ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को गंगा दशहरा कहते हैं। गंगा दशहरा के व्रत का विधान स्कन्द-पुराण और गंगावतरण की कथा वाल्मीकिरामायण में लिखी है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी सम्वतसर का सुख है। इसमें स्नान और विशेष करके दान करना चाहिये। सर्वप्रथम तो गंगा दशहरा पर गंगा स्नान ही का माहात्म्य विशेष है। यह न हो सके तो किसी भी नदी मे तिलोदक देने का विधान है। जिससे मनुष्य दस महा पापों से मुक्त होकर विष्णु-लोक को जाता है।
गंगा दशहरा का महत्व
ज्येष्ठ शुक्ला दशमी यानि गंगा दशहरा को यदि सोमवार हो और हस्ति-नक्षत्र हो तो यह तिथि सब पापों के हरण करने वाली होती है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को बुधवार के दिन हस्ति नक्षत्र में गंगाजी भूतल पर अवतरित हुई थीं। इसी कारण यह तिथि महान पुण्य-पर्व मानी गई है। इसमें स्नान, दान और तर्पण करने से दस महा पापों का हरण होता है। इसी कारण इसके गंगा दशहरा कहते हैं।
गंगा अवतरण की कथा – गंगा दशहरा व्रत कथा
गंगा अवतरण की कथा के अनुसार अयोध्या के महाराज सगर के दो रानियाँ थीं। एक का नाम था केशिनी और दूसरी का सुमति। केशिनी के एक पुत्र और एक अंशुमान नामक पौत्र था। परन्तु सुमति के साठ हजार पुत्र थे। ये साठ हजार भाई राजा सगर के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को ढूँढ़ने गये थे और कपिलदेवजी की शक्ति से वे सब भस्स हो गये। जब अंशुमान कपिलदेवजी के आश्रम पर गया, तब महात्मा गरुड़जी ने कहा– अंशुमान ! तुम्हारे साठ हजार चाचा अपने पापाचरण के कारण कपिलदेवजी के श्राप से भस्म हो गये हैं। यदि तुम उनकी मुक्ति चाहते हो तो स्वर्ग से गंगाजी को पृथ्वी पर लाओ। इनका अलोकिक जल तरण-तारण नहीं कर सकता। अतः हिमवान पर्वत की बड़ी कन्या गंगा के जल ही से इनकी क्रिया करनी चाहिये। इस समय तो घोड़े को ले जाकर पितामह के यज्ञ के समाप्त करो। तदनन्तर गंगाजी के इस लोक में लाने का प्रयत्न करो। अंशुमान घोड़े को लेकर सगर के यज्ञ-स्थान में पहुँचा और उसने पितामह से सारा समाचार कह सुनाया।
महाराज सगर का देहावसान होने पर मंत्रियों ने अंशुमान को अयोध्या की गद्दी पर बिठाया। राज पाकर अंशुमान ने अच्छा यश प्राप्त किया और ईश्वर की कृपा से इनका पुत्र दिलीप भी बड़ा प्रतापी हुआ। राजा अंशुमान पर्वत पर दारुण तप करने लगा। वह उसी स्थान पर पंचतत्व को प्राप्त हुआ, परन्तु गंगाजी को न ला सका । कालान्तर मे दिलीप भी अपने पुत्र को राज देकर स्वयं गंगाजी के लाने के उद्देश्य में तत्पर हुआ। किन्तु वह भी अपने उद्देश्य मे विफल हुआ।
राजा दिलीप का पुत्र भगीरथ बड़ा ही प्रतापी और धर्मात्मा राजा था। वह चाहता था कि एक सन्तान हो जाय, तो में भी गंगाजी को लाने का प्रयत्न करूँ। किन्तु जब प्रौढावस्था प्राप्त होने तक कोई सन्तान न हुई, तब मन्त्रियों को राज्य का भार सौपकर वह गंगाजी का लाने के लिये गोकर्ण तीर्थ मे तपस्या करने लगा। इन्द्रियों को जीत कर पंच्चाग्रि ताप से तपना, उध्वर्वाहु रहना और मास मे एक बार आहार करना। इस प्रकार की घोर तपस्या करते हुए जब बहुत वर्ष बीत गये, तब सब देवताओं को साथ लेकर प्रजाओ के स्वामी ब्रह्मजी राजा भगीरथ के पास जाकर बोले –हे राजन ! तुमने अभूतपूर्व तप किया है। इसलिये प्रसन्न होकर में तुमको वरदान देने आया हूँ। तुम इच्छानुकूल वर माँग सकते हो।
गंगा दशहरा व गंगा अवतरण कहानीराजा भागीरथ हाथ जोड़कर बोला– हे नाथ ! यदि आप प्रसन्न हैं तो महाराज सगर के साठ हजार पुत्रो के उद्धार के लिये गंगाजी को दीजिये। बिना गंगाजी के उनकी मुक्ति होनी असम्भव है। इसके अतिरिक्त इक्ष्वाकु वंश से आजतक कोई राजा अपुत्रक नहीं रहा। इसलिये मुझको एक संतान का भी वरदान दीजिये।
राजा के इस विनय को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा– राजन! तुम्हारे कुल को उज्ज्वल करने वाला एक पुत्र तुमको प्राप्त होगा और सगरात्मजों का उद्धार करने वाली गंगाजी भी निःसंदेह पृथ्वी पर आयेगी। परन्तु महान वेगवती गंगा को धारण करने की शक्ति भगवान शिव के सिवाय ओर किसी में नहीं है। इसलिये तुम शिवजी को प्रसन्न करो।
इतना कहकर देवताओं-समेत ब्रह्माजी अपने लोक को चले गये और जाते समय गंगाजी को आज्ञा कर गये कि सगर की सन्तान को मुक्ति प्रदान करने के लिये तुमको भूलोक में जाना होगा। इधर राजा भागीरथ पैर के एक ओंगूठे पर खड़े होकर महादेवजी की आराधना करने लगा।एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर भगवान शिव जी ने वरदान दिया कि में अवश्य ही गंगा को शीश पर धारण करूँगा।
अस्तु ज्यों ही गंगा की धारा ब्रह्मलोक से भूतल पर आई, त्योंही वह शिव जी को जटाओ मे विलीन हो गई। पुराणों का मत है कि जब भगवान् ने वामन-रूप धारण कर राजा बलि के यहाँ भिक्षा माँगी और तीन पग से सारी पृथ्वी को माप लिया था, उस समय ब्रह्माजी ने भगवान् का चरणोदक अपने कमण्डल मे भर लिया था। उसी का नाम गंगा था। इसी कारण गंगा के विष्णुपादोद्रव भी कहते हैं।
ब्रह्मलोक से आते समय गंगा ने मन मे अहंकार किया कि मे महादेवजी को जटाओं को भेदन करके पाताल लोक से चली जाऊँगी। इससे महादेवजी ने अपनी जटा-जूट को ऐसा फैलाया कि कितने ही वर्ष बीत जाने पर भी गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का मार्ग न मिला। जब राजा भगीरथ ने पुनः शिवजी की आराधना की तब शिवजी ने प्रसन्न होकर हिमालय मे ब्रह्मा जी के बनाये बिंदुसर तालाब मे गंगा जी को छोड़ दिया। उस समय गंगा की सात धाराएँ हो गई। उनमें से हादिनी, पावनी ओर नलिनी ये तीन धाराएँ तो बिंदुसर से पूर्व दिशा की ओर बहीं और सुचक्षु, सीता तथा सिंधु ये तीन नदियाँ पश्चिम दिशा को बही। सातवीं धारा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चली। महाराज भगीरथ दिव्य रथ पर चढ़कर। आगे-आगे चले जाते थे और गंगा उनके रथ के पीछे-पीछे। पुराणों मे यह भी लिखा है कि गंगा ने राजा भगीरथ से कहा कि तुम रथ पर बैठकर जिस ओर को चलोगे, उसी ओर में तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंगी। इस प्रकार जब गंगा पृथ्वी-तल पर आई’ तो बड़ा कोलाहल हुआ।
जहाँ- जहाँ से गंगाजी निकलती जाती थीं, वहाँ-वहाँ की भूमि अपूर्व शोभामयी होती जाती थी। कहीं ऊँची, कहीं नीची और कहीं समतल भूमि पर बहने से गंगाजी की अपूर्व शोभा हो रही थी। आगे भागीरथ, उनके पीछे गंगा ओर गंगा के पीछे देवता, ऋषि, देत्य, दानव, राक्षस, गंधर्व, यज्ञ, किन्नर, नाग, सर्प ओर अप्सराओं की भीड़ चली जाती थी। महात्मा जन्हु गंगा के मार्ग में तपस्या कर रहे थे। जब गंगा उनके पास से निकलीं तो वह समूची गंगा को पान कर गये। देवताओं ने यह दृश्य देखकर जन्हु की बड़ी प्रशंसा की ओर उनसे कहा — कृपा करके लोक के कल्याण के लिये आप गंगा के छोड़ दीजिये। आज से यह आपकी कन्या कहलायेंगी।
जन्हु ने गंगा की धारा के अपने कान से निकाल दिया। तभी से गंगा का नाम जान्हवी पड़ गया। गंगा इस प्रकार अनेक स्थानों को पवित्र करती हुईं उस स्थान पर पहुँचीं, जहाँ सगर के साठ हजार पुत्रो के भस्म का ढेर लगा हुआ था। गंगाजी के जल का स्पर्श होते ही वे सब मुक्ति को प्राप्त हो गये। उसी समय स्वर्ग लोक के अधिपति ब्रह्माजी भी वहाँ प्रकट हुये। ब्रह्माजी अति प्रसन्न होकर भगीरथ से बोले– हे राजन! तुमने अपूर्व तप किया है, इस कारण तुम्हारा नाम अमर हो गया। गंगा का एक नाम भागीरथी होगा, जो सदैव तुम्हारा स्मरण कराता रहेगा। सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हो गया। अब तुम अयोध्या में जाकर धर्म और नीति-पूर्वक प्रजा का पालन करो। यह कहकर ब्रह्माजी स्वर्ग लोक को सिधारे और राजा भगीरथ अयोध्या को चले गये। गंगा अवरतण की इसी स्मृति में गंगा दशहरा मानाया जाता है।
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