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केरल के त्योहार

केरल के त्योहार – केरल के फेस्टिवल त्यौहार उत्सव और मेलें

किसी छोटे या बड़े प्रदेश के त्योहार वहां के अलिखित प्राचीन इतिहास की विगत घटनाओं के परम्परा से प्रचलित एवं क्रियाशील जीते-जागते स्मृति-चिहन या प्रमाण हैं। प्रत्येक प्रदेश या गांव के ऐसे कई स्थानीय तथा प्रदेशीय त्योहार अवश्य होते हैं, जिनको मनाने में वहां की प्रजा इस नवीन युग में भी बड़ा उत्साह प्रकट करती है। उन मुख्य-मुख्य त्योहारों का विशेष अध्ययन करने से हम उस प्रदेश की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के विकास का बहुत कुछ परिचय पा सकेंगे। प्रायः सभी त्योहारों के विषय में कई मनोरंजक कहानियां भी मिलती हैं। केरल के लोग जन्माष्टमी (श्रीकृष्ण जयन्ती), विजय दशमी (दशहरा), दीपावली आदि पौराणिक एवं अखिलभारतीय त्योहारों के अलावा कुछ खास प्रकार के स्थानीय त्योहार भी मनाते हैं। अतः यहां सिर्फ कुछ ऐसे मुख्य प्रदेशीय त्योहारों का संक्षेप में परिचय देना मात्र पर्याप्त होता है। उनमें सबसे प्रधान ”ओणम ” “ तिरुवातिरा ” ओर “विशु ” है।

केरल के प्रमुख त्योहार – केरल के प्रसिद्ध फेस्टिवल

केरल का प्रमुख त्योहार ओणम

केरल के प्रादेशिक त्योहारों में सबसे मुख्य “ओणम ” त्योहार है। यह त्योहार प्रायः प्रतिवर्ष सितंबर मास के दूसरे या तीसरे सप्ताह में शुक्ल पक्ष के श्रवण (तिरुवोणम्‌) नक्षत्र के दिन पड़ता है। कभी कभी उसी दिन पूर्णिमा का शुभ दिन भी होता है। हर साल शरद ऋतु के धवल मेघों के बीच हीरे की भाँति चमकने वाले सूरज की स्वर्ण किरणों से आलोकित दिनों तथा पूणिमा के चांद की स्तनिग्ध शीतल चांदनी में डूबी रातों की सुन्दरता से प्रभावित होकर यहां के लोग जाति-भेद की परवाह किये बिना “ओणम ” का त्योहार मनाने में पूरी तरह से तत्पर दिखाई देते हैं। पुराने समय के केरल की संपन्न एवं सुखपूर्ण परिस्थितियों का परिचय देने वाले प्राचीन त्योहार के रूप में ओणम को लोग पूरे वैभव के साथ मनाना आज भी आवश्यक समझते हैं।

केरल के त्योहार
केरल के त्योहार

इस त्योहार के विषय में कई दन्तकथाएं प्रचलित हैं, जिनमें एक का यहां संक्षेप में परिचय देता अनुचित न होगा। कहा जाता है कि पुराने समय में दानव राजा “महाबलि” सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर उस पर स्वयं शासन करते थे। उन दिनों स्वर्ग के देव पराजित हुए और सभी लोग उनकी अवहेलना करने लगे। महाबलि के सुखप्रद सुशासन से संतुष्ट होकर प्रजा देवों को भूलने और दानवों की महीमा गाने लगी। इससे दुखी होकर देवों ने भगवान विष्णु से पूर्ववत उनकी प्रतिष्ठा को बचायें रखने की प्रार्थना की। इस पर भगवान ने “वामन ” का अवतार लिया और महाबलि को धोखा देकर सारी पृथ्वी उनसे दान में पायी। आखिर महाबलि के पास पृथ्वी में कहीं अपनी कोई जगह न बची। इसलिए उन्हें पाताल में जाकर रहना पड़ा। भगवान वामन ने उन्हें साल में एक बार पाताल
से भूमि पर आकर यहां के लोगों की स्थिति देख जानें की अनुमति प्रदान की थी। मानता जाता है कि उसके अनुसार महाबलि “ओणम” के दिन केरल आते हैं और अपने इस पुराने देश की प्रजा के सुखपुर्ण जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव पाकर प्रसन्न हो वापस चले जाते हैं। इसी कारण से यहां के लोग अपने पुराने प्रजावत्सल सम्राट महाबलि के स्वागत-सत्कार के रूप में ओणम त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। वे अपने पुराने महान शासक को यह समझाना चाहते हैं कि यहां प्रजा पूर्ववत सुखी और संतुष्ट हैं। यहां के लोगों का विश्वास है कि महाबलि के पधारते समय उनके सामने अपने जीवन में सुख का अभाव और दुःख का अनुभव दिखाना अनुचित होगा, क्योंकि उनके प्रिय राजा यहां से पाताल लौटकर यहां के लोगों की चिन्ता में सदैव व्याकुल रहेंगे। इसलिए, लोगों में यह कहावत प्रचलित है कि “काणम्‌ विट्टुम् ओणम्‌ उण्णणम्” यानी जमीन बेचकर भी ओणम के दिन पेट भर खाना चाहिए।

ओणम के विषय में यह भी कहा जाता है कि इस त्योहार का आरंभ वामनावतार से हुआ है ओर लोग भगवान वामन के स्मरण में ही यह त्योहार मनाया करते हैं। उस दिन प्रत्येक घर मे ओणत्तप्पन या तुक्काक्करप्पन के नाम से वामन की पूजा-अर्चना की जाती है। ओणम आनन्द और उत्साह का वैभव पूर्ण त्योहार है। यह त्योहार वास्तव में ओणम के दस दिन पहले से ही मनाया जाता है। ओणम की खुशियां सचमुच अत्तम (अस्था) नक्षत्र के दिन से प्रारंभ होती है। प्रायः सभी मलयाली घरों के लड़के व लड़कियां हिल मिलकर उस दिन से खुशी मनाते हुए बाग-बगीचों तथा झाड़ी-पहाड़ियों में घूम-फिरकर कई प्रकार के रंग-बिरंगे फूल तोड़ लाते हैं। फिर सबेरे वे अपने घर के आंगन को गोबर से लीप कर उन फूलों को सजाते हैं। घर के दरवाज़े के आगे के आंगन में उन रंग-बिरंगे फूलों की कई वृत्ताकार पंक्तियों की व्यवस्था ऐसी सुहावनी लगती है मानो शरद की उजली चांदनी में खिलते हुए उपवन की बिखरी हुई समूची हंसी को वहां एकत्र किया गया हो। दस दिनों तक यों फूलों से आंगन सजाने का खेल खेलने के बाद तिरुवोणम्‌ के दिन भोर होते ही मिट॒टी की बनी भगवान वामन की मूतियां जिन को तुक्काक्करप्पन कहते हैं, आंगन में फूलों की वृत्ताकर रेखाओं के बीच प्रतिष्ठित करते हैं। “आरप्पु ” की मंगल ध्वनि के साथ उन मूर्तियों का स्वागत किया जाता है, ओर मिठाइयों और फलों का नेवेद्य चढ़ाकर पूजा की जाती है। (आरप्पु उस ऊंची हर्ष- ध्वनि को कहते हैं जो पुरुष अपने मुंह से एक साथ मिलकर निकालते हैं ।) ओणम के दिन से चार दिन तक “ तुक्काक्करप्पन’ की पूजा होती है। इस त्योहार में धार्मिक अनुष्ठान का यही मुख्य रूप है। इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करते समय घर के सभी लोग नहा-धोकर नये कपड़े पहनते हैं और हाथ जोड़े खड़े रहते हैं।

ओणम फेस्टिवल के सुंदर दृश्य
ओणम फेस्टिवल के सुंदर दृश्य

भक्त के बाद भुक्ति का कार्यक्रम है। अतः ओणम के दिन घर के सभी लोगों को बड़ा भारी भोज दिया जाता है। केरल के घरों में ओणम के दिन का भोज ही सबसे बढ़िया होता है, जिसमें भात के साथ तमाम प्रकार के व्यंजन, अचार उपदंश (चाट), पापड़, फल, प्रथमन, खीर, पक्के केले के पकाये हुए. टुकड़े (पल्ठन्तुरुवकु) आदि का होना अनिवार्य माना जाता है। उस दिन शायद ही किसी घर में लोग मांस या मछली खाते हैं। राजा से लेकर रंक तक सभी श्रेणी के लोग ओणम के दिन अपने यहां किसी न किसी तरह एक विशेष भोज का प्रबन्ध अवश्य करते हैं। अतः: उस दिन कोई किसी दूसरे के यहां जाकर भोजन करना नहीं चाहता और अपने यहां बढ़िया भोजन बनाये बिना भी नहीं रहता।

वास्तव में ओणम त्योहार केरल की अच्छी फसल के काटने की खुशी का त्योहार कहा जा सकता है। यह उसी समय मनाया जाता है जब कि आषाढ़ के अन्त तक की मूसलाधार वर्षा के बाद केरल की शस्य-श्यामला धरणी शरद ऋतु की उजली धूप में हंसने लगती है ओर अनाज एवं फलों से तथा शाक तरकारियों से भरी गोद में अपनी प्रिय मानव संतानों की स्नेंह-शुश्रुषा करने लगती है।

ओणम एक ऐसा त्योहार है जिसमें केरल के प्राचीन तथा आधुनिक काल के पारिवारिक ओर सामाजिक जीवन के आधार भूत स्नेह तथा सोहार्द की खूब अभिव्यक्तित होती है। परिवार के प्रायः सभी प्रवासी ओणम के दिन, जहां तक हो सके, अपने घर अवश्य एकत्रित होते हैं। साल भर वे भले ही दूर रहें, तो भी ओणम के दिन अपने घर आना अनिवार्य समझते हैं। अगर कोई घर नहीं आ पाता तो वह एक प्रकार से अपराधी माना जाता है। उस दिन घर के बड़े-बुढ़े “कारणवर या “ मामाजी ” आजकल पिता या बड़े भाई भी, अपने भानजे-बेटों तथा भानजी-बेटियों को “ओणप्पुटवा ” (ओणम के दिन उपहार में दिये जाने वाले कपड़े) देते हैं। नौकर-चाकर तथा अन्य आश्रित लोगों को भी ओणप्पुटवा देना अनिवार्य माना जाता है। “कुटियान ” (आसामी ) अपने जमींदार के लिए “ओणक्काष्च्चा ” (केले, कददू, जिमीकंद, ककड़ी आदि फल-तरकारियों की भेंट) देते हैं। उसके उपलक्ष्य में उनको ओणम के बाद के तीन दिनों में किसी एक दिन बढ़िया भोज और “ओणप्पुटवा ‘ देना जमींदार का भी कर्तव्य माना जाता हैं। इस प्रकार “ओणक्काष्च्चा” ओर ओणप्पुटवा ” की यह प्रथा यहां के लोगों के पारस्परिक सहयोग और सौहार्द का परिचय देती है।

ओणम के दस-पन्द्रह दिनों में लोग अनेक प्रकार के खेल खेला करते हैं। प्रायः उन दिनों स्कूल-दफ्तर बंद रहते हैं ओर खेलने के लिए सबको लंबी छुट्टी मिलती है। ओणम के खेलों में गेंद का खेल सबसे मुख्य है। केरल में एक खास प्रकार का गेंद-खेल प्रचलित है जिसे “ताटन पन्तुकलि ” (देशीय गेंद-खेल) कहते हैं। यही खेल ओणम के दिनों में अधिक खेला जाता है। इसके अलावा ” किलितटटु ” “ कोन्तिकल्लि आदि अनेक प्रकार के खेल भी लोग खेलते हैं। घरेलू खेलों में ताश, शतरंज, जुआ, पललान्कुषि, कललुकलि आदि मुख्य हैं। इनमें झूले डालकर मधुर गीतों के साथ झूमते रहने की एक मज़ेदार क्रीडा ‘ऊज्ञालाट्टम ‘ का भी प्रचार कहीं कहीं है।

ओणम के दिनों में प्रायः लड़कियां और यूवतियां दोपहर के समय तथा रात में मिल-जुलकर गाती-नाचती हुई “कैकोट्टिक्कलिपाट्टु नामक एक संगीतात्मक नृत्य करती हैं। इस नृत्य में गाये जाने वाले गीतों के ताल के अनुसार हाथ की ताली ओर पेरों का ताल देती हुई स्त्रियां वृत्ताकार में घेरा बनाये नाचा करती हैं। पहले एक स्त्री गीत का थोड़ा अंश गाती हैं। फिर सब स्त्रियां उसको दोहराती हुई एक साथ गाती हैं।

नदी या झील के किनारों पर रहने वाले लोग ओणम के दिन “वंचिक्कलि ” (नोका-विहार) करते हैं। “ वंचिक्कतलि्ल
‘ऊज्ञजालाट्टम” और “ कैकोटिटक्कल्लि ” के उपयुक्त अच्छे-
अच्छे गीत-काव्य मलयालम साहित्य में यथेष्ट मिलते हैं। इनके अलावा ओणम के महत्व को प्रकट करने वाले पुरानें गीत भी काफी मोजूद हैं जिनको ओणप्पाट्टु ” कहते हैं। “वंचिप्पाट्टु ‘कैकोट्टिप्पाट्टु , ‘ऊज्ञालप्पाटटु’ और ‘ओणप्पाटटु! मलयालम के लोकगीतों के चार मुख्य भेद हैं। ओणम से ‘ओणप्पाटटु ‘ का विशेष संबन्ध माना जाता है। उन गीतों में महाबलि के राज्य की तारीफ यों की गयी है–

मावेली नाटु वाणीटुम कालम
मानषरेल्लारूमोन्नुपोले,
कल्लवुमिल्ला चतियुमिल्ला,
ऐललोलमिल्ला पोलि वचनम्‌

भावार्थ–जब मावेली (महाबलि) राज करते थे, तब सब मनुष्य समान थे। चोरी-छल नहीं होता था और तिल भर भी झूठा वचन नहीं बोला जाता था।

आज हम भी ऐसे ही सुराज्य या सुख-राज्य के आदर्श को सामने रखकर अपने समाजवादी ढांचे के स्वराज्य का निर्माण करने जा रहे हैं जहां–

“मानुषरेल्लारुमोन्नुपोले
बालमरणडडकिल्लतानुम्‌
नेल्लिनु नुरू वित्ळुवुमुण्टे
नललवरल्लातेयिल्लपारिल ”

यानी सब मनष्य समान सुखी हैं, बालमरण कहीं नहीं होता है।
धान की सौगुनी फसल मिलती है और हर कहीं अच्छे आदमी
ही नज़र आते हैं।

सचमुच ओणम मलयालियों की खुशी और वैभव का त्योहार हैं जिसे आजकल केरल में ही नहीं, बल्कि जहां कहीं मलयाली लोग रहते हैं, वहां बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। बम्बई, मद्रास, कलकत्ता, दिल्‍ली, सिंगापुर, लन्दन, न्यूयार्क जैसे शहरों में रहने वाले मलयाली लोग भी वहां ओणम के दिन एकत्र होकर इस त्योहार को मनाने का यथासंभव प्रबन्ध करते हैं। इस वक्त ओणम किसी जाति या धर्म के लोगों का त्योहार नहीं है, मगर एक केरलीय या मलयाली त्योहार के रूप में उसका पूर्वाधिक एवं विश्वव्यापक महत्व होने लगा है।

तिरुवातिरा फेस्टिवल

केरल का दूसरा मुख्य त्योहार तिरुवातिरा है। यह दिसम्बर महीने के शुक्ल-पक्ष में पूर्णिमा के दिन (क्रिसमस के करीब) आर्द्रा नक्षत्र पर पड़ता है। कहा जाता है कि पौषमास के आर्द्रा नक्षत्र के दिन देवी पार्वती की कठोर तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शिवजी ने अपना नया जन्म लिया ओर उन्हें दर्शन देकर पूर्ववत अपनी अर्धांगिनी बनाया। इसलिए अचल सौभाग्य के लिए केरल की स्त्रियां भी तिरुवातिरा का धार्मिक त्योहार मनाती हैं। वास्तव में यह देवियों का ही त्योहार है जिसमें कुमारी ओर सुहागिनी स्त्रियों का स्थान विशेष रूप से प्रधान है।

देवियां तिस्वातिरा (आर्द्रा या आतिरा) के दस दिन पहले से व्रतनिष्ठ होकर त्योहार मनाती हैं। उन दिनों वे अपने हाथों में मेहंदी लगाती हैं। ब्राह्मम मुहूर्त में उठकर तालाब या नदी के पानी में डबकियां लगाकर स्नान करती हैं। स्नान के वक्‍त कई स्त्रियां मिलकर जोर से गाने लगती हैं और हाथों से पानी को उछालती हुई स्नान करती हैं। तुटियुम कुलियूम (पानी उछालना ओर स्नान करना) तिरुवातिरा के व्रत का अनिवार्य अंग है। फिर माथे पर हल्दी, कुंकुम, चंदन आदि के विविध मांगलिक तिलक लगाती हैं और दूर्वा, मुक्कूटिट आदि दस प्रकार की घासों का गुच्छा “दशपुष्प केशों में धारण करती हैं। ये “ दशपुष्प ” केरल में बहुत ही मांगलिक माने जाते हैं ओर प्रत्येक शुभ अवसर पर धारण किये जाते हैं।

तिरूवातिरा नृत्य फेस्टिवल के सुंदर दृश्य
तिरूवातिरा नृत्य फेस्टिवल के सुंदर दृश्य

आतिरा के दिन शिव-पार्वती के मंदिर जाकर दर्शन करना भी (आर्द्रादर्शन) आवश्यक माना जाता है। स्त्रियां आतिरा की पिछली रात भर गाती-नाचती हुई (कैकोटिटकळि) रतजगा करती हैं ओर उस दिन आधी रात के वक़्त एक खास पौधे का फूल जिसे “पातिराप्पुवु’ या ” निशीथ कुसुम ” कहते हैं, सिर पर धारण करती हैं। प्रत्येक स्त्री को उस दिन एक सौ एक (101) पान खा लेने का नियम पालन करना पड़ता है। झूले पर झूलना भी “आतिरा ” के अनुष्ठानों में मुख्य माना जाता है। इसलिए तिरुवातिरा के कई दिन पहले से ही प्रत्येक घर के आंगन में तीन-चार झूले पड़ें नज़र जाते है। लड़कियां झूले पर झूलती हुईं विविध प्रकार के मधुर गीत गाती हैं। ये झूला गान (ऊंञ्ञापाट्टु) भी केरलीय लोकगीतों में शामिल हैं। आर्द्रा के त्योहार में देवियां भात के बदले ज़्यादा कन्दमूल और फल मात्र खाकर व्रत रखती हैं। कहा जाता है कि देवी पार्वती ने अपनी तपस्या से शिवजी को पति रूप में पाकर आर्द्रा की पिछली रात को उनके साथ जंगल में विविध- क्रीड़ाएं की थीं। उन्होंने चन्द्रिका-स्नात वन-वीधियों में अपने पति के संग घूमते हुए जंगली फूलों से अपने केशों को सजाया था, पान के पत्ते तोड़कर चबाये थे ओर झूले पर झूल कर विवाह किया था। उस दिन उन्होंने केवल कंद-मूल ही खाये थे। पार्वती के इस व्रत-विहार के अनुकरण पर “तिरुवातिरा” के व्रत का यह खास ढंग प्रचलित हुआ है।

तिरूवातिरा के दस दिन पहले से हर रोज़ संध्या से काफ़ी रात चढ़ने तक स्त्रियां “तिरूवातिरा कळि ” (कैकोटटिकळि भी कहते हैं) का संगीतात्मक नृत्य करती हैं। इसका नाम तिरूवातिरा कळि इसलिए पड़ा कि यह विशेष रूप से इन्हीं दिनों खेलने के लिए रचा गया संगीत ओर नृत्य है। तिरुवातिरा के दिनों संध्या के समय प्रत्येक घर से निकलने वाले “ वाक्किला ओर “तिस्वातिशाप्पाट्टु (गीत) विदेशी यात्रियों को भी इसकी सूचना देते हैं कि तिरुवातिरा का त्योहार आ गया है। “वाक्किला’ उस ऊंची आवाज़ को कहते हैं जो केरलीय’ स्त्रियां अपने मूंह से निकालती हैं। पुरुषों के ‘आरप्पु” की तरह स्त्रियों की ‘ वाक्किला ‘ भी एक मंगल ध्वनि हैं। केरल में शादी, पुत्र-जन्म आदि सभी शुभ अवसरों पर प्रत्येक घर से “आरप्पु’. और ‘वाक्किला” या ‘कुरवा’ की विचित्र गूंज सुन पड़ती है। यह केरल की एक साधारण मंगलमय प्रथा है।

तिरूवातिरा कलापूर्ण और धार्मिक त्योहारों में गिना जाता है। इस अवसर पर लड़की-युवतियों की नृत्य-कला ओर गान-कला का प्रदर्शन होता है। इस त्योहार पर स्त्रियों का एकाधिपत्य है। इसमें पुरुषों का कर्तव्य इतना ही है कि वे स्त्रियों के व्रत के लिए आवश्यक कंद-मूल और फल-तरकारियां जुटा दें। केरल की पुरानी कुटुम्बिक प्रथा में यह विचित्र नियम पाया जाता हैं कि साल भर अपनी पत्नी-संतानों को खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी से मुक्त रहने वाले पति से यह मांग की जाती हैं कि वह तिरुवातिरा के नोयम्बु (व्रत) के लिए ज़रूरी सामग्रियां अपनी पत्नी और बेटियों को खरीद कर ला दे। जो पति इस एकमात्र कर्तव्य से भी मूंह मोड़ लेता था, वह बड़ा ही कापुरष और निकम्मा माना जाता था।

ओणम्‌ की तरह तिरूवातिरा के विषय में भी कई लोक-गीत प्रचलित हैं। उनमें से एक प्रसिद्ध गीत का नमूना आगे दिया जाता है। यह गीत स्त्रियां सबेरे स्नान करते समय गाया करती हैं।

धनुमासत्तिले तिरूवातिरा
भगवान्टे तिरुनाळल्लो
उण्णरुते उरडडरुते
आटणमपोल पाठणमपोल्‌
तुटिक्कणमपोल कुळिक्कणमपोल।

अर्थात्‌ पौष मास की तिरुवातिरा भगवान का जन्मदिन हैं ओर भगवती का महाव्रत है। इसलिये अन्न मत खाओ ओर सोओ मत नाचो, गाओ, पानी उछालो और डुबकियां लगाओ।

केरल का मुख्य त्योहार विशु पर्व

केरल के प्रसिद्ध त्योहारों में विशु का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। मलयालम महीनों में ‘मेटम ‘ (चेत्र) की पहली तारीख (अप्रैल 14 या 15) को केरल के लोग विशु पर्व मनाते हैं। यह एक प्रकार से बच्चों का त्योहार भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें बच्चों की तरफ़ ज़्यादा ध्यान दिया जाता है। विशु के दिन सवेरे आंख खोलते ही सब लोग पहले-पहल “कणि ” के दर्शन करते हैं। कणि एक घरेलू प्रदर्शनी के समान है जिसमें कटहल, ककड़ी, आम, नारियल आदि फल-तरकारियां चावल के साथ सजाकर रखी जाती है। सोने- चांदी के गहने ओर भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि के पौराणिक चित्र भी रखे जाते हैं। कणिकार (कनकचंपा) के छोटे पीले पीले गुच्छे भी उनके बीच में सजाये जाते हैं। फिर उनके आगे घी के दीपक के साथ नारियल के दो वृत्ताकार टुकड़ों में तेल डालकर दिये जलाये जाते हैं। इन सब मंगल द्रव्यों के समूह से जो प्रदर्शनी-सी बनती है उसी को “ विशु कणि ” कहते हैं।

ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार वर्षारंभ के दिन को भी “विशु है। कहते है कि उस दिन पहले-पहल मंगल पदार्थो के दर्शन करने से साल भर खुशहाली बनी रहती है। विशु-कणि इतना मुख्य हैं कि कई लोग कणि के लिये गुरुवायूर, वेकम आदि प्रसिद्ध मंदिरों में जाकर रात को सोते हैं और सबेरे आंखें बंद किये ही देव के सामने टटोलते हुए या किसी दूसरे के सहारे पहुंचकर अपने नेत्र खोलते हैं। उसी देव-दर्शन को अत्युत्तम विशु-कणि मानकर वे अत्यन्त कृतार्थ होते हैं।

विशु पटक्कम्‌ यानी विशु के पटाके बहुत ही मशहूर हैं। लड़के सबेरे तीन या साढ़े तीन बजे ही उठकर कणिके दर्शन करते हैं ओर पटाके जलाने लगते हैं। जैसे तिरुवातिरा के दिन वाक्किला की ध्वनि हर घर गूंज उठती है, वैसे ही विशुके सबेरे पटाखो की तीव्र ध्वनि कानों के पर्दे फाड़ डालते हैं। पटक्कम् के बिना बालकों को विशु बिलकुल फीका लगता है। इसलिए वे पटाखे खरीदने के लिए कई दिन पहले ही मां-बाप से झगड़कर पैसे लेते हैं।

विशु पर्व के सुंदर दृश्य
विशु पर्व के सुंदर दृश्य

विशु पर्व के दिन हर घर में विशेष भोज हुआ करता है। घर के बड़े लोग लड़के-लड़कियों तथा नोकर-चाकरों को कुछ पैसे उपहार में देते हैं। इस पुरस्कार को “ विशुक्कैनीट्टम कहते हैं। ओणप्पुटवा की तरह विशुक्कैनीट्टम्‌ की प्रथा भी केरल में हर कहीं प्रचलित है। केरल के पुराने राजा ओर सामंत लोग ओणम और विशु त्योहार के दिन अपने राज्य भर के तमाम अफसरों ओर कर्मचारियों को बुलाकर ओणप्पुटवा और विशुक्कैनीट्टम्‌ दिया करते थे। राजा-प्रजा और स्वामी-सेवक के संतुलन को निभाने वाली ये दोनों प्रथाएं केरल के ऐसे प्रमुख त्योहारों की विशेषताएं हैं।

प्रत्येक प्रदेश में समय-समय पर जो त्योहार मनाये जाते हैं, वे वास्तव में उस प्रदेश के लोगों के दैनिक जीवन की समरसता
और एकरूपता में एक अपूर्व मधुरता मिला देते हैं। केरल के
ओणम, विशु, तिरूवातिरा भी ऐसे ही आनन्द वर्धक त्योहार हैं। साल भर के बारह महीनों के बीच में बारी-बारी से आकर ये त्योहार जन-साधारण के जीवन के आनन्द-स्रोत को भरपूर और गतिशील बनाये रखते हैं।

त्रिशूर त्योहार केरल का प्रसिद्ध महोत्सव

केरल में हर साल श्रावण महीने से उत्सव और मेलों के त्योहार मंदिरों में आरंभ होते हैं। प्रत्येक मंदिर में उत्सव एक नियत महीने की निश्चित तारीख से शुरू होता हैं और आठ, दस या बारह दिन तक जारी रहता है। इसमें त्रिशूर में होने वाला त्रिशूरपुरम महोत्सव अत्यधिक प्रसिद्ध है। इन महोत्सव में शुरू के दिन ध्वजा फहरायी जाती है। दूसरी विशेषता यह है कि उत्सव के अवसर पर दैनिक शीवेलि कार्यक्रम बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। उन दिनों शीवेली के समय दस-पन्द्रह बड़े-बड़े हाथियों को तलेक्केट्टु या “नेटिटप्पट्टमू ” नामक सुनहले शिरोभूषण से सजाया जाता है। उसमें सबसे ऊंचे हाथी को बीच में खड़ा कर देते हैं। उसके सिर पर भगवान की सजी हुई मूर्ति जिसे कोलम कहते हैं, रखी जाती है, जिसको पुजारी पकड़े बेठता है। उस हाथी की पीठ पर कुल चार आदमी बेठते हैं। सबसे पहले मंदिर का पुजारी ‘कोलम” को पकड़कर बैठता है तो उसके पीछे दूसरा आदमी एक बड़ा रेशमी छत्र ताने रहता है। अन्य दो व्यक्ति उसके पीछे खड़े-खड़े दोनों हाथों चाँवर और आलवट्टम्‌ (मोर-पंखों के बने वृत्ताकार पंखे) हिलाते रहते हैं। उस हाथी के दोनों तरफ़ बाकी हाथियों को भी खड़ा कर देते हैं। इन हाथियों के जुलूस के सामने बाज बजाने वाले लोग खड़े-खड़े चेण्टा, मद्दलम्‌, कोम्पु, कुळम आदि विविध प्रकार के केरलीय बाजे बजाते हैं। “नादस्वरम, तकिल वगेरह तमिल देश के बाजों का भी प्रबन्ध किया जाता है। यह जुलूस धीरे- धीरे तीन बार मंदिर की परिक्रमा करता है। रात के समय जुलूस के आगे अनेक बत्तियों वाली ऊंची मशालों को लिये तीन-चार पंक्तियों में लोग चलते हैं। मशालों की लाल-लाल रोशनी में हाथियों के सुनहले शिरोभूषण की चमक-दमक देखते ही बनती है।

कुछ सालों के पहले तक उत्सव के दिनों में प्रायः मंदिरों से ब्राह्मण भोज भी दिया जाता था, जिसके लिए कई ब्राह्मण अवश्य वहां एकत्र हुआ करते थे। लेकिन आजकल यह प्रथा बिलकुल बंद हो गयी है। उत्सव के दिनों में मनोरंजन के लिए ‘ओटटमतुल्लल , कुरत्तिप्पाटुट, पाठकम्‌, चाक्यारकत्तु, कथकली, वगैरह केरलीय कलात्मक कार्यक्रम भी चलते हैं। आराटटु नामक रस्म अदा की जाती है। आराट्टु के दिन भगवान्‌ की मूर्ति को हाथी पर चढ़ाकर जुलूस में ले जाते हैं ओर तालाब या नदी में स्नान कराते हैं। इसी स्नान पर्व को आराटटु कहते हैं। इस अवसर पर असंख्य भक्तजन
भगवान्‌ की मूर्ति के साथ स्थानीय नदी था तालाब में स्नान करते हैं। स्नान के बाद फिर जुलूस निकाला जाता है और तब कई पटाखे और विविध प्रकार की आतिश-बाजियां जलायी जाती हैं।

कई मंदिरों में एक दूसरे प्रकार का उत्सव भी मनाया जाता है जिसे “परयुत्सव” कहते हैं। ऐसे उत्सव में कुछ निश्चित दिनों में भगवान की मूर्ति को हाथी पर रखकर मंदिर के बाहर गांव भर में जुलूस निकाला जाता है। बाजे बजाते हुए जुलूस को प्रत्येक घर ले जाते हैं। लोग हाथ जोड़े उसका स्वागत करते हैं ओर धान, चावल, गुड़, हल्दी वगैरह चढ़ाकर अपनी भक्ति प्रकट करते हैं। ये चीजें ‘परा’ नाम के खास परिमाण के पात्र में भरकर भगवान्‌ की मूर्ति के सामने समर्पित की जाती हैं। अतः परा में भरकर समर्पण करने की इस प्रथा को परवैप्पु और इस उत्सव को “परयुत्सव कहते हैं। परयुत्सव भी आठ या दस दिन तक जारी रहता हैं ओर अंतिम दिन में “आराटट् भी होता है। कहीं-कहीं दोनों प्रकार के उत्सव एक साथ भी मनाये जाते हैं। उत्सव के अवसर पर कुछ मन्दिरों में हाथी के बदले पालकी, रथ, या कांठ के बने वाहन आदि पर भी भगवान की मूर्ति सजाये ले जाने का विधान रहता है।

पूरम् उत्सव मेला

कुछ मंदिरों में साधारण उत्सव के अलावा एक दूसरे प्रकार का मेला भी मनाया जाता है जिसको पूरम कहते हैं। यह चेत्र या बैशाख मास के पूर्वाफाल्गुनी (पूरम्‌) नक्षत्र के दिन मनाते हैं। इसीलिए इसका नाम पुरम्‌ पड़ा है। यह मेला केवल एक दिन का उत्सव है। लेकिन लोग इसे बड़ी धूम-धाम के साथ मनाते हैं। प्रायः शिव या देवी के मंदिरों में पूरम् त्योहार मनाया जाता है। पूरम् के दिन मुख्य मंदिर के आसपास के छोटे-बड़े जितने मंदिर होते हैं वहां की मूर्तियों को अलग-अलग हाथी की पीठ पर चढ़ाकर उसकी दोनों तरफ़ चार-चार या पांच-पांच हाथी खड़े कर देते हैं ओर बाजें-बजाते हुए जलूस निकालते हैं। ऐसे जलूसों की संख्या उन देवताओं की मूर्तियों के बराबर होती है। अतः पूरम् के हाथियों की संख्या कभी सत्तर या सौ तक हो जाती है। पूरम्‌ में हाथियों का जुलूस ही सबसे प्रधान दृश्य है। सभी हाथी विधिपूर्वक सजे- धजे नज़र आते हैं। उनकी पीठ पर तीन-तीन आदमी छत्र, चाँवर ओर आलवटटम्‌ पकड़े रहते हैं। बीच के हाथी पर मुख्य भगवान्‌ या भगवती की मूर्ति भी विराजमान नज़र आती है। ये जुलूस सड़कों पर से होते हुए पूप्परम्पु नामक विशाल मैदान में जो मंदिर के आस-पास होता है, एकत्रित होते हैं। वहां देर तक विविध प्रकार के बाजे बजाये जाते हैं ओर पटाखे ओर आातिशबाजियां जलायी जाती हैं। रात के चार बजे तक यह मेला जारी रहता है। उसमें भाग लेने के लिए लाखों की तादाद में स्त्रि-पुरुष इकटठे होते हैं।

तालप्पॉली उत्सव

दुर्गा और महाकाली के मंदिरों में एक खास प्रकार का त्योहार मनाया जाता है जिसको “तालप्पॉली कहते हैं। यह त्योहार हर साल माघ और बैशाख मास के अन्दर “भरणी नक्षत्र के जितने दिन आते हैं, उन दिनों में सुविधानुसार किसी एक दिन मनाते हैं। भरणी नक्षत्र के दिन के अलावा किसी-किसी मंदिर में अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी आदि नक्षत्रों के दिन भी तालप्पॉली का त्योहार मनाने की प्रथा पायी जाती हैं। कहीं-कहीं मंगलवार या शुक्रवार के दिन भी तालप्पॉली का प्रबन्ध किया जाता हैं। तालप्पॉली के दिन रात के वक्‍त एक सजे हुए हाथी पर देवी की मूर्ति को रख बाजे- गाजे के साथ जलूस निकालते हैं। कभी-कभी उस हाथी के दोनों तरफ़ दो-दो या तीन-तीन सजे हुए हाथी ओर भी होते हैं। उस हाथी के सामने जिस पर देवी को मूर्ति विराजमान होती है, कई सुन्दर रमणियां धुले हुए शुभ वस्त्र पहने हथेली पर पीतल की चमकती हुई वृत्ताकार थाली में घी का दीपक जलाये चलती हैं, ओर धीरे-धीरे जलूस के साथ आरती उतारती हुईं आगें-आगे बढ़ती हैं। तालप्पॉली के दिन जुलूस, पटाखे, आतिशबाजियां आदि का मनोरंजक कार्यक्रम अवश्य रहता है। इस मेले में स्त्रियों की भीड़ ज्यादा रहती है। यह मेला प्रायः सभी देवी मंदिरों में अवश्य होता है। तालप्पॉली को केरलीय संस्कृति का सुन्दरतम प्रदर्शन भी माना जाता है।

केरल के अन्य त्योहार, मेले व उत्सव

इन उत्सवों के अतिरिक्‍त जन्माष्टमी, नवरात्रि, तैप्पूयम, शिवरात्रि आदि त्योहारों के उपलक्ष्य में संबन्धित देवी-देवताओं के मंदिरों में विशेष मेले लगते हैं। सुब्रह्मण्य-मंदिरों में तैप्पूयम का त्योहार बहुत प्रधान हैं। उस दिन सवेरें ओर शाम को दूर-दूर से लोग अपने कन्धे पर कावटी लिये भक्ति के आवेश में नाचते हुए मंदिर की तरफ जाते हैं। कावटी लकड़ी की बनी धनुष-सी अर्द्धवृत्ताकार वस्तु है जिसकी डांड़ पर दूध, चीनी, गुड़, गुलाब जल, भस्म आदि के दो छोटे-छोटे कुंभ लटठकाये जाते हैं। कभी एक सौ से भी अधिक कावटी वाले एक साथ मिलकर नाचते हुए जाते हैं। उनमें से कुछ लोग अपने दोनों गालों को एक छोटे-से शूल या वेल से चुभाये दिखाई देते हैं। कावटी अभिषेक याने कावटी में लायी हुई चीजों को भगवान की मूर्ति पर चढ़ाना ही, उस दिन की मुख्य रस्म है और मंदिर में दर्शनार्थ भक्तों की भारी भीड़ लगती है। इसके अलावा सबरीमाला मंदिर का मेला भी काफी प्रसिद्ध है। केरल में मुस्लिम समुदाय और ईसाई समुदाय बहुतायत संख्या में हैं, मुस्लिम धर्म के त्योहार ईद, बकरीद, ईद मिलादुन्नबी, मोहर्रम और ईसाईयों के त्योहार क्रिसमस, ईस्टर आदि भी बड़ी धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाएं जाते हैं।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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