साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज सिखों के दसवें गुरु है। गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म पौष शुक्ल सप्तमी वि.सं. 1723 को नौवें पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी तथा माता गुजरी जी के घर में पटना साहिब बिहार में हुआ था। उस समय दिल्ली के तख्त पर औरंगजेब हकूमत कर रहा था। वो चाहता था कि सारे हिन्दुस्तान को मुसलमान बना दे। इसी ख्याल से उसने हिन्दुओं को परेशान करना शुरू कर दिया।
गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन परिचय – गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी – गुरु गोबिंद सिंह बायोग्राफी इन हिन्दी
जन्म —- पौष शुक्ल सप्तमी वि.सं. 1723 ( 5 जनवरी 1666 ई.)
जन्म स्थान —- हरमंदिर पटना साहिब, बिहार
पिता —- श्री गुरु तेग बहादुर जी
माता —- माता गुजरी
पत्नी —- माता जीतो जी, माता सुंदरी जी, माता साहिब कौर
पुत्र —- अजीत सिंह जी, जुझार सिंघ जी, जोरावर सिंह जी, फतेह सिंह जी
ज्योति ज्योत —- कार्तिक शुक्ल पंचमी वि.सं. 1765 नांदेड़ ( 21 अक्टूबर 1708 ई.)
बचपन से ही निर्भिक:—-
गुरु गोबिंद सिंह जी बचपन से ही निडर, निर्भय तथा शूरवीर थे। बालकों की छोटी सेना बना रखी थी, और उनके साथ मिलकर जंग का खेल खेलते थे।
गुरु गोबिंद सिंह जीपटना में कौतुक:—-
आपने पटना नगर में रहते हुए बचपन में ही अनेकों चमत्कार किए। छोटी सी सुंदर कमान बनाकर उसमें से छोटे तीर छोड़कर पानी भरने आयी औरतों के घड़े इत्यादि फोड़ दिया करते थे। पंडित शिवदत्त को बालक गुरु ने रामचंद्र जी महाराज के रूप में दर्शन देकर उसकी इच्छा का आदर किया। राजा फतह चंद मैणी तथा उसकी रानी को अनेक चमत्कार दिखाकर उन्हें हरिनाम के रंग में रंग डाला।
आनन्दपुर में प्रवेश:—-
नौवें पातशाह के बुलावे पर सारा परिवार पुत्र को लेकर श्री आनन्दपुर साहिब आ जाने से नगर में रौनक आ गई। दिन रात सत्संग लगते रहते तथा संगत दर्शन कर जीवन सफल करती रहती।
पिता जी तेगबहादुर की शहादत:—
कश्मीरी पंडितों की पुकार पर नौवें पातशाह गुरु तेग बहादुर जी महाराज ने हिन्दू धर्म की रक्षा करने हेतु दिल्ली में जाकर अपना महान बलिदान दिया।
गुरूगददी तथा शाही शानबान:—-
गुरु गोबिंद सिंह जी नौ साल की आयु मे ही गुरूगददी पर विराजमान हुए तो जालिम हुकूमत के साथ टक्कर लेने के लिए आपने अपने दादा श्री हर गोबिंद साहिब जी की तरह भक्ति के साथ शक्ति को भी उजागर किया। सिर पर सुंदर कलगी सजाई जिसे देखकर ताज वालों के भी सर झुक जाते थे। हाथ पर बाज तथा नीले घोड़े के शाहसवार बनें। शाही वस्त्र पहनकर शाही अंदाज में रहने लगे।
गुरु गोबिंद सिंह जी खालसा पंथ की स्थापना करते
खालसा का जन्म:—–
समय की नब्ज को पहचानते हुए गुरसिखों को भजन के साथ साथ शस्त्र विद्या भी सिखलानी शुरु कर दी। वे सोचते थे कि मेरा हर सिख संत सिपाही बन कर, एक हाथ में माला तथा दूसरे हाथ तलवार पकड़कर शान से जिये और हर जुल्मों के साथ लड़े। उन्होंने सोचा कि इस हिन्दू धर्म मे से गुरसिखों के ऐसे खालसा पंथ की सृजना की जाये जो लोगों की रक्षा को हमेशा तत्पर रहे। वैशाखी पर गुरु जी आनन्दपुर साहिब पहुंचे। केशगढ़ साहिब के स्थान पर एक ऊंची पहाड़ी पर अपना तम्बू लगाया और उस खेमे में से बड़े वीर रस भरपूर होकर, हाथ में नंगी तलवार थामे ललकार कर संगत के सामने आये और एक सिर की मांग करते हुए कहा कि कोई गुरु का प्यारा है जो अपने गुरु नानक के नाम पर मुझे एक सिर सौंप सके। सारे पंडाल में मौन छा गया तथा लोग इधरउधर देखने लगे। तभी एक लाहौर के दयाराम क्षत्रिय उठकर सामने आये और स्वयं को सिर काटने के लिए समर्पित कर दिया। गुरु जी उसे खेमे में ले गये। अंदर एक भयंकर आवाज उठी और खून की धारा तम्बू से बाहर बहती हुई दिखाई दी। इसी प्रकार से एक के बाद एक चार और सिख उठे तथा अपने सिर कटाने के लिए पेश किया। इनके नाम धर्मदास, हिम्मतदास, मोहकमदास तथा साहिब राम था। फिर गुरु जी ने खंडे बाटे का अमृत तैयार किया और पांच पांच घूंट इन पांच सिखों को पिलायें फिर आंखों तथा केशों में पांच छीटें दिये प्रत्येक घूंट के साथ “बोलो वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतेह” कहलवाया। फिर कहा आज से आप खालसा बन गये। आज से आपका जन्म गुरु घर में हुआ है अब से आपने अपने नाम के साथ दास व राम इत्यादि के स्थान पर सिंह शब्द का प्रयोग करना है। आज से आपका कोई पूर्व नाम, धर्म जाति अथवा चिन्ह नहीं रह गये है। सारे एक ही गौत्र के हो गये हो फिर उन पांच सिखों को जो खालसा पदवी प्राप्त कर चुके थे, घुटने टेककर प्रार्थना की कि अब हमें भी आप खालसा सजावें। इस प्रकार उन पांच प्यारों से स्वंय अमृत छका और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह हो गये।
बाईधार के राजाओं द्वारा विरोध:—-
जब महाराज जी ने खालसा पंथ की स्थापना की तो यह बात पहाड़ी राजाओं को पसंद नहीं आई कि ब्राह्मण, नाई, जाट, झीवर, चमार सब एक स्थान पर एक पंक्ति में बैठकर खाना खायें। उन्होंने इसी बहाने गुरुघर से ईर्षया करनी शुरू कर दी। तथा कई बार हमला करने आये पर हार कर गये। पाऊंटा साहिब के पास भंगाणी के युद्ध में तथा ज्वाला जी के निकट नादौण व्यास के तट पर पहाड़ी राजाओं तथा मुगलों की सम्मिलित शक्ति को ललकार कर विजय प्राप्त की। इन जीतों से चिढ़कर पहाड़ी राजाओं ने सामूहिक रूप से आनन्दपुर साहिब को घेर कर, मुगल सेना की सहायता से गुरु साहिब से बदला चुकाने का फैसला लिया।
विचित्र सिंह के हाथी के साथ युद्ध:—-
एक बार बाईस धार के राजाओं ने एक मस्त हाथी को शराब पिलाकर हथियारों से लैस करके लोहगढ़ के किले का द्वार तोड़ने के लिए भेजा ताकि पीछे फौज भी अंदर घुस सके और गुरु जी को पकड़ा जा सके। गुरु जी ने विचित्र सिंह को इशारा किया कि नंगा बरछा लेकर उस मदमस्त हाथी से जाकर युद्ध करो तो उस सिंह ने ऐसी जोर से नागिनी हाथी के माथे पर दे मारी कि वह जख्मी होकर अपनी ही फौज में भाग खड़ा हुआ और अनेक सैनिक उसके पांव तले आकर घायल हो गये।
शाही सेना को घेरा-
जब बाईस धार के पहाड़ी राजाओं तथा मुगल सेना ने आनन्दपुर को चारो और से घेरा दाल लिया तो आनन्दगड़ किले में घिरे गुरू साहिब तथा सिंह सूरमे तथा बाहर अनगिनत पहाड़ी वे मुगल सेना को लड़ाते बहुत समय बीत गया तो अंदर रसद पानी की कमी हो गई तो सिंहो में चिंता होने लगी।
बेदाव-
भूख व थकान के टूटे कुछ सिंह कमज़ोरी दिखाने लगे तो भाई मानसिंह कुछ सिंहों को साथ लेकर गुरू साहिब के सामने आये और विनती की अब हमें छुट्टियों देवें भूखे पेट अधिक दिनों तक लड़ा नहीं जाएगा। गुरू जी बोले अभी से डोल रहे हो। गुरु पंथ का साथ छोडकर जाओगे कहा बाहर भी तो जाना कठिन है। सिंहो ने सुनकर आंखें नीची कर ली। गुरू जी ने फिर कहा अच्छा भाई तुम्हारी इच्छा है जाना चाहते हो तो जाओ लेकिन एक रुक्का लिखकर हमें दे जाना कि न हम आपके सिंह है और न ही आप हमारे गुरु।
गुरु के कहने पर सिक्खों ने ऐसा ही कर दिया। कागज पर यह पंक्ति लिखकर दिया। गुरु देव ने कागज का वह पुर्जा संभाल कर रख लिया। जिसे सिक्ख इतिहास में बेदावा कहते है।
गुरु गोबिंद सिंह जी अमृत बनातेभाई घनईया जी पर प्रसन्नता:—–
जंग तेजी से हो रही थी कुछ सिंह भाई घन्हैया को पकड़ कर गुरु जी के पास लेकर आये, शिकायत की कि हजूर जिन दुश्मनों को हम मौत के घाट उतारने की कोशिश करते है उन्हें पानी पिलाकर यह फिर से तरोताजा कर देता है।
गुरु गोबिंद सिंह ने पूछा — क्या यह सिंह सही कह रहे तो गले में पल्ला डालकर तथा हाथ जोड़कर भाई जी ने कहा कि साहिब जब मैं जंग के दौरान किसी के मुंह में पानी डालता हूँ तो हर एक के चेहरे पर मुझे आप ही के दर्शन होते है। ऐसा प्रतीत होता है कि मै आपके मुख में पानी डाल रहा हूँ।
सदगुरू यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए और भाई घन्ईया को अपने सीने से लगाया और आशीर्वाद दिया और एक डब्बी मरहम की देकर कहने लगे जिस जख्मी को पानी पिलाओ उसके घावों पर मरहम भी लगा दिया करो। जो सिंह देख सुन रहे थे गुरु जी की जय जयकार करने लगे तथा भाई घन्ईया धन्य हो धन्य हो कहने लगे।
आनन्दपुर का त्याग:—–
पहाड़ी राजाओं ने आटे की गाय बनाकर कसमें खाई कि अगर कुछ देर के लिए आनन्दपुर छोड़कर चले जाये तो फिर हम हमला नहीं करेंगे। जब महाराज ने उसकी उनकी कसमों पर एतबार करके आनन्दपुर से कूच कर दिया तो चारों ओर से पहाड़ी राजाओं तथा मुगल सेनाओं ने सिखों पर हमला कर दिया। सरसा नदी के किनारे भयंकर युद्ध हुआ। रात के अंधेरे में जब सरसा नदी पार कर रहे थे तो गुरू गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी तथा छोटे पुत्र संग से बिछड़ गये तथा गुरु घर का लांगरी गंगू ब्राह्मण उन्हें अपने गाँव ले गया। रात को उनके जेवर व नगदी आदि चुरा लिया और माता व बच्चों को पकड़वा दिया वहां से माता व बच्चों को पकड़कर सरहिंद लाया गया जहां आपसे मुसलमान होने अथवा मौत में से एक को चुनने के लिए कहा गया। गुरु पुत्र टस से मस न हुए तो उन्हें जिंदा दीवार में चुनवा दिया गया तथा माता गुजरी ठंड़े बुर्ज से गिराकर शहीद कर दी गई।
चमकौर की जंग:—–
सरसा के दूसरे जत्थे में गुरु महाराज अपने चालीस के करीब जांबाज सिक्खों के साथ चमकौर की कच्ची गढ़ी में दो पुत्रों के साथ फिर से दुश्मन का मुकाबला करने लगे। अंदर से पांच पांच सिंहो का जत्था जयकारे लगाते हुए निकलते तथा अनेक दुश्मनों को मौत के घाट उतारते हुए शहीद हो गये। इसी जंग में गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े पुत्र शहीद हो गयें।
पंथ का हुकम:—–
जब दोनों पुत्र तथा बहुत से सिंघ शहीद हो गये तो भाई दया सिंह जी ने विनती की कि महाराज सच्चे पातशाह आपसे पंथ की आज्ञा है किआप गढ़ी छोड़कर चले जायें क्योंकि आप रहते है तो फिर से खालसा फौज बनाकर दुष्टों को टक्कर दे सकेंगे। गुरु जी यह सुनकर गुस्से में बोले— थोड़ा ध्यान करे कि क्या कह रहे हो कि मै जान बचा कर चला जाऊं। यह तो तीन काल तक होना मुश्किल है गोबिंद सिंह अपने सिक्खों का साथ कैसे छोड़ कर जा सकता है। जब दया सिंह जी ने देखा कि वे नहीं मानने वाले तो उन्होंने चार सिंघ अपने साथ और लिए और गुरु जी से फिर जाकर कहा कि अब तो पांच प्यारों का आपको हुक्म है कि आप गढ़ी छोड़कर फौरन चले जायें। पंथ का ऐसा सामूहिक हुकम सुनकर गुरु गोबिंद सिंह जी पंथ के सत्कार के लिए खड़े हो गये।
सच्चे पातशाह ने अपने ही द्वारा बताई हुई मर्यादा का सम्मान करते हुए अपनी कलगी तथा चोला उतारकर भाई जीवन सिंह को पहना दिया तथा गढ़ी से बाहर आ गये। साथ में कुछ सिख और थे। आजकल जहां गुरूद्वारा ताड़ी साहिब स्थित है उस स्थान पर मुसलमान फौजों के बीच में ताड़ी बजाकर ललकार कर यह कहते हुए निकल गये कि हिन्दुओं का पीर जा रहा है जिस किसी में हिम्मत हो तो रोक ले।
माछीवाड़ा:—–
चमकौर से शहंशाह पैदल चलते हुए माछीवाड़ा के जंगल में सिरहाने पत्थर तथा छाती पर ढाल रखकर कुछ समय के लिए सोने का यत्न करने लगे वहां से कुछ मुसलमान साथियों की सहायता से उच्च दे पीर बनकर निकले।
डल्ले की परख:——
जब साबों की तलवंडी पहुंचे तो डल्ला सरदार कहने लगा कि महाराज आपने व्यर्थ में ही इतने सिख मरवा लिए मुझसे एक बार भी कहा होता तो मै अपने जवान आपकी सहायता के लिए भेज देता। उसी समय एक सिख बंदूक लेकर आ गया तो गुरु जी ने कहा डल्ला जी जहा अपने जवानों में से कोई एक सामने खड़ा करो हमें इस बंदूक का निशाना परखना है। यह सुनते ही डल्ला व उसके साथी घबरा गये तथा पीछे हट गये तब गुरु जी ने कहा कि मेरे सिक्खों को यह खबर सुनाओ।
गुरू जी का संदेश सुनकर दो सिख एकदम झगड़ते हुए आ गए दोनों ही अपने आपको निशाना बनवाना चाह रहे थे। गुरु जी ने उठकर इन दोनों को गले से लगा लिया। इस प्रकार डल्ले का अहंकार चूर हो गया।
माता सुंदरी जी की विनती:—–
दीवान में आकर माता सुंदरी जी ने पूछा कि पातशाह क्या बात है मेरे चारों पुत्र एवं माता कहाँ है सिंह सूरमें, नीला घोड़ा, बाज, कलगी, घोड़ा कुछ भी नजर नहीं आ रहा तो आपके पंच प्यारे भी साथ में नहीं है।
गुरु की काशी:—–
गुरु जी वरदान दिया कि वह स्थान गुरु काशी है। भले ही कोई कितना भी मंदबुद्धि हो, अनपढ़ हो यहां आकर विद्वान हो जायेगा यह वचन करते हुए कल में धड धड कर पानी की ढाब में गिरानी शुरू कर दी। आज इस स्थान पर लिखनसर नामक गुरुद्वारा बना हुआ है तथा तलवंडी साबो खालसे का भारी जोड़ मेला लगता है।
मुक्तसर:——
गुरु जी खिदराने की ढाब जो आजकल मुक्तसर के नाम से प्रसिद्ध है जा पहुंचे। वहां भी मुगलों के साथ लड़ाई हो गई। माई भागों तथा चालीस सिंह जो आनन्दपुर में गुरु जी को छोड़कर चले आये थे जान तोड़कर लड़े और शहीद हो गये। महाराज जी ने उन सबको अपने सगे पुत्रो की तरह प्यार किया और कहा कि यह मेरा पंज हजारी है, यह मेरा दस हजारी है। भाई महां सिंह को गुरु जी ने अपनी गोद में सहारा दिया और कहां कि जत्थेदार मांग लो अब भी जो कुछ मांगना है तो यहां सिंह रो पड़ा कहने लगा — पातशाह जी मै बहुत शर्मिंदा हूँ। आपको मुश्किल में छोड़कर चला आया।
गुरु जी बोले मेरे पंथ के इन चालीस मुक्तों को लोग हर रोज अरदास करते समय नमन करा करेंगे तथा इस स्थान को भी खिदराने की ढाब की जगह मुक्तसर के नाम से जाना जायेगा।
मुक्तसर के युद्घ के पश्चात गुरु जी दक्षिण की ओर रवाना हो गये। दिल्ली से फिर दक्षिण की ओर चले ताकि नादेड़ पहुंच सके।
बंदा सिंह का मेल:—–
दसवें पातशाह जब नांदेड़ पहुंचे तो वहां बंदा सिंह वैरागी को सिंह सजाकर गुरूबख्स सिंह नाम देकर, हुक्मनामा, पांच सिंह तथा तीर दिये और आज्ञा की कि पंजाब जाकर दुष्टों का नाश करो। बंदे ने गुरु जी का आदेश मानते हुए पंजाब में आकर दुष्ट मुगलों से लोहा लोहा लिया तथा तथा सरहद की ईंट से ईटं बजा दी। गुरु के लालों का बदला चुकाया।
ज्योति ज्योत में समाना:——
अंततः जहां आजकल हजूर साहिब गुरुद्वारा बना हुआ है वहां गुरु गोबिंद सिंह जी ज्योति ज्योत में समा गये। जब अंगीठा खोला गया तो उसमें कुछ भी नहीं पाया गया। कुछ इतिहासकार खहते है कि महाराज घोड़े पर सवार कुछ सिक्खों को मिले थे पर अकाल पुरुष की बातें वहीं जाने। इस प्रकार सारा खानदान सरबंस वार कर, स्वर्स्व भारत माता की रक्षा व धर्म की रक्षा के लिए दाव पर लगा गये। जिसके बराबर की कोई मिसाल नहीं है।
दसवें पातशाह ने मसंद प्रथा को खत्म करके संगत को सीधा अपने साथ जोड़ लिया था क्योंकि मसंद आचरणहीन हो चुके थे। इसी प्रकार नांदेड़ में गुरु जु गुरु ग्रंथ साहिब को जुगों जुग अटल गुरु गद्दी पर विराजमान कर दिया और सिक्खों को गुरु मान्यो ग्रंथ का आदेश दिया।
गुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी:—-
जाप साहिब, अकाल उसतति, चौपाई, बचित्र नाटक, सवईये, शब्द हजारे, जफरनामा, दशम ग्रंथ साहिब में संग्रहित।
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