हें छठे गुरु के रूप में गुरूगददी सौपी थी।
Contents
- 1 गुरु हरगोबिंद साहिब जी का जीवन परिचय
- 1.0.1 अकाल तख्त की रचना:—
- 1.0.2 ढाडी परम्परा का जन्म:—
- 1.0.3 चन्दू ने जहांगीर को भड़काया:—
- 1.0.4 जहांगीर के साथ मुलाकात:—
- 1.0.5 शेर का शिकार:—-
- 1.0.6 सच्चा पातशाह:—
- 1.0.7 हरिगोविंदपुर बसाना:—-
- 1.0.8 शुद्ध पाठ जपुजी साहिब:—
- 1.0.9 शाहजहां का बाज पकड़ना:—
- 1.0.10 बाबा गुरुदीत्ता जी :—–
- 1.0.11 हरिराय जी को गुरूगददी:—
- 1.1 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—–
- 1.2 Share this post social media
गुरु हरगोबिंद साहिब जी का जीवन परिचय
नाम —- श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी महाराज
जन्म —- 1 आषाढ़ वदी एकम वि. सं. 1652 (16 जून 1595 ई.)
जन्म स्थान —- श्री वडाली साहिब, जिला अमृतसर
पिता —- श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज
माता —- माता गंगा जी
पत्नी —- माता नानकी, महादेव, दमोदरी जी
पुत्र —- बाबा गुरूदित्ता, बाबा सूरजमल, बाबा अनी राय, बाबा अटल राय, गुरू तेगबहादुर जी
सुपुत्री —- बीबी वीरो जी
गुरूगददी —- ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी, सं. 1633 वि. (11 जून 1606 ई.)
ज्योति ज्योत —– चैत्र सुदी पंचमी वि.सं. 1701 (3 मार्च 1644 ई.) कीरतपुर साहिब

अकाल तख्त की रचना:—
अकाल तख्त की रचना आषाढ़ शुक्ल 10वी वि.सं. 1663 को ही जहां से युद्ध के लिए प्रार्थना करके सैनिक जालिमों पर चढ़ाई करते थे। शाही ठाठ बाठ में रहते थे। सिर पर कलगी तथा शस्त्रों से सदा तैयार रहते थे और घोड़े की सवारी करते थे। अकाल तख्त साहिब की रचना करके महाराज की घोड़ों व शस्त्रों में अधिक रूचि रहने लगी। जो गुरुसिख आपको घोड़े व शस्त्र भेंट करता था आप उस पर अधिक प्रसन्न होते थे।
ढाडी परम्परा का जन्म:—
गुरुसीखों को जहां युद्ध अभ्यास करवाने का कार्यक्रम बनवाया वहीं ढाडी दरबार की मर्यादा चलाई उनसे आप वीर रस पूर्ण वारें सुनते तथा सूरमाओं के ठंड़े खून में अनोखी वीरता का जोश जगाते, जिससे उनके अंदर छुपी बुजदिली व डरपोक पने का नाश होता, स्वाभिमान की भावना पैदा होती तथा देश धर्म के लिए मर मिटने का शौक पैदा होता।
चन्दू ने जहांगीर को भड़काया:—
एक बार चन्दू ने गुरु जी को पत्र लिखा कि आप मेरी लड़की का रिश्ता स्वीकार करें तथा पिछली बातों को भूल जाये, पर महाराज ने साफ इंकार कर दिया तो उसने जहांगीर को बहुत भड़काया कि सतगुरु कलगी सजा कर बादशाही शान में रहता है। अकाल तख्त की सृजना करके, सेना तैयार कर रखी है। किसी दिन आपके लिए उसे संभालना कठिन हो जायेगा। उन्होंने संतों वाली पिता पुरखी की रीति को त्याग दिया है तथा जवानों को शस्त्र विद्या देकर शस्त्रों द्वारा लैस कर रहे है।
जहांगीर के साथ मुलाकात:—
चन्दू की बात सुनकर जहांगीर ने गुरु जी को दिल्ली बुला भेजा। बादशाह से मिलने के लिए चले तो भाई गुरदास व बाबा बुड्ढा जी को गुरु घर की सेवा सौंप गए।
गुरू जी भाई बिधी चन्द,जेठा,पैड़ा,मोखा,लोकचद्र लालू ,बालू आदि शूरवीर जवान लेकर दिल्ली में मंजनू के टीले बादशाह से मिले । बादशाह ने शाही स्वागत किया तथा पास बिठाकर प्रश्न किया कि मजहब कौन सा अच्छा है? महाराज ने उत्तर दिया। मजहब तो वहीं अच्छा है जो अल्लाह की दरगाह में मंज़ूर हो जाय तो नेक काम करें,पर उपकार करें तथा उसकि याद में जुड़कर उसकी इबादत करना सिखलाये।
शेर का शिकार:—-
एक दिन शेर का शिकार खेलने गये। घने जंगल में एक शेर गर्जना करते हुए लपक पड़ा। बादशाह ने बहादुर साथियों से कहा कि शिकार करो पर कोई भी डरता आगे न बढ़ा। जब गुरु जी से विनती की तो आप ढाल तलवार लेकर शेर का सामना करने लगे। तलवार शेर के पेट में जा धंसी और वह चित्त हो गया। यह देखकर बादशाह बहुत प्रभावित हुआ।
सच्चा पातशाह:—
गुरु जी जहांगीर बादशाह के साथ आगरा पहुंचे तो नगर के बाहर बादशाही कैंप के साथ गुरुजी का कैंप भी लगवाया गया। महाराज ने दीवान सजा रखा था तथा नाम वाणी का प्रवाह चल रहा था, तो जहांगीर के कैंप में एक घसियार सिक्ख सिर पर घास की गठड़ी उठाये हुए पहुंचा। गठड़ी जमीन पर रखकर एक टका जहांगीर के आगे मत्था टेक कर विनती की महाराज मुझे मुक्ति देवें। जहांगीर ने कहा– मैं तो दुनिया का हर पदार्थ दे सकता हूँ। मुक्ति प्रदान करने वाला सच्चा पातशाह तो साथ वाले कैंप में है।
घसियारे ने फौरन टका और घास का गठरा उठाया और रवाना होने लगा तो वहां खड़े अहलकारों ने कहा कि रखी हुई भेंट उठाया नहीं करते ओर जो कुछ भी इनाम मांगना हो मांग लो पर सिक्ख तो श्रृद्धा से भरपूर था उसने किसी की भी परवाह नहीं की और गठरी व टका उठाकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी महाराज के खेमे में आकर भेट सच्चे पातशाह के सामने ला रखी।
हरिगोविंदपुर बसाना:—-
गुरु जी को दूसरे युद्ध गांव रोहेला में फतेह प्राप्त हुई तो आपने वहां एक गड्ढा खुदवाकर उसमें सूबा अब्दुल खां और उसके सथियों के शव दबा दिये और मिट्टी डलवाकर एक बड़ा चबूतरा बनवाया उस पर विराजमान होकर पास ही अपने शहीद साथियों का संस्कार करवाकर राख व्यास में प्रवाहित करवा दी। जिस चबुतरे पर गुरु जी बैठते थे उसका नाम दमदमा साहिब रखा गया। दीवान सजाकर गांव में एक सुंदर नगर तैयार करवाने का विचार किया।
गुरु जी ने व्यास नदी के किनारे एक नया नगर बसाने की तैयारी शुरू कर दी। जब बाबा बुड्ढा जी को समाचार मिला तो भाई गुरदास आदि प्रमुख सिक्खों को साथ लेकर आ पहुंचे। सब लोग बहुत प्रसन्न हुए तथा नये नगर का नाम हरिगोविंदपुर रखने की विनती की जिसे महाराज ने स्वीकार कर लिया और इस नये नगर का नाम हरिगोविंदपुर रखा गया।
शुद्ध पाठ जपुजी साहिब:—
एक दिन गुरु जी ने दमदमा साहिब दीवान की समाप्ति कर कहा कि जो कोई सिक्ख शुद्ध लगा मात्र सहित जपुजी साहिब का पाठ सुनायेगा उसे मुंह मांगी मुराद मिलेगी। भाई गोपाल जी ने विनती करी कि मैं सुनाता हूँ। इस पर गुरु जी ने उनके लिए सुंदर आसन बिछवाया। सारी संगत पाठ श्रवण करने के लिए सज कर बैठ गई। भाई जी ने इतना शुद्ध व स्पष्ट लिव जोड़कर पाठ सुनाया कि गुरु महाराज उसे अपनी गद्दी बख्शने के लिए तैयार हो गये। जब “पवन गुरु पानी पिता” का श्लोक पढ़ने लगा तो उसके मन में विचार आया कि गुरु जी मुझे अमुक घोड़ा सोने की कोठी सहित दे देवें तो बहुत अच्छा रहे। पाठ की समाप्ति हुई तो गुरु जी मुस्कुराकर कहने लगे, भोले मानुष तू तो बहुत ही नीचे जा गिरा बस एक छोटे से दुनियावी पदार्थ पर रीझ गया, हम तो तुम्हें गुरु नानक पातशाह की गद्दी ही देने को तैयार थे। लेकिन तुम सोने की काठी वाला घोड़ा ही ले जाओ। सारी संगत महाराज के चरणों में लेट कर धन्य धन्य गुरु हरिगोबिन्द साहिब जी महाराज महाराज जपने लगी।
शाहजहां का बाज पकड़ना:—
एक बार शाहजहां का बाज उड़कर गुरु जी के पास आ गया। सिक्खों ने पकड़ लिया। बाज बहुत सुंदर था। महाराज की आज्ञा से वापस नहीं किया गया। आजकल गुरपलाह जिला अमृतसर में स्थान बना हुआ है, वहां पर शाही फौज के साथ मुठभेड़ हुई। दुश्मन हार गये।
बाबा गुरुदीत्ता जी :—–
एक बार कीरतपुर साहिब में बाबा गुरुदीत्ता जी के शिकारी सिक्खों से हिरन के भ्रम में एक गाय को तीर लग गया और वह गाय शांत हो गई। जिन पहाडियों की वह गाय थी उन्होंने शिकारियों को घेर लिया और नुकसान की भरपाई करने को कहा। बाबा गुरुदीत्ता जी भी वहां पहुंच गये तो पहाड़ी कहने लगे आप तो बड़े शक्तिवान हो अब इस मरी गाय को जिंदा करो। हम बहुत गरीब लोग हैं हमारा तो बहुत नुक्सान हो गया है। बाबा जी ने सोचा यह तो गो हत्या हो गई हैं लोगों को पता चलेगा तो उलटी चर्चा चलेगी इसलिए एक वृक्ष की टहनी तोड़कर गाय के मुख से छुवाकर कहा गऊ उठो पठे खाओ, तो गाय ऐसे उठ खड़ी हुई जैसे जानबूझ कर सो रही हो।
जब गुरु हरगोबिंद साहिब जी महाराज को इस बात का पता चला तो कहा कि अपने भाई अटल राय की तरह तुमने भी ईश्वरेच्छा के विपरीत काम नहीं किया। यह बात सुनकर बाबा गुरूदित्ता जी नमस्कार करके साईं बुड्ढन शाह की कब्र के समीप पहाडी पर चढ़ गये और वहां ज्योति ज्योत समा गये। गुरु जी ने अपने हाथो चंदन की चिता बनाकर संस्कार किया और अनेक वरदान दिये।
हरिराय जी को गुरूगददी:—
गुरुदीत्ता जी उदासीन हो गये थे इसलिए गुरु जी ने उनके पुत्र अपने पौत्र हरिराय जी को गुरु गद्दी सौंप दी तथा स्वयं कीरतपुर में ही ज्योति ज्योत में समा गये।