आगरा भारत के शेरशाह सूरी मार्ग पर उत्तर दक्षिण की तरफ यमुना किनारे वृज भूमि में बसा हुआ एक पुरातन शहर है। पहले पहल इस शहर को द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण जी के नाना व कंस के पिता हिन्दू राजा उग्रसेन जो बहुत धार्मिक व प्रभु भक्त ने बसाया था। उस समय इसका नाम अग्रवन था। अकबर बादशाह ने इसको बदलकर अकबराबाद रख दिया था और समय के चलते आज इस शहर का नाम आगरा हो गया है। बाद में पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में सिकंदर लोधी ने इसको अपनी राजधानी बना लिया जिसके पहले मुगल बादशाहों ने भी राजधानी ही जारी रखा। मुगल बादशाह शाहजहां ने यहां से राजधानी बदलकर दिल्ली ले गया था। जिससे आगरा की महत्ता कम हो गई। उसके बाद शाहजहां ने यहां पर अपनी बेगम मुमताज महल की याद में यमुना नदी के किनारे दक्षिण की तरफताजमहल का निर्माण 1632 से 1648 ई. तक पूरा कराया। जिससे यह शहर दोबारा से विश्वभर में सैलानियों की पसंद का केन्द्र बन गया। गुरु का ताल भी इसी ऐतिहासिक शहर का मुख्य पर्यटन व धार्मिक स्थल है।
गुरुद्वारा दुख निवारण गुरु का ताल आगरा में श्री गुरु तेगबहादुर मार्ग पर स्थित है। सिख इतिहास से भी इस शहर का बहुत पुराना संबंध है। इस पावन पवित्र व ऐतिहासिक धरती पर श्री गुरु नानकदेव जी, श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी, श्री गुरु तेगबहादुर साहिब जी तथा श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के चरण कंवल पड़े है। जिनकी याद में गुरुद्वारा गुरु का ताल बना हुआ है।
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गुरुद्वारा गुरु का ताल हिस्ट्री इन हिन्दी, गुरु का ताल आगरा का इतिहास
आनंदपुर साहिब से चलकर गुरु साहिब कीरतपुर के रास्ते पड़ाव दर पड़ाव रोपड़, सैफाबाद, पटियाला, समाना, कैथल, जींद, लखन, मजारा, रोहतक, जानीपुर, मथुरा आदि स्थानों से होते हुए गुरु नानक मिशन का प्रचार करते हुए दिल्ली से आगे आ गये। इस समय वर्षा की ऋतु आ चुकी थी। औरंगजेब को शक हो गया कि गुरु साहिब कहीं छुप गये है। इसलिए उसने एक फरमान जारी कर दिया कि हिन्दुओं के पीर श्री गुरु तेगबहादुर को पकड़वाने वाले को 500 मोहरें ईनाम में दी जायेगी।

औरंगजेब ने उनके सामने तीन शर्ते रखी, पहली कि वह कोई करामात दिखाये, दूसरी इस्लाम कबूल करके मुसलमान बन जाये। अगर वह दोनों बातों से इंकार करें तो तीसरी बात कत्ल होना कबूल लें। जब गुरु साहिब को काजियों ने शाही फरमान पढ़कर सुनाया तो गुरु साहिब ने पहली दोनों बातें न मानते हुए तीसरी शर्त शहादत का नाम पीना परवान कर लिया, क्योंकि गुरु साहिब आनंदपुर साहिब से चलने पर यह संकल्प ले चुके थे। इसलिए समय की नजाकत को देखते हुए गुरु साहिब ने भाई मतीदास, भाई सतीदास, भाई दयाला जी को अपने साथ रखकर भाई गुरदित्ता को पांच पैसे नारियल देकर गुरुघर की चली आ रही मर्यादा के अनुसार गुरूगददी गोबिन्द राय जी को देने के लिए आनंदपुर साहिब भेज दिया, अथवा भाई जैता जी को अपना शीश आनंदपुर साहिब में ले जाने की ताकीद कर दी। भाई गुरुदीत्ता जी ने आनंदपुर साहिब पहुंचकर बाल गोबिंद राय जी को आनंदपुर साहिब से दिल्ली तक पहुंचने की सारी वार्ता सुनाई अथवा गुरूगददी की रस्म भी अदा की। औरंगजेब गुरु साहिब की शहादत का जाम पीने वाले फैसले को सुनकर अपने आप से बाहर हो गया फलस्वरूप उसने जल्लादों से कहा कि उसके सामने भाई मतीदास को आरे से चीर कर दो फाड़कर दिया जाये।
भाई सतीदास को रुई में लपेटकर आग लगा दी जाये व भाई दयाला को उबलते हुए पानी में डालकर शहीद किया जाये। इस समय गुरु साहिब लोहे के पिंजरे में बंद यह सब अपनी आंखों से देख रहे थे, जैसे जैसे गुरु साहिब का चेहरा जलाल से लाल हो रहा था उसे देखकर औरंगजेब का मन डोल रहा था। मगर फिर भी वह जुल्म करता ही रहा। अंत में शाही फरमान के अनुसार 11 नवंबर 1675 ई. को शाही जल्लाद जलालुद्दीन ने तलवार के साथ गुरु साहिब पर वार किया तो हाहाकार मच गई एक आंधी आई। जिसे देखकर वहां की सारी जनता भयभीत हो गयीं।
वह सुरक्षित स्थानों की ओर भागने लगी। उस समय बादशाही सिंहासन डोला और पापों का ठीकरा चोरस्तें ही फूट गया ( जहां पर चांदनी चौक दिल्ली में गुरुद्वारा शीशगंज साहिब है) दिन में ही अंधेरा छा गया था।
आगरा में गुरु का ताल एक अलग स्थान है। इस स्थान से परवाना लोक भलाई हेतु शमा पर शहीद होने के लिए खुद चलकर अपने कातिल के पास पहुंचा। संसार में परोपकार से भरे उदाहरण और कहीं नहीं मिलते। इस स्थान पर गुरु साहिब की याद में बनी विशाल आलीशान इमारतें आज भी गुरु साहिब की धर्म हेतु दी गई कुर्बानी की याद ताजा करती है।यहां पर लाखों श्रृद्धालु व सैलानी हर साल आते है। यह स्थान आज सिख धर्म के प्रचार का केंद्र बन चुका है।
गुरुद्वारा गुरु का ताल का निर्माण
श्री 111 संत अतर सिंह जी गुरुद्वारा मस्तुआना से वरोसाये उनके प्रिय सेवक व त्याग की मूरत संत हरिसिंह जी आजादी से पहले धर्म रक्षा के लिए जब हजूर साहिब पहुंचे तो उस समय संत साधु सिंह जी मोनी भी उनके साथ थे। वही संत हरिसिंह की संगत करते हुए संत निधान सिंह जी की संगत आ गये और वहां गोदावरी नदी के किनारे नगीना घाट गुरुद्वारे में लंगर सेवा तनमन से करते रहे।
इसके बाद संत हरनाम सिंह जी आगरा में सन् 1971 ई. को गुरुद्वारा गुरु का ताल आये। आगरा पहुंचने पर आगरा की संगतों के सहयोग से सितंबर 1971 को पूर्णिमा वाले दिन गुरुद्वारा गुरु का ताल आगरा की सेवा में आया। साथी संत निरंजन सिंह व संत प्रीतम सिंह जी को अपने साथ लेकर इस महान सेवा को करते हुए इस स्थान का नक्शा ही बदल दिया। समय के साथ साथ आसपास की जमीन खरीदकर गुरुघर की जमीन को बढावा दिया।
गुरुद्वारा गुरु का ताल का क्षेत्रफल लगभग 30 एकड़ है। संत साधू सिंह जी मौनी सन् 1971 से 1987 तक इस स्थान की सेवा करते रहे। इस गुरुदारा में सालाना गुरमत समागम, गुरु नानक गुरुपर्व शहीदी गुरुपर्व, पूर्णिमा आदि त्योहार धूमधाम से मनाये जाते है। यहां पर हर साल शरद पूर्णिमा को रात को 6 बजे से 11 बजे तक अस्थमा की विशेष दवाई वितरण की जाती है। गुरुदारे मे एक गौशाला भी है। जिसमें लगभग 150 गायों की सेवा की जाती है। गुरुदारे में निरंतर लंगर चलता रहता है। यहां पर कोई कर्मचारी नहीं है लेकिन लगभग 300 सेवादार यहा रहते है जो सेवा करते है। गुरुद्वारा कमेटी द्वारा यहां पर ठहरने का उचित प्रबंध है जिसमें 50 वातानुकूलित कमरे तथा 40 सामान्य कमरे है। भारत वर्ष से सालाना लाखों की संख्या में यहां श्रृद्धालु व पर्यटक आते है।