अल्लाताला के एक मजनू थे। वली खुर्रम शाह जिन्हें खुदा की बख्शी तमाम रूहानी ताकतें हासिल थी जिनके जरिये वो अवाम में खुशियाँ बाँटते फिरते थे। उन्हीं की यादगार में उन्हीं की रूहानी ताकतों से भरापूरा यह खुर्रम शाह दरगाह उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के कोंच के आजाद नगर मुहल्ले में बना है। जहां बड़ी संख्या में जुमेरात को जियारिन जियारत करने आते हैं। इसे तकिया खुर्रम शाह के नाम से भी जाना जाता है।
खुर्रम शाह दरगाह का इतिहास
सन 1755 से 1765 के बीच यह तकिया तामीर हुआ। वली खुर्रम शाह जिनके नाम पर आज यह तकिया आबाद है वे औरंगजेब के वक्त के थे। वली खुर्रम शाह की उमर के बारे में यह कहा जाता था कि वली की उमर सौ साल से ज्यादा थी। सन 1755 में वली खुर्रम शाह का इन्तकाल हुआ और उनके बाद वली निहालुद्दीन शाह को यह शाही रूतबा हासिल हुआ।
सन 1765 में इनके इन्तकाल के बाद वली रूह उल्ला शाह वली हुए। सन 1792 में इमामशाह फिर सन 1824 में फकीर उल्लाशाह फिर सन 1839 में यकीन शाह फिर सन 1880 में मुहम्मद शाह फिर सन 1921 में अकबर शाह और सन 1934 में शाह मुजफफर अली कौकब इस तकिया की गद्दी पर गद्दीनसीन हुये और उनको वली रूतबा हासिल है।
तकिया खुर्रम शाह के अल्फाजी मायने पर गौर करने से पता चलता है कि यह तीन अल्फाजों से मिलकर बना है। ‘तकिया’ अरबी व फारसी दोनों का वह लफ्ज है जिसेके मायने होती है वह जगह जहाँ फकीर रहता है तथा जिस पर पूरा एतबार किया जा सके। खुर्रम लफ़्ज़ फारसी का है। और इसका इस्तेमाल लक़ब विषेशण के रूप में होता है। इसका अर्थ होता है खुश, आनंद, प्रसन्न, हराभरा तथा आफताब से दूर रहने वाला। शाह लफ्ज़ फारसी का है जिसके मायने होता है खुदाबन्द, फकीरों को पुकारने का लकब, दाता। शाह लफ्ज का इस्तेमाल बादशाह के लिए सिर्फ इस वजह से किया जाने लगा क्योंकि वह अवाम की जड़ और उसका आका होता है। तकिया खुर्रम शाह के इन मायनों की वजह से यह नतीजा निकाला जा सकता है कि यह वह जगह है जहाँ जहाँनी आफताब से दूर रहने वाला खुशमिजाज, खुदावन्द अपनी झोली से दूसरों में खुशियाँ व मुहब्बत बाँटने वाला और जिस पर सबका इत्मीनान हो , ऐसा फकीर आराम फरमाता हो।

आजकल इस तकिया के वारिस श्री शाह मुजफ्फर अली कौकब अल कादरी उम्र 82 वर्ष ने बतलाया कि यह जगह दगियाना कहलाती है क्योंकि इस जगह पर ही हिन्दू ठाकुरों ने इस्लाम कबूल किया था जिसकी वजह से हिन्दू ठाकुरों की कौम पर दाग लग गया और यह जगह दगियाना हो गयी।
तकिया खुर्रम शाह का वास्तुशिल्प
तकिया खुर्रम शाह 30×30 फुट के चौकौर व 3 फुट ऊँचे चबूतरे पर बना है। इसकी ऊँचाई 60 फुट है तथा इसका दरवाजा दक्खिन की तरफ है और इसकी दीवारें 3-3 फुट मोटी है। इस तकिया खुर्रम शाह में जमीनी धरातल पर वली खुर्रम शाह की मजार तामीर है और जमीनी मंजिल के ऊपर पहली मंजिल की चारों दीवारों और चारों गेट कोनों पर मेहराबदार आठ फुट ऊँचे आले बने हैं जिनके ऊपर गोल डाट पड़ी है तथा जिसके बीचों बीच कुछ लटकाने बावत एक कुन्दा लगा है और इस कुन्दे के तारों तरफ कमल के फूल के मानिंदफूल बने हैं। दीवारों और गोलडाट के सन्धि स्थल पर तोड़ो पर आधारित चौकौर जगह बनी है, जिसपर कमल की पंखुड़िया बनी है। छल्ले के तोड़ों पर तोता, मोर परिन्दों की तस्वीरें तामीर है और कमल फूल भी बने है। पहली मंजिल पर ही तकिये की चारों दीवारों के चारों कोनों पर एक-एक गुम्बदा युक्त मीनार बनी है। बीच के हर मुख्य गुम्बद पर एक फूल बना है जिसके बीच में कलश स्थापित है। वास्तुशिल्प की दृष्टि से सम्पूर्ण तकिये में हिंदू हिन्दू वास्तुकला की छाप दिखाई पड़ती है।
प्रचलित किंवदन्तियां
तकिया खुर्रम शाह के बारे में यह मशहूर है कि यहां पर जो भी मन्नत माँगी जाती है वह वली की आसमानी ताकत के जरिये जरूर पूरी होती है इसी कारण आज भी हिन्द मुसलमान बगैर किसी भेदभाव के यहाँ पर आते हैं और अपनी मुरादों की झोली भरकर ले जाते हैं। वली साहब के हजारों चेले थे और हमेशा घूमते ही रहते थे।
इस तकिये के दाहिने बाजू पर एक दीवार बनी है। कहते हैं कि एक दिन वली खुर्रम शाह सुबह के वक्त इसी दीवार पर बैठे थे उसी समय कोई हाकिम मिलने आये। वली साहब उसी दीवार पर बैठे रहे और दीवार ने आगे बढ़कर हाकिम की अगुवाई की। इस तरह से दीवार के चलने का यह वाकया है। वली के कई इसी तरह के हैरतंगेज करामातें है।
मसलन वली साहब के एक चेले थे जिन्हें घूमने फिरने का बहुत शौक था। एक बार वे कीमियागीरी सीखकर वली खुर्रम शाह के हुजूर में पहुँचे और अपनी की मियागीरी के हुनर के बावत बढ़ चढकर बात की। वली खुर्रम साहब ने अपने ‘स्तन्जापाक’ का डेला एक पत्थर पर फेंककर मारा। वह पत्थर वली के स्तंनजा पाक से छूकर खालिस सोने में तब्दील हो गया तब उस चेले का चेहरा शर्म से झुक गया।
इस तकिया खुर्रम शाह के बारे में यह भी रवायत मशहूर है कि फकीर उल्ला शाह के वक्त कोई मकोई नाम का गोरा अंग्रेज शराब पीकर व जूते पहिने हुए वल्ली साहब की मजार पर चढ़ने जा रहा था कि उसने जैसे ही मजार के दरवाजे की जंजीर छुई किसी रूहानी ताकत ने उसे बाहर फेंक दिया जिससे उसका सिर फट गया और वह वहीं पर मर गया। आज भी चमेंड मौजे में उस गोरे अंग्रेज की कब्र बनी है जो मकोई बाबा के नाम से जानी जाती है। उस दिन में यह मशहूर हो गया कि इस तकिये पर कोई अंग्रेज नहीं चढ़ेगा। वास्तव में मकोई नाम का कोई अंग्रेज नहीं था। उस समय कैप्टेन मेकाले ले था। जो रानी लक्ष्मीबाई के साथ कोंच में हुए ऐतिहासिक युद्ध में मारा गया आज भी वहीं मैंकाले मकोई बाबा के नाम से जाना जाता है। क्योंकि यदि मकोई अंग्रेज इस तकिये पर मरता तो उसकी कब्र वहीं आस पास कहीं होनी चाहिएं थी न कि इस तकिये से 2 मील दूर। यहाँ पर यह तथ्य भी दृष्टव्य है के भदेवरा से लेकर धमूरी तक मकोई बाबा का स्थान कहा जाता है उसके आस पास मैदान में तमाम अंग्रेजों की कब्रे जिन्हें यहाँ स्थानीय भाषा में मुनारें कहा जाता है। चूँकि वली साहब को औरतों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इस वजह से वली साहब के हुजूर में औरत जात नहीं जाती है।
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