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गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य

गलियाकोट दरगाह राजस्थान – गलियाकोट दरगाह का इतिहास

गलियाकोट दरगाह राजस्थान के डूंगरपुर जिले में सागबाडा तहसील का एक छोटा सा कस्बा है। जो माही नदी के किनारे बसा है। जिसे 12वी शताब्दी में भीलों ने एक छोटे गाँव के रूप में बसाया था। उस समय यह गांव चारों ओर से चारदीवारी से घिरा हुआ था। जिसके जीर्णशीर्ण अंश आज भी इस बात के सबूत है कि कभी यह बड़ा किला रहा होगा। आज यह एक अच्छा खासा कस्बा सा बन गया है। इसी कस्बे के उत्तर में लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर एक फकीर सैय्यद फखरुद्दीन का मजार है। जो शिया सम्प्रदाय के बोहरा मुसलमानों का बड़ा ही धार्मिक स्थान है। इसी स्थान पर पीर फखरुद्दीन के शव को दफनाया गया। बाद मे पीर फखरुद्दीन की कब्र पर उनके मानने वाले समुदाय के लोगों ने मजार बनाकर उसे एक दरगाह का रूप दे दिया गया, जो आगे चलकर गलियाकोट दरगाह के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसे मजार-ए-फखरी के नाम से भी जाना जाता है। और आज भी बड़ी संख्या में उनके माननेवाले यहां जियारत करने आते है। और वर्ष में एक बार पीर फखरुद्दीन की दरगाह पर उर्स का आयोजन किया जाता है। जो गलियाकोट का उर्स के नाम से प्रसिद्ध है। इस समय यहां एक बड़ा मेला लगता है। और भारत के कोने कोने से और विदेशों से भी हजारों श्रृद्धालु यहा पहुंचते है।

गलियाकोट दरगाह का प्राचीन इतिहास – Galiyakot dargah history in hindi

गलियाकोट दरगाह का निर्माण संतो, भक्तों व उनके मुरीदों ने समय समय पर काफी निर्माण कराया। दरगाह का बड़ा ही सुंदर गुम्बद लगभग 52 फीट ऊंचा और 21 फीट चौडा संगमरमर का बनाया हुआ है। मजार सफेद मकराना पत्थर की बनी हुई है। जिसकी दीवारों पर पिचकारी का मनमोहक काम है। गुम्बद का भीतरी भाग भी मोहक रंगों व बेलबूटों से सजाया हुआ है। गुम्बद के अलावा चार मीनारें है। दरगाह को बाहर से देखने पर बिल्कुल ताजमहल की तरह नजर आती है। मजार के चारों तरफ चार दरवाजे है। और गुम्बद पर सोने का कलश लगा है। उसके उपर चांद तारा है जिसमें रोशनी होती है। जो दूर से ही देखा जा सकता है। दरगाह के सामने सहन में मकराना पत्थर लगा है। और चारों ओर लोहे की जाली लगी है। बराबर में एक बड़ी ऊंची मीनार है। जिसके अंदर सीढियां लगी है। मजार के ऊपर स्वर्ण अक्षरों में कुरान की आयतें लिखी है। सामने दालान में चारों और बडे महत्वपूर्ण कमरें बने है। जिसमें यात्रियों के ठहरने की सुविधा भी है। अंदर जाने के दो मुख्य दरवाजे है। दरवाजे मे जैसे ही प्रवेश करते है। दांयी ओर नूर मस्जिद है। जिसमें वजू करने की उत्तम व्यवस्था है। जो लघभग सभी मस्जिदों में मिलती है। इसके अलावा महिलाओं को नमाज पढने के लिए मस्जिद में एक ओर अच्छी व्यवस्था है। मस्जिद के दूसरी ओर एक विशाल हाल है। जिसमें यात्रियों को अन्य व्यवस्था होने तक वहां ठहरना पडता है। उसको विश्रामगृह या मुसाफिर खाना भी कहते है। यात्रियों को यहां लंगर भी दिया जाता है। जिसकी व्यवस्था एक प्रबंधक कमेटी करती है। यात्रियों को यहां जाते ही दीवानखाने में अपना नाम लिखाना पड़ता है। विश्रामगृह का एक हिस्सा आलिम साहिबों जो बोहरो के धर्म गुरू होते है उनके लिए सदा रूका रहता है। जिसे वी.आई.पी गेस्टहाउस भी कस सकते है। सामने मजार के बाहर बहुत सारी कब्रें है। उसमे एक ओर दाउद भाई साहब की कब्र है जो पीर फखरुद्दीन साहब के पुत्र थे।

गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य
गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य

पीर फखरुद्दीन साहब गलियाकोट के वालिद का नाम तारमल था। वे राजा सिद्धराज जयसिंह (जिन्होंने गुजरात पर 1094 से 1134 ईसवीं तक राज्य किया था) के वजीर थे। उस समय शिया सम्प्रदाय को बढाने के लिए मिश्र से इमाम मुस्तेन सीर ने मोलाई अहमद साहब और मोलाई याकूब साहब को यमन भेजा, उन्होंने वहां अपने धर्म को बढाया। उन्होंने फिर मोलाई अहमद, मोलाई अब्दुल्ला और मोलाई नूर मोहम्मद को यमन से हिजरी सन् 450 से खम्भात मे भेजा। वहां अब्दुल्ला साहब की काफी कीर्ति फैल गई। उन्होंने अपनी करामात से सूखे कुएँ को पानी से भर दिया। पत्थर के हाथियों को हाथ लगाते ही गिरा दिया। यह चमत्कार देखते ही लोग उनके धर्म को अपनाने लगे। फिर ये लोग खम्भात से पाटन आएं। पाटन गुजरात की राजधानी थी। गुजरात के राजा ने जब धर्म परिवर्तन का मामला देखा तो मोलाई अब्दुल्ला को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। मोलाई अब्दुल्ला ने खुदा से दुआ की और उनके चारों ओर आग की दीवार बन गई। यह चमत्कार देखकर राजा हैरान हो गया और उनका शिष्यत्व ग्रहण करने की प्रार्थना की और फिर पूरा ही राज परिवार उनका शिष्य हो गया।

राज परिवार के साथ उनके वजीर तारमल और उनके भाई भारमल दोनों भी इमाम-अल-मुस्तन-सीर के सम्प्रदाय मे शामिल हो गये। भारमल के लडके याकूब थे। जिनको गुजरात में धर्म प्रचार का कार्य दिया गया, और तारमल के पुत्र सैय्यद फखरुद्दीन थे। जिनको बागड़ (राजपूताना) प्रांत के लिए भेजा गया। फखरुद्दीन जब छोटे थे तब से ही उनमें किसी महान सूफी संत जैसे लक्षण नजर आने लगे थे। वे खेल कूद से अलग रहकर एकांत में मनन किया करते थे। गरीबों की खिदमत करना, भूखों को खाना खिलाना, रोगियों को दवा देना उनका रोजमर्रा का काम था। बाद में उनकों धर्म की पूरी तालीम दी गई। दीनी और रूहानी इल्म हासिल करके पहुंचे हुए फकीर हो गए। उनका स्वभाव धार्मिक तथा संयासी की तरह था। उन्होंने आत्मा की खोज के साथ लोगों को कई चमत्कार बताएँ। इसी कारण इस संत का समाधि स्थल आगे चलकर गलियाकोट के नाम से दाऊदी बोहरो का परम तीर्थ बन गया।

गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य
गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य

कहते है कि जब यह गलियाकोट वाला पीर अपने मुरीदों के साथ सागवाड़ा आ रहे थे। तो उस समय चोरों ने हमला कर दिया। चोरों से लड़ते लड़ते इनके सारे साथी मारे गए सिर्फ़ यही बचे रहे थे। इतने मे नमाज अदा करने का समय हो गया। जब वे नमाज पढ़ रहे थे तब पीछे से चोरों ने इन पर हमला कर दिया। उसी दिन से यह महान आत्मा इस संसार से विदा हो गई। मृत्यु के समय उनकी उम्र 27 वर्ष की थी। उस समय इनकी मृत्यु की खबर किसी को भी मालूम नही पड़ी। कहा जाता है कि एक बैलगाड़ी वाला उधर से गुजर रहा था। जहां पर उनके शरीर को दफनाया गया था। वहां पर बैलगाड़ी का एक पहिया रह गया, और बैलगाड़ी एक ही पहिए से अपने गंतव्य पर पहुंच गई। जब गाड़ी वाले ने देखा कि गाड़ी एक ही पहिये से कैसे आ गई तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह वापिस गया और एक स्थान पर पहिए को पड़ा पाया। उसने उसको उठाने की बहुत कोशिश की पर वह पहिया उठ न सका। बाद में उसे ख्वाब मे पीर फखरुद्दीन दिखाई दिये और कहा कि– मै लोगों की भलाई के लिए सागबाडा जा रहा था। चोरों ने मुझे मारकर इस जगह दफनाया है। यहां मेरी कब्र बना दी जावें। फिर वहां उनकी कब्र बना दी गई और लोगों की मुरादें पूरी होने लगी तथा गलियाकोट वाले पीर बाबा की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई।

इस तरह से धार्मिक समुदाय का प्रवाह आत्मा की खोज तथा अपनी मुराद पूर्ति के लिए यहां आने लगा। जैसे ही मुराद पूरी होती यात्री फिर अपनी मनौती चढ़ाने वहा जाने लगे तब से ही हजारों दाउदी बोहरा समुदाय प्रतिवर्ष जियारत करने को आने लगे, और इस गलियाकोट वाले फकीर बाबा के प्रति अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करने लगे। बाद मे उसने उर्स का रूप ले लिया। गलियाकोट का उर्स मोहर्रम की 27 तारीख को मनाया जाता है। जो इस्लामी मौहम्मदीय हिजरी कलेंडर का पहला महीना है। दाऊदी बोहरा मिश्री कलैंडर के अनुसार चलते है। इस कलैंडर के अंदर पहला महिना 30 दिन का, दूसरा महिना 29 दिन का, व अन्य इसी तरह 30 तथा 29 दिन के होते है। सुन्नी मुसलमान हिजरी कलैंडर के अनुसार चलते है।




गलियाकोट दरगाह पर उर्स मनाने की तैयारियां मोहर्रम की 20 तारीख से ही शुरू हो जाती है। मोहर्रम की 20 तारीख की सुबह मजार की सफाई होती है। मजार को चंदन से मजावरो द्वारा धोया जाता है। मन्नतें मांगने वाले उस पानी को घर ले जाते है। और अपना अहोभाग्य समझते है। ऐसी धारणा और विश्वास है कि इस पानी को पीने से दैहिक, देविक और भौतिक कष्ट दूर हो जाते है। बाद में सबसे पहले मजावर साहिबानों द्वारा सफेद चादर चढाई जाती है। उसके बाद अपनी अपनी श्रृद्धा और हैसियत के अनुसार चादरें चढ़ाई जाती है। धनवान लोग जरी की भी चादरें चढ़ाते है। उर्स के समय हजारों यात्री यहा इकट्ठा हो जाते है। उर्स मे न केवल भारती होते है बल्कि विदेशों से भी काफी संख्या में यात्री यहां जियारत करने आते है। उर्स की समय यहां काफी सजावट होती है। चारो ओर रोशनी होती है। गुबंद को खूशबूदार फूलो से ढक दिया जाता है। और सारे दिन जियारत का सिलसिला जारी रहता है। यहां रात का खास प्रोग्राम होता है। कव्वालियों की मजलिस में काफी भीड होती है। तथा यात्रियों द्वारा का भरपूर आनंद उठाया जाता है।

गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य
गलियाकोट दरगाह के सुंदर दृश्य

गलियाकोट दरगाह वाले इस पीर का इतना प्रभाव है कि लोगों की मुराद न केवल वहां जाने पर ही पूरी होती है। बल्कि घर बैठे बैठे भी यदि कोई मन्नत करता है तो उसके सारे काम पूरे हो जाते है। ऐसी भी मान्यता है कि यदि किसी का बालक बिमार हो जाता है तो बाबा की मिन्नत की जाती है कि यदि मेरा बच्चा ठीक हो गया तो मै जियारत को आऊंगा और आपके यहा आकर मनौती चढ़ाऊंगा, और जब उसकी मुराद पूरी हो जाती है। तो वह यहा पर बच्चों को अपनी श्रृद्धा अनुसार नमक, गुड तथा मिश्री और मेवा से तोला जाता है। और उसको वहां चढाया जाता है। इसके अलावा उनके प्रति श्रृद्धा अर्पित करने के लिए मजार के चारों ओर नारियल और लड्डू की पाल बनाई जाती है। एक अन्य प्रकार से जिनकी मुरादें पूरी होती है वे दूध व दही के घड़े को वहां रख देते है। उन दुध व दही के घड़ो को वे यात्री पी जाते है जिनकी मनोकामना अभी तक पूरी नहीं हुई है।





गलियाकोट की दरगाह के संबंध में एक किस्सा भी प्रचलित है कि। हिजरी सम्वत् 1340 में उदयपुर के सेठ रसुलजी, बल्लीजी के लडके फखरुद्दीन साहब की मजार पर फल चढाने के लिए आये। इसी समय उदयपुर के ही दो छोटे बच्चे मुहम्मद हुसैन और मेमुना नीचे बैठे हुए थे। सेठ ऊपर से फल लुटाकर जैसे ही नीचे ऊतर रहे थे। मजार का एक खम्भा गीर गया। जिससे दोनों बच्चों को बड़ी चोट आई और सभी यात्रियों ने उन्हें मरणासन जान लिया। तभी एक बाबा वहा आएं उन्होंने बच्चों का उपचार किया। और यह कहकर चले गए कि जब तक मै नहीं आऊं तब तक किसी की दवा मत करना। जब तीन दिन तक बाबा नही आएं तो मां बाप को चिन्ता हुई और उन्हे तलाश किया। चौथे दिन बाबा स्वयं ही वहां आएं और उपचार किया बच्चे थोडे समय में ही ठीक हो गए। लोगों ने जब बाबा का नाम पूछा तो उन्होंने बताने से इंकार कर दिया तथा गायब हो गए।

इस वाकिये को याद रखकर आज भी हजारों भक्त श्रृद्धा रखकर उनकी मनौती मानते है। और लाभ उठाते है। कहते है कि एक श्रृद्धालु कलकत्ता के रहने वाले नियामत अली प्रतिवर्ष कलकत्ता से गलियाकोट पैदल चलकर आते थे। कहा जाता है कि उनके कोई बच्चा नहीं था। धन की कोई कमी नहीं थी। बाबा की कृपा से उन्हें बच्चा हुआ और तब से ही प्रतिवर्ष पैदल आने का संकल्प उन्होंने लिया था। इसी तरह विदेशों से भी कई यात्री पैदल चलकर प्रतिवर्ष जियारत करने गलियाकोट दरगाह पर आते है।





गलियाकोट की दरगाह हिन्दू मुस्लिम एकता का भी प्रतीक है। यहा न केवल मुस्लिम लोग ही आते है बल्कि हिन्दुओं की भी मुरादें पूरी होती है। और हिन्दू मुसलमान एक साथ उनको सम्मान अर्पित करते हैं। विशेषकर भील तो उन्हें तुरन्त आराम देने वाले बाबा के रूप में मानते है। उन्हें किसी तरह की तकलीफ हो कोई झंझट हो वे वहां जाते है ओर दालान मे खडे होकर एक कुलडी में पानी लेकर उसे चारो और फिराकर अपनी श्रृद्धा अर्पित करते है। और वह पानी बीमार को पिलाते है तो दुख दर्द बिमारी दूर हो जाती है ऐसी भी मान्यता है।




इसके अलावा यह भी मान्यता है कि जिस प्रकार हिन्दुओं में कई स्थानों पर भूत प्रेत तथा भटकती हुई आत्माओं की छाया से छुटकारा दिलाया जाता है। उसी प्रकार हिन्दू हो या मुसलमान या अन्य किसी भी धर्म, कौम का हो ऐसी आत्माओं से छुटकारा पाने यहा आते है। और यहा हिन्दू मुस्लिम एकता की एक बडी खूबसूरत बात यह है की दरगाह से लगा हुआ शीतला माताजी का बड़ा भव्य मंदिर है। जिसके दर्शन के लिए लोग बडी दूर दूर से आते है। अतः यह हिन्दू मुसलमान के संगम तीर्थ के नाम से भी श्रृद्धालुओं में जाना जाता है।


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जयपुर में आयुर्वेद कॉलेज पहले महाराजा संस्कृत कॉलेज का ही अंग था। रियासती जमाने में ही सवाई मानसिंह मेडीकल कॉलेज

Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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