इस जगत में अनेक प्रकार के मनुष्य रहते हैं, न जाने कितनी प्रकार के तो उनके वर्ण है। कोई गोरा, कोई काला, कोई गेहुँआ तो कोई साँवला कोई ताँबे जैसे वर्ण का, तो कोई पीतल वर्ण का। इन की कोई गिनती नहीं। हमाराभारत भी अनगणित जातियों का देश है। खासी जनजाति भी एक विचित्र प्रकार को पहाड़ी-जाति है। इन का प्रदेश वास्तव में शीलांग तथा चिरापूंजी के मध्य की पहाड़ियों में है। दूसरे शब्दों में यदि इस प्रदेश को सर्पों का देश कहा जाये, तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं। कारण यह है, कि खासी लोग बड़ी श्रद्धा से सांपों की पूजा करते हैं। यही नहीं अपितु इस प्रदेश में सांप इतनी अधिक संख्या में पाये जाते हैं, कि यदि कोई बाहर का मनुष्य वहां जा कर रहने लगे, तो सांप देख देख कर ही वह मारे भय के थोड़े ही दिनों में इस प्रदेश को छोड़ने पर विवश हो जाये। वास्तव में खासी प्रदेश एक प्रकार से सर्प-भूमि ही है।
खासी जनजाति कहाँ पाई जाती है? खासी जनजाति का धर्म क्या है?खासी जनजाति की मातृवंशीय व्यवस्था क्या है?
खासी जनजाति का व्यवसाय क्या है? खासी जनजाति की विशेषताएं क्या हैं? खासी जनजाति में कौन सी भाषा बोली जाती है? खासी जनजाति के उत्सव और त्योहार?
खासी जनजाति का जनजीवन
सर्पो की पूजा में इन की इतनी प्रधिक श्रद्धा है, कि बहुत से खासी लोग तो कभी कभी उसे प्रसन्न करने के लिये, उसके समक्ष मनुष्य का वध करके उसका रक्त चढ़ाते हैं। वैसे पहले की अपेक्षा पयह प्रथा अब नाम मात्र को ही रह गई है। परन्तु फिर भी कहीं कहीं यह काण्ड अब भी हो ही जाते हैं। फिर भी सरकार की ओर से इस पाप कर्म पर कड़ी पाबन्दी लगा दी गई है। जिस कारण बहुत से लोगों ने यह कार्य छोड़ दिया है। मनुष्य का वध प्रायः ऐसी स्थिति में किया जाता है, जबकि कोई भयानक सर्प किसी के घर में भ्रपना भट्ट बना ले, तथा किसी भी उपाय से घर को छोड़ने का नाम न ले। ऐसी दशा में ये लोग मनुष्य-हत्या जैसा क्रूर कर्म करने पर उतारू होते हैं। सर्प के घर में जम जाने पर इन लोगों को जीवन का भय हो जाता है। इसके भ्रतिरिक्त इन लोगों की धारणा हो जाती है, कि अब सर्प देवता हम से रुष्ट है, वह तभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। तब तक उस की यही दशा रहेगी, जब तक कि उसे मानव का रक्त न चढ़ाया जाये।
हत्या करने से पहले इन लोगों में एक विश्वास बुरी तरह जमा रहता है, कि जिस व्यक्ति को भी शिकार के लिये निश्चित किया जाय फिर उसका ही रक्त सर्प देवता को चढ़ाया जाता है, किसी और का रक्त चढ़ाने से सर्प देवता इतना रुष्ट हो जाता है, कि फिर वंश मिटा कर ही पिंड छोड़ता है। इसलिये शिकार करने से पूर्व यह बात ध्यान में रखी जाती है, कि लक्ष्य पर ही दाव चले। मनुष्य का शिकार करने के लिये, इन्हें तीर कमान, बन्दूक तथा तलवार आदि हथियारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस प्रकार का शिकार करने का ढंग बिल्कुल अनोखा, तथा आश्चर्य जनक है। जो भी व्यकित यह कर्म करने के लिये तैयार होता है। वह पहले नहा धो कर अपनी देह को पवित्र करता है। इसके पश्चात शुद्ध- वस्त्र धारण करता है। शिकार को जाते समय उसके पास एक केंची, एक चाकू, तथा एक सूआ आदि होना अनिवार्य है। ये सब चीज़ें चांदी की होती हैं। लोहे के बने हथियारों का उपयोग वर्जित है। हल्दी मिले चावलों के कुछ दाने भी साथ होने आवश्यक हैं। जिस व्यक्ति को शिकार का लक्ष्य बनाया जाये, उसे कोई रोग नहीं होना चाहिये, तथा उसका कोई अंग नष्ट हुआ नहीं होना चाहिये। ये सब बातें ध्यान में रख कर ही शिकार को प्रस्थान किया जाता है।
एक बात अत्यन्त आवश्यक यह भी है, कि यह शिकार किसी भी हथियार आदि से नहीं किया जाता। जो आदमी शिकार के लिये प्रस्थान करता है, यदि उसमे आवश्यकता अनुसार कोई व्यक्ति सर्व-गुण सम्पन्न प्रतीत होता है, तो वह एक मंत्र पढ़ कर साथ लाये हुए चावल के दाने नियत व्यक्ति की ओर फेकता है। इसके प्रभाव से वह आदमी शक्तिहीन हो कर चुपचाप खड़ा हो जाता है। ऐसी अवस्था में शिकारी व्यक्ति बड़ी सरलता से उसे रस्सी से बाँध लेता है। किर उसे धरती पर लिटा कर साथ लाए हुए हथियारों से उसके कुछ केश काट लेता है। सूए से उसके नयनों को फोड़ कर कुछ रक्त एकत्रित कर लेता है। और इन सब वस्तुओं को लेकर पुन: घर लौट आता है। इस अवसर पर घर में बड़ा हर्ष मनाया जाता है। तथा युक्त अनुसार ये वस्तुएं सर्प देवता को अर्पण कर दी जाती हैं। इसका प्रभाव यह होता है, कि फूटे हुए नथने वाला व्यक्ति धीरे धीरे बीमार होने लगता है, और कुछ दिन के पश्चात तड़प तड़प कर मर जाता है। उसकी मृत्यु होते ही सर्प देव उस घर का परित्याग कर कहीं अन्यत्र चले जाते हैं। परन्तु यह कुछ काल पूर्व की बातें हैं। अब तो ऐसे नीच कर्म कोई नहीं करता। फिर भी कहीं कहीं कभी ऐसे दुष्ट व्यक्ति मिल ही जाते हैं।
खासी जनजातिइनके घरों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये लोग बिल्कुल जंगली हैं। पर यदि भीतर जा कर उन्हें देखा जाये, तो ऐसा लगता है जैसे किसी राजपूत के घर में आ गये हों। प्रत्येक घर में आपको धनुष-बाण, ढाल, तलवार आदि देखने को मिलेंगे, जिस से यही प्रतीत होता है, जैसे ये लोग किसी युद्ध-प्रिय जाति से सम्बन्धित हैं। वास्तव में बात ऐसी ही है। खासी जनजाति के लोग बड़े अनोखे निशानेबाज़ होते हैं। युद्ध कला में इन्हें पूर्ण रूप से निपुणता प्राप्त होती है।
जनवरी के पश्चात खासी लोग निशाने बाजी का खेल खेलते हैं, जिसमें सभी निशानेबाज़ भाग ले सकते हैं। यह इस प्रकार होता है, कि एक गांव के आदमी दूसरे गांव के आदमियों को चुनौती देते हैं। यदि उस गांव के आदमी इसे स्वीकार कर लें, तो फिर खेल खिलाने वाले, तथा खेल में भाग लेने वाले लोगों का चुनाव होता है। जब दोनों पक्षों के लोग अपना चुनाव कर लेते हैं, तो खेल के लिये एक विशेष दिन निश्चित कर दिया जाता है।
जब निश्चित दिवस आता है, तब एक स्थान पर सब आदमियों के धनुष-बाण एकत्रित कर दिये जाते हैं। इसके पश्चात दोनों पक्षों के लोग एक मत हो कर अपना एक मध्यस्थ चुनते हैं । यही मध्यस्थ उन सब खिलाड़ियों को धनुप बाण आदि उठाने की आज्ञा देता है। आज्ञा मिलते ही सब लोग अपने अपने धनुष और बाण उठा कर नियत स्थान पर अलग अलग पंक्तियों में खड़े हो जाते हैं और खेल प्रारम्भ होता है। दोनों पक्षों के खेल खिलाने वाले अपनी अपनी योग्यता अनुसार खिलाड़ियों को बाण चलाने की आज्ञा देते रहते हैं। खेल का निर्णाय खेल की समाप्ति पर दोनों पक्षों द्वारा चुना गया मध्यस्थ ही करता है। तथा इसी की आज्ञानुसार खेल समाप्त किया जाता है। इस खेल को देखने के लिये आसपास के ग्रामों के हजारों आदमी एकत्रित होते हैं। स्त्रियां भी इस दिन किसी से पीछे नहीं रहतीं। वे खेल में भाग लेने वालों को समय समय पर जल-पान आदि कराती रहती है।
वैसे तो खासी लोग अपने आप को हिन्दू ही मानते हैं, परन्तु मूर्ति-पूजा की ओर इन का सर्वथा झुकाव नहीं हैं। किसी नरक आदि की कल्पना भी इनके विचारों में नहीं है। इन लोगों का विश्वास है, कि मरने के पश्चात मनुष्य ईश्वर के स्वर्ग रूपी कानन में जाता है, जहां पहुंच कर उसे फिर किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रहता।
खासी लोगों में अपने मृतक-जनों का अन्तिम संस्कार करने की रीति भी बड़ी विचित्र है। सर्व प्रथम ये लोग अपने मुर्दे को गरम पानी से स्नान करा कर कफ़न आदि पहनाते हैं, इसके बाद उसे कुछ आभूषण भी पहनाये जाते हैं। फिर उसके मस्तक में कच्चे धागे लपेटे जाते हैं। यह सब कुछ हो जाने के बाद शव को किसी एकान्त कमरे में लिपे हुये स्थान पर नई चटाई बिछा कर लिटा दिया जाता है। यदि वह शव किसी पुरुष का हो, तो एक मुर्गें की बलि दी जाती है, अन्यथा स्त्री होने पर बेल की बलि चढ़ाई जाती है। बैल का निचला जबड़ा, तथा मुर्गे की बायीं टांग शव के निकट रख दी जाती है। तथा इन जानवरों का मांस किसी वस्त्रादि में बांध कर जिस स्थान पर शव को लिटाया गया हो; उसके ऊपर छत से लटका दिया जाता है। तथा उसके पेट पर खाने पीने की वस्तुएं रख दी जाती हैं। तीन दिन तक शव को रहने दिया जाता है। इसके बाद उसे श्मशान में ले जाकर विधिपूर्वक फूंक दिया जाता है। इस अवसर पर सूअर की बलि दी जाती है। शव को आग में डालने से पूर्व उसके निकट कुछ धन भी रख दिया जाता है। खासी लोगों की धारणा है, कि मृत प्राणी ईश्वर कानन की यात्रा को जा रहा है, भर वहां तक पहुंचने में उसे कई दिन लगेंगे। इस धन से रास्ते में वह अपने खान पान के लिए कुछ वस्तुएं खरीद सकता है। यदि रुपये न रखे जाये, तो उसे भूख से व्याकुल हो कर भटकते फिरना पड़ता है।
ऐतिहासिक स्रोतों से पता चलता है, कि किसी समय ये लोग सम्पूर्ण आसाम के पहाड़ी क्षेत्रों पर राज्य करते थे। कहा नहीं जा सकता कि इनका राज्य कैसे मिट गया। पर कुछ बातें इन में ऐसी दिखाई पड़ती हैं, जिन से इनके गौरवपूर्ण अतीत की कल्पना की जा सकती है। आजकल तो ये लोग अधिकतर मजदूरी करके ही जीवन निर्वाह करते हैं, शिक्षा तो उन्हें छू तक भी नहीं गई । अनेक स्थान इस प्रदेश में ऐसे भी मिलते हैं, जिन के प्रति इन लोगों ने अनेक लोक-कथाएं घड़ रखी हैं, पर उन्हें झुठ भी कहा नहीं जा सकता। भूत-प्रेत आदि के बारे में भी इन लोगों को बड़ा विश्वास है। कड़ा परिश्रम करने के पश्चात ही इन्हें रोटी मिल पाती है। इससे प्रधिक इन्हें इतना भी समय नहीं मिल पाता कि दो घड़ी चेन से बैठ सकें। कितना निराश जीवन है इन लोगों का, परन्तु फिर भी ये लोग अपना काम करते हैं, और हिम्मत नहीं हारते। यहां तक कि बहुत से लोग तो ऐसे भी दिखाई पड़ते हैं जो आठ आठ, दस दस, मील दूर जंगलों से चारा तथा लकड़ियां आदि काट कर नगरों में लाकर बेचते हैं, तभी उन्हें पेट भरने के लिये कुछ मिल पाता है।
इन खासी समुदाय के यहां जब किसी बालक का जन्म होता है; तो उसके जन्म के समय खूब आनन्द मनाया जाता है, मदिरा तथा नाच-गाने की महफ़िले गर्म होती हैं। और फिर बच्चों के नाम रखने की विधि भी बड़ी विचित्र है। भारत के अन्य हिन्दुओं की भांति इन में ज्योतिषियों तथा पण्डितों से बच्चे का नाम ग्रहों के आधार पर नहीं रखवाया जाता, अपितु उसे रखने की रीति बिल्कुल भिन्न तथा बड़ी रोचक है। जिस दिन बच्चा बैदा हो उससे अगले ही दिन, उसका नाम रखने के लिये संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं। यह इस प्रकार हैं, कि घर के आंगन को लिपाई द्वारा पवित्र कर के बीच में पुत्र के पिता या अन्य किसी परिवार के वृद्ध व्यक्ति को बिठा दिया जाता है। जिसके पास संस्कार विधि सम्पन्न करने के लिये सभी आवश्यक वस्तुएं चावल का आटा तथा तीन अथवा पांच रुक्ष
मछलियां रख दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त किसी स्वच्छ पात्र में शराब भी भर कर रख दी जाती है. यदि शिशु पुरुष-वर्ग से सम्बन्धित हैं, तब तो एक धनुष बाण भी पास रख दिया जाता है, और यदि कन्या हो, तो बोझा ढोने की रस्सी।
इस अवसर पर गांव के सभी प्रेमीजनों को बुलावा देकर एकत्रित किया जाता है। जब यह सब कुछ हो जाता है, तो आंगन के बीच बैठा हुआ व्यक्ति शराब से भरा हुआ पात्र लिये खड़ा हो जाता है। और ईश्वर का नाम लेकर उस पात्र से एक एक बूंद नीचे धरती पर टपकाना प्रारम्भ करता है। सभी एकत्रित जन प्रत्येक बूंद के साथ एक एक नाम बारी बारी लेते चलते हैं, जिस नाम के साथ शराब के पात्र की सब से अन्तिम बूंद धरती पर गिर जाती है और मदिरा पात्र बिल्कुल रिक्त हो जाता है। बस वही नाम शिशु का रख दिया जाता है।
जन्म मरण के सभी संस्कार इन लोगों के कितने विचित्र होते हैं। हम से कितने भिन्न, एक देश तथा एक धर्म के अनुयायी होने पर भी हमारे समाज में परस्सर कितना महान अन्तर है। खासी लोग हमारे अपने धर्म के भाई होकर भी हमें कितने विचित्र प्रतीत होते हैं। इनके रीति रिवाज, रहन-सहन खान-पान, यहां तक कि मात्र शरीर को छोड़ कर शेष सम्पूर्ण आचरण हमें अपने से बिल्कुल पृथक से प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त यह लोग अपने मुर्दों को जलाते तो हैं, परन्तु इसके पश्चात उनकी हड्डियों को किसी पवित्र स्थान में दबा कर उसके ऊपर समाधियां बनाने का रिवाज भी इन लोगों में पाया जाता है। बहुत सी समाधियां तो इतनी विशाल होती हैं कि उन्हें देख कर आश्चर्य होता है, कि ये इन लोगों ने किस प्रकार बनाई होंगी। वास्तव में यह पत्थर के बड़े ऊंचे ऊंचे स्तम्भ होते हैं। वैसे इन में कला आदि का कोई विशेष काम नहीं होता, परन्तु इनकी बनावट ही ऐसी होती है, जिसे देख कर बुद्धि
चकित हुए बिना नहीं रहती। अब सरकारी सहायता से इन्हें शिक्षित करने की चेष्टा की जा रही है। आशा है, कि सुशिक्षित हो कर ये लोग अवश्य ही अपने आप को पहचानने की चेष्टा करेंगे। और सच्चे नागरिक बन कर अपने देश भारत, अपने धर्म तथा अपने समाज का उत्थान कर विशाल भारत का भविष्य उज्जवल करेंगे।
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