राजस्थान की राजधानी जयपुर में राजामल का तालाब मिट॒टी और कुडे-कचरे से भर जाने के कारण जिस प्रकारतालकटोरा कोरा ताल रह गया, कटोरा न रहा, वैसे ही सिरह ड्योढी बाजार के उत्तरी छोर पर बने हुए गिरधारी जी का मंदिर का भी मंदिर तो रह गया, किंतु इसकी प्रमुख विशेषता जाती रही। यह विशेषता थी इसके प्रवेश द्वार पर बनी हुई सीढियों के एक स्नान-घाट होने की।
गिरधारी जी का मंदिर जयपुर
राजामल के तालाब में शहर के उत्तरी भाग का पानी आता था जो मुख्यत नाहरगढ़ की पहाडी का होता था। यह पानी नाहरगढ की छाया में बनी बारह विशाल और मजबूत मोरियो में होकर आता था ओर एक-दूसरे के ऊपर बनाये गये चार चोकोर मोखो की तीन कतारो मे होकर इस झील या तालाब मे पहुंचता था। ये मेहराबदार मोरिया और मोखे वहा परकोटे की दीवार मे अब भी देखे जा सकते हैं ओर ‘बारह मोरी’ ही कहलाते हैं।
तालाब भर जाने पर अतिरिक्त पानी निकालने की मोरिया माधो विलास महल से सटी हुई है। जयपुर मे अभी बहुत लोग हैं जिन्हे बारह मोरियों से निकलने वाला पानी गणगौरी बाजार से ब्रहमपुरी जाने वाली सडक पर घुटनों तक भरा हुआ याद है और ब्रहमपुरी से जोरावर सिंह के दरवाजे जाने वाली सडक पर माधो विलास से निकलने वाले पानी के प्रवाह मार्ग को आज भी ‘नन्दी” (नदी) ही कहा जाता है जिसके किनारे पहले छीपों ही छीपों के घर थे। अब तो सातों जाती ने सारी जल-प्लावित होने वाली जमीन पर कब्जा कर अपने-अपने घर-घरोदें बना लिये है।
श्री गिरधारी जी का मंदिरगिरधारी जी का मंदिर माधो विलास के निर्माता माधो सिंह प्रथम ने ही बनवाया था। एक विशाल और ऊंचे चौक को (जैसे आमेर रोड पर जल महल मे) चार बुर्जो और दालानों से घेरा गया है। इसमे पूर्व की ओर कमानीदार छत की ‘इकदरी” या छोटे दालान के नीचे भगवान गिरधारी जी का मंदिर है। मंदिर के सामने जो चौकोर खुला चौक है, उसके अग्र-भाग मे दोनो कोनो पर अष्टकोण छतरियां बनी हुई है। तीनो बाजुओं के मध्य मे खडी सुन्दर कमानीदार छतों वाली लम्बी छतरियां है जिनके दोनो सिरे आयताकार कक्षों से जुडे है जिन पर गोल गुंबद है। सामने की बाजू के ठीक मध्य में बनाये गये प्रवेश-द्वार से तीन ओर घूमती हुई सीढियां उतरती है जो तालाब के पूरा भर जाने पर पानी मे डूब जाती थी। यह स्नान-घाट का नजारा था। जिसकी कल्पना सीढियों को देखकर अब भी की जा सकती है।
गिरधारी जी का मंदिर इस जलाशय के तट पर कैसा भव्य देवालय रहा होगा, इसका अनुमान आज इसलिये नही किया जा सकता कि सारा मंदिर लोह-लक्कड ओर कांठ-कबाड से घिर गया है। इसकी दीवारोंके सहारे ट्रकों की मरम्मत करने के कारखाने बन गये है जिससे इसकी बाहरी सचित्रित दीवारों पर भी बुरी तरह आ बनी है। सब और ग्रीस, तेल और गले हुए लोहे की दुर्गन्ध है। गिरधारी जी के मंदिर मे केसर-चन्दन, धूप और फूलो की जो सुगंध आनी चाहिए, वह ठेठ जगमोहन मे भी अब नहीं आती।
गिरधारी जी के मंदिर को माधो सिंह ने जिन महन्तो को भेंट किया वे उसके साथ उदयपुर से ही यहां आये बताये जाते हैं। इनमें एक “प्रेम कवि के नाम से ब्रज भाषा की बडी सुन्दर कविता करते थे। ”छन्दतरगिनी” के नाम से उनकी एक पुस्तक भी बताई जाती है। रचना की एक बानगी देखिये:–
छाकी प्रेम छाकिन कै नेम मे छबीली छैल
छैल के बसुरिया के छलन छली गई।
गहरे गुलाबन के गहरे गरूर भरे
गोरी की सुगंध गैल गोकुल गली गई।
दर में दरीन हू में दीपीति दिवारी दुति
दतो की दमक दुति दामनी दली गई
चौसर चमेली चारू चंचल चकोरन ते
चांदनी मे चंदमुखी चौकत चली गई।।
प्रेम कवि जब ऐसी सरस पद्म रचना करते थे तब यहां का माहौल ओर था। इस गिरधारी जी के मंदिर की सेवा-पूजा अद्यावधि वल्लभ सम्प्रदाय की पद्धति से होती है। माधो सिंह काकरोली (मेवाड) के गोस्वामी ब्रज भूषण लाल का शिष्य था।
गिरधारीजी के मंदिर से सबंधित एक उल्लेखनीय बात यह है कि अठारहवी सदी के आठवें दशक मे जब प्रसिद्ध महाकवि पद्माकर राज्याश्रय ओर आजीविका की तलाश मे ग्वालियर से जयपुर आया तो वह इसी मंदिर में ठहरा था। यही रहते हुए पद्माकर ने सवाई प्रताप सिंह से भेट करने की बडी कोशिश की, लेकिन दरबार के परस्पर विरोधी धडों के आगे इस परदेशी कवि की कुछ न चली। पद्माकर निराश हो चला था कि एक दिन गोविन्द देव जी के मंदिर मे यह वांछित भेट हो ही गई और इसके साथ पद्माकर का भाग्य जाग उठा इस कवि को फिर इतना वैभव प्राप्त हुआ कि पद्माकर ने गदगद होंकर कहा है-”हम कविराज है प्रताप महाराज के। डा भालचन्द्र राव तैलग ने महाराजा से पद्माकर को मिलाने का श्रेय महाराज कुमार जगत सिंह को दिया है, जबकि कुछ लोग यह श्रेय दूणी के राव शम्भू सिंह को देते है।
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