गलियाकोट दरगाह राजस्थान के डूंगरपुर जिले में सागबाडा तहसील का एक छोटा सा कस्बा है। जो माही नदी के किनारे बसा है। जिसे 12वी शताब्दी में भीलों ने एक छोटे गाँव के रूप में बसाया था। उस समय यह गांव चारों ओर से चारदीवारी से घिरा हुआ था। जिसके जीर्णशीर्ण अंश आज भी इस बात के सबूत है कि कभी यह बड़ा किला रहा होगा। आज यह एक अच्छा खासा कस्बा सा बन गया है। इसी कस्बे के उत्तर में लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर एक फकीर सैय्यद फखरुद्दीन का मजार है। जो शिया सम्प्रदाय के बोहरा मुसलमानों का बड़ा ही धार्मिक स्थान है। इसी स्थान पर पीर फखरुद्दीन के शव को दफनाया गया। बाद मे पीर फखरुद्दीन की कब्र पर उनके मानने वाले समुदाय के लोगों ने मजार बनाकर उसे एक दरगाह का रूप दे दिया गया, जो आगे चलकर गलियाकोट दरगाह के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसे मजार-ए-फखरी के नाम से भी जाना जाता है। और आज भी बड़ी संख्या में उनके माननेवाले यहां जियारत करने आते है। और वर्ष में एक बार पीर फखरुद्दीन की दरगाह पर उर्स का आयोजन किया जाता है। जो गलियाकोट का उर्स के नाम से प्रसिद्ध है। इस समय यहां एक बड़ा मेला लगता है। और भारत के कोने कोने से और विदेशों से भी हजारों श्रृद्धालु यहा पहुंचते है।
गलियाकोट दरगाह का प्राचीन इतिहास – Galiyakot dargah history in hindi
गलियाकोट दरगाह का निर्माण संतो, भक्तों व उनके मुरीदों ने समय समय पर काफी निर्माण कराया। दरगाह का बड़ा ही सुंदर गुम्बद लगभग 52 फीट ऊंचा और 21 फीट चौडा संगमरमर का बनाया हुआ है। मजार सफेद मकराना पत्थर की बनी हुई है। जिसकी दीवारों पर पिचकारी का मनमोहक काम है। गुम्बद का भीतरी भाग भी मोहक रंगों व बेलबूटों से सजाया हुआ है। गुम्बद के अलावा चार मीनारें है। दरगाह को बाहर से देखने पर बिल्कुल ताजमहल की तरह नजर आती है। मजार के चारों तरफ चार दरवाजे है। और गुम्बद पर सोने का कलश लगा है। उसके उपर चांद तारा है जिसमें रोशनी होती है। जो दूर से ही देखा जा सकता है। दरगाह के सामने सहन में मकराना पत्थर लगा है। और चारों ओर लोहे की जाली लगी है। बराबर में एक बड़ी ऊंची मीनार है। जिसके अंदर सीढियां लगी है। मजार के ऊपर स्वर्ण अक्षरों में कुरान की आयतें लिखी है। सामने दालान में चारों और बडे महत्वपूर्ण कमरें बने है। जिसमें यात्रियों के ठहरने की सुविधा भी है। अंदर जाने के दो मुख्य दरवाजे है। दरवाजे मे जैसे ही प्रवेश करते है। दांयी ओर नूर मस्जिद है। जिसमें वजू करने की उत्तम व्यवस्था है। जो लघभग सभी मस्जिदों में मिलती है। इसके अलावा महिलाओं को नमाज पढने के लिए मस्जिद में एक ओर अच्छी व्यवस्था है। मस्जिद के दूसरी ओर एक विशाल हाल है। जिसमें यात्रियों को अन्य व्यवस्था होने तक वहां ठहरना पडता है। उसको विश्रामगृह या मुसाफिर खाना भी कहते है। यात्रियों को यहां लंगर भी दिया जाता है। जिसकी व्यवस्था एक प्रबंधक कमेटी करती है। यात्रियों को यहां जाते ही दीवानखाने में अपना नाम लिखाना पड़ता है। विश्रामगृह का एक हिस्सा आलिम साहिबों जो बोहरो के धर्म गुरू होते है उनके लिए सदा रूका रहता है। जिसे वी.आई.पी गेस्टहाउस भी कस सकते है। सामने मजार के बाहर बहुत सारी कब्रें है। उसमे एक ओर दाउद भाई साहब की कब्र है जो पीर फखरुद्दीन साहब के पुत्र थे।
गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्यपीर फखरुद्दीन साहब गलियाकोट के वालिद का नाम तारमल था। वे राजा सिद्धराज जयसिंह (जिन्होंने गुजरात पर 1094 से 1134 ईसवीं तक राज्य किया था) के वजीर थे। उस समय शिया सम्प्रदाय को बढाने के लिए मिश्र से इमाम मुस्तेन सीर ने मोलाई अहमद साहब और मोलाई याकूब साहब को यमन भेजा, उन्होंने वहां अपने धर्म को बढाया। उन्होंने फिर मोलाई अहमद, मोलाई अब्दुल्ला और मोलाई नूर मोहम्मद को यमन से हिजरी सन् 450 से खम्भात मे भेजा। वहां अब्दुल्ला साहब की काफी कीर्ति फैल गई। उन्होंने अपनी करामात से सूखे कुएँ को पानी से भर दिया। पत्थर के हाथियों को हाथ लगाते ही गिरा दिया। यह चमत्कार देखते ही लोग उनके धर्म को अपनाने लगे। फिर ये लोग खम्भात से पाटन आएं। पाटन गुजरात की राजधानी थी। गुजरात के राजा ने जब धर्म परिवर्तन का मामला देखा तो मोलाई अब्दुल्ला को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। मोलाई अब्दुल्ला ने खुदा से दुआ की और उनके चारों ओर आग की दीवार बन गई। यह चमत्कार देखकर राजा हैरान हो गया और उनका शिष्यत्व ग्रहण करने की प्रार्थना की और फिर पूरा ही राज परिवार उनका शिष्य हो गया।
राज परिवार के साथ उनके वजीर तारमल और उनके भाई भारमल दोनों भी इमाम-अल-मुस्तन-सीर के सम्प्रदाय मे शामिल हो गये। भारमल के लडके याकूब थे। जिनको गुजरात में धर्म प्रचार का कार्य दिया गया, और तारमल के पुत्र सैय्यद फखरुद्दीन थे। जिनको बागड़ (राजपूताना) प्रांत के लिए भेजा गया। फखरुद्दीन जब छोटे थे तब से ही उनमें किसी महान सूफी संत जैसे लक्षण नजर आने लगे थे। वे खेल कूद से अलग रहकर एकांत में मनन किया करते थे। गरीबों की खिदमत करना, भूखों को खाना खिलाना, रोगियों को दवा देना उनका रोजमर्रा का काम था। बाद में उनकों धर्म की पूरी तालीम दी गई। दीनी और रूहानी इल्म हासिल करके पहुंचे हुए फकीर हो गए। उनका स्वभाव धार्मिक तथा संयासी की तरह था। उन्होंने आत्मा की खोज के साथ लोगों को कई चमत्कार बताएँ। इसी कारण इस संत का समाधि स्थल आगे चलकर गलियाकोट के नाम से दाऊदी बोहरो का परम तीर्थ बन गया।
गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्यकहते है कि जब यह गलियाकोट वाला पीर अपने मुरीदों के साथ सागवाड़ा आ रहे थे। तो उस समय चोरों ने हमला कर दिया। चोरों से लड़ते लड़ते इनके सारे साथी मारे गए सिर्फ़ यही बचे रहे थे। इतने मे नमाज अदा करने का समय हो गया। जब वे नमाज पढ़ रहे थे तब पीछे से चोरों ने इन पर हमला कर दिया। उसी दिन से यह महान आत्मा इस संसार से विदा हो गई। मृत्यु के समय उनकी उम्र 27 वर्ष की थी। उस समय इनकी मृत्यु की खबर किसी को भी मालूम नही पड़ी। कहा जाता है कि एक बैलगाड़ी वाला उधर से गुजर रहा था। जहां पर उनके शरीर को दफनाया गया था। वहां पर बैलगाड़ी का एक पहिया रह गया, और बैलगाड़ी एक ही पहिए से अपने गंतव्य पर पहुंच गई। जब गाड़ी वाले ने देखा कि गाड़ी एक ही पहिये से कैसे आ गई तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह वापिस गया और एक स्थान पर पहिए को पड़ा पाया। उसने उसको उठाने की बहुत कोशिश की पर वह पहिया उठ न सका। बाद में उसे ख्वाब मे पीर फखरुद्दीन दिखाई दिये और कहा कि– मै लोगों की भलाई के लिए सागबाडा जा रहा था। चोरों ने मुझे मारकर इस जगह दफनाया है। यहां मेरी कब्र बना दी जावें। फिर वहां उनकी कब्र बना दी गई और लोगों की मुरादें पूरी होने लगी तथा गलियाकोट वाले पीर बाबा की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई।
इस तरह से धार्मिक समुदाय का प्रवाह आत्मा की खोज तथा अपनी मुराद पूर्ति के लिए यहां आने लगा। जैसे ही मुराद पूरी होती यात्री फिर अपनी मनौती चढ़ाने वहा जाने लगे तब से ही हजारों दाउदी बोहरा समुदाय प्रतिवर्ष जियारत करने को आने लगे, और इस गलियाकोट वाले फकीर बाबा के प्रति अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करने लगे। बाद मे उसने उर्स का रूप ले लिया। गलियाकोट का उर्स मोहर्रम की 27 तारीख को मनाया जाता है। जो इस्लामी मौहम्मदीय हिजरी कलेंडर का पहला महीना है। दाऊदी बोहरा मिश्री कलैंडर के अनुसार चलते है। इस कलैंडर के अंदर पहला महिना 30 दिन का, दूसरा महिना 29 दिन का, व अन्य इसी तरह 30 तथा 29 दिन के होते है। सुन्नी मुसलमान हिजरी कलैंडर के अनुसार चलते है।
गलियाकोट दरगाह पर उर्स मनाने की तैयारियां मोहर्रम की 20 तारीख से ही शुरू हो जाती है। मोहर्रम की 20 तारीख की सुबह मजार की सफाई होती है। मजार को चंदन से मजावरो द्वारा धोया जाता है। मन्नतें मांगने वाले उस पानी को घर ले जाते है। और अपना अहोभाग्य समझते है। ऐसी धारणा और विश्वास है कि इस पानी को पीने से दैहिक, देविक और भौतिक कष्ट दूर हो जाते है। बाद में सबसे पहले मजावर साहिबानों द्वारा सफेद चादर चढाई जाती है। उसके बाद अपनी अपनी श्रृद्धा और हैसियत के अनुसार चादरें चढ़ाई जाती है। धनवान लोग जरी की भी चादरें चढ़ाते है। उर्स के समय हजारों यात्री यहा इकट्ठा हो जाते है। उर्स मे न केवल भारती होते है बल्कि विदेशों से भी काफी संख्या में यात्री यहां जियारत करने आते है। उर्स की समय यहां काफी सजावट होती है। चारो ओर रोशनी होती है। गुबंद को खूशबूदार फूलो से ढक दिया जाता है। और सारे दिन जियारत का सिलसिला जारी रहता है। यहां रात का खास प्रोग्राम होता है। कव्वालियों की मजलिस में काफी भीड होती है। तथा यात्रियों द्वारा का भरपूर आनंद उठाया जाता है।
गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्यगलियाकोट दरगाह वाले इस पीर का इतना प्रभाव है कि लोगों की मुराद न केवल वहां जाने पर ही पूरी होती है। बल्कि घर बैठे बैठे भी यदि कोई मन्नत करता है तो उसके सारे काम पूरे हो जाते है। ऐसी भी मान्यता है कि यदि किसी का बालक बिमार हो जाता है तो बाबा की मिन्नत की जाती है कि यदि मेरा बच्चा ठीक हो गया तो मै जियारत को आऊंगा और आपके यहा आकर मनौती चढ़ाऊंगा, और जब उसकी मुराद पूरी हो जाती है। तो वह यहा पर बच्चों को अपनी श्रृद्धा अनुसार नमक, गुड तथा मिश्री और मेवा से तोला जाता है। और उसको वहां चढाया जाता है। इसके अलावा उनके प्रति श्रृद्धा अर्पित करने के लिए मजार के चारों ओर नारियल और लड्डू की पाल बनाई जाती है। एक अन्य प्रकार से जिनकी मुरादें पूरी होती है वे दूध व दही के घड़े को वहां रख देते है। उन दुध व दही के घड़ो को वे यात्री पी जाते है जिनकी मनोकामना अभी तक पूरी नहीं हुई है।
गलियाकोट की दरगाह के संबंध में एक किस्सा भी प्रचलित है कि। हिजरी सम्वत् 1340 में उदयपुर के सेठ रसुलजी, बल्लीजी के लडके फखरुद्दीन साहब की मजार पर फल चढाने के लिए आये। इसी समय उदयपुर के ही दो छोटे बच्चे मुहम्मद हुसैन और मेमुना नीचे बैठे हुए थे। सेठ ऊपर से फल लुटाकर जैसे ही नीचे ऊतर रहे थे। मजार का एक खम्भा गीर गया। जिससे दोनों बच्चों को बड़ी चोट आई और सभी यात्रियों ने उन्हें मरणासन जान लिया। तभी एक बाबा वहा आएं उन्होंने बच्चों का उपचार किया। और यह कहकर चले गए कि जब तक मै नहीं आऊं तब तक किसी की दवा मत करना। जब तीन दिन तक बाबा नही आएं तो मां बाप को चिन्ता हुई और उन्हे तलाश किया। चौथे दिन बाबा स्वयं ही वहां आएं और उपचार किया बच्चे थोडे समय में ही ठीक हो गए। लोगों ने जब बाबा का नाम पूछा तो उन्होंने बताने से इंकार कर दिया तथा गायब हो गए।
इस वाकिये को याद रखकर आज भी हजारों भक्त श्रृद्धा रखकर उनकी मनौती मानते है। और लाभ उठाते है। कहते है कि एक श्रृद्धालु कलकत्ता के रहने वाले नियामत अली प्रतिवर्ष कलकत्ता से गलियाकोट पैदल चलकर आते थे। कहा जाता है कि उनके कोई बच्चा नहीं था। धन की कोई कमी नहीं थी। बाबा की कृपा से उन्हें बच्चा हुआ और तब से ही प्रतिवर्ष पैदल आने का संकल्प उन्होंने लिया था। इसी तरह विदेशों से भी कई यात्री पैदल चलकर प्रतिवर्ष जियारत करने गलियाकोट दरगाह पर आते है।
गलियाकोट की दरगाह हिन्दू मुस्लिम एकता का भी प्रतीक है। यहा न केवल मुस्लिम लोग ही आते है बल्कि हिन्दुओं की भी मुरादें पूरी होती है। और हिन्दू मुसलमान एक साथ उनको सम्मान अर्पित करते हैं। विशेषकर भील तो उन्हें तुरन्त आराम देने वाले बाबा के रूप में मानते है। उन्हें किसी तरह की तकलीफ हो कोई झंझट हो वे वहां जाते है ओर दालान मे खडे होकर एक कुलडी में पानी लेकर उसे चारो और फिराकर अपनी श्रृद्धा अर्पित करते है। और वह पानी बीमार को पिलाते है तो दुख दर्द बिमारी दूर हो जाती है ऐसी भी मान्यता है।
इसके अलावा यह भी मान्यता है कि जिस प्रकार हिन्दुओं में कई स्थानों पर भूत प्रेत तथा भटकती हुई आत्माओं की छाया से छुटकारा दिलाया जाता है। उसी प्रकार हिन्दू हो या मुसलमान या अन्य किसी भी धर्म, कौम का हो ऐसी आत्माओं से छुटकारा पाने यहा आते है। और यहा हिन्दू मुस्लिम एकता की एक बडी खूबसूरत बात यह है की दरगाह से लगा हुआ शीतला माताजी का बड़ा भव्य मंदिर है। जिसके दर्शन के लिए लोग बडी दूर दूर से आते है। अतः यह हिन्दू मुसलमान के संगम तीर्थ के नाम से भी श्रृद्धालुओं में जाना जाता है।
प्रिय पाठकों आपको हमारा यह लेख कैसा लगा हमें कमेंट करके जरूर बताएं। यह जानकारी आप अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर भी शेयर कर सकते है
प्रिय पाठकों यदि आपके आसपास कोई ऐसा धार्मिक, ऐतिहासिक या पर्यटन महत्व का स्थान है जिसके बारें में आप पर्यटकों को बताना चाहते है तो आप उस स्थल के बारें में सटीक जानकारी हमारे submit a post संस्करण मे जाकर कम से कम 300 शब्दों में लिख सकते है। हम आपके द्वारा लिखे गए लेख को आपकी पहचान के साथ अपने इस प्लेटफार्म पर जरूर शामिल करेगें
राजस्थान पर्यटन पर आधारित हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—
पश्चिमी राजस्थान जहाँ रेगिस्तान की खान है तो शेष राजस्थान विशेष कर पूर्वी और दक्षिणी राजस्थान की छटा अलग और
जोधपुर का नाम सुनते ही सबसे पहले हमारे मन में वहाँ की एतिहासिक इमारतों वैभवशाली महलों पुराने घरों और प्राचीन
भारत के राजस्थान राज्य के प्रसिद्ध शहर अजमेर को कौन नहीं जानता । यह प्रसिद्ध शहर अरावली पर्वत श्रेणी की
प्रिय पाठकों पिछली पोस्ट में हमने हेदराबाद के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल व स्मारक के बारे में विस्तार से जाना और
प्रिय पाठकों पिछली पोस्ट में हमने जयपुर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल
हवा महल की सैर की थी और उसके बारे
प्रिय पाठको जैसा कि आप सभी जानते है। कि हम भारत के राजस्थान राज्य के प्रसिद् शहर व गुलाबी नगरी
प्रिय पाठको जैसा कि आप सब जानते है। कि हम भारत के राज्य राजस्थान कीं सैंर पर है । और
पिछली पोस्टो मे हमने अपने जयपुर टूर के अंतर्गत
जल महल की सैर की थी। और उसके बारे में विस्तार
इतिहास में वीरो की भूमि चित्तौडगढ का अपना विशेष महत्व है। उदयपुर से 112 किलोमीटर दूर चित्तौडगढ एक ऐतिहासिक व
जैसलमेर भारत के राजस्थान राज्य का एक खुबसूरत और ऐतिहासिक नगर है। जैसलमेर के दर्शनीय स्थल पर्यटको में काफी प्रसिद्ध
अजमेर भारत के राज्य राजस्थान का एक प्राचीन शहर है।
अजमेर का इतिहास और उसके हर तारिखी दौर में इस
अलवर राजस्थान राज्य का एक खुबसूरत शहर है। जितना खुबसूरत यह शहर है उतने ही दिलचस्प अलवर के पर्यटन स्थल
उदयपुर भारत के राज्य राजस्थान का एक प्रमुख शहर है। उदयपुर की गिनती भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलो में भी
वैष्णव धर्म के वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख तीर्थ स्थानों, मैं
नाथद्वारा धाम का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। नाथद्वारा दर्शन
चंबल नदी के तट पर स्थित,
कोटा राजस्थान, भारत का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। रेगिस्तान, महलों और उद्यानों के
राजा राणा कुम्भा के शासन के तहत, मेवाड का राज्य रणथंभौर से
ग्वालियर तक फैला था। इस विशाल साम्राज्य में
झुंझुनूं भारत के राज्य राजस्थान का एक प्रमुख जिला है। राजस्थान को महलों और भवनो की धरती भी कहा जाता
भारत के राजस्थान राज्य के अजमेर जिले मे स्थित
पुष्कर एक प्रसिद्ध नगर है। यह नगर यहाँ स्थित प्रसिद्ध पुष्कर
बीकानेर जंक्शन रेलवे स्टेशन से 30 किमी की दूरी पर,
करणी माता मंदिर राजस्थान के बीकानेर जिले के देशनोक शहर
जोधपुर से 245 किमी, अजमेर से 262 किमी, जैसलमेर से 32 9 किमी, जयपुर से 333 किमी,
दिल्ली से 435
भारत की राजधानी दिल्ली से 268 किमी की दूरी पर स्थित जयपुर, जिसे गुलाबी शहर (पिंक सिटी) भी कहा जाता
सीकर सबसे बड़ा थिकाना राजपूत राज्य है, जिसे शेखावत राजपूतों द्वारा शासित किया गया था, जो शेखावती में से थे।
भरतपुर राजस्थान की यात्रा वहां के ऐतिहासिक, धार्मिक, पर्यटन और मनोरंजन से भरपूर है। पुराने समय से ही भरतपुर का
28,387 वर्ग किमी के क्षेत्र के साथ
बाड़मेर राजस्थान के बड़ा और प्रसिद्ध जिलों में से एक है। राज्य के
दौसा राजस्थान राज्य का एक छोटा प्राचीन शहर और जिला है, दौसा का नाम संस्कृत शब्द धौ-सा लिया गया है,
धौलपुर भारतीय राज्य राजस्थान के पूर्वी क्षेत्र में स्थित है और यह लाल रंग के सैंडस्टोन (धौलपुरी पत्थर) के लिए
भीलवाड़ा भारत के राज्य राजस्थान का एक प्रमुख ऐतिहासिक शहर और जिला है। राजस्थान राज्य का क्षेत्र पुराने समय से
पाली राजस्थान राज्य का एक जिला और महत्वपूर्ण शहर है। यह गुमनाम रूप से औद्योगिक शहर के रूप में भी
जोलोर जोधपुर से 140 किलोमीटर और
अहमदाबाद से 340 किलोमीटर स्वर्णगिरी पर्वत की तलहटी पर स्थित, राजस्थान राज्य का एक
टोंक राजस्थान की राजधानी जयपुर से 96 किमी की दूरी पर स्थित एक शांत शहर है। और राजस्थान राज्य का
राजसमंद राजस्थान राज्य का एक शहर, जिला, और जिला मुख्यालय है। राजसमंद शहर और जिले का नाम राजसमंद झील, 17
सिरोही जिला राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम भाग में स्थित है। यह उत्तर-पूर्व में जिला पाली, पूर्व में जिला उदयपुर, पश्चिम में
करौली राजस्थान राज्य का छोटा शहर और जिला है, जिसने हाल ही में पर्यटकों का ध्यान आकर्षित किया है, अच्छी
सवाई माधोपुर राजस्थान का एक छोटा शहर व जिला है, जो विभिन्न स्थलाकृति, महलों, किलों और मंदिरों के लिए जाना
राजस्थान राज्य के जोधपुर और बीकानेर के दो प्रसिद्ध शहरों के बीच स्थित,
नागौर एक आकर्षक स्थान है, जो अपने
बूंदी कोटा से लगभग 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक शानदार शहर और राजस्थान का एक प्रमुख जिला है।
कोटा के खूबसूरत क्षेत्र से अलग बारां राजस्थान के हाडोती प्रांत में और स्थित है। बारां सुरम्य जंगली पहाड़ियों और
झालावाड़ राजस्थान राज्य का एक प्रसिद्ध शहर और जिला है, जिसे कभी बृजनगर कहा जाता था, झालावाड़ को जीवंत वनस्पतियों
हनुमानगढ़, दिल्ली से लगभग 400 किमी दूर स्थित है। हनुमानगढ़ एक ऐसा शहर है जो अपने मंदिरों और ऐतिहासिक महत्व
चूरू थार रेगिस्तान के पास स्थित है, चूरू राजस्थान में एक अर्ध शुष्क जलवायु वाला जिला है। जिले को। द
गोगामेड़ी राजस्थान के लोक देवता गोगाजी चौहान की मान्यता राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, मध्यप्रदेश, गुजरात और दिल्ली जैसे राज्यों
भारत में आज भी लोक देवताओं और लोक तीर्थों का बहुत बड़ा महत्व है। एक बड़ी संख्या में लोग अपने
शीतला माता यह नाम किसी से छिपा नहीं है। आपने भी शीतला माता के मंदिर भिन्न भिन्न शहरों, कस्बों, गावों
सीताबाड़ी, किसी ने सही कहा है कि भारत की धरती के कण कण में देव बसते है ऐसा ही एक
यूं तो देश के विभिन्न हिस्सों में जैन धर्मावलंबियों के अनगिनत तीर्थ स्थल है। लेकिन आधुनिक युग के अनुकूल जो
प्रिय पाठकों अपने इस लेख में हम उस पवित्र धरती की चर्चा करेगें जिसका महाऋषि कपिलमुनि जी ने न केवल
मुकाम मंदिर या मुक्ति धाम मुकाम विश्नोई सम्प्रदाय का एक प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है। इसका कारण
माँ कैला देवी धाम करौली राजस्थान हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यहा कैला देवी मंदिर के प्रति श्रृद्धालुओं की
राजस्थान के दक्षिण भाग में उदयपुर से लगभग 64 किलोमीटर दूर उपत्यकाओं से घिरा हुआ तथा कोयल नामक छोटी सी
राजस्थान के शिव मंदिरों में एकलिंगजी टेम्पल एक महत्वपूर्ण एवं दर्शनीय मंदिर है। एकलिंगजी टेम्पल उदयपुर से लगभग 21 किलोमीटर
भारत के राजस्थान राज्य के सीकर से दक्षिण पूर्व की ओर लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर हर्ष नामक एक
राजस्थान की पश्चिमी धरा का पावन धाम रूणिचा धाम अथवा
रामदेवरा मंदिर राजस्थान का एक प्रसिद्ध लोक तीर्थ है। यह
नाकोड़ा जी तीर्थ जोधपुर से बाड़मेर जाने वाले रेल मार्ग के बलोतरा जंक्शन से कोई 10 किलोमीटर पश्चिम में लगभग
केशवरायपाटन अनादि निधन सनातन जैन धर्म के 20 वें तीर्थंकर भगवान मुनीसुव्रत नाथ जी के प्रसिद्ध जैन मंदिर तीर्थ क्षेत्र
राजस्थान राज्य के दक्षिणी भूखंड में आरावली पर्वतमालाओं के बीच प्रतापगढ़ जिले की अरनोद तहसील से 2.5 किलोमीटर की दूरी
सती तीर्थो में राजस्थान का झुंझुनूं कस्बा सर्वाधिक विख्यात है। यहां स्थित
रानी सती मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। यहां सती
राजस्थान के पश्चिमी सीमावर्ती जिले जोधपुर में एक प्राचीन नगर है ओसियां। जोधपुर से ओसियां की दूरी लगभग 60 किलोमीटर है।
डिग्गी धाम राजस्थान की राजधानी जयपुर से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर टोंक जिले के मालपुरा नामक स्थान के करीब
सभी लोक तीर्थों की अपनी धर्मगाथा होती है। लेकिन साहिस्यिक कर्मगाथा के रूप में रणकपुर सबसे अलग और अद्वितीय है।
भारतीय मरूस्थल भूमि में स्थित राजस्थान का प्रमुख जिले जैसलमेर की प्राचीन राजधानी लोद्रवा अपनी कला, संस्कृति और जैन मंदिर
नगर के कोलाहल से दूर पहाडियों के आंचल में स्थित प्रकृति के आकर्षक परिवेश से सुसज्जित राजस्थान के जयपुर नगर के
राजस्थान के सीकर जिले में सीकर के पास सकराय माता जी का स्थान राजस्थान के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक
केतूबाई बूंदी के राव नारायण दास हाड़ा की रानी थी। राव नारायणदास बड़े वीर, पराक्रमी और बलवान पुरूष थे। उनके
जयपुर के मध्यकालीन सभा भवन, दीवाने- आम, मे अब जयपुर नरेश सवाई
मानसिंह संग्रहालय की आर्ट गैलरी या कला दीर्घा
राजस्थान की राजधानी जयपुर के महलों में
मुबारक महल अपने ढंग का एक ही है। चुने पत्थर से बना है,
राजस्थान की राजधानी जयपुर के ऐतिहासिक भवनों का मोर-मुकुट
चंद्रमहल है और इसकी सातवी मंजिल ''मुकुट मंदिर ही कहलाती है।
राजस्थान की राजधानी और गुलाबी नगरी जयपुर के ऐतिहासिक इमारतों और भवनों के बाद जब नगर के विशाल उद्यान जय
राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर प्रासाद और
जय निवास उद्यान के उत्तरी छोर पर तालकटोरा है, एक बनावटी झील, जिसके दक्षिण
जयपुर नगर बसने से पहले जो शिकार की ओदी थी, वह विस्तृत और परिष्कृत होकर
बादल महल बनी। यह जयपुर
जयपुर में आयुर्वेद कॉलेज पहले महाराजा संस्कृत कॉलेज का ही अंग था। रियासती जमाने में ही सवाई मानसिंह मेडीकल कॉलेज